रवीन्द्रनाथ ठाकुर
सुरलोक के नृत्य-उत्सव में
यदि क्षण-भर के लिए
क्लान्त-श्रान्त ऊर्वशी से
होता कहीं ताल-भंग
देवराज करते नहीं मार्जना।
पूर्वार्जित कीर्ति उसकी
अभिशाप तले होती निर्वासित।
आकस्मिक त्रुटि को भी न करता कभी स्वर्ग स्वीकार।
मानव के सभा-अंगन में
वहाँ भी जाग रहा स्वर्ग का न्याय-विचार।
इसी से मेरी काव्य-कला हो रही कुण्ठित है
ताप-तप्त दिनान्त के अवसाद से;
डर है, हो न कहीं शैथिल्य उसके पदक्षेप-ताल में।
ख्याति मुक्त वाणी मेरी
महेन्द्र के चरणों में करता हूं समर्पण
निरासक्त मन से जा सकूं, बस, यही चाह है,
वैरागी रहे वह सूर्यास्त के गेरूआ प्रकाश में;
निर्मम भविष्य है, जानता हूं, असावधानी में दस्यु-वृत्ति करता है
कीर्ति के संचय में-
आज उसकी होती है तो होने दो प्रथम सूचना।
‘उदयन’: शान्ति निकेतन
प्रभात: 27 नवम्बर, 1940
(7 मई, 1861 – 7 अगस्त, 1941) को गुरुदेव के नाम से भी जाना जाता है। वे विश्वविख्यात कवि, साहित्यकार, दार्शनिक और भारतीय साहित्य के एकमात्र नोबल पुरस्कार विजेता हैं। वे एशिया के प्रथम नोबेल पुरस्कार सम्मानित व्यक्ति हैं। वे एकमात्र कवि हैं जिसकी दो रचनाएँ दो देशों का राष्ट्रगान बनीं - भारत का राष्ट्र-गान जन गण मन और बाँग्लादेश का राष्ट्रीय गान आमार सोनार बाँग्ला गुरुदेव की ही रचनाएँ हैं।
जीवन
रवीन्द्रनाथ ठाकुर का जन्म देवेन्द्रनाथ टैगोर और शारदा देवी के सन्तान के रूप में 7 मई, 1861 को कोलकाता के जोड़ासाँको ठाकुरबाड़ी में हुआ। उनकी स्कूल की पढ़ाई प्रतिष्ठित सेंट जेवियर स्कूल में हुई। उन्होंने बैरिस्टर बनने की चाहत में 1878 में इंग्लैंड के ब्रिजटोन में पब्लिक स्कूल में नाम दर्ज कराया। उन्होंने लन्दन विश्वविद्यालय में कानून का अध्ययन किया लेकिन 1880 में बिना डिग्री हासिल किए ही स्वदेश वापस आ गए। सन् 1883 में मृणालिनी देवी के साथ उनकाअ विवाह हुआ।
रचना
बचपन से ही उनकी कविता, छन्द और भाषा में अद्भुत प्रतिभा का आभास लोगों को मिलने लगा था। उन्होंने पहली कविता आठ साल की उम्र में लिखी थी और 1877 में केवल सोलह साल की उम्र में उनकी लघुकथा प्रकाशित हुई थी। भारतीय सांस्कृतिक चेतना में नई जान फूँकने वाले युगदृष्टा टैगोर के सृजन संसार में गीतांजलि, पूरबी प्रवाहिनी, शिशु भोलानाथ, महुआ, वनवाणी, परिशेष, पुनश्च, वीथिका शेषलेखा, चोखेरबाली, कणिका, नैवेद्य मायेर खेला और क्षणिका आदि शामिल हैं। देश और विदेश के सारे साहित्य, दर्शन, संस्कृति आदि उन्होंने आहरण करके अपने अन्दर समेट लिए थे। पिता के ब्रह्म-समाजी के होने के कारण वे भी ब्रह्म-समाजी थे। पर अपनी रचनाओं व कर्म के द्वारा उन्होंने सनातन धर्म को भी आगे बढ़ाया। टैगोर ने करीब 2,230 गीतों की रचना की। लगभग एक शताब्दी पूर्व सन् 1919 में कविवर रवीन्द्रनाथ ठाकुर के द्वारा अपनी जापान यात्रा से लौटने के पश्चात उनके ‘जापान यात्री’ में प्रसिद्ध जापानी हाइकू कवि बाशो की हाइकू कविताओं के बंगला कविताओं के अनुवाद के रूप में सर्वप्रथम हिन्दुस्तानी धरती पर हाइकु विधा अवतरित हुयी परन्तु इतने पहले आने के बावजूद लंबे समय तक यह साहित्यिक विधा हिन्दुस्तानी साहित्यिक जगत में अपनी कोई विशेष पहचान नहीं बना सकी। हिन्दी साहित्य की अनेकानेक विधाओं में से एक नवीनतम विधा है हाइकु वर्तमान में संसार भर में फैले हिंदुस्तानियों की इन्टरनेट पर फैली रचनाओं के माध्यम से यह विधा हाइकु हिन्दुस्तानी कविता जगत में प्रमुखता से अपना स्थान बना रही है।
अनुवाद
मनुष्य और ईश्वर के बीच जो चिरस्थायी सम्पर्क है, उनकी रचनाओं के अन्दर वह अलग-अलग रूपों में उभर आता है। साहित्य की शायद ही ऐसी कोई शाखा हो, जिनमें उनकी रचना न हो - कविता, गान, कथा, उपन्यास, नाटक, प्रबन्ध, शिल्पकला - सभी विधाओं में उन्होंने रचना की। उनकी प्रकाशित कृतियों में - गीतांजली, गीताली, गीतिमाल्य, कथा ओ कहानी, शिशु, शिशु भोलानाथ, कणिका, क्षणिका, खेया आदि प्रमुख हैं। उन्होंने कुछ पुस्तकों का अंग्रेजी में अनुवाद भी किया। अँग्रेज़ी अनुवाद के बाद उनकी प्रतिभा पूरे विश्व में फैली।
प्रकृति का सान्निध्य
टैगोर को बचपन से ही प्रकृति का सान्निध्य बहुत भाता था। प्रकृति के प्रति गहरा लगाव रखने वाला यह प्रकृति प्रेमी ऐसा एकमात्र व्यक्ति है जिसने दो देशों के लिए राष्ट्रगान लिखा। वह हमेशा सोचा करते थे कि प्रकृति के सानिध्य में ही विद्यार्थियों को अध्ययन करना चाहिए। इसी सोच को मूर्तरूप देने के लिए वह 1901 में सियालदह छोड़कर आश्रम की स्थापना करने के लिए शान्तिनिकेतन आ गए। प्रकृति के सान्निध्य में पेड़ों, बगीचों और एक लाइब्रेरी के साथ टैगोर ने शान्तिनिकेतन की स्थापना की।
चित्रकार रवीन्द्र
गुरुदेव ने जीवन के अंतिम दिनों में चित्र बनाना शुरू किया। इसमें युग का संशय, मोह, क्लान्ति और निराशा के स्वर प्रकट हुए हैं। मनुष्य और ईश्वर के बीच जो चिरस्थायी सम्पर्क है उनकी रचनाओं में वह अलग-अलग रूपों में उभरकर सामने आया। टैगोर और महात्मा गान्धी के बीच राष्ट्रीयता और मानवता को लेकर हमेशा वैचारिक मतभेद रहा। जहां गान्धी पहले पायदान पर राष्ट्रवाद को रखते थे, वहीं टैगोर मानवता को राष्ट्रवाद से अधिक महत्व देते थे। लेकिन दोनों एक दूसरे का बहुत अधिक सम्मान करते थे। टैगोर ने गान्धीजी को महात्मा का विशेषण दिया था। एक समय था जब शान्तिनिकेतन आर्थिक कमी से जूझ रहा था और गुरुदेव देश भर में नाटकों का मंचन करके धन संग्रह कर रहे थे। उस वक्त गान्धी जी ने टैगोर को 60 हजार रुपये के अनुदान का चेक दिया था।
जीवन के अन्तिम समय 7 अगस्त 1941 के कुछ समय पहले इलाज के लिए जब उन्हें शान्तिनिकेतन से कोलकाता ले जाया जा रहा था तो उनकी नातिन ने कहा कि आपको मालूम है हमारे यहाँ नया पावर हाउस बन रहा है। इसके जवाब में उन्होंने कहा कि हाँ पुराना आलोक चला जाएगा नए का आगमन होगा।
सम्मान
उनकी काव्यरचना गीतांजलि के लिये उन्हे सन् 1913 में साहित्य का नोबेल पुरस्कार मिला।
अनिःशेष प्राण
अनिःशेष मारण के स्रोत में बह रहे,
पद पद पर संकट पर हैं संकट
नाम-हीन समुद्र के जाने किस तट पर
पहुंचने को अविश्राम खे रहा नाव वह,
कैसा है न जाने अलक्ष्य उसका पार होना
मर्म में बैठा वह दे रहा आदेश है,
नहीं उसका शेष है।
चल रहे लाखों-करोड़ों प्राणी हैं,
इतना ही बस जानता हूं।
चलते चलते रुकते हैं, पण्य अपना किसको दे जाते हैं,
पीछे रह जाते जो लेने को, क्षण में वे भी नहीं रह पाते हैं।
मुत्यु के कवल में लुप्त निरन्तर का धोखा है,
फिर भी वह नहीं धोखे का, निबटते निबटते भी रह जाता बाकी है;
पद पद पर अपने को करके शेष
पद पद पर फिर भी वह जीता ही रहता है।
अस्तित्व का महैश्वर्य है शत-छिद्र घट में भरा-
अनन्त है लाभ उसका अनन्त क्षति-पथ में झरा;
अविश्राम अपचय से संचय का आलस्य होता दूर,
शक्ति उसी से पाता भरपूर।
गति-शील रूप-हीन जो है विराट,
महाक्षण में है, फिर भी क्षण-क्षण में नहीं है वह।
स्वरूप जिसका है रहना और नहीं रहना,
मुक्त और आवरण-युक्त है,
किस नाम से पुकारूं उसे अस्तित्व प्रवाह में-
मेरा नाम दिखाई दे विलीन हो जाता जिसमें?
अकेला बैठा हूं यहाँ
यातायात पथ के तट पर।
बिहान-वेला में गीत की नाव जो
लाये हैं खेकर प्राण के घाट पर
आलोक-छाया के दैनन्दिन नाट पर,
संध्या-वेला की छाया में
धीरे से विलीन हो जाते थे।
आज वे आये हैं मेरे
स्वप्न लोक के द्वार पर;
सुर-हीन व्यथाएँ हैं जितनी भी
ढूंढ़ती फिरतीं बीतते ही जाते हैं,
बैठा-बैठा गिन ही रहा हूं मैं
नीरव जप माला की ध्वनि
नस-नस में अन्धकार के।
कलकत्ता
30 अक्तूबर, 1940
अजस्र है दिन का प्रकाश,
जानता हूं एक दिन
आँखों को दिया था ऋण।
लौटा लेने का दावा जताया आज
तुमने, महाराज!
चुका देना होगा ऋण, जानता हूं,
फिर भी क्यों संध्या दीप पर
डालते हो छाया तुम ?
रचा है तुमने जो आलोक से विश्व तल
मैं हूं वहां एक अतिथि केवल।
यहाँ वहाँ यदि पड़ा हो
किसी छोटी-सी दरार में
न सही पूरा
टुकड़ा अधूरा-
छोड़ जाना पड़ा अवहेलना से,
जहाँ तुम्हारा रथ
शेष चिह्न रख जाता है अन्तिम धूल में
वहाँ रचने दो मुझे अपना संसार।
थोड़ा सा रहने दो उजाला,
थोड़ी सी छाया,
और कुछ माया।
छाया पथ में लुप्त आलोक के पीछे
शायद पड़ा मिलेगा कुछ-
कण मात्र लेश
तुम्हारे ऋण का अवशेष।
कलकत्ता
3 नवम्बर, 1940
इस महा विश्व में
चलता है यंत्रणा का चक्र-घूर्ण,
होते रहते है ग्रह-तारा चूर्ण।
उत्क्षिप्त स्फुलिंग सब
दिशा विदिशाओं में अस्तित्व की वेदना को
प्रलय दुःख के रेणु जाल में
व्याप्त करने को दौड़ते फिरते हैं प्रचण्ड आवेग से।
पीड़न की यन्त्रशाला में
चेतना के उद्दीप्त प्रांगण में
कहाँ शल्य शूल हो रहे झंकृत,
कहाँ क्षत-रक्त हो रहा उत्सारित ?
मनुष्य की क्षुद्र देह,
यन्त्रणा की शक्ति उसकी कैसी दुःसीम है।
सृष्टि और प्रलय की सभा में
उसके वह्निरस पात्र ने
किसलिए योग दिया विश्व के भैरवी चक्र में,
विधाता की प्रचण्ड मत्तता-
इस देह के मृत् भाण्ड को भरकर
रक्त वर्ण प्रलाप के अश्रु-स्रोत करती क्यों विप्लावित?
प्रतिक्षण अन्तहीन मूल्य दिया उसे
मानव की दुर्जय चेतना ने,
देह-दुःख होमानल में
जिस अर्ध्य की दी आहूति उसने-
ज्योतिष्क की तपस्या में
उसकी क्या तुलना है कहीं ?
ऐसी अपराजित-वीर्य की सम्पदा,
ऐसी निर्भीक सहिष्णुता,
ऐसी उपेक्षा मरण की
ऐसी उसकी जय यात्रा
वह्नि -शय्या रोंदकर पग तले
दुःख सीमान्त की खोज में
नाम हीन ज्वालामय किस तीर्थ के लिए है
साथ-साथ प्रति पथ में प्रति पद में
ऐसा सेवा का उत्स आग्नेय गहृर भेदकर
अनन्त प्रेम का पाथेय?
कलकत्ता
4 नवम्बर, 1940
अरी ओरी, मेरी भोर की चिरैया गौरैया,
कुछ कुछ रहते अँधेरे में फटते ही पौ
नींद का नशा जब रहता कुछ बाकी तब
खिड़की के काँच पर मारती तुम चोंच आकर,
देखना चाहती हो ‘कुछ खबर है क्या’।
फिर तो व्यर्थ झूठमूठ को
चाहे जैसे नाचकर
चाहे जैसे चुहचुहाती हो;
निर्भीक तुम्हारी पुच्छ
शासन कर सकल विध्न बाधा को करती तुच्छ।
तड़के ही दोयलिया देती जब सीटी है
कवियों से पाती बख्शीश कुछ मीठी है;
लगातार प्रहर प्रहर भर मात्र एक पंचम सुर साधकर
छिपे-छिपे कोयलिया करती उस्तादी है-
ढकेल सब पक्षियों को किनारे एक
कालिदास की पाई वाहवाही उसी ने नेक।
परवाह नहीं करती हो उसकी जरा भी तुम,
मानती नहीं हो तुम सरगम के उतार और चढ़ाव को।
कालिदास के घर में घुस
छन्दोभंग चुहचुहाना
मचातीं तुम किस कौतुक से !
नवरत्न सभा के कवि गाते जब अपना गान
तुम तब सभा स्तम्भों पर करती हो क्या सन्धान?
कवि प्रिया की तुम पड़ोसिन हो,
मुखरित प्रहर प्रहर तक तुम दोनों का रहता साथ।
वसन्त बयाना दिया
नहीं वह तुम्हारा नाटय,
जैसा जैसा तुम्हारा नाच
उसमें नहीं कुछ परिपाटय।
अरण्य की गायन सभा में तुम जातीं नहीं सलाम ठोंक,
उजाले के साथ ग्राम्य भाषा में समक्ष आलाप होता ;
न जाने क्या अर्थ उसका
नहीं है अभिधान में
शायद कुछ होगा अर्थ तुम्हारे स्पन्दित हृदय ज्ञाने में।
दायें बायें मोड़-मोड़ गरदन को
करतीं क्या मसखरी हो अकारण ही दिन-दिन भर,
ऐसी क्या जल्दी है?
मिट्टी तुम्हारा स्नेह
धूल ही में करतीं स्नान-
ऐसी ही उपेक्षित है तुम्हारी यह देह-सज्जा
मलिनता न लगती कहीं, देती न तुम्हें लज्जा।
बनाती हो नीड़ तुम राजा के घर छत के किसी कोने में
दुबका चोरी है ही नहीं तुम्हारे कहीं मन में।
अनिद्रा में मेरी जब कटती है दुख की रात
आशा मैं करता हूं, द्वार पर तुम्हारा पड़े चंचुघात।
अभीक और सुन्दर-चंचल
तुम्हारी सी वाणी सहज प्राण की
ला दो मुझे ला दो-
सब जीवों का प्रकाश दिन का
मुझे बुला लेता है,
ओरी मेरी भोर की चिरैया गौरैया।
कलकत्ता
प्रभात: 11 नवम्बर, 1940
अरी ओरी, मेरी भोर की चिरैया गौरैया,
कुछ कुछ रहते अँधेरे में फटते ही पौ
नींद का नशा जब रहता कुछ बाकी तब
खिड़की के काँच पर मारती तुम चोंच आकर,
देखना चाहती हो ‘कुछ खबर है क्या’।
फिर तो व्यर्थ झूठमूठ को
चाहे जैसे नाचकर
चाहे जैसे चुहचुहाती हो;
निर्भीक तुम्हारी पुच्छ
शासन कर सकल विध्न बाधा को करती तुच्छ।
तड़के ही दोयलिया देती जब सीटी है
कवियों से पाती बख्शीश कुछ मीठी है;
लगातार प्रहर प्रहर भर मात्र एक पंचम सुर साधकर
छिपे-छिपे कोयलिया करती उस्तादी है-
ढकेल सब पक्षियों को किनारे एक
कालिदास की पाई वाहवाही उसी ने नेक।
परवाह नहीं करती हो उसकी जरा भी तुम,
मानती नहीं हो तुम सरगम के उतार और चढ़ाव को।
कालिदास के घर में घुस
छन्दोभंग चुहचुहाना
मचातीं तुम किस कौतुक से !
नवरत्न सभा के कवि गाते जब अपना गान
तुम तब सभा स्तम्भों पर करती हो क्या सन्धान?
कवि प्रिया की तुम पड़ोसिन हो,
मुखरित प्रहर प्रहर तक तुम दोनों का रहता साथ।
वसन्त बयाना दिया
नहीं वह तुम्हारा नाटय,
जैसा जैसा तुम्हारा नाच
उसमें नहीं कुछ परिपाटय।
अरण्य की गायन सभा में तुम जातीं नहीं सलाम ठोंक,
उजाले के साथ ग्राम्य भाषा में समक्ष आलाप होता ;
न जाने क्या अर्थ उसका
नहीं है अभिधान में
शायद कुछ होगा अर्थ तुम्हारे स्पन्दित हृदय ज्ञाने में।
दायें बायें मोड़-मोड़ गरदन को
करतीं क्या मसखरी हो अकारण ही दिन-दिन भर,
ऐसी क्या जल्दी है?
मिट्टी तुम्हारा स्नेह
धूल ही में करतीं स्नान-
ऐसी ही उपेक्षित है तुम्हारी यह देह-सज्जा
मलिनता न लगती कहीं, देती न तुम्हें लज्जा।
बनाती हो नीड़ तुम राजा के घर छत के किसी कोने में
दुबका चोरी है ही नहीं तुम्हारे कहीं मन में।
अनिद्रा में मेरी जब कटती है दुख की रात
आशा मैं करता हूं, द्वार पर तुम्हारा पड़े चंचुघात।
अभीक और सुन्दर-चंचल
तुम्हारी सी वाणी सहज प्राण की
ला दो मुझे ला दो-
सब जीवों का प्रकाश दिन का
मुझे बुला लेता है,
ओरी मेरी भोर की चिरैया गौरैया।
कलकत्ता
प्रभात: 11 नवम्बर, 1940
गहन इस रजनी में
रोगी की धुँधली दृष्टि ने
देखा जब सहसा
तुम्हारा जाग्रत आविर्भाव,
ऐसा लगा, मानो
आकाश में अगणित ग्रह-तारे सब
अन्तहीन काल में
मेरे ही प्राणों कर रहे स्वीकार भार।
और फिर, मैं जानता हूं,
तुम चले जाओगे जब,
आतंक जगायेगी अकस्मात्
उदासीन जगत की भीषण निःस्तब्धता।
कलकत्ता
गहन रात्रि: 12 नवम्बर, 1940
लगता है मुझे ऐसा हेमन्त की दुर्भाषा- कुज्झटिकाकी ओर
आलोक की कैसी तो एक भर्त्सना
दिगन्तकी मूढ़ता को दिखा रही तर्जनी।
पाण्डुवर्ण हुआ आता सूर्योदय
आकाश के भाल पर,
धनीभूत हो रही लज्जा,
हिम-सिक्त अरण्य की छाया में
हो रहा स्तब्ध है विहंगो का मधुर गान।
कलकत्ता
13 नवम्बर, 1940
हे प्राचीन तमस्विनी,
आज मैं रोग की विमिश्र तमिस्रा में
मन ही मन देख रहा-
काल के प्रथम कल्प में निरन्तर निविड़ अन्धकार में
बैठी हो सृष्टि के ध्यान में
कैसी भीषण अकेली हो,
गूंगी तुम, अन्धी तुम।
अस्वस्थ शरीर में क्लिष्ट रचना का जो प्रयास
उसी को देखा मैंने
अनादि आकाश में।
पंगु रो-रो उठता है निद्रा के अतल-तल में
आत्म-प्रकाश की क्षुधा विगलित लौह गर्भ से
छिपे-छिपे जल उठती है गोपन शिखाओं में।
अचेतन ये मेरी उंगलियाँ
अस्पष्ट शिल्प की माया बुनती ही जाती है;
आदिमहार्णव गर्भ से
अकस्मात् फूल-फूल उठते हैं
स्वप्न प्रकाण्ड पिण्ड,
विकलांग असम्पूर्ण सब-
कर रहे प्रतीक्षा घोर अन्धकार में
काल के दाहने हाथ से मिलेगी उनहें कब पूर्ण देह,
विरूप् कदर्य सब लेंगे सुसंगत कलेवर
नव सूर्य के आलोक में।
मूर्तिकार पढ़ देगा मन्त्र आकर,
धीरे-धीरे उद्घाटित करेगा वह विधाता की अन्तर्गूढ़ संकल्प की धारा को।
कलकत्ता
प्रभात: 13 नवम्बर, 1940
मेरे दिन की शेष छाया
बिलाने मूल-तान में
गुंजन उसका रहेगा चिरकाल तक,
भूल जायेंगे उसके मानी सब।
कर्मक्लान्त पथिक जब
बैठेगा पथ के किनारे कहीं
मेरी इस रागिणी का करुण अभास
स्पर्श करेगा उसे,
नीरव हो सुनेगा झुकाकर सिर;
मात्र इतना ही अभास में समझेगा,
और न समझेगा कुछ-
विस्मृत युग में दुर्लभ क्षणों में
जीवित था कोई शायद,
हमें नहीं मिली जिसकी कोई खोज
उसी को निकाला था उसने खोज।
कलकत्ता
प्रभात: 13 नवम्बर, 1940
जगत युगों से हो रही जमा
सुतीव्र अक्षमा।
अगोचर में कहीं भी एक रेखा की होते ही भूल
दीर्घ काल में अकस्मात् करती वह अपने को निर्मूल।
नींव जिसकी चिरस्थायी समझ रखी थी मन में
नीचे उसके हो उठता है भूकम्प प्रलय-नर्तन में।
प्राणी कितने ही आये थे बाँध के अपना दल
जीवन की रंगभूमि पर
अपर्याप्त शक्ति का लेकर सम्बल-
वह शक्ति ही है भ्रम उसका,
क्रमशः असह्य हो लुप्त कर देती महाभार को।
कोई नहीं जानता,
इस विश्व में कहाँ हो रही जमा
प्रचण्ड अक्षमा।
दृष्टि की अतीत त्रुटियों का कर भेदन
सम्बन्ध के दृढ़ सूत्र को वह कर रही छेदन;
इंगित के स्फुलिंगों का भ्रम
पीछे लौटने का पथ सदा को कर रहा दुर्गम।
प्रचण्ड तोड़-फोड़ चालू है पूर्ण के ही आदेश से;
कैसी अपूर्व सृष्टि उसकी दिखाई देगी शेष में-
चूर्ण होगी अबाध्य मिट्टी, बाधा होगी दूर,
ले-लेकर नूतन प्राण उठेंगे अंकूर।
हे अक्षमा,
सृष्टि विधान में तुम्हीं तो हो शक्ति परमा;
शान्ति-पथ के कांटे हैं तुम्हारे पद पात में
विदलित होते हैं बार-बार आघात-आघात में।
कलकत्ता
13 नवम्बर, 1940
सवेरे उठते ही देखा निहारकर
घर में चीजें बिखरी पड़ी है सब,
कागज कलम किताब सब कहाँ तो रखी हैं,
ढूंढ़ता फिरता हूं, मिलती नहीं कहीं भी ढ़ूढ़े।
मूल्यवान कहाँ क्या जमता है
बिखरा सब, न कहीं कोई समता है
पत्र-शून्य लिफाफे सब पड़े हैं छिन्न भिन्न
पुरूष जाति के आलस्य यही तो है शायद चिह्न।
क्षण में जब आ पहुंचे दो नारी हस्त
क्षण में ही जाती रही जितनी थी त्रुटियाँ सब।
फुरतीले हाथों से निर्लज्ज विशृंखला के प्रति
ले आती है शोभना अपनी चरम सद्गति।
कटे-फटे के क्षत मिटते है, दागी की होती लज्जा दूर
अनावश्यक गुप्त नीड़ कहीं भी न बचता फिर।
फूहड़पन में रहता और सोचता अवाक् हो
सृष्टि में ‘स्त्री’ और ‘पुरूष’ बह रहीं ये धारा दो;
पुरूष अपने चारों ओर जमाता है कूड़ा भारी,
नित्यप्रति दे बुहारी करती साफ-सुथरा नारी।
कलकत्ता
दोपहर: 14 नवम्बर, 1940