डारे कं मथनि, बिसारे कं घी कौ घडा,
बिकल बगारे कं, माखन मठा मही।
भ्रमि-भ्रमि आवति, चंधा तैं सु याही मग,
प्रेम पय पूर के प्रबाहन मनौं बही॥
झुरसि गई धौं कं, का की बियोग झार,
बार-बार बिकल, बिसूरति यही-यही
ए हो ब्रजराज ! एक ग्वालिन कहूं की आज,
भोर ही तें द्वार पै पुकारति दही-दही ॥
बोलि हारे कोकिल, बुलाई हारे केकीगन,
सिखैं हारीं सखी सब जुगति नई नई॥
द्विजदेव की सौं लाज बैरिन कुसंग इन,
अंगन ही आपने, अनीति इतनी ठई॥
हाय इन कुंजन तें, पलटि पधारे स्याम,
देखन न पाई, वह मूरति सुधामई॥
आवन समै में दुखदाइनि भई री लाज,
चलन समै में चल पलन दगा दई॥
सुर ही के भार, सूधे सबद सुकरीन के,
मंदिर त्यागि करैं, अनत कं न गौन।
द्विजदेव त्यौं ही मधु भारन अपारन सौं,
नैकु झुकि झूमि रहे, मोगरे मरुअ दौन॥
खोलि इन नैननि, निहारौं तौ निहारौं कहा,
सुखमा अभूत, छाइ रही प्रति भौन-भौन।
चांदनी के भारन, दिखात उनयो सो चंद,
गंध ही के भारन, बहत मंद-मंद पौन॥
भ्रमे भूले मलिंदनि देखि नितै, तन भूलि रहैं किन भामिनियां।
द्विजदेव जू डोली-लतान चितै, हिये धीर धरैं किमि कामिनियां॥
हरि हाई ! बिदेस में जाइ बसे, तजि ऐसे समैं गज गामिनियां।
मन बौरे न क्यों सजनी ! अब तौ, बन बौरीं बिसासिनी आमिनियां॥
बाग बिलोकनि आई इतै, वह प्यारी कलिंदसुता के किनारे।
सो द्विजदेव कहा कहिए, बिपरीत जो देखति मो दृग हारे॥
केतकी चंपक जाति जपा, जग भेद प्रसून के जेते निहारे।
ते सिगरे मिस पातन के, छबि वाही सों मांगत हाथ पसारे।
जावक के भार पग धरा पै मंद,
गंध भार कचन परी हैं छूटि अलकैं।
द्विजदेव तैसियै विचित्र बरूनी के भार,
आधे-आदे दृगन परी हैं अध पलकैं॥
ऐसी छबि देखी अंग-अंग की अपार,
बार-बार लोल लोचन सु कौन के न ललकैं।
पानिप के भारन संभारति न गात लंक,
लचि-लचि जात कुच भारन के हलकैं॥
मदमाती रसाडाल की डारन पै, चढी आनंद सों यों बिराजती है।
कुल जानि की कानि करै न कछू, मन हाथ परयेहिं पारती है॥
कोऊ कैसी करै द्विज तू ही कहै, नहिं नैकौ दया उर धारती है॥
अरी ! क्वैलिया कूकि करेजन की, किरचैं-किरचैं किए डारती है॥