दिलों की उक़दा-कुशाई का वक़्त है के नहीं
ये आदमी की ख़ुदाई का वक़्त है के नहीं
कहो सितारा-शनासो फ़लक का हाल कहो
रुख़ों से पर्दा-कुशाई का वक़्त है के नहीं
हवा की नर्म-रवी से जवाँ हुआ है कोई
फ़रेब-ए-तंग-क़बाई का वक़्त है के नहीं
ख़लल-पज़ीर हुआ रब्त-ए-मेहर-ओ-माह में वक़्त
बता ये तुझ से जुदाई का वक़्त है के नहीं
अलग सियासत-ए-दर-बाँ से दिल में है इक बात
ये वक़्त मेरी रसाई का वक़्त है के नहीं
दिलों को मरकज़-ए-असरार कर गई जो निगह
उसी निगह की गदाई का वक़्त है के नहीं
श्रेणी: ग़ज़ल
फ़िराक़ से भी गए हम विसाल से भी गए
सुबुक हुए हैं तो ऐश-ए-मलाल से भी गए
जो बुत-कदे में थे वो साहिबान-ए-कश्फ़-ओ-कमाल
हरम में आए तो कश्फ़ ओ कमाल से भी गए
उसी निगाह की नरमी से डगमगाए क़दम
उसी निगाह के तेवर सँभाल से भी गए
ग़म-ए-हयात ओ ग़म-ए-दोस्त की कशाकश में
हम ऐसे लोग तो रंज ओ मलाल से भी गए
गुल ओ समर का तो रोना अलग रहा लेकिन
ये ग़म के फ़र्क़-ए-हराम-ओ-हलाल से भी गए
वो लोग जिन से तेरी बज़्म में थे हँगामे
गए तो क्या तेरी बज़्म-ए-ख़याल से भी गए
हम ऐसे कौन थे लेकिन क़फ़स की ये दुनिया
के पर-शिकस्तों में अपनी मिसाल से भी गए
चराग़-ए-बज़्म अभी जान-ए-अंजुमन न बुझा
के ये बुझा तो तेरे ख़द्दों-ख़ाल से भी गए
श्रेणी: ग़ज़ल
हज़ार वक़्त के परतव-नज़र में होते हैं
हम एक हल्क़ा-ए-वहशत-असर में होते हैं
कभी कभी निगह-ए-आश्ना के अफ़साने
उसी हदीस-ए-सर-ए-रह-गुज़र में होते हैं
वही हैं आज भी उस जिस्म-ए-नाज़नीं के ख़ुतूत
जो शाख-ए-गुल में जो मौज-ए-गुहर में होते हैं
खुला ये दिल पे के तामीर-ए-बाम-ओ-दर में होते हैं
बगूले क़ालिब-ए-दीवार-ओ-दर में होते हैं
गुज़र रहा है तू आँखें चुरा के यूँ न गुज़र
ग़लत-बयाँ भी बहुत रह-गुज़र में होते हैं
क़फ़स वही है जहाँ रंज-ए-नौ-ब-नौ ऐ दोस्त
निगह-दारी एहसास पर में होते हैं
सरिश्त-ए-गुल ही में पिनहाँ हैं सारे नक़्श ओ निगार
हुनर यही तो कफ़-ए-कूज़ा-गर में होते हैं
तिल्सिम-ए-ख़्वाब-ए-ज़ुलेख़ा ओ दाम-ए-बर्दा-फ़रोश
हज़ार तरह के क़िस्से सफ़र में होते हैं
श्रेणी: ग़ज़ल
क्या हुए बाद-ए-बयाबाँ के पुकारे हुए लोग
चाक-दर-चाक गिरेबाँ को सँवारे हुए लोग
ख़ूँ हुआ दिल के पशीमान-ए-सदाक़त है वफ़ा
ख़ुश हुआ जी को चलो आज तुम्हारे हुए लोग
ये भी क्या रंग है ऐ नर्गिस-ए-ख़्वाब-आलूदा
शहर में सब तेरे जादू के हैं मारे हुए लोग
ख़त्त-ए-माज़ूली-ए-अरबाब-ए-सितम खींच गए
ये रसब-बस्ता सलीबों से उतारे हुए लोग
वक़्त ही वो ख़त-ए-फ़ासिल है ऐ हम-नफ़्सो
दूर है मौज-ए-बला और किनारे हुए लोग
ऐ हरीफ़ान-ए-ग़म-ए-गर्दिश-ए-अय्याम आओ
एक ही ग़ोल के हम लोग हैं हारे हुए लोग
उन को ऐ नरम हवा ख़्वाब-ए-जुनूँ से न जगा
रात मै-ख़ाने की आए हैं गुज़ारे हुए लोग
श्रेणी: ग़ज़ल
सलीब ओ दार के क़िस्से रक़म होते ही रहते हैं
क़लम की जुम्बिशों पर सर क़लम होते ही रहते हैं
ये शाख़-ए-गुल है आईन-ए-नुमू से आप वाक़िफ़ हैं
समझती है के मौसम के सितम होते ही रहते हैं
कभी तेरी कभी दस्त-ए-जुनूँ की बात चलती है
ये अफ़साने तो ज़ुल्फ़-ए-ख़म-ब-ख़म होते ही रहते हैं
तवज्जोह उन की अब ऐ साकिनान-ए-शहर तुम पर है
हम ऐसों पर बहुत उन के करम होते ही रहते हैं
तेरे बंद-ए-क़बा से रिश्ता-ए-अनफ़ास-ए-दौराँ तक
कुछ उक़्दे नाख़ुनों को भी बहम होते ही रहते हैं
हुजूम-ए-लाला-ओ-नसरीं हो या लब-हा-ए-शीरीं हों
मेरी मौज-ए-नफ़स से ताज़ा-दम होते ही रहते हैं
मेरा चाक-ए-गिरेबाँ चाक-ए-दिल से मिलने वाला है
मगर ये हादसे भी बेश ओ कम होते ही रहते हैं
श्रेणी: ग़ज़ल