रवीन्द्रनाथ ठाकुर
लू झाँ-झाँ करती है
निर्जन दुपहरिया में.
सूनी चौकी की ओर देखता हूँ
नाम को भी सांत्वना नहीं वहाँ.
उसके संपूर्ण ह्रदय में
हताश की भाषा हाहाकार करती मानो.
करुना-भरी शून्यता की वाणी उठती है
मरम उसका समझ नहीं आता .
मालिक को खो देने वाला कुत्ता जैसे करुण आँखों से ताकता है,
अबुझ मन की व्यथा हाय-हाय करती है,
क्या जो हुआ,कैसे हुआ,कुछ नहीं समझता
रात-दिन विफल नयनों से चारों ओर खोजता है.
चौकी की भाषा जैसे और भी करुण-कातर है,
सूनेपन की मूक व्यथा प्रियविहीन घर को छाप लेती है.
२६ मार्च १९४१
मैं अपने इस जन्मदिन में खो गया हूँ.
चाहता हूँ, जो लोग मेरे बन्धु हैं,
उनके कर-स्पर्श के भीतर से,
मर्त्यलोक के अंतिम प्रीतिरस के रूप में,
जीवन का चरम प्रसाद ले जाऊँ,
मनुष्य का अंतिम आशीर्वाद ले जाऊँ.
मेरी झोली आज रिक्त है;
जो कुछ था देने योग्य,
सब दे चुका हूँ उसे झाड़कर.
पाऊँ यदि कुछ भी प्रतिदान में--
किंचित स्नेह, किंचित क्षमा--
तब उसे साथ लिये जाऊँगा,
जाऊँगा जब पारगामी क्षुद्र नौका पर
भाषाहीन अन्त के उत्सव समारोह में.
६ मई १९४१
रूप नारान के तट पर
जाग उठा मैं .
जाना,यह जगत्
सपना नहीं है.
लहू के अक्षरों में लिखा
अपना रूप देखा;
प्रत्येक आघात प्रत्येक वेदना में
अपने को पहचाना .
सत्य कठिन है
कठिन को मैंने प्यार किया--
वह कभी छलता नहीं .
मरने तक के दुःख का तप है यह जीवन--
सत्य के दारुण मूल्य को पाने के लिये
मृत्यु में सारा ऋण चुका देना.
६ मई १९४१
प्रथम दिन के सूर्य ने
अस्तित्व के नूतन आविर्भाव से पूछा,
"तुम कौन हो?"
उत्तर नहीं मिला.
वर्ष पर वर्ष चले गये.
दिन के अन्तिम सूर्य ने,
पश्चिमी समुद्र के तट पर निस्तब्ध खड़ी
संध्या के अंतिम प्रश्न से पूछा,
"तुम कौन हो ?"
उत्तर नहीं मिला.
हे छलनामयी !
विचित्र माया-जाल से
तुमने अपनी सृष्टि के पथ को आकीर्ण कर रखा है.
सरल जीवन पर
तुमने,निपुण हाथों से,
मिथ्या विश्वासों का जाल बिछा रखा है.
इसी प्रवंचना में तुमने अपने महत्त्व की मुहर लगाई है.
अन्वेषी के लिये तुमने रहस्य की रात नहीं रखी .
तुम्हारे ज्योतिर्मय नक्षत्र
उसे जो राह दिखाते हैं,
वह तो उसी के ह्रदय की राह है.
यह राह सदा ही स्वच्छ है.
अपने सहज विश्वास के द्वारा
वह उसे और भी उज्ज्वल बना लेता है.
बाहर से देखने परयह राह भले ही कुटिल हो,
भीतर से वह ऋजु है.
और यही इसकी महिमा है.
लोग समझते हैं वह छला गया है.
सत्य तो उसे
अपने ही आलोक से घुले अन्तःकरण में मिल जाता है.
धोखा उसे किसी भी चीज से नहीं हो सकता.
जीवन का अंतिम पुरस्कार
वह अपने भंडार में ले जाता है.
सहज भाव से
जो तुम्हारी माया हो झेल लेता है,
तुम्हारे हाथों उसे
शांति का अक्षय अधिकार प्राप्त हो जाता है.
३० जुलाई १९४१
(7 मई, 1861 – 7 अगस्त, 1941) को गुरुदेव के नाम से भी जाना जाता है। वे विश्वविख्यात कवि, साहित्यकार, दार्शनिक और भारतीय साहित्य के एकमात्र नोबल पुरस्कार विजेता हैं। वे एशिया के प्रथम नोबेल पुरस्कार सम्मानित व्यक्ति हैं। वे एकमात्र कवि हैं जिसकी दो रचनाएँ दो देशों का राष्ट्रगान बनीं - भारत का राष्ट्र-गान जन गण मन और बाँग्लादेश का राष्ट्रीय गान आमार सोनार बाँग्ला गुरुदेव की ही रचनाएँ हैं।
जीवन
रवीन्द्रनाथ ठाकुर का जन्म देवेन्द्रनाथ टैगोर और शारदा देवी के सन्तान के रूप में 7 मई, 1861 को कोलकाता के जोड़ासाँको ठाकुरबाड़ी में हुआ। उनकी स्कूल की पढ़ाई प्रतिष्ठित सेंट जेवियर स्कूल में हुई। उन्होंने बैरिस्टर बनने की चाहत में 1878 में इंग्लैंड के ब्रिजटोन में पब्लिक स्कूल में नाम दर्ज कराया। उन्होंने लन्दन विश्वविद्यालय में कानून का अध्ययन किया लेकिन 1880 में बिना डिग्री हासिल किए ही स्वदेश वापस आ गए। सन् 1883 में मृणालिनी देवी के साथ उनकाअ विवाह हुआ।
रचना
बचपन से ही उनकी कविता, छन्द और भाषा में अद्भुत प्रतिभा का आभास लोगों को मिलने लगा था। उन्होंने पहली कविता आठ साल की उम्र में लिखी थी और 1877 में केवल सोलह साल की उम्र में उनकी लघुकथा प्रकाशित हुई थी। भारतीय सांस्कृतिक चेतना में नई जान फूँकने वाले युगदृष्टा टैगोर के सृजन संसार में गीतांजलि, पूरबी प्रवाहिनी, शिशु भोलानाथ, महुआ, वनवाणी, परिशेष, पुनश्च, वीथिका शेषलेखा, चोखेरबाली, कणिका, नैवेद्य मायेर खेला और क्षणिका आदि शामिल हैं। देश और विदेश के सारे साहित्य, दर्शन, संस्कृति आदि उन्होंने आहरण करके अपने अन्दर समेट लिए थे। पिता के ब्रह्म-समाजी के होने के कारण वे भी ब्रह्म-समाजी थे। पर अपनी रचनाओं व कर्म के द्वारा उन्होंने सनातन धर्म को भी आगे बढ़ाया। टैगोर ने करीब 2,230 गीतों की रचना की। लगभग एक शताब्दी पूर्व सन् 1919 में कविवर रवीन्द्रनाथ ठाकुर के द्वारा अपनी जापान यात्रा से लौटने के पश्चात उनके ‘जापान यात्री’ में प्रसिद्ध जापानी हाइकू कवि बाशो की हाइकू कविताओं के बंगला कविताओं के अनुवाद के रूप में सर्वप्रथम हिन्दुस्तानी धरती पर हाइकु विधा अवतरित हुयी परन्तु इतने पहले आने के बावजूद लंबे समय तक यह साहित्यिक विधा हिन्दुस्तानी साहित्यिक जगत में अपनी कोई विशेष पहचान नहीं बना सकी। हिन्दी साहित्य की अनेकानेक विधाओं में से एक नवीनतम विधा है हाइकु वर्तमान में संसार भर में फैले हिंदुस्तानियों की इन्टरनेट पर फैली रचनाओं के माध्यम से यह विधा हाइकु हिन्दुस्तानी कविता जगत में प्रमुखता से अपना स्थान बना रही है।
अनुवाद
मनुष्य और ईश्वर के बीच जो चिरस्थायी सम्पर्क है, उनकी रचनाओं के अन्दर वह अलग-अलग रूपों में उभर आता है। साहित्य की शायद ही ऐसी कोई शाखा हो, जिनमें उनकी रचना न हो - कविता, गान, कथा, उपन्यास, नाटक, प्रबन्ध, शिल्पकला - सभी विधाओं में उन्होंने रचना की। उनकी प्रकाशित कृतियों में - गीतांजली, गीताली, गीतिमाल्य, कथा ओ कहानी, शिशु, शिशु भोलानाथ, कणिका, क्षणिका, खेया आदि प्रमुख हैं। उन्होंने कुछ पुस्तकों का अंग्रेजी में अनुवाद भी किया। अँग्रेज़ी अनुवाद के बाद उनकी प्रतिभा पूरे विश्व में फैली।
प्रकृति का सान्निध्य
टैगोर को बचपन से ही प्रकृति का सान्निध्य बहुत भाता था। प्रकृति के प्रति गहरा लगाव रखने वाला यह प्रकृति प्रेमी ऐसा एकमात्र व्यक्ति है जिसने दो देशों के लिए राष्ट्रगान लिखा। वह हमेशा सोचा करते थे कि प्रकृति के सानिध्य में ही विद्यार्थियों को अध्ययन करना चाहिए। इसी सोच को मूर्तरूप देने के लिए वह 1901 में सियालदह छोड़कर आश्रम की स्थापना करने के लिए शान्तिनिकेतन आ गए। प्रकृति के सान्निध्य में पेड़ों, बगीचों और एक लाइब्रेरी के साथ टैगोर ने शान्तिनिकेतन की स्थापना की।
चित्रकार रवीन्द्र
गुरुदेव ने जीवन के अंतिम दिनों में चित्र बनाना शुरू किया। इसमें युग का संशय, मोह, क्लान्ति और निराशा के स्वर प्रकट हुए हैं। मनुष्य और ईश्वर के बीच जो चिरस्थायी सम्पर्क है उनकी रचनाओं में वह अलग-अलग रूपों में उभरकर सामने आया। टैगोर और महात्मा गान्धी के बीच राष्ट्रीयता और मानवता को लेकर हमेशा वैचारिक मतभेद रहा। जहां गान्धी पहले पायदान पर राष्ट्रवाद को रखते थे, वहीं टैगोर मानवता को राष्ट्रवाद से अधिक महत्व देते थे। लेकिन दोनों एक दूसरे का बहुत अधिक सम्मान करते थे। टैगोर ने गान्धीजी को महात्मा का विशेषण दिया था। एक समय था जब शान्तिनिकेतन आर्थिक कमी से जूझ रहा था और गुरुदेव देश भर में नाटकों का मंचन करके धन संग्रह कर रहे थे। उस वक्त गान्धी जी ने टैगोर को 60 हजार रुपये के अनुदान का चेक दिया था।
जीवन के अन्तिम समय 7 अगस्त 1941 के कुछ समय पहले इलाज के लिए जब उन्हें शान्तिनिकेतन से कोलकाता ले जाया जा रहा था तो उनकी नातिन ने कहा कि आपको मालूम है हमारे यहाँ नया पावर हाउस बन रहा है। इसके जवाब में उन्होंने कहा कि हाँ पुराना आलोक चला जाएगा नए का आगमन होगा।
सम्मान
उनकी काव्यरचना गीतांजलि के लिये उन्हे सन् 1913 में साहित्य का नोबेल पुरस्कार मिला।