तेरी इन आंखों के इशारे पागल हैं
इन झीलों की मौजें,धारे पागल है
चाँद तो कुहनी मार के अक्सर गुज़रा है
अपनी ही क़िस्मत के सितारे पागल हैं
कमरों से तितली का गुज़र कब होता है
गमलों के ये फूल बेचारे पागल हैं
अक्लो खि़रद का काम नहीं है साहिल पर
नज़रें घायल और नज़ारे पागल हैं
शेरो सुखन की बात इन्हीं के बस की है
‘अना’ वना जो दर्द के मारे पागल हैं
श्रेणी: ग़ज़ल
अब हलो हाय में ही बात हुआ करती है
रास्ता चलते मुलाक़ात हुआ करती है
दिन निकलता है तो चल पड़ता हूं सूरज की तरह
थक के गिर पड़ता हूं जब रात हुआ करती है
रोज़ इक ताज़ा ग़ज़ल कोई कहां तक लिक्खे
रोज़ ही तुझमें नयी बात हुआ करती है
हम वफ़ा पेशा तो इनआम समझते हैं उसे
इन रईसों की वो खै़रात हुआ करती है
अब तो मज़हब की फ़क़त इतनी ज़रूरत है यहां
आड़ में इसके खुराफात हुआ करती है
उससे कहना के वो मौसम के न चक्कर में रहे
गर्मियों में भी तो बरसात हुआ करती है
श्रेणी: ग़ज़ल
अक्सर मिलना ऐसा हुआ बस
लब खोले और उसने कहा बस
तब से हालत ठीक नहीं है
मीठा मीठा दर्द उठा बस
सारी बातें खोल के रक्खो
मैं हूं तुम हो और खुदा बस
तुमने दुख में आंख भिगोई
मैने कोई शेर कहा बस
वाकिफ़ था मैं दर्द से उसके
मिल कर मुझसे फूट पड़ा बस
जाने भी तो बात हटाओ
तुम जीते मैं हार गया बस
इस सहरा में इतना कर दे
मीठा चश्मा,पेड़,हवा बस
श्रेणी: ग़ज़ल
उल्फ़त का फिर मन है बाबा
फिर से पागलपन है बाबा
सब के बस की बात नहीं है
जीना भी इक फ़न है बाबा
उससे जब से आंख लड़ी है
आँखों के धड़कन है बाबा
अपने अंतरमन में झाँको
सबमें इक दरपन है बाबा
हम दोनों की ज़ात अलग है
ये भी इक अड़चन है बाबा
पूरा भारत यूं लगता है
अपना घर-आँगन है बाबा
जग में तेरा-मेरा क्या है
उसका ही सब धन है बाबा
श्रेणी: ग़ज़ल
फ़न तलाशे है दहकते हुए जज़्बात का रंग
देख फीका न पड़े आज मुलाक़ात का रंग
हाथ मिलते ही उतर आया मेरे हाथों में
कितना कच्चा है मिरे दोस्त तिरे हाथ का रंग
है ये बस्ती तिरे भीगे हुए कपड़ों की तरह
तेरे इस्नान-सा लगता है ये बरसात का रंग
शायरी बोलूँ इसे या के मैं संगीत कहूँ
एक झरने-सा उतरता है तिरी बात का रंग
ये शहर शहरे-मुहब्बत की अलामत था कभी
इसपे चढ़ने लगा किस-किस के ख़्यालात[1] का रंग
है कोई रंग जो हो इश्क़े-ख़ुदा से बेहतर
अपने आपे में चढ़ा लो उसी इक ज़ात का रंग
शब्दार्थ
1 सोच
माने जो कोई बात, तो इक बात बहुत है,
सदियों के लिए पल की मुलाक़ात बहुत है ।
दिन भीड़ के पर्दे में छुपा लेगा हर इक बात,
ऐसे में न जाओ, कि अभी रात बहुत है ।
महिने में किसी रोज़, कहीं चाय के दो कप,
इतना है अगर साथ, तो फिर साथ बहुत है ।
रसमन ही सही, तुमने चलो ख़ैरियत पूछी,
इस दौर में अब इतनी मदारात[1] बहुत है ।
दुनिया के मुक़द्दर की लक़ीरों को पढ़ें हम,
कहते है कि मज़दूर का बस हाथ बहुत है ।
फिर तुमको पुकारूँगा कभी कोहे 'अना'[2]से,
अय दोस्त अभी गर्मी-ए- हालात बहुत है ।
शब्दार्थ
1 हमदर्दी
2 स्वाभिमान
श्रेणी: ग़ज़ल
कभी हाँ कुछ, मेरे भी शेर पैकर[1] में रहते हैं
वही जो रंग, तितली के सुनहरे पर में रहते हैं ।
निकल पड़ते हैं जब बाहर, तो कितना ख़ौफ़ लगता है,
वही कीड़े, जो अक्सर आदमी के सर में रहते हैं ।
यही तो एक दुनिया है, ख़्यालों की या ख़्वाबों की,
हैं जितने भी ग़ज़ल वाले, इसी चक्कर में रहते हैं ।
जिधर देखो वहीं नफ़रत के आसेबाँ[2] का साया है,
मुहब्बत के फ़रिश्ते अब कहाँ किस घर में रहते हैं ।
वो जिस दम भर के उसने आह, मुझको थामना चाहा,
यक़ीं उस दम हुआ, के दिल भी कुछ पत्थर में रहते हैं ।
शब्दार्थ
1 साचाँ
2 भूत
श्रेणी: ग़ज़ल
वो अभी पूरा नहीं था हां मगर अच्छा लगा
जंगले से झांकता आधा क़मर अच्छा लगा
इन महल वालों को कमरों में सजाने के लिए
इक पहाड़ी पर बना छोटा सा घर अच्छा लगा
इस बहाने कुछ परिंदे इस तरफ़ आते तो हैं
इस शहर के बीच ये बूढ़ा शजर अच्छा लगा
एक पागल मौज उसके पांव छूकर मर गयी
रेत पर बैठा हुआ वो बेख़बर अच्छा लगा
एक मीठी सी चुभन दिल पर ग़ज़ल लिखती रही
रात भर तड़पा किये और रात भर अच्छा लगा
जिससे नफ़रत हो गयी समझो के फिर बस हो गयी
और जो अच्छा लगा तो उम्र भर अच्छा लगा
ये ज़मीं सारी खुदा ने पागलों के हक़ में दी
उस तरफ़ ही चल पड़े इनको जिधर अच्छा लगा
बोलना तो खैर अच्छा जानते ही है हुजूर
बात कह जाना मगर ना बोल कर अच्छा लगा
श्रेणी: ग़ज़ल