श्री स्यामा कों करत हैं, राम सहाय प्रनाम।
जिन अहिपतधर कों कियौ, सरस निरन्तर धाम।।1।।
अरुन अयन संगीत तन, वृन्दावन हित जासु।
नगधर कमला सकत बर, बिपुंगबासन आसु।।2।।
मृदु धुनि करि मुरली पगी, लगी रसै हरिगात।
या मुरली की है अली, बनी भली बिधि बात।।3।।
घन जोबन नय चातुरी, सुन्दरता मृदु बोल।
मनमोहन नेहै बिना, सब खैहै कै मोल।।4।।
छाय रही सखि बिरह सों, बे आबी तन छाम।
पी आए लखि बरि उठी, महताबी सी बाम।।5।।
प्रथमहि पारद मैं रही, फिरि सौदामिनि माह।
तरलाई भामिनि-दृगनि, अब आई ब्रज नाह।।6।।
जमुनातट नटनागरै, निरखि रही ललचाइ।
बार-बार भरि गागरै, बारि ढारि मुसक्याइ।।7।।
रुचिराई चितवनि निकनि, चलनि चातुरी चारु।
हित चित की रुचि चुनि दई, सुनि तोही करतारु।।8।।
बढ़ि बढ़ि मुख समता लिए, चढ़ि आए निरसंक।
तातै रंक मयंक री, पायौ अंक कलंक।।9।।
कोटि जतन करि करि थकी, सुधिहि सकी न सम्भारि।
छाक छयल छवि की छकी, जकी रही यह नारि।।10।।
हो हरि गोरी खेल ते, होरी रह्यो न धीर।
संगहिं अँखियनि मैं धँसे, अलि बलबीर अबीर।।11।।
मेरे दृग को दोस री, लाइ लगावै धाइ।
बिन चितए चितचोर के, भरि आबैं अकुलाइ।।12।।
लखि लखतहिं मन हरि गयौ, जग्यौ सुमन सर जोइ।
मूरति सौ निरखति खरी, सूरति नंद किसोर।।13।।
निधरक छवि छाकैं छकैं, चलहिं न अरु बिचलैं न।
ए लोचन अति लालची, बरजेहू मानैं न।।14।।
अरी होन दै अब हँसी, लहरि भरी हौं जोइ।
हौं वा कारे की दसी, तीतो मीठो होइ।।15।।
आधे नख कर आँगुरी, मेंहदी ललित बिराजि।
मनु गुलाब की पांखुरी, बीरबधू रहि छाजि।।16।।
सरद-जामिनी कुंज को, लिए चले यदुराय।
मिली कामनी चाँदनी, केसनि दई बताय।।17।।
पुहपित पेखि पलासबन, तब पलास तन होंइ।
अब मधुमास पलास भी, सुचि जवास सम सोइ।।18।।
धीर अभय भट भेदि कै,भूरि भरीहू भीर।
झमकि जुरहिं दृग दुहुनि के, नेकु मुरहिं नहिं बीर।।19।।
लाल गुलाब प्रसून कों, अब न चलावै फेरि।
परीं बाल के गात मैं, खरो खरोटैं हेरि।।20।।
धनि धनि है धन के चरन, सिंजिंत मनि मंजीर।
कल हँसन के चेटुवन, मन ललचावन बीर।।21।।
बानि तजैं नहिं बावरे, कानि ििक हानि लजैन।
सौहैं दरसत साँवरे, होत हंसौहैं नैन।।22।।
आज अचानक गैल मैं, लखत गयौ हरि धीर।
काढ़े कढ़त न गड़ि रहे, अँखियनि मैं बलबीर।।23।।
जातरूप परिजंक कीं, पाटी रहि लपटाइ।
मीच बीच ही चहि चकी, तनु न पिछानी जाइ।।24।।
जौ वाके सिर पै परै, छाहँ सुमन की आय।
तौ बलि ताके सार सों, लंक बंक ह्वै जाय।।25।।
हौं न दुनी मैं यह सुनी, रीझत हो गुन पाय।
मो विगुनी हू पै कृपा, करत रहो यदुराय।।26।।
ठकुराइन पाइन चितै, नाइन चित चकवाइ।
फिरि फिरि जावक देति है, फिरि फिरि जाइ समाइ।।27।।
सेस छबीहि न कहि सकै, अगम कबीहि सुधीर।
स्याम सबीहि बिलोकि कै, बाम भई तसवीर।।28।।
आप भलो तो जग भलो, यह मसलो जुअ गोइ।
जौ हरि-हित करि चित-गहो, कहो कहा दुख होइ।।29।।
अहे कहो कच सुमुखि के, बिधि बिरचे रुचि जोरि।
छूट बाँधत है बंधे, लेत ललन मन छोरि।।30।।
वे नीके नीकी इहौ, क्यौं फीकी परै चाह।
दुहुँ दिसि नेह निबाह पैं, वाह वाह है वाह।।31।।
त्रिबिध प्रभंजन चलि सुरभि, करत प्रभंजन धीर।
तन मन गंजन अलि प्रभृत, बिन मनरंजन बीर।।32।।
चितवै चित आनन्द भरि, चारु चन्द्र की ओर।
प्रीति करन की रीति कों, सिखवै चातुर चकोर।।33।।
मन-खेलार तन चंग नव, उड़त रंग रस डोर।
दूरहि डोर बटोर जब, जब पारै तब ठोर।।35।।
यह अहनिसि बिकसित रहै, वह निसि मैं कुँभिलाय।
यातै तो मुख कमल लौं, कहो कहो किमि जाय।।36।।
काहि छला पहिराव री, हों बरजी बहु बार।
जाय सही नहिं बावरी, मिहदी रंग को भार।।37।।
इक दृग पिचकारी दई, इकहि लई ही लाय।
सखी बिहारी दिसि लखो, रसनहिं दसन दबाय।।37।।
चलनि भली बोलनि भली, सुछवि कपोलनि आज।
तकि सौहैं चितवनि भली, भले बने ब्रजराज।।38।।
का केकी की काकली, का काली निसि चेन।
बन माली आए अली, बनमाली आए न।।39।।
नैन उनींदे कच छुटे, सुखहिं छुटे अंगिराय।
भोर खरी सारस मुखी, आरस भरी जभाय।।40।।
तेरी सरल चितौनि तें, मोहे नंद किसोर।
कैसी गति ह्वैहै तके, कुटिल तरल चख छोर।।41।।
पी-पाती पाते उठी, ती छाती सियराइ।
सुनि सँदेस रस भेद सों, गई रचेद सोंन्हाइ।।42।।
उसरि बैठि कुकि काग रे, जो बलबीर मिलाय।
तौ कंचन के कागरे, पालूँ छीर पिलाय।।43।।
लाल उतार दई अली, मैं मेली उर बाल।
गई पसीने न्हाइ सो, भली चमेली माल।।44।।
निसि दिन पूरन जगमगै, आवै धोय कलंक।
जौ तौ बा मुख की प्रभा, पावै सरद मयंक।।45।।
स्याम बिन्दु नहिं चिबुक मैं, मो मन यौं ठहराइ।
अधमुख ठोड़ो गाड की, अँधियारी दरसाइ।।46।।
दीठि निसेनी चढ़ि चल्यो, ललचि सुचित मुख गोर।
चिबुक गड़ारे खेत मैं, निबुक गिर्यों चितचोर।।47।।
जुग जुग ये जोरी जियैं, यों दिल काहु दिया न।
ऐसी और तिया न हैं, ऐसी और पिया न।।48।।
आज रहे बलबीर री, बीर अबीर उड़ाय।
सोभा भाषि न जाय जो, आंखिन देखि न जाय।।49।।
रस बरसत है रावरो, तन पुलकित घनस्याम।
कहो अधर मैं कौन को, रहो अधकहो नाम।।50।।
चूकि समै न बिचारि तू, बादि करे अपसोस।
अपने करम फलद चितै, हरि को देइ दोस।।51।।
लाल लाई ललितई, कलित नइ्र न दरसाय।
दरसो सारस रस भरे, दृग आदरस मँगाय।।52।।
अरुन स्याम बेंदी दिए, मुकुर दरसि मुसक्याइ।
मनहु बिमल सर ससि गयौ, कुज सनि संग लिवाइ।।53।।
लाल चलत लखि बाल के, भरि आए दृग लोल।
आनन बात कढ़ी नहीं, पीरी चढ़ी कपोल।।54।।
टरत न चौबारे खड़ी, अरी भरी रस-बाम।
अरो खरो तहँ साँवरो, प्रेमभरो बस-काम।।55।।
लसत पीत पट हरि कटी, ऊँचे कर दृग नीच।
मनू चपला छबि सों, पटी है लपटी घनबीच।।56।।
भरन गई जमुना जलै, जोहि ललै ललचाइ।
ईछन भरि छबि छैल की, आई चेत गँवाइ।।57।।
सुबरन पाय लगे लगै, दुरित उदित जग माहिं।
परत रजत पायल अरी, सुबरन की ह्वै जाहिं।।58।।
मैं मोही मोहे नयन, खेह भई यह देह।
होत दुखै परिनाम करि, निरमोहीं सो नेह।।59।।
जिहि पहिरे छुगुनी अरी, छिगुनी छबि छहराहिं।
सोने के लोने भले, छले छले किहि नाहिं।।60।।
आगे चलि पाछे चलै, फिरि आगे समुहाइ।
तरुनी तरल तुरंगिनी, चली अली सँग जाइ।।61।।
सुप्रसंसा या बात की, करि जा ती गन पास।
धनि जगती मैं चातकी, हक स्वाती-धन आस।।62।।
झीनी सारी सजि लगी, न्हाय निरखि जदुराय।
खरी सकोचन सों भरी, लोचन रही नवाय।।63।।
घर हाइन चरचैं चलैं, चातुर चाइन सैन।
तदपि सनेह सने लगैं, ललकि दुहूँ के नैन।।64।।
जाति सखी काहु न लखी, रहे अथाइन गोप।
लोप भई ती जोन्ह मैं, निज अंगनि की ओप।।65।।
नई चाह मैं डुबि रही, दही बिरह बर नारि।
छला लला को लै लई, मुदरी दई उतारि।।66।।
हरितन हरितन कत तकै, हरि तन हरित निहारि।
चरित न तो तन लखि परै, कित चितहितन बिसारि।।67।।
ललित नीलकन चिबुक में, लसत प्रभा लहि दून।
मनु अरसी की पांखुरी, लगी गुलाब प्रसून।।68।।
हौं तो हौं गोरी खरी, तुम कारे जदुराय।
नहिं हिरके आवो कहूँ या अँग रँग लगि जाय।।69।।
सगरब गरब खिचैं सदा, चतुर चितेरे आय।
पर वाकी बाँकी अदा, नेकु न खींची जाय।।70।।
कलरव करि झुकि श्रुति लगै, रसगाहक चितचोर।
स्यामु बरन सुन्दर सुखद, कुंज बिहारी भोंर।।71।।
चन्द्रहार चम्पाकली, काहि अली पहिराय।
फूलनि हूँ के हार कों, भर सहौ नहिं जाय।।72।।
अँखियाँ अनमिष लेहु लखि, चलन चहत घनस्याम।
निति रहिहो घनस्याम हौं, रस बस आठो जाम।।73।।
लखि हरि रुचि गुरुजन सकुचि, भई पिछोंड़ी नीठि।
दई निरदई नहिं दई, ईठि पीठि मैं दीठि।।74।।
बरसासइत कौ बार है, बर पूजन मिसु लाल।
सुख बर बरसाने चहैं, बरसाने की बाल।।75।।
पाय लगों छोरों न अब, हायल नन्दकुमार।
छूटत हीं घायल करै, छरकायल यै बार।।76।।
यौं बाजूबँद मैं भली, छबियनि झुमका झोंरि।
कनकलता मानहु फली, मरकत मनि की घोंरि।।77।।
बन्धुजीव लागैं मलिन, भागैं बिम्ब प्रबाल।
बाल अधर को लाल लखि, नलिन कृसित कृस लाल।।78।।
चंदकला कै चंचला, कै चंपे की माल।
कै चामीकर की छरी, सुछवि भरी कै बाल।।79।।
रोम तनै तन मैं घने, स्वेदकने घन माथ।
नोके नारी देखिए, थरथरात हैं हाथ।।80।।
बिसद बसन मेहीन मैं, ती तन नूर जहूर।
मनू बिलूर फानूस मैं, दीपै दीप कपूर।।81।।
किहि बिधि जाउँ बसन्त मैं, विकसित बेलि निकुंज।
मो मुख लखि चहुँ ओर तें, झुकत झपत अलि पुंज।।82।।
चुगि चितवनि चारा परचि, गहे ढिठाई आय।
हाँसी फाँसी परि सकै, मन कुलंग न उड़ाय।।83।।
जब वाके रद की चिलक, चमचमाति जिहि कोति।
मंद होति दुति चन्द की, चपति चंचला-जोति।।84।।
त्रिभुवन सुखमा सार लै, सोम सलिल सों सानि।
रवि ससि साँचे ढार बिधि, रचे कंपोल सुजानि।।85।।
सी सी करि मुरि मुरि गई, जिन पहिरत तूँ बाल।
चूर-चूर चित ह्वै गयौ, तिन चुरियनु मैं लाल।।86।।
अलि बेचन चलिहैं चलो, सफल करहिं रसनाहिं।
जो रस गोरस मों भलो, सो रस गोरस नाहिं।।87।।
बलि कुंजत हैं कोकिले, गुंजत हैं अलिपुंज।
तने बितान लतान के, घने बने बन-कुंज।।88।।
कच चिकने मेचक चटक, चारु चिलक चित चोर।
छहरि रहे छवि छाय छुट, छुए छवा के छोर।।89।।
मुखहि अलक को छूटिवो, अबसि करै दुतिमान।
बिन बिभावरी के नहीं, जगमगात सितभान।।90।।
भोरहि चखनि चकोर कों, धनि धनि दियो अनंद।
चाहि कियो नँननंदमुख, चंद अहो सुखकंद।।91।।
चतुराई लिक चपलई, धिकधिक कारे काग।
तोहिं अछत निघरक रहैं, कूकत पिंक कुल बाग।।92।।
हौं बुझयो कबरीन सों, क्यों कारी दरसाइ।
कही जु रवि सममुख रहै, सो कारो ह्वै जाइ।।93।।
मेरे और कपोल नहिं, अरु मैं हूँ नहीं और।
ईठि आज पी दीठि कों, दीठि और यहि ठौर।।94।।
मुख देखन कों पुरबधू, जुरि आई नँद नंद।
सब की अँखियाँ ह्वँ गई, घूँघट खोलत बन्द।।95।।
हेरि हरी अचरज भरी, कहत खरी करि सोर।
दिनहिं तरनिजा तीर री, कूजित मुदित चकोर।।96।।
सखि हरि राधा सँग दिन, चले बिनि की ओर।
लखि अनंद सों सोर करि, दौरै मोर चकोर।।97।।
तारे तरनि दुरे भए, मुकुलित सरसिजु दोइ।
सखि प्रभात तम-तोम मैं, सोस सुहावन जोइ।।98।।
श्री राधा माधव हमैं, निति राखो निज छाँह।
मेरो मन तुम मैं बसो, तुम मेरे गन माँह।।99।।
कलित ललितई सतसई, रामसहाय बनाय।
हरि राधाहि नजर दई, अजर लई रति पाय।।100।