नागार्जुन कविताएं
नागार्जुन ने यह कविता आपातकाल के प्रतिवाद में लिखी थी।
ख़ूब तनी हो, ख़ूब अड़ी हो, ख़ूब लड़ी हो
प्रजातंत्र को कौन पूछता, तुम्हीं बड़ी हो
डर के मारे न्यायपालिका काँप गई है
वो बेचारी अगली गति-विधि भाँप गई है
देश बड़ा है, लोकतंत्र है सिक्का खोटा
तुम्हीं बड़ी हो, संविधान है तुम से छोटा
तुम से छोटा राष्ट्र हिन्द का, तुम्हीं बड़ी हो
खूब तनी हो,खूब अड़ी हो,खूब लड़ी हो
गांधी-नेहरू तुम से दोनों हुए उजागर
तुम्हें चाहते सारी दुनिया के नटनागर
रूस तुम्हें ताक़त देगा, अमरीका पैसा
तुम्हें पता है, किससे सौदा होगा कैसा
ब्रेझनेव के सिवा तुम्हारा नहीं सहारा
कौन सहेगा धौंस तुम्हारी, मान तुम्हारा
हल्दी. धनिया, मिर्च, प्याज सब तो लेती हो
याद करो औरों को तुम क्या-क्या देती हो
मौज, मज़ा, तिकड़म, खुदगर्जी, डाह, शरारत
बेईमानी, दगा, झूठ की चली तिजारत
मलका हो तुम ठगों-उचक्कों के गिरोह में
जिद्दी हो, बस, डूबी हो आकण्ठ मोह में
यह कमज़ोरी ही तुमको अब ले डूबेगी
आज नहीं तो कल सारी जनता ऊबेगी
लाभ-लोभ की पुतली हो, छलिया माई हो
मस्तानों की माँ हो, गुण्डों की धाई हो
सुदृढ़ प्रशासन का मतलब है प्रबल पिटाई
सुदृढ़ प्रशासन का मतलब है 'इन्द्रा' माई
बन्दूकें ही हुईं आज माध्यम शासन का
गोली ही पर्याय बन गई है राशन का
शिक्षा केन्द्र बनेंगे अब तो फौजी अड्डे
हुकुम चलाएँगे ताशों के तीन तिगड्डे
बेगम होगी, इर्द-गिर्द बस गूल्लू होंगे
मोर न होगा, हंस न होगा, उल्लू होंगे
मायावती मायावती
दलितेन्द्र की छायावती छायावती
जय जय हे दलितेन्द्र
प्रभु, आपकी चाल-ढाल से
दहशत में है केन्द्र
जय जय हे दलितेन्द्र
आपसे दहशत खाए केन्द्र
अगल बगल हैं पण्डित सुखराम
जिनके मुख में राम
सोने की ईंटों पर बैठे हैं
नरसिंह राव
राजा होंगे आगे चल कर
जिनके पुत्र प्रभाकर राव
मायावती मायावती
दलितेन्द्र की शिष्या
छायावती छायावती
दलितेन्द्र कांशीराम
भाषण देते धुरझाड़
सब रहते हैं दंग
बज रहे दलितों के मृदंग
जय जय हे दलितेन्द्र
आपसे दहशत खाए केन्द्र
मायावती आपकी शिष्या
करे चढ़ाई
बाबा विश्वनाथ पर
प्रभो, आपसे शंकित है केन्द्र
जय जय हे दलितेन्द्र
मायावती मायावती
गुरु गुन मायावती
मायावती मायावती
गुरु गुन मायावती
मायावती मायावती
प्रतिबद्ध हूँ
संबद्ध हूँ
आबद्ध हूँ
प्रतिबद्ध हूँ, जी हाँ, प्रतिबद्ध हूँ –
बहुजन समाज की अनुपल प्रगति के निमित्त –
संकुचित ‘स्व’ की आपाधापी के निषेधार्थ...
अविवेकी भीड़ की ‘भेड़या-धसान’ के खिलाफ़…
अंध-बधिर ‘व्यक्तियों’ को सही राह बतलाने के लिए...
अपने आप को भी ‘व्यामोह’ से बारंबार उबारने की खातिर...
प्रतिबद्ध हूँ, जी हाँ, शतधा प्रतिबद्ध हूँ!
संबद्ध हूँ, जी हाँ, संबद्ध हूँ –
सचर-अचर सृष्टि से…
शीत से, ताप से, धूप से, ओस से, हिमपात से…
राग से, द्वेष से, क्रोध से, घृणा से, हर्ष से, शोक से, उमंग से, आक्रोश से...
निश्चय-अनिश्चय से, संशय-भ्रम से, क्रम से, व्यतिक्रम से…
निष्ठा-अनिष्ठा से, आस्था-अनास्था से, संकल्प-विकल्प से…
जीवन से, मृत्यु से, नाश-निर्माण से, शाप-वरदान से...
उत्थान से, पतन से, प्रकाश से, तिमिर से...
दंभ से, मान से, अणु से, महान से…
लघु-लघुतर-लघुतम से, महा-महाविशाल से…
पल-अनुपल से, काल-महाकाल से…
पृथ्वी-पाताल से, ग्रह-उपग्रह से, निहरिका-जल से...
रिक्त से, शून्य से, व्याप्ति-अव्याप्ति-महाव्याप्ति से…
अथ से, इति से, अस्ति से, नास्ति से…
सबसे और किसी से नहीं
और जाने किस-किस से...
संबद्ध हूँं, जी हॉँ, शतदा संबद्ध हूँ।
रूप-रस-गंध और स्पर्श से, शब्द से...
नाद से, ध्वनि से, स्वर से, इंगित-आकृति से...
सच से, झूठ से, दोनों की मिलावट से...
विधि से, निषेध से, पुण्य से, पाप से...
उज्जवल से, मलिन से, लाभ से, हानि से...
गति से, अगति से, प्रगति से, दुर्गति से…
यश से, कलंक से, नाम-दुर्नाम से…
संबद्ध हूँं, जी हॉँ, शतदा संबद्ध हूँ!
आबद्ध हूँ, जी हाँ आबद्ध हूँ –
स्वजन-परिजन के प्यार की डोर में…
प्रियजन के पलकों की कोर में…
सपनीली रातों के भोर में…
बहुरूपा कल्पना रानी के आलिंगन-पाश में…
तीसरी-चौथी पीढ़ियों के दंतुरित शिशु-सुलभ हास में…
लाख-लाख मुखड़ों के तरुण हुलास में…
आबद्ध हूँ, जी हाँ शतधा आबद्ध हूँ!
प्रतिबद्ध हूँ
संबद्ध हूँ
आबद्ध हूँ
प्रतिबद्ध हूँ, जी हाँ, प्रतिबद्ध हूँ –
बहुजन समाज की अनुपल प्रगति के निमित्त –
संकुचित ‘स्व’ की आपाधापी के निषेधार्थ...
अविवेकी भीड़ की ‘भेड़या-धसान’ के खिलाफ़…
अंध-बधिर ‘व्यक्तियों’ को सही राह बतलाने के लिए...
अपने आप को भी ‘व्यामोह’ से बारंबार उबारने की खातिर...
प्रतिबद्ध हूँ, जी हाँ, शतधा प्रतिबद्ध हूँ!
संबद्ध हूँ, जी हाँ, संबद्ध हूँ –
सचर-अचर सृष्टि से…
शीत से, ताप से, धूप से, ओस से, हिमपात से…
राग से, द्वेष से, क्रोध से, घृणा से, हर्ष से, शोक से, उमंग से, आक्रोश से...
निश्चय-अनिश्चय से, संशय-भ्रम से, क्रम से, व्यतिक्रम से…
निष्ठा-अनिष्ठा से, आस्था-अनास्था से, संकल्प-विकल्प से…
जीवन से, मृत्यु से, नाश-निर्माण से, शाप-वरदान से...
उत्थान से, पतन से, प्रकाश से, तिमिर से...
दंभ से, मान से, अणु से, महान से…
लघु-लघुतर-लघुतम से, महा-महाविशाल से…
पल-अनुपल से, काल-महाकाल से…
पृथ्वी-पाताल से, ग्रह-उपग्रह से, निहरिका-जल से...
रिक्त से, शून्य से, व्याप्ति-अव्याप्ति-महाव्याप्ति से…
अथ से, इति से, अस्ति से, नास्ति से…
सबसे और किसी से नहीं
और जाने किस-किस से...
संबद्ध हूँं, जी हॉँ, शतदा संबद्ध हूँ।
रूप-रस-गंध और स्पर्श से, शब्द से...
नाद से, ध्वनि से, स्वर से, इंगित-आकृति से...
सच से, झूठ से, दोनों की मिलावट से...
विधि से, निषेध से, पुण्य से, पाप से...
उज्जवल से, मलिन से, लाभ से, हानि से...
गति से, अगति से, प्रगति से, दुर्गति से…
यश से, कलंक से, नाम-दुर्नाम से…
संबद्ध हूँं, जी हॉँ, शतदा संबद्ध हूँ!
आबद्ध हूँ, जी हाँ आबद्ध हूँ –
स्वजन-परिजन के प्यार की डोर में…
प्रियजन के पलकों की कोर में…
सपनीली रातों के भोर में…
बहुरूपा कल्पना रानी के आलिंगन-पाश में…
तीसरी-चौथी पीढ़ियों के दंतुरित शिशु-सुलभ हास में…
लाख-लाख मुखड़ों के तरुण हुलास में…
आबद्ध हूँ, जी हाँ शतधा आबद्ध हूँ!
बाल ठाकरे ! बाल ठाकरे !
कैसे फ़ासिस्टी प्रभुओं की --
गला रहा है दाल ठाकरे !
अबे सँभल जा, वो पहुँचा बाल ठाकरे !
सबने हाँ की, कौन ना करे !
छिप जा, मत तू उधर ताक रे !
शिव-सेना की वर्दी डाटे, जमा रहा लय-ताल ठाकरे !
सभी डर गए, बजा रहा है गाल ठाकरे !
गूँज रहीं सह्याद्री घाटियाँ, मचा रहा भूचाल ठाकरे !
मन ही मन कहते राजा जी, जिये भला सौ साल ठाकरे !
चुप है कवि, डरता है शायद, खींच नहीं ले खाल ठाकरे !
कौन नहीं फँसता है देखें, बिछा चुका है जाल ठाकरे !
बाल ठाकरे ! बाल ठाकरे ! बाल ठाकरे ! बाल ठाकरे !
बर्बरता की ढाल ठाकरे !
प्रजातन्त्र का काल ठाकरे !
धन-पिशाच का इंगित पाकर, ऊँचा करता भाल ठाकरे !
चला पूछने मुसोलिनी से, अपने दिल का हाल ठाकरे !
बाल ठाकरे ! बाल ठाकरे ! बाल ठाकरे ! बाल ठाकरे !
"ओ रे प्रेत -"
कडककर बोले नरक के मालिक यमराज
-"सच - सच बतला !
कैसे मरा तू ?
भूख से , अकाल से ?
बुखार कालाजार से ?
पेचिस बदहजमी , प्लेग महामारी से ?
कैसे मरा तू , सच -सच बतला !"
खड़ खड़ खड़ खड़ हड़ हड़ हड़ हड़
काँपा कुछ हाड़ों का मानवीय ढाँचा
नचाकर लंबे चमचों - सा पंचगुरा हाथ
रूखी - पतली किट - किट आवाज़ में
प्रेत ने जवाब दिया -
" महाराज !
सच - सच कहूँगा
झूठ नहीं बोलूँगा
नागरिक हैं हम स्वाधीन भारत के
पूर्णिया जिला है , सूबा बिहार के सिवान पर
थाना धमदाहा ,बस्ती रुपउली
जाति का कायस्थ
उमर कुछ अधिक पचपन साल की
पेशा से प्राइमरी स्कूल का मास्टर था
-"किन्तु भूख या क्षुधा नाम हो जिसका
ऐसी किसी व्याधि का पता नहीं हमको
सावधान महाराज ,
नाम नहीं लीजिएगा
हमारे समक्ष फिर कभी भूख का !!"
निकल गया भाप आवेग का
तदनंतर शांत - स्तंभित स्वर में प्रेत बोला -
"जहाँ तक मेरा अपना सम्बन्ध है
सुनिए महाराज ,
तनिक भी पीर नहीं
दुःख नहीं , दुविधा नहीं
सरलतापूर्वक निकले थे प्राण
सह न सकी आँत जब पेचिश का हमला .."
सुनकर दहाड़
स्वाधीन भारतीय प्राइमरी स्कूल के
भुखमरे स्वाभिमानी सुशिक्षक प्रेत की
रह गए निरूत्तर
महामहिम नर्केश्वर |
प्राइवेट बस का ड्राइवर है तो क्या हुआ,
सात साल की बच्ची का पिता तो है!
सामने गियर से उपर
हुक से लटका रक्खी हैं
काँच की चार चूड़ियाँ गुलाबी
बस की रफ़्तार के मुताबिक
हिलती रहती हैं…
झुककर मैंने पूछ लिया
खा गया मानो झटका
अधेड़ उम्र का मुच्छड़ रोबीला चेहरा
आहिस्ते से बोला: हाँ सा’ब
लाख कहता हूँ नहीं मानती मुनिया
टाँगे हुए है कई दिनों से
अपनी अमानत
यहाँ अब्बा की नज़रों के सामने
मैं भी सोचता हूँ
क्या बिगाड़ती हैं चूड़ियाँ
किस ज़ुर्म पे हटा दूँ इनको यहाँ से?
और ड्राइवर ने एक नज़र मुझे देखा
और मैंने एक नज़र उसे देखा
छलक रहा था दूधिया वात्सल्य बड़ी-बड़ी आँखों में
तरलता हावी थी सीधे-साधे प्रश्न पर
और अब वे निगाहें फिर से हो गईं सड़क की ओर
और मैंने झुककर कहा -
हाँ भाई, मैं भी पिता हूँ
वो तो बस यूँ ही पूछ लिया आपसे
वरना किसे नहीं भाँएगी?
नन्हीं कलाइयों की गुलाबी चूड़ियाँ!
मलाबार के खेतिहरों को अन्न चाहिए खाने को,
डंडपाणि को लठ्ठ चाहिए बिगड़ी बात बनाने को!
जंगल में जाकर देखा, नहीं एक भी बांस दिखा!
सभी कट गए सुना, देश को पुलिस रही सबक सिखा!
जन-गण-मन अधिनायक जय हो, प्रजा विचित्र तुम्हारी है
भूख-भूख चिल्लाने वाली अशुभ अमंगलकारी है!
बंद सेल, बेगूसराय में नौजवान दो भले मरे
जगह नहीं है जेलों में, यमराज तुम्हारी मदद करे।
ख्याल करो मत जनसाधारण की रोज़ी का, रोटी का,
फाड़-फाड़ कर गला, न कब से मना कर रहा अमरीका!
बापू की प्रतिमा के आगे शंख और घड़ियाल बजे!
भुखमरों के कंकालों पर रंग-बिरंगी साज़ सजे!
ज़मींदार है, साहुकार है, बनिया है, व्योपारी है,
अंदर-अंदर विकट कसाई, बाहर खद्दरधारी है!
सब घुस आए भरा पड़ा है, भारतमाता का मंदिर
एक बार जो फिसले अगुआ, फिसल रहे हैं फिर-फिर-फिर!
छुट्टा घूमें डाकू गुंडे, छुट्टा घूमें हत्यारे,
देखो, हंटर भांज रहे हैं जस के तस ज़ालिम सारे!
जो कोई इनके खिलाफ़ अंगुली उठाएगा बोलेगा,
काल कोठरी में ही जाकर फिर वह सत्तू घोलेगा!
माताओं पर, बहिनों पर, घोड़े दौड़ाए जाते हैं!
बच्चे, बूढ़े-बाप तक न छूटते, सताए जाते हैं!
मार-पीट है, लूट-पाट है, तहस-नहस बरबादी है,
ज़ोर-जुलम है, जेल-सेल है। वाह खूब आज़ादी है!
रोज़ी-रोटी, हक की बातें जो भी मुंह पर लाएगा,
कोई भी हो, निश्चय ही वह कम्युनिस्ट कहलाएगा!
नेहरू चाहे जिन्ना, उसको माफ़ करेंगे कभी नहीं,
जेलों में ही जगह मिलेगी, जाएगा वह जहां कहीं!
सपने में भी सच न बोलना, वर्ना पकड़े जाओगे,
भैया, लखनऊ-दिल्ली पहुंचो, मेवा-मिसरी पाओगे!
माल मिलेगा रेत सको यदि गला मजूर-किसानों का,
हम मर-भुक्खों से क्या होगा, चरण गहो श्रीमानों का!
काले-काले ऋतु-रंग
काली-काली घन-घटा
काले-काले गिरि श्रृंग
काली-काली छवि-छटा
काले-काले परिवेश
काली-काली करतूत
काली-काली करतूत
काले-काले परिवेश
काली-काली मँहगाई
काले-काले अध्यादेश
रचनाकाल : 1981
जो नहीं हो सके पूर्ण–काम
मैं उनको करता हूँ प्रणाम ।
कुछ कंठित औ' कुछ लक्ष्य–भ्रष्ट
जिनके अभिमंत्रित तीर हुए;
रण की समाप्ति के पहले ही
जो वीर रिक्त तूणीर हुए !
उनको प्रणाम !
जो छोटी–सी नैया लेकर
उतरे करने को उदधि–पार;
मन की मन में ही रही¸ स्वयं
हो गए उसी में निराकार !
उनको प्रणाम !
जो उच्च शिखर की ओर बढ़े
रह–रह नव–नव उत्साह भरे;
पर कुछ ने ले ली हिम–समाधि
कुछ असफल ही नीचे उतरे !
उनको प्रणाम !
एकाकी और अकिंचन हो
जो भू–परिक्रमा को निकले;
हो गए पंगु, प्रति–पद जिनके
इतने अदृष्ट के दाव चले !
उनको प्रणाम !
कृत–कृत नहीं जो हो पाए;
प्रत्युत फाँसी पर गए झूल
कुछ ही दिन बीते हैं¸ फिर भी
यह दुनिया जिनको गई भूल !
उनको प्रणाम !
थी उम्र साधना, पर जिनका
जीवन नाटक दु:खांत हुआ;
या जन्म–काल में सिंह लग्न
पर कुसमय ही देहांत हुआ !
उनको प्रणाम !
दृढ़ व्रत औ' दुर्दम साहस के
जो उदाहरण थे मूर्ति–मंत ?
पर निरवधि बंदी जीवन ने
जिनकी धुन का कर दिया अंत !
उनको प्रणाम !
जिनकी सेवाएँ अतुलनीय
पर विज्ञापन से रहे दूर
प्रतिकूल परिस्थिति ने जिनके
कर दिए मनोरथ चूर–चूर !
उनको प्रणाम !
कई दिनों तक चूल्हा रोया, चक्की रही उदास
कई दिनों तक कानी कुतिया सोई उनके पास
कई दिनों तक लगी भीत पर छिपकलियों की गश्त
कई दिनों तक चूहों की भी हालत रही शिकस्त।
दाने आए घर के अंदर कई दिनों के बाद
धुआँ उठा आँगन से ऊपर कई दिनों के बाद
चमक उठी घर भर की आँखें कई दिनों के बाद
कौए ने खुजलाई पाँखें कई दिनों के बाद।
उषा की लाली में
अभी से गए निखर
हिमगिरि के कनक शिखर
आगे बढ़ा शिशु रवि
बदली छवि, बदली छवि
देखता रह गया अपलक कवि
डर था, प्रतिपल
अपरूप यह जादुई आभा
जाए ना बिखर, जाए ना बिखर,
उषा की लाली में
भले हो उठे थे निखर
हिमगिरी के कनक शिखर
जिनके बूटों से कीलित है, भारत माँ की छाती
जिनके दीपों में जलती है, तरुण आँत की बाती
ताज़ा मुंडों से करते हैं, जो पिशाच का पूजन
है अस जिनके कानों को, बच्चों का कल-कूजन
जिन्हें अँगूठा दिखा-दिखाकर, मौज मारते डाकू
हावी है जिनके पिस्तौलों पर, गुंडों के चाकू
चाँदी के जूते सहलाया करती, जिनकी नानी
पचा न पाए जो अब तक, नए हिंद का पानी
जिनको है मालूम ख़ूब, शासक जमात की पोल
मंत्री भी पीटा करते जिनकी ख़ूबी के ढोल
युग को समझ न पाते जिनके भूसा भरे दिमाग़
लगा रही जिनकी नादानी पानी में भी आग
पुलिस महकमे के वे हाक़िम, सुन लें मेरी बात
जनता ने हिटलर, मुसोलिनी तक को मारी लात
अजी, आपकी क्या बिसात है, क्या बूता है कहिए
सभ्य राष्ट्र की शिष्ट पुलिस है, तो विनम्र रहिए
वर्ना होश दुरुस्त करेगा, आया नया ज़माना
फटे न वर्दी, टोप न उतरे, प्राण न पड़े गँवाना
भुक्खड़ के हाथों में यह बन्दूक कहाँ से आई
एस० डी० ओ० की गुड़िया बीबी सपने में घिघियाई
बच्चे जागे, नौकर जागा, आया आई पास
साहेब थे बाहर, घर में बीमार पड़ी थी सास
नौकर ने समझाया, नाहक ही दर गई हुज़ूर !
वह अकाल वाला थाना, पड़ता है काफ़ी दूर !
पेट-पेट में आग लगी है, घर-घर में है फाका
यह भी भारी चमत्कार है, काँग्रेसी महिमा का
सूखी आँतों की ऐंठन का, हमने सुना धमाका
यह भी भारी चमत्कार है, काँग्रेसी महिमा का
महज विधानसभा तक सीमित है, जनतंत्री ख़ाका
यह भी भारी चमत्कार है, काँग्रेसी महिमा का
तीन रात में तेरह जगहों पर, पड़ता है डाका
यह भी भरी चमत्कार है, काँग्रेसी महिमा का
दो हज़ार मन गेहूँ आया दस गाँवों के नाम
राधे चक्कर लगा काटने, सुबह हो गई शाम
सौदा पटा बड़ी मुश्किल से, पिघले नेताराम
पूजा पाकर साध गये चुप्पी हाकिम-हुक्काम
भारत-सेवक जी को था अपनी सेवा से काम
खुला चोर-बाज़ार, बढ़ा चोकर-चूनी का दाम
भीतर झुरा गई ठठरी, बाहर झुलसी चाम
भूखी जनता की ख़ातिर आज़ादी हुई हराम
नया तरीका अपनाया है राधे ने इस साल
बैलों वाले पोस्टर साटे, चमक उठी दीवाल
नीचे से लेकर ऊपर तक समझ गया सब हाल
सरकारी गल्ला चुपके से भेज रहा नेपाल
अन्दर टंगे पडे हैं गांधी-तिलक-जवाहरलाल
चिकना तन, चिकना पहनावा, चिकने-चिकने गाल
चिकनी किस्मत, चिकना पेशा, मार रहा है माल
नया तरीका अपनाया है राधे ने इस साल
(१९५८)
गीली भादों
रैन अमावस
कैसे ये नीलम उजास के
अच्छत छींट रहे जंगल में
कितना अद्भुत योगदान है
इनका भी वर्षा–मंगल में
लगता है ये ही जीतेंगे
शक्ति प्रदर्शन के दंगल में
लाख–लाख हैं, सौ हजार हैं
कौन गिनेगा, बेशुमार हैं
मिल–जुलकर दिप–दिप करते हैं
कौन कहेगा, जल मरते हैं...
जान भर रहे हैं जंगल में
जुगनू है ये स्वयं प्रकाशी
पल–पल भास्वर पल–पल नाशी
कैसा अद्भुत योगदान है
इनका भी वर्षा मंगल में
इनकी विजय सुनिश्चित ही है
तिमिर तीर्थ वाले दंगल में
इन्हें न तुम 'बेचारे' कहना
अजी यही तो ज्योति–कीट हैं
जान भर रहे हैं जंगल में
गीली भादों
रैन अमावस
समुद्र के तट पर
सीपी की पीठ पर
तरंगित रेखाओं की बहुरंगी अल्पना, हलकी!
ऊपर औंधा आकाश
निविड़ नील!
नीचे श्याम सलिल वारुणी सृष्टि!
सबकुछ भूल
तिरोहित कर सभी कुछ
– अवचेतन मध्य
खड़े रहेंगे मनुपुत्र दिगंबर
पता नहीं, कब तक...
पश्चिमाभिमुख।
रमा लो मांग में सिन्दूरी छलना...
फिर बेटी विज्ञापन लेने निकलना...
तुम्हारी चाची को यह गुर कहाँ था मालूम!
हाथ न हुए पीले
विधि विहित पत्नी किसी की हो न सकीं
चौरंगी के पीछे वो जो होटल है
और उस होटल का
वो जो मुच्छड़ रौबीला बैरा है
ले गया सपने में बार-बार यादवपुर
कैरियर पे लाद के कि आख़िर शादी तो होगी ही
नहीं? मैं झूठ कहता हूँ?
ओ, हे युग नन्दिनी विज्ञापन सुन्दरी,
गलाती है तुम्हारी मुस्कान की मृदु मद्धिम आँच
धन-कुलिश हिय-हम कुबेर के छौनों को
क्या ख़ूब!
क्या ख़ूब
कर लाई सिक्योर विज्ञापन के आर्डर!
क्या कहा?
डेढ़ हज़ार?
अजी, वाह, सत्रह सौ!
सत्रह सौ के विज्ञापन?
आओ, बेटी, आ जाओ, पास बैठो
तफसील में बताओ...
कहाँ-कहाँ जाना पड़ा? कै-कै बार?
क्लाइव रोड?
डलहौजी?
चौरंगी?
ब्रेबोर्न रोड?
बर्बाद हुए तीन रोज़ : पाँच शामें ?
कोई बात नहीं...
कोई बात नहीं...
आओ, आओ, तफ़सील में बतलाओ!
"वो इधर से निकला
उधर चला गया"
वो आँखें फैलाकर
बतला रहा था-
"हाँ बाबा, बाघ आया उस रात,
आप रात को बाहर न निकलों!
जाने कब बाघ फिर से बाहर निकल जाए!"
"हाँ वो ही, वो ही जो
उस झरने के पास रहता है
वहाँ अपन दिन के वक़्त
गए थे न एक रोज़?
बाघ उधर ही तो रहता है
बाबा, उसके दो बच्चे हैं
बाघिन सारा दिन पहरा देती है
बाघ या तो सोता है
या बच्चों से खेलता है ..."
दूसरा बालक बोला-
"बाघ कहीं काम नहीं करता
न किसी दफ़्तर में
न कॉलेज में"
छोटू बोला-
"स्कूल में भी नही ..."
पाँच-साला बेटू ने
हमें फिर से आगाह किया
"अब रात को बाहर होकर बाथरुम न जाना"
अपने खेत में....
जनवरी का प्रथम सप्ताह
खुशग़वार दुपहरी धूप में...
इत्मीनान से बैठा हूँ.....
अपने खेत में हल चला रहा हूँ
इन दिनों बुआई चल रही है
इर्द-गिर्द की घटनाएँ ही
मेरे लिए बीज जुटाती हैं
हाँ, बीज में घुन लगा हो तो
अंकुर कैसे निकलेंगे !
जाहिर है
बाजारू बीजों की
निर्मम छटाई करूँगा
खाद और उर्वरक और
सिंचाई के साधनों में भी
पहले से जियादा ही
चौकसी बरतनी है
मकबूल फ़िदा हुसैन की
चौंकाऊ या बाजारू टेकनीक
हमारी खेती को चौपट
कर देगी !
जी, आप
अपने रूमाल में
गाँठ बाँध लो ! बिलकुल !!
सामने, मकान मालिक की
बीवी और उसकी छोरियाँ
इशारे से इजा़ज़त माँग रही हैं
हमारे इस छत पर आना चाहती हैं
ना, बाबा ना !
अभी हम हल चला रहे हैं
आज ढाई बजे तक हमें
बुआई करनी है...
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नागार्जुन
उपन्यास: रतिनाथ की चाची, बाबा बटेसरनाथ, दुखमोचन, बलचनमा, वरूण के बेटे, नई पौध, आदि।
कविता संग्रह: युगधारा, सतरंगे पंखो वाली, प्यासी पथारी आँखें, तालाब की मछलियां, चन्दना, खिचड़ी विप्लव देखा हमने, तुमने कहा था, पुरानी जूतियों का कोरस, हजार-हजार बाँहोंवाली, पका है यह कटहल, अपने खेत में, मैं मिलिट्री का बूढ़ा घोड़ा।
खंडकाव्य: भस्मांकुर, भूमिजा
अन्य : एक संस्कृत काव्य "धर्मलोक शतकम्" तथा संस्कृत से कुछ अनूदित कृतियों के रचयिता
जन्म : 1911, तरौनी, दरभंगा (बिहार)
भाषा : हिन्दी, मैथिली, संस्कृत, बंगलाविधाएँ : उपन्यास, कविता संग्रह, खंडकाव्य
मुख्य कृतियाँ
परिचय
मैथिली काव्य संग्रह ‘पत्रहीन नग्न गाछ` के लिये साहित्य अकादमी से सम्मानित।
सम्मान
5 नवम्बर 1998
निधन
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