hasya kavi kaka hathrasi
सन १९०६ में हाथरस में जन्मे काका हाथरसी ( असली नाम: प्रभुनाथ गर्ग ) हिंदी व्यंग्य के मूर्धण्य कवि थे। उनकी शैली की छाप उनकी पीढ़ी के अन्य कवियों पर तो पड़ी ही, आज भी अनेकों लेखक और व्यंग्य कवि काका की रचनाओं की शैली अपनाकर लाखों श्रोताओं और पाठकों का मनोरंजन कर रहे हैं।
काका हाथरसी
हार गए वे, लग गई इलेक्शन में चोट।
अपना अपना भाग्य है, वोटर का क्या खोट?
वोटर का क्या खोट, ज़मानत ज़ब्त हो गई।
उस दिन से ही लालाजी को ख़ब्त हो गई॥
कह ‘काका’ कवि, बर्राते हैं सोते सोते।
रोज़ रात को लें, हिचकियाँ रोते रोते॥
काका हाथरसी
पत्रकार दादा बने, देखो उनके ठाठ।
काग़ज़ का कोटा झपट, करें एक के आठ॥
करे एक के आठ, चल रही आपाधापी।
दस हज़ार बतलाय, छपें ढाई सौ कापी॥
विज्ञापन दे दो तो, जय-जयकार कराए।
मना करो तो उल्टी-सीधी न्यूज़ छपाए॥
काका हाथरसी
प्रथम करूँ खल-वंदना, श्रद्धा से सिर नाय।
मेरी कविता यों जमे, ज्यो कुल्फ़ी जम जाय॥
ज्यो कुल्फ़ी जम जाय, आप जब कविता नापें।
बड़े-बड़े कविराज, मंच पर थर-थर कापें॥
करें झूठ को सत्य, सत्य को झूठ करा दें।
रूठें जिस पर आप, उसी को हूट करा दें॥
काका हाथरसी
चीनी हमले से हुई, मिस ‘चीनी’ बदनाम।
गुड़ की इज़्ज़त बढ़ गई और बढ़ गए दाम॥
और बढ़ गए दाम, ‘गुलगुले’ तब बन पाए।
सवा रुपए का एक किलो, गुड़ लेकर आए॥
कह ‘काका’, बीवी से बोला बुंदू भिश्ती।
ग़ज़ब हो गया बेगम गुड़ से चीनी सस्ती॥
काका हाथरसी
ये डाकू तो सूक्ष्म हैं, क्या समझावे मोहि।
असली डाकू आप जब, तब मानूँगा तोहि॥
तब मानूँगा तोहि, पकड़ सत्ता की टाँगें।
भोली जनता की छाती पर गोली दागें॥
कह ‘काका’, हथियार डाल दें भ्रष्टाचारी।
‘जयप्रकाशनारायण’, तब जय होय तुम्हारी॥
चूहेदानी भर गई, चूहे पकड़े बीस।
पुन: दूसरे दिन वही, घूम रहे पच्चीस॥
घूम रहे पच्चीस, प्रभु की अद्भुत माया।
ऋषि-मुनियों ने इसका, समाधान नहीं पाया॥
कह ‘काका’ कवि, गुरु रिटायर जब हो जाते।
चेला जी आकर, उस गद्दी पर जम जाते॥
काका हाथरसी
रूठ गई हो प्रेमिका, बीज प्रेम के बोय।
याद सताए रात-दिन, धक-धक दिन में होय॥
धक-धक दिल में होय, व्यर्थ जा रही जवानी।
देख आज़माकर नुस्ख़ा, यह पाकिस्तानी॥
कह ‘काका’ कवि, तवा बाँधकर अपने सर पर।
लेकर छाता कूदो, महबूबा के घर पर॥
काका हाथरसी
बोले माइक पकड़ कर, पापड़चंद ‘पराग’।
चोटी के कवि ले रहे, सम्मेलन में भाग॥
सम्मेलन में भाग, महाकवि गामा आए।
काका, चाचा, मामाश्री, पाजामा आए॥
हमने कहा, व्यर्थ जनता को क्यों बहकाते?
दाढ़ी वालों को भी, चोटी का बतलाते॥
काका हाथरसी
गदहा कहे कुम्हार से, तू क्या पीटे मोय।
गाँव छोड़ चल शहर को, मैं पिटवाऊँ तोय॥
मैं पिटवाऊँ तोय, गधे को आई मस्ती।
चौराहे पर पहुँच, झाड़ने लगा दुलत्ती॥
कह ‘काका' कवि चोट खा गए मोटे लाला।
लाला ने गदहे वाला, घायल कर डाला॥