किरन-धेनुएँ / नरेश मेहता
उदयाचल से किरन-धेनुएँ
हाँक ला रहा वह प्रभात का ग्वाला।
पूँछ उठाए चली आ रही
क्षितिज जंगलों से टोली
दिखा रहे पथ इस भूमा का
सारस, सुना-सुना बोली
गिरता जाता फेन मुखों से
नभ में बादल बन तिरता
किरन-धेनुओं का समूह यह
आया अन्धकार चरता,
नभ की आम्रछाँह में बैठा बजा रहा वंशी रखवाला।
ग्वालिन-सी ले दूब मधुर
वसुधा हँस-हँस कर गले मिली
चमका अपने स्वर्ण सींग वे
अब शैलों से उतर चलीं।
बरस रहा आलोक-दूध है
खेतों खलिहानों में
जीवन की नव किरन फूटती
मकई औ’ धानों में
सरिताओं में सोम दुह रहा वह अहीर मतवाला।
नीलम वंशी में से कुंकम के स्वर गूँज रहे !!
अभी महल का चाँद
किसी आलिंगन में ही डूबा होगा
कहीं नींद का फूल मृदुल
बाँहों में मुसकाता ही होगा
नींद भरे पथ में वैतालिक के स्वर मुखर रहे !!
अमराई में दमयन्ती-सी
पीली पूनम काँप रही है
अभी गयी-सी गाड़ी के
बैलों की घण्टी बोल रही है
गगन-घाटियों से चर कर ये निशिचर उतर रहे !!
अन्धकार के शिखरों पर से
दूर सूचना-तूर्य बज रहा
श्याम कपोलों पर चुम्बन का
केसर-सा पदचिह्न ढर रहा
राधा की दो पंखुरियों में मधुबन झीम रहे !!
भिनसारे में चक्की के सँग
फैल रहीं गीतों की किरनें
पास हृदय छाया लेटी है
देख रही मोती के सपने
गीत ने टूटे जीवन का, यह कंगन बोल रहे !!
हिमालय के तब आँगन में—
झील में लगा बरसने स्वर्ण
पिघलते हिमवानों के बीच
खिलखिला उठा दूब का वर्ण
शुक्र-छाया में सूना कूल देख
उतरे थे प्यासे मेघ
तभी सुन किरणाश्वों की टाप
भर गयी उन नयनों में बात
हो उठे उनके अंचल लाल
लाज कुंकुम में डूबे गाल
गिरी जब इन्द्र-दिशा में देवि
सोमरंजित नयनों की छाँह
रूप के उस वृन्दावन में !!
व्योम का ज्यों अरण्य हो शान्त
मृगी-शावक-सा अंचल थाम
तुम्हें मुनि-कन्या-सा घन-क्लान्त
तुम्हारी चम्पक—बाँहों बीच
हठीला लेता आँखें मीच
लहर को स्वर्ण कमल की नाल
समझ कर पकड़ रहे गज-बाल,
तुम्हारे उत्तरीय के रंग
किरन फैला आती हिम-शृंग
हँसी जब इन्द्र दिशा से देवि
सोम रंजित नयनों की छाँह
मलय के चन्दन-कानन में !!
हिमालय के तब आँगन में !!
थके गगन में उषा-गान !!
तम की अँधियारी अलकों में
कुंकम की पतली-सी रेख
दिवस-देवता का लहरों के
सिंहासन पर हो अभिषेक
सब दिशि के तोरण-बन्दनवारों पर किरणों की मुसकान !!
प्राची के दिकपाल इन्द्र ने
छिटका सोने का आलोक
विहगों के शिशु-गन्धर्वों के
कण्ठों में फूटे मधु-श्लोक
वसुधा करने लगी मन्त्र से वासन्ती रथ का आह्वान !!
नालपत्र-सी ग्रीवा वाले
हंस-मिथुन के मीठे बोल
सप्तसिन्धु के घिरें मेघ-से
करें उर्वरा दें रस घोल
उतरे कंचन-सी बाली में बरस पड़ें मोती के धान !!
तिमिर-दैत्य के नील-दुर्ग पर
फहराया तुमने केतन
परिपन्थी पर हमें विजय दो
स्वस्थ बने मानव-जीवन
इन्द्र हमारे रक्षक होंगे खेतों-खेतों औ’ खलिहान !!
सुख-यश, श्री बरसाती आओ
व्योमकन्यके ! सरल, नवल
अरुण-अश्व ले जाएँ तुम्हें
उस सोमदेन के राजमहल
नयन रागमय, अधर गीतमय बनें सोम का कर फिर पान !!
किरणमयी ! तुम स्वर्ण-वेश में
स्वर्ण-देश में !!
सिंचित है केसर के जल से
इन्द्रलोक की सीमा
आने दो सैन्धव घोड़ों का
रथ कुछ हल्के-धीमा,
पूषा के नभ के मन्दिर में
वरुणदेव को नींद आ रही
आज अलकनन्दा
किरणों की वंशी का संगीत गा रही
अभी निशा का छन्द शेष है अलसाये नभ के प्रदेश में !!
विजन घाटियों में अब भी
तम सोया होगा फैला कर पर
तृषित कण्ठ ले मेघों के शिशु
उतरे आज विपाशा-तट पर
शुक्र-लोक के नीचे ही
मेरी धरती का गगन-लोक है
पृथिवी की सीता-बाँहों में
फसलों का संगीत लोक है
नभ-गंगा की छाँह, ओस का उत्सव रचती दूब देश में !!
नभ से उतरो कल्याणी किरनो !
गिरि, वन-उपवन में
कंचन से भर दो बाली-मुख
रस, ऋतु मानव-मन में
सदा तुम्हारा कंचन-रथ यह
ऋतुओं के संग आये
अनागता ! यह क्षितिज हमारा
भिनसारा नित गाये
रैन-डूँगरी उतर गये सप्तर्षी अपने वरुण-देश में !!
राम : क्या यही है मनुष्य का प्रारब्ध ? कि
कर्म
निर्मम कर्म
केवल असंग कर्म करता ही चला जाए ?
भले ही वह कर्म
धारदार अस्त्र की भांति
न केवल देह
बल्कि
उसके व्यकित्व को
रागात्मिकताओं को भी काट कर रख दे।
क्या यही है मनुष्य का प्रारब्ध ??
क्या इसीलिए मनुष्य
देश और काल की विपरीत चुम्बताओं में
जीवन भर
एक प्रत्यंचा सा तना हुआ
कर्म के बाणों को वहन करने के लिए
पात्र या अपात्र
दिशा या अदिशा में सन्धान करने के लिए
केवल साधन है ?
मनुष्य
क्या केवल साधन है ?
क्या केवल माध्मय है ??
लेकिन किसका ?
कौन है वह
अपौरुषेय
जो समस्त पुरुषार्थता के अश्वों को
अपने रथ में सन्नद्ध किये हैं ?
कौन है ?
वह कौन है ??
मनुष्य की इस आदिम जिज्ञासा का उत्तर-
किसी भी दिशा पर
कभी भी दस्तक देकर देखो,
किसी भी प्रहर के
क्षितिज अवरोध को हटाकर देखो
कोई उत्तर नहीं मिलता राम !
दस्तकों की कोई प्रतिध्वनि तक नहीं आती
शून्य से किसी का देखना नहीं लौटता।
दिशा
चाहे वह यम की हो
या इन्द्र की-
जिसे प्राप्त करने के लिए
अनन्तकाल से सप्तर्षि
यात्रा-तपस्या में लीन है,
परन्तु
दिशाएँ-
उत्तर की प्रतीक्षा में
स्वयं प्रश्न बनींषय्गन।