मन्नू भंडारी ( जन्म : 3 अप्रैल 1931 ) हिन्दी की सुप्रसिद्ध कहानीकार हैं। मध्य प्रदेश में मंदसौर जिले के भानपुरा गाँव में जन्मी मन्नू का बचपन का नाम महेंद्र कुमारी था। लेखन के लिए उन्होंने मन्नू नाम का चुनाव किया। उन्होंने एम ए तक शिक्षा पाई और वर्षों तक दिल्ली के मिरांडा हाउस में अध्यापिका रहीं। धर्मयुग में धारावाहिक रूप से प्रकाशित उपन्यास आपका बंटी से लोकप्रियता प्राप्त करने वाली मन्नू भंडारी विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन में प्रेमचंद सृजनपीठ की अध्यक्षा भी रहीं। लेखन का संस्कार उन्हें विरासत में मिला। उनके पिता सुख सम्पतराय भी जाने माने लेखक थे।
1.
कानपुर
सामने आँगन में फैली धूप सिमटकर दीवारों पर चढ़ गई और कंधे पर बस्ता लटकाए नन्हे-नन्हे बच्चों के झुंड-के-झुंड दिखाई दिए, तो एकाएक ही मुझे समय का आभास हुआ। घंटा भर हो गया यहाँ खड़े-खड़े और संजय का अभी तक पता नहीं! झुँझलाती-सी मैं कमरे में आती हूँ। कोने में रखी मेज पर किताबें बिखरी पड़ी हैं, कुछ खुली, कुछ बंद। एक क्षण मैं उन्हें देखती रहती हूँ, फिर निरुद्देश्य-सी कपड़ों की अलमारी खोलकर सरसरी-सी नजर से कपड़े देखती हूँ। सब बिखरे पड़े हैं। इतनी देर यों ही व्यर्थ खड़ी रही; इन्हें ही ठीक कर लेती। पर मन नहीं करता और फिर बंद कर देती हूँ।
नहीं आना था तो व्यर्थ ही मुझे समय क्यों दिया? फिर यह कोई आज ही की बात है! हमेशा संजय अपने बताए हुए समय से घंटे-दो घंटे देरी करके आता है, और मैं हूँ कि उसी क्षण से प्रतीक्षा करने लगती हूँ। उसके बाद लाख कोशिश करके भी तो किसी काम में अपना मन नहीं लगा पाती। वह क्यों नहीं समझता कि मेरा समय बहुत अमूल्य है; थीसिस पूरी करने के लिए अब मुझे अपना सारा समय पढ़ाई में ही लगाना चाहिए। पर यह बात उसे कैसे समझाऊँ!
2.
मेज पर बैठकर मैं फिर पढ़ने का उपक्रम करने लगती हूँ, पर मन है कि लगता ही नहीं। पर्दे के जरा-से हिलने से दिल की धड़कन बढ़ जाती है और बार-बार नजर घड़ी के सरकते हुए काँटों पर दौड़ जाती है। हर समय यही लगता है, वह आया! वह आया!
तभी मेहता साहब की पाँच साल की छोटी बच्ची झिझकती-सी कमरे में आती है, "आंटी, हमें कहानी सुनाओगी?"
"नहीं, अभी नहीं, पीछे आना!" मैं रुखाई से जवाब देती हूँ। वह भाग जाती है। ये मिसेज मेहता भी एक ही हैं! यों तो महीनों शायद मेरी सूरत नहीं देखतीं, पर बच्ची को जब-तब मेरा सिर खाने को भेज देती हैं। मेहता साहब तो फिर भी कभी-कभी आठ-दस दिन में खैरियत पूछ ही लेते हैं, पर वे तो बेहद अकड़ू मालूम होती हैं। अच्छा ही है, ज्यादा दिलचस्पी दिखाती तो क्या मैं इतनी आजादी से घूम-फिर सकती थी?
खट-खट-खट वही परिचित पद-ध्वनि! तो आ गया संजय। मैं बरबस ही अपना सारा ध्यान पुस्तक में केंद्रित कर लेती हूँ। रजनीगंधा के ढेर-सारे फूल लिए संजय मुस्कुराता-सा दरवाजे पर खड़ा है। मैं देखती हूँ, पर मुस्कुराकर स्वागत नहीं करती। हँसता हुआ वह आगे बढ़ता है और फूलों को मेज पर पटककर, पीछे से मेरे दोनों कंधे दबाता हुआ पूछता है, "बहुत नाराज हो?"
रजनीगंधा की महक से जैसे सारा कमरा महकने लगता है।
"मुझे क्या करना है नाराज होकर?" रुखाई से मैं कहती हूँ। वह कुर्सी सहित मुझे घुमाकर अपने सामने कर लेता है, और बड़े दुलार के साथ ठोड़ी उठाकर कहता, "तुम्हीं बताओ क्या करता? क्वालिटी में दोस्तों के बीच फँसा था। बहुत कोशिश करके भी उठ नहीं पाया। सबको नाराज करके आना अच्छा भी नहीं लगता।"
इच्छा होती है, कह दूँ - "तुम्हें दोस्तों का खयाल है, उनके बुरा मानने की चिंता है, बस मेरी ही नहीं!" पर कुछ कह नहीं पाती, एकटक उसके चेहरे की ओर देखती रहती हूँ उसके साँवले चेहरे पर पसीने की बूँदें चमक रही हैं। कोई और समय होता तो मैंने अपने आँचल से इन्हें पोंछ दिया होता, पर आज नहीं। वह मंद-मंद मुस्कुरा रहा है, उसकी आँखें क्षमा-याचना कर रही हैं, पर मैं क्या करूँ? तभी वह अपनी आदत के अनुसार कुर्सी के हत्थे पर बैठकर मेरे गाल सहलाने लगता है। मुझे उसकी इसी बात पर गुस्सा आता है। हमेशा इसी तरह करेगा और फिर दुनिया-भर का लाड़-दुलार दिखलाएगा। वह जानता जो है कि इसके आगे मेरा क्रोध टिक नहीं पाता। फिर उठकर वह फूलदान के पुराने फूल फेंक देता है, और नए फूल लगाता है। फूल सजाने में वह कितना कुशल है! एक बार मैंने यों ही कह दिया था कि मुझे रजनीगंधा के फूल बड़े पसंद हैं, तो उसने नियम ही बना लिया कि हर चौथे दिन ढेर-सारे फूल लाकर मेरे कमरे में लगा देता है। और अब तो मुझे भी ऐसी आदत हो गई है कि एक दिन भी कमरे में फूल न रहें तो न पढ़ने में मन लगता है, न सोने में। ये फूल जैसे संजय की उपस्थिति का आभास देते रहते हैं।
थोड़ी देर बाद हम घूमने निकल जाते हैं। एकाएक ही मुझे इरा के पत्र की बात याद आती है। जो बात सुनने के लिए में सवेरे से ही आतुर थी, इस गुस्सेबाजी में जाने कैसे उसे ही भूल गई!
"सुनो, इरा ने लिखा है कि किसी दिन भी मेरे पास इंटरव्यू का बुलावा आ सकता है, मुझे तैयार रहना चाहिए।"
"कहाँ, कलकत्ता से?" कुछ याद करते हुए संजय पूछता है, और फिर एकाएक ही उछल पड़ता है, "यदि तुम्हें वह जॉब मिल जाए तो मजा आ जाए, दीपा, मजा आ जाए!"
हम सड़क पर हैं, नहीं तो अवश्य ही उसने आवेश में आकर कोई हरकत कर डाली होती। जाने क्यों, मुझे उसका इस प्रकार प्रसन्न होना अच्छा नहीं लगता। क्या वह चाहता है कि मैं कलकत्ता चली जाऊँ, उससे दूर?
तभी सुनाई देता है, "तुम्हें यह जॉब मिल जाए तो मैं भी अपना तबादला कलकत्ता ही करवा लूँ, हेड ऑफिस में। यहाँ की रोज की किच-किच से तो मेरा मन ऊब गया है। कितनी ही बार सोचा कि तबादले की कोशिश करूँ, पर तुम्हारे खयाल ने हमेशा मुझे बाँध लिया। ऑफिस में शांति हो जाएगी, पर मेरी शामें कितनी वीरान हो जाएँगी!"
उसके स्वर की आर्द्रता ने मुझे छू लिया। एकाएक ही मुझे लगने लगा कि रात बड़ी सुहावनी हो चली है।
हम दूर निकलकर अपनी प्रिय टेकरी पर जाकर बैठ जाते हैं। दूर-दूर तक हल्की-सी चाँदनी फैली हुई है और शहर की तरह यहाँ का वातावरण धुएँ से भरा हुआ नहीं है। वह दोनों पैर फैलाकर बैठ जाता है और घंटों मुझे अपने ऑफिस के झगड़े की बात सुनाता है और फिर कलकत्ता जाकर साथ जीवन बिताने की योजनाएँ बनाता है। मैं कुछ नहीं बोलती, बस एकटक उसे देखती हूँ, देखती रहती हूँ।
जब वह चुप हो जाता है तो बोलती हूँ, "मुझे तो इंटरव्यू में जाते हुए बड़ा डर लगता है। पता नहीं, कैसे-क्या पूछते होंगे! मेरे लिए तो यह पहला ही मौका है।"
वह खिलखिलाकर हँस पड़ता है।
"तुम भी एक ही मूर्ख हो! घर से दूर, यहाँ कमरा लेकर अकेली रहती हो, रिसर्च कर रही हो, दुनिया-भर में घूमती-फिरती हो और इंटरव्यू के नाम से डर लगता है। क्यों?" और गाल पर हल्की-सी चपत जमा देता है। फिर समझाता हुआ कहता है, "और देखो, आजकल ये इंटरव्यू आदि तो सब दिखावा-मात्र होते हैं। वहाँ किसी जान-पहचान वाले से इन्फ्लुएंस डलवाना जाकर!"
"पर कलकत्ता तो मेरे लिए एकदम नई जगह है। वहाँ इरा को छोड़कर मैं किसी को जानती भी नहीं। अब उन लोगों की कोई जान-पहचान हो तो बात दूसरी है," असहाय-सी मैं कहती हूँ।
"और किसी को नहीं जानतीं?" फिर मेरे चेहरे पर नजरें गड़ाकर पूछता है, "निशीथ भी तो वहीं है?"
"होगा, मुझे क्या करना है उससे?" मैं एकदम ही भन्नाकर जवाब देती हूँ। पता नहीं क्यों, मुझे लग ही रहा था कि अब वह यही बात कहेगा।
"कुछ नहीं करना?" वह छेड़ने के लहजे में कहता है।
और मैं भभक पड़ती हूँ, "देखो संजय, मैं हजार बार तुमसे कह चुकी हूँ कि उसे लेकर मुझसे मजाक मत किया करो! मुझे इस तरह का मजाक जरा भी पसंद नहीं है!"
वह खिलखिलाकर हँस पड़ता है, पर मेरा तो मूड ही खराब हो जाता है।
हम लौट पड़ते हैं। वह मुझे खुश करने के इरादे से मेरे कंधे पर हाथ रख देता है। मैं झपटकर हाथ हटा देती हूँ, "क्या कर रहे हो? कोई देख लेगा तो क्या कहेगा?"
"कौन है यहाँ जो देख लेगा? और देख लेगा तो देख ले, आप ही कुढ़ेगा।"
"नहीं, हमें पसंद नहीं हैं यह बेशर्मी!" और सच ही मुझे रास्ते में ऐसी हरकतें पसंद नहीं हैं चाहे रास्ता निर्जन ही क्यों न हो, पर है तो रास्ता ही, फिर कानपुर जैसी जगह।
कमरे में लौटकर मैं उसे बैठने को कहती हूँ, पर वह बैठता नहीं, बस, बाँहों में भरकर एक बार चूम लेता है। यह भी जैसे उसका रोज का नियम है।
वह चला जाता है। मैं बाहर बालकनी में निकलकर उसे देखती रहती हूँ। उसका आकार छोटा होते-होते सड़क के मोड़ पर जाकर लुप्त हो जाता है। मैं उधर ही देखती रहती हूँ - निरुद्देश्य-सी खोई-खोई-सी। फिर आकर पढ़ने बैठ जाती हूँ।
रात में सोती हूँ तो देर तक मेरी आँखें मेज पर लगे रजनीगंधा के फूलों को ही निहारती रहती हैं। जाने क्यों, अक्सर मुझे भ्रम हो जाता है कि ये फूल नहीं हैं, मानो संजय की अनेकानेक आँखें हैं, जो मुझे देख रही हैं, सहला रही हैं, दुलरा रही हैं। और अपने को यों असंख्य आँखों से निरंतर देखे जाने की कल्पना से ही मैं लजा जाती हूँ।
मैंने संजय को भी एक बार यह बात बताई थी, तो वह खूब हँसा था और फिर मेरे गालों को सहलाते हुए उसने कहा था कि मैं पागल हूँ, निरी मूर्खा हूँ!
कौन जाने, शायद उसका कहना ही ठीक हो, शायद मैं पागल ही होऊँ!
कानपुर
मैं जानती हूँ, संजय का मन निशीथ को लेकर जब-तब सशंकित हो उठता है, पर मैं उसे कैसे विश्वास दिलाऊँ कि मैं निशीथ से नफरत करती हूँ, उसकी याद-मात्र से मेरा मन घृणा से भर उठता है। फिर अठारह वर्ष की आयु में किया हुआ प्यार भी कोई प्यार होता है भला! निरा बचपन होता है, महज पागलपन! उसमें आवेश रहता है पर स्थायित्व नहीं, गति रहती है पर गहराई नहीं। जिस वेग से वह आरंभ होता है, जरा-सा झटका लगने पर उसी वेग से टूट भी जाता है। और उसके बाद आहों, आँसुओं और सिसकियों का एक दौर, सारी दुनिया की निस्सारता और आत्महत्या करने के अनेकानेक संकल्प और फिर एक तीखी घृणा। जैसे ही जीवन को दूसरा आधार मिल जाता है, उन सबको भूलने में एक दिन भी नहीं लगता। फिर तो वह सब ऐसी बेवकूफी लगती है, जिस पर बैठकर घंटों हँसने की तबीयत होती है। तब एकाएक ही इस बात का अहसास होता है कि ये सारे आँसू, ये सारी आहें उस प्रेमी के लिए नहीं थीं, वरन जीवन की उस रिक्तता और शून्यता के लिए थीं, जिसने जीवन को नीरस बनाकर बोझिल कर दिया था।
तभी तो संजय को पाते ही मैं निशीथ को भूल गई। मेरे आँसू हँसी में बदल गए और आहों की जगह किलकारियाँ गूँजने लगीं। पर संजय है कि जब-तब निशीथ की बात को लेकर व्यर्थ ही खिन्न-सा हो उठता है। मेरे कुछ कहने पर वह खिलखिला अवश्य पड़ता है, पर मैं जानती हूँ, वह पूर्ण रूप से आश्वस्त नहीं है।
उसे कैसे बताऊँ कि मेरे प्यार का, मेरी कोमल भावनाओं का, भविष्य की मेरी अनेकानेक योजनाओं का एकमात्र केंद्र संजय ही है। यह बात दूसरी है कि चाँदनी रात में, किसी निर्जन स्थान में, पेड़-तले बैठकर भी मैं अपनी थीसिस की बात करती हूँ या वह अपने ऑफिस की, मित्रों की बातें करता है, या हम किसी और विषय पर बात करने लगते हैं प़र इस सबका यह मतलब तो नहीं कि हम प्रेम नहीं करते! वह क्यों नहीं समझता कि आज हमारी भावुकता यथार्थ में बदल गई हैं, सपनों की जगह हम वास्तविकता में जीते हैं! हमारे प्रेम को परिपक्वता मिल गई हैं, जिसका आधार पाकर वह अधिक गहरा हो गया है, स्थायी हो गया है।
पर संजय को कैसे समझाऊँ यह सब? कैसे उसे समझाऊँ कि निशीथ ने मेरा अपमान किया है, ऐसा अपमान, जिसकी कचोट से मैं आज भी तिलमिला जाती हूँ। संबंध तोड़ने से पहले एक बार तो उसने मुझे बताया होता कि आखिर मैंने ऐसा कौन-सा अपराध कर डाला था, जिसके कारण उसने मुझे इतना कठोर दंड दे डाला? सारी दुनिया की भर्त्सना, तिरस्कार, परिहास और दया का विष मुझे पीना पड़ा। विश्वासघाती! नीच कहीं का! और संजय सोचता है कि आज भी मेरे मन में उसके लिए कोई कोमल स्थान है! छिः! मैं उससे नफरत करती हूँ! और सच पूछो तो अपने को भाग्यशालिनी समझती हूँ कि मैं एक ऐसे व्यक्ति के चंगुल में फँसने से बच गई, जिसके लिए प्रेम महज एक खिलवाड़ है।
संजय, यह तो सोचो कि यदि ऐसी कोई भी बात होती, तो क्या मैं तुम्हारे आगे, तुम्हारी हर उचित-अनुचित चेष्टा के आगे, यों आत्मसमर्पण करती? तुम्हारे चुंबनों और आलिंगनों में अपने को यों बिखरने देती? जानते हो, विवाह से पहले कोई भी लड़की किसी को इन सबका अधिकार नहीं देती। पर मैंने दिया। क्या केवल इसीलिए नहीं कि मैं तुम्हें प्यार करती हूँ, बहुत-बहुत प्यार करती हूँ? विश्वास करो संजय, तुम्हारा-मेरा प्यार ही सच है। निशीथ का प्यार तो मात्र छल था, भ्रम था, झूठ था।
कानपुर
परसों मुझे कलकत्ता जाना है। बड़ा डर लग रहा है। कैसे क्या होगा? मान लो, इंटरव्यू में बहुत नर्वस हो गई, तो? संजय को कह रही हूँ कि वह भी साथ चले, पर उसे ऑफिस से छुट्टी नहीं मिल सकती। एक तो नया शहर, फिर इंटरव्यू! अपना कोई साथ होता तो बड़ा सहारा मिल जाता। मैं कमरा लेकर अकेली रहती हूँ यों अकेली घूम-फिर भी लेती हूँ तो संजय सोचता है, मुझमें बड़ी हिम्मत है, पर सच, बड़ा डर लग रहा है।
बार-बार मैं यह मान लेती हूँ कि मुझे नौकरी मिल गई है और मैं संजय के साथ वहाँ रहने लगी हूँ। कितनी सुंदर कल्पना है, कितनी मादक! पर इंटरव्यू का भय मादकता से भरे इस स्वप्नजाल को छिन्न-भिन्न कर देता है।
काश, संजय भी किसी तरह मेरे साथ चल पाता!
कलकत्ता
गाड़ी जब हावड़ा स्टेशन के प्लेटफॉर्म पर प्रवेश करती है तो जाने कैसी विचित्र आशंका, विचित्र-से भय से मेरा मन भर जाता है। प्लेटफॉर्म पर खड़े असंख्य नर-नारियों में मैं इरा को ढूँढ़ती हूँ। वह कहीं दिखाई नहीं देती। नीचे उतरने के बजाय खिड़की में से ही दूर-दूर तक नजरें दौड़ाती हूँ। आखिर एक कुली को बुलाकर, अपना छोटा-सा सूटकेस और बिस्तर उतारने का आदेश दे, मैं नीचे उतर पड़ती हूँ। उस भीड़ को देखकर मेरी दहशत जैसे और बढ़ जाती है। तभी किसी के हाथ के स्पर्श से मैं बुरी तरह चौंक जाती हूँ। पीछे देखती हूँ तो इरा खड़ी है।
रूमाल से चेहरे का पसीना पोंछते हुए कहती हूँ, "ओफ! तुझे न देखकर मैं घबरा रही थी कि तुम्हारे घर भी कैसे पहुँचूँगी!"
बाहर आकर हम टैक्सी में बैठते हैं। अभी तक मैं स्वस्थ नहीं हो पाई हूँ। जैसे ही हावड़ा-पुल पर गाड़ी पहुँचती है, हुगली के जल को स्पर्श करती हुई ठंडी हवाएँ तन-मन को एक ताजगी से भर देती हैं। इरा मुझे इस पुल की विशेषता बताती है और मैं विस्मित-सी उस पुल को देखती हूँ, दूर-दूर तक फैले हुगली के विस्तार को देखती हूँ, उसकी छाती पर खड़ी और विहार करती अनेक नौकाओं को देखती हूँ, बड़े-बड़े जहाजों को देखती हूँ।
उसके बाद बहुत ही भीड़-भरी सड़कों पर हमारी टैक्सी रुकती-रुकती चलती है। ऊँची-ऊँची इमारतों और चारों ओर के वातावरण से कुछ विचित्र-सी विराटता का आभास होता है, और इस सबके बीच जैसे मैं अपने को बड़ा खोया-खोया-सा महसूस करती हूँ। कहाँ पटना और कानपुर और कहाँ यह कलकत्ता! मैंने तो आज तक कभी बहुत बड़े शहर देखे ही नहीं!
सारी भीड़ को चीरकर हम रैड रोड पर आ जाते हैं। चौड़ी शांत सड़क। मेरे दोनों ओर लंबे-चौड़े खुले मैदान।
"क्यों इरा, कौन-कौन लोग होंगे इंटरव्यू में? मुझे तो बड़ा डर लग रहा है।"
"अरे, सब ठीक हो जाएगा! तू और डर? हम जैसे डरें तो कोई बात भी है। जिसने अपना सारा कैरियर अपने-आप बनाया, वह भला इंटरव्यू में डरे! फिर कुछ देर ठहरकर कहती है, "अच्छा, भैया-भाभी तो पटना ही होंगे? जाती है कभी उनके पास भी या नहीं?"
"कानपुर आने के बाद एक बार गई थी। कभी-कभी यों ही पत्र लिख देती हूँ।"
"भई कमाल के लोग हैं! बहन को भी नहीं निभा सके!"
मुझे यह प्रसंग कतई पसंद नहीं। मैं नहीं चाहती कि कोई इस विषय पर बात करे। मैं मौन ही रहती हूँ।
इरा का छोटा-सा घर है, सुंदर ढंग से सजाया हुआ। उसके पति के दौरे पर जाने की बात सुनकर पहले तो मुझे अफसोस हुआ था, वे होते तो कुछ मदद ही करते! पर फिर एकाएक लगा कि उनकी अनुपस्थिति में मैं शायद अधिक स्वतंत्रता का अनुभव कर सकूँ। उनका बच्चा भी बड़ा प्यारा है।
शाम को इरा मुझे कॉफी-हाउस ले जाती है। अचानक मुझे वहाँ निशीथ दिखाई देता है। मैं सकपकाकर नजर घुमा लेती हूँ। पर वह हमारी मेज पर ही आ पहुँचता है। विवश होकर मुझे उधर देखना पड़ता है, नमस्कार भी करना पड़ता है, इरा का परिचय भी करवाना पड़ता है। इरा पास की कुर्सी पर बैठने का निमंत्रण दे देती है। मुझे लगता है, मेरी साँस रुक जाएगी।
"कब आईं?"
"आज सवेरे ही।"
"अभी ठहरोगी? ठहरी कहाँ हो?"
जवाब इरा देती है। मैं देख रही हूँ, निशीथ बहुत बदल गया है। उसने कवियों की तरह बाल बढ़ा लिए हैं। यह क्या शौक चर्राया? उसका रंग स्याह पड़ गया है। वह दुबला भी हो गया है।
विशेष बातचीत नहीं होती और हम लोग उठ पड़ते हैं। इरा को मुन्नू की चिंता सता रही थी, और मैं स्वयं भी घर पहुँचने को उतावली हो रही थी। कॉफी-हाउस से धर्मतल्ला तक वह पैदल चलता हुआ हमारे साथ आता है। इरा उससे बात कर रही है, मानो वह इरा का ही मित्र हो! इरा अपना पता समझा देती है और वह दूसरे दिन नौ बजे आने का वायदा करके चला जाता है।
पूरे तीन साल बाद निशीथ का यों मिलना! न चाहकर भी जैसे सारा अतीत आँखों के सामने खुल जाता है। बहुत दुबला हो गया है निशीथ! लगता है, जैसे मन में कहीं कोई गहरी पीड़ा छिपाए बैठा है।
मुझसे अलग होने का दुख तो नहीं साल रहा है इसे?
कल्पना चाहे कितनी भी मधुर क्यों न हो, एक तृप्ति-युक्त आनंद देनेवाली क्यों न हो, पर मैं जानती हूँ, यह झूठ है। यदि ऐसा ही था तो कौन उसे कहने गया था कि तुम इस संबंध को तोड़ दो? उसने अपनी इच्छा से ही तो यह सब किया था।
एकाएक ही मेरा मन कटु हो उठता है। यही तो है वह व्यक्ति जिसने मुझे अपमानित करके सारी दुनिया के सामने छोड़ दिया था, महज उपहास का पात्र बनाकर! ओह, क्यों नहीं मैंने उसे पहचानने से इनकार कर दिया? जब वह मेज के पास आकर खड़ा हुआ, तो क्यों नहीं मैंने कह दिया कि माफ कीजिए, मैं आपको पहचानती नहीं? जरा उसका खिसियाना तो देखती! वह कल भी आएगा। मुझे उसे साफ-साफ मना कर देना चाहिए था कि मैं उसकी सूरत भी नहीं देखना चाहती, मैं उससे नफरत करती हूँ!
अच्छा है, आए कल! मैं उसे बता दूँगी कि जल्दी ही मैं संजय से विवाह करनेवाली हूँ। यह भी बता दूँगी कि मैं पिछला सब कुछ भूल चुकी हूँ। यह भी बता दूँगी कि मैं उससे घृणा करती हूँ और उसे जिन्दगी में कभी माफ नहीं कर सकती।
यह सब सोचने के साथ-साथ जाने क्यों, मेरे मन में यह बात भी उठ रही थी कि तीन साल हो गए, अभी तक निशीथ ने विवाह क्यों नहीं किया? करे न करे, मुझे क्या?
क्या वह आज भी मुझसे कुछ उम्मीद रखता है? हूँ! मूर्ख कहीं का!
संजय! मैंने तुमसे कितना कहा था कि तुम मेरे साथ चलो, पर तुम नहीं आए। इस समय जबकि मुझे तुम्हारी इतनी-इतनी याद आ रही है, बताओ, मैं क्या करूँ?
कलकत्ता
नौकरी पाना इतना मुश्किल है, इसका मुझे गुमान तक नहीं था। इरा कहती है कि डेढ़ सौ की नौकरी के लिए खुद मिनिस्टर तक सिफारिश करने पहुँच जाते हैं, फिर यह तो तीन सौ का जॉब है। निशीथ सवेरे से शाम तक इसी चक्कर में भटका है, यहाँ तक कि उसने अपने ऑफिस से भी छुट्टी ले ली है। वह क्यों मेरे काम में इतनी दिलचस्पी ले रहा है? उसका परिचय बड़े-बड़े लोगों से है और वह कहता है कि जैसे भी होगा, वह काम मुझे दिलाकर ही मानेगा। पर आखिर क्यों?
कल मैंने सोचा था कि अपने व्यवहार की रुखाई से मैं स्पष्ट कर दूँगी कि अब वह मेरे पास न आए। पौने नौ बजे के करीब, जब मैं अपने टूटे हुए बाल फेंकने खिड़की पर गई, तो देखा, घर से थोड़ी दूर पर निशीथ टहल रहा है। वही लंबे बाल, कुरता-पाजामा। तो वह समय से पहले ही आ गया! संजय होता तो ग्यारह के पहले नहीं पहुँचता, समय पर पहुँचना तो वह जानता ही नहीं।
उसे यों चक्कर काटते देख मेरा मन जाने कैसा हो आया। और जब वह आया तो मैं चाहकर भी कटु नहीं हो सकी। मैंने उसे कलकत्ता आने का मकसद बताया, तो लगा कि वह बड़ा प्रसन्न हुआ। वहीं बैठे-बैठे फोन करके उसने इस नौकरी के संबंध में सारी जानकारी प्राप्त कर ली, कैसे क्या करना होगा, उसकी योजना भी बना डाली, बैठे-बैठे फोन से ऑफिस को सूचना भी दे दी कि आज वह ऑफिस नहीं आएगा।
विवित्र स्थिति मेरी हो रही थी। उसके इस अपनत्व-भरे व्यवहार को मैं स्वीकार भी नहीं कर पाती थी, नकार भी नहीं पाती थी। सारा दिन मैं उसके साथ घूमती रही, पर काम की बात के अतिरिक्त उसने एक भी बात नहीं की। मैंने कई बार चाहा कि संजय की बात बता दूँ,
पर बता नहीं सकी। सोचा, कहीं वह सुनकर यह दिलचस्पी लेना कम न कर दे। उसके आज-भर के प्रयत्नों से ही मुझे काफी उम्मीद हो चली थी। यह नौकरी मेरे लिए कितनी आवश्यक है, मिल जाए तो संजय कितना प्रसन्न होगा, हमारे विवाहित जीवन के आरंभिक दिन कितने सुख में बीतेंगे!
शाम को हम घर लौटते हैं। मैं उसे बैठने को कहती हूँ, पर वह बैठता नहीं, बस खड़ा ही रहता है। उसके चौड़े ललाट पर पसीने की बूँदें चमक रही हैं। एकाएक ही मुझे लगता है, इस समय संजय होता, तो? मैं अपने आँचल से उसका पसीना पोंछ देती, और वह क्या बिना बाँहों में भरे, बिना प्यार किए यों ही चला जाता?
"अच्छा, तो चलता हूँ।"
यंत्रचालित-से मेरे हाथ जुड़ जाते हैं, वह लौट पड़ता है और मैं ठगी-सी देखती रहती हूँ।
सोते समय मेरी आदत है कि संजय के लाए हुए फूलों को निहारती रहती हूँ। यहाँ वे फूल नहीं हैं तो बड़ा सूना-सूना सा लग रहा है।
पता नहीं संजय, तुम इस समय क्या कर रहे हो! तीन दिन हो गए, किसी ने बाँहों में भरकर प्यार तक नहीं किया।
कलकत्ता
आज सवेरे मेरा इंटरव्यू हो गया है। मैं शायद बहुत नर्वस हो गई थी और जैसे उत्तर मुझे देने चाहिए, वैसे नहीं दे पाई। पर निशीथ ने आकर बताया कि मेरा चुना जाना करीब-करीब तय हो गया है। मैं जानती हूँ, यह सब निशीथ की वजह से ही हुआ।
ढलते सूरज की धूप निशीथ के बाएँ गाल पर पड़ रही थी और सामने बैठा निशीथ इतने दिन बाद एक बार फिर मुझे बड़ा प्यारा-सा लगा।
मैंने देखा, मुझसे ज्यादा वह प्रसन्न है। वह कभी किसी का अहसान नहीं लेता, पर मेरी खातिर उसने न जाने कितने लोगों को अहसान लिया। आखिर क्यों? क्या वह चाहता है कि मैं कलकत्ता आकर रहूँ उसके साथ, उसके पास? एक अजीब-सी पुलक से मेरा तन-मन सिहर उठता है। वह ऐसा क्यों चाहता है? उसका ऐसा चाहना बहुत गलत है, बहुत अनुचित है! मैं अपने मन को समझाती हूँ, ऐसी कोई बात नहीं है, शायद वह केवल मेरे प्रति किए गए अन्याय का प्रतिकार करने के लिए यह सब कर रहा है! पर क्या वह समझता है कि उसकी मदद से नौकरी पाकर मैं उसे क्षमा कर दूँगी, या जो कुछ उसने किया है, उसे भूल जाऊँगी? असंभव! मैं कल ही उसे संजय की बात बता दूँगी।
"आज तो इस खुशी में पार्टी हो जाए!"
काम की बात के अलावा यह पहला वाक्य मैं उसके मुँह से सुनती हूँ, मैं इरा की ओर देखती हूँ। वह प्रस्ताव का समर्थन करके भी मुन्नू की तबीयत का बहाना लेकर अपने को काट लेती है। अकेले जाना मुझे कुछ अटपटा-सा लगता है। अभी तक तो काम का बहाना लेकर घूम रही थी, पर अब? फिर भी मैं मना नहीं कर पाती। अंदर जाकर तैयार होती हूँ। मुझे याद आता है, निशीथ को नीला रंग बहुत पसंद था, मैं नीली साड़ी ही पहनती हूँ। बड़े चाव और सतर्कता से अपना प्रसाधन करती हूँ, और बार-बार अपने को टोकती जाती हूँ - किसको रिझाने के लिए यह सब हो रहा है? क्या यह निरा पागलपन नहीं है?
सीढ़ियों पर निशीथ हल्की-सी मुस्कुराहट के साथ कहता है, "इस साड़ी में तुम बहुत सुंदर लग रही हो।"
मेरा चेहरा तमतमा जाता है, कनपटियाँ सुर्ख हो जाती हैं। मैं चुपचाप ही इस वाक्य के लिए तैयार नहीं थी। यह सदा चुप रहनेवाला निशीथ बोला भी तो ऐसी बात।
मुझे ऐसी बातें सुनने की जरा भी आदत नहीं है। संजय न कभी मेरे कपड़ों पर ध्यान देता है, न ऐसी बातें करता है, जब कि उसे पूरा अधिकार है। और यह बिना अधिकार ऐसी बातें करे?
3.
पर जाने क्या है कि मैं उस पर नाराज नहीं हो पाती हूँ, बल्कि एक पुलकमय सिहरन महसूस करती हूँ। सच, संजय के मुँह से ऐसा वाक्य सुनने को मेरा मन तरसता रहता है, पर उसने कभी ऐसी बात नहीं की। पिछले ढाई साल से मैं संजय के साथ रह रही हूँ। रोज ही शाम को हम घूमने जाते हैं। कितनी ही बार मैंने शृंगार किया, अच्छे कपड़े पहने, पर प्रशंसा का एक शब्द भी उसके मुँह से नहीं सुना। इन बातों पर उसका ध्यान ही नहीं जाता, यह देखकर भी जैसे यह सब नहीं देख पाता। इस वाक्य को सुनने के लिए तरसता हुआ मेरा मन जैसे रस से नहा जाता है। पर निशीथ ने यह बात क्यों कही? उसे क्या अधिकार है?
क्या सचमुच ही उसे अधिकार नहीं है? नहीं है?
जाने कैसी मजबूरी है, कैसी विवशता है कि मैं इस बात का जवाब नहीं दे पाती हूँ। निश्चयात्मक दृढ़ता से नहीं कह पाती कि साथ चलते इस व्यक्ति को सचमुच ही मेरे विषय में ऐसी अवांछित बात कहने का कोई अधिकार नहीं है।
हम दोनों टैक्सी में बैठते हैं। मैं सोचती हूँ, आज मैं इसे संजय की बात बता दूँगी।
"स्काई-रूम!" निशीथ टैक्सीवाले को आदेश देता है।
'टुन' की घंटी के साथ मीटर डाउन होता है और टैक्सी हवा से बातें करने लगती है। निशीथ बहुत सतर्कता से कोने में बैठा है, बीच में इतनी जगह छोड़कर कि यदि हिचकोला खाकर भी टैक्सी रुके, तो हमारा स्पर्श न हो। हवा के झोंके से मेरी रेशमी साड़ी का पल्लू उसके समूचे बदन को स्पर्श करता हुआ उसकी गोदी में पड़कर फरफराता है। वह उसे हटाता नहीं है। मुझे लगता है, यह रेशमी, सुवासित पल्लू उसके तन-मन को रस से भिगो रहा है, यह स्पर्श उसे पुलकित कर रहा है, मैं विजय के अकथनीय आह्लाद से भर जाती हूँ।
आज भी मैं संजय की बात नहीं कह पाती। चाहकर भी नहीं कह पाती। अपनी इस विवशता पर मुझे खीज भी आती है, पर मेरा मुँह है कि खुलता ही नहीं। मुझे लगता है कि मैं जैसे कोई बहुत बड़ा अपराध कर रही होऊँ, पर फिर भी मैं कुछ नहीं कह सकी।
यह निशीथ कुछ बोलता क्यों नहीं? उसका यों कोने में दुबककर निर्विकार भाव से बैठे रहना मुझे कतई अच्छा नहीं लगता। एकाएक ही मुझे संजय की याद आने लगती है। इस समय वह यहाँ होता तो उसका हाथ मेरी कमर में लिपटा होता! यों सड़क पर ऐसी हरकतें मुझे स्वयं पसंद नहीं, पर जाने क्यों, किसी की बाँहों की लपेट के लिए मेरा मन ललक उठता है। मैं जानती हूँ कि जब निशीथ बगल में बैठा हो, उस समय ऐसी इच्छा करना, या ऐसी बात सोचना भी कितना अनुचित है। पर मैं क्या करूँ? जितनी द्रुतगति से टैक्सी चली जा रही है, मुझे लगता है, उतनी ही द्रुतगति से मैं भी बही जा रही हूँ, अनुचित, अवांछित दिशाओं की ओर।
टैक्सी झटका खाकर रुकती है तो मेरी चेतना लौटती है। मैं जल्दी से दाहिनी ओर का फाटक खोलकर कुछ इस हड़बड़ी से नीचे उतर पड़ती हूँ, मानो अंदर निशीथ मेरे साथ कोई बदतमीजी कर रहा हो।
"अजी, इधर से उतरना चाहिए कभी?" टैक्सीवाला कहता है मुझे अपनी गलती का भान होता है। उधर निशीथ खड़ा है, इधर मैं, बीच में टैक्सी!
पैसे लेकर टैक्सी चली जाती है तो हम दोनों एक-दूसरे के आमने-सामने हो जाते हैं। एकाएक ही मुझे खयाल आता है कि टैक्सी के पैसे तो मुझे ही देने चाहिए थे। पर अब क्या हो सकता था! चुपचाप हम दोनों अंदर जाते हैं। आस-पास बहुत कुछ है, चहल-पहल, रौशनी, रौनक। पर मेरे लिए जैसे सबका अस्तित्व ही मिट जाता है। मैं अपने को सबकी नजरों से ऐसे बचाकर चलती हूँ, मानो मैंने कोई अपराध कर डाला हो, और कोई मुझे पकड़ न ले।
क्या सचमुच ही मुझसे कोई अपराध हो गया है?
आमने-सामने हम दोनों बैठ जाते हैं। मैं होस्ट हूँ, फिर भी उसका पार्ट वही अदा कर रहा है। वही ऑर्डर देता है। बाहर की हलचल और उससे अधिक मन की हलचल में मैं अपने को खोया-खोया-सा महसूस करती हूँ।
हम दोनों के सामने बैरा कोल्ड-कॉफी के गिलास और खाने का कुछ सामान रख जाता है। मुझे बार-बार लगता है कि निशीथ कुछ कहना चाह रहा है। मैं उसके होंठों की धड़कन तक महसूस करती हूँ। वह जल्दी से कॉफी का स्ट्रॉ मुँह से लगा लेता है।
मूर्ख कहीं का! वह सोचता है, मैं बेवकूफ हूँ। मैं अच्छी तरह जानती हूँ कि इस समय वह क्या सोच रहा है।
तीन दिन साथ रहकर भी हमने उस प्रसंग को नहीं छेड़ा। शायद नौकरी की बात ही हमारे दिमागों पर छाई हुई थी। पर आज आज अवश्य ही वह बात आएगी! न आए, यह कितना अस्वाभाविक है! पर नहीं, स्वाभाविक शायद यही है। तीन साल पहले जो अध्याय सदा के लिए बंद हो गया, उसे उलटकर देखने का साहस शायद हम दोनों में से किसी में नहीं है। जो संबंध टूट गए, टूट गए। अब उन पर कौन बात करे? मैं तो कभी नहीं करूँगी। पर उसे तो करना चाहिए। तोड़ा उसने था, बात भी वही आरंभ करे। मैं क्यों करूँ, और मुझे क्या पड़ी है? मैं तो जल्दी ही संजय से विवाह करनेवाली हूँ। क्यों नहीं मैं इसे अभी संजय की बात बता देती? पर जाने कैसी विवशता है, जाने कैसा मोह है कि मैं मुँह नहीं खोल पाती। एकाएक मुझे लगता है जैसे उसने कुछ कहा
"आपने कुछ कहा?"
"नहीं तो!"
मैं खिसिया जाती हूँ।
फिर वही मौन! खाने में मेरा जरा भी मन नहीं लग रहा है, पर यंत्रचालित-सी मैं खा रही हूँ। शायद वह भी ऐसे ही खा रहा है। मुझे फिर लगता है कि उसके होंठ फड़क रहे हैं, और स्ट्रॉ पकड़े हुए उँगलियाँ काँप रही हैं। मैं जानती हूँ, वह पूछना चाहता है, "दीपा, तुमने मुझे माफ तो कर दिया न?
वह पूछ ही क्यों नहीं लेता? मान लो, यदि पूछ ही ले, तो क्या मैं कह सकूँगी कि मैं तुम्हें जिंदगी-भर माफ नहीं कर सकती, मैं तुमसे नफरत करती हूँ, मैं तुम्हारे साथ घूम-फिर ली, या कॉफी पी ली, तो यह मत समझो कि मैं तुम्हारे विश्वासघात की बात को भूल गई हूँ?
और एकाएक ही पिछला सब कुछ मेरी आँखों के आगे तैरने लगता है। पर यह क्या? असह्य अपमानजनित पीड़ा, क्रोध और कटुता क्यों नहीं याद आती? मेरे सामने तो पटना में गुजारी सुहानी संध्याओं और चाँदनी रातों के वे चित्र उभरकर आते हैं, जब घंटों समीप बैठ, मौन भाव से हम एक-दूसरे को निहारा करते थे। बिना स्पर्श किए भी जाने कैसी मादकता तन-मन को विभोर किए रहती थी, जाने कैसी तन्मयता में हम डूबे रहते थे एक विचित्र-सी, स्वप्निल दुनिया में! मैं कुछ बोलना भी चाहती तो वह मेरे मुँह पर उँगली रखकर कहता, "आत्मीयता के ये क्षण अनकहे ही रहने दो, दीपा!"
आज भी तो हम मौन ही हैं, एक-दूसरे के निकट ही हैं। क्या आज भी हम आत्मीयता के उन्हीं क्षणों में गुजर रहे हैं? मैं अपनी सारी शक्ति लगाकर चीख पड़ना चाहती हूँ, नही! नहीं! नहीं! पर कॉफी सिप करने के अतिरिक्त मैं कुछ नहीं कर पाती। मेरा यह विरोध हृदय की न जाने कौन-सी अतल गहराइयों में डूब जाता है!
निशीथ मुझे बिल नहीं देने देता। एक विचित्र-सी भावना मेरे मन में उठती है कि छीना-झपटी में किसी तरह मेरा हाथ इसके हाथ से छू जाए! मैं अपने स्पर्श से उसके मन के तारों को झनझना देना चाहती हूँ। पर वैसा अवसर नहीं आता। बिल वही देता है, मुझसे तो विरोध भी नहीं किया जाता।
मन में प्रचंड तूफान! पर फिर भी निर्विकार भाव से मैं टैक्सी में आकर बैठती हूँ फिर वही मौन, वही दूरी। पर जाने क्या है कि मुझे लगता है कि निशीथ मेरे बहुत निकट आ गया है, बहुत ही निकट! बार-बार मेरा मन करता है कि क्यों नहीं निशीथ मेरा हाथ पकड़ लेता, क्यों नहीं मेरे कंधे पर हाथ रख देता? मैं जरा भी बुरा नहीं मानूँगी, जरा भी नहीं! पर वह कुछ भी नहीं करता।
सोते समय रोज की तरह मैं आज भी संजय का ध्यान करते हुए ही सोना चाहती हूँ, पर निशीथ है कि बार-बार संजय की आकृति को हटाकर स्वयं आ खड़ा होता है।
कलकत्ता
अपनी मजबूरी पर खीज-खीज जाती हूँ। आज कितना अच्छा मौका था सारी बात बता देने का! पर मैं जाने कहाँ भटकी थी कि कुछ भी नहीं बता पाई।
शाम को मुझे निशीथ अपने साथ 'लेक' ले गया। पानी के किनारे हम घास पर बैठ गए। कुछ दूर पर काफी भीड़-भाड़ और चहल-पहल थी, पर यह स्थान अपेक्षाकृत शांत था। सामने लेक के पानी में छोटी-छोटी लहरें उठ रही थीं। चारों ओर के वातावरण का कुछ विचित्र-सा भाव मन पर पड़ रहा था।
"अब तो तुम यहाँ आ जाओगी!" मेरी ओर देखकर उसने कहा।
"हाँ!"
"नौकरी के बाद क्या इरादा है?"
मैंने देखा, उसकी आँखों में कुछ जानने की आतुरता फैलती जा रही है, शायद कुछ कहने की भी। मुझसे कुछ जानकर वह अपनी बात कहेगा।
"कुछ नहीं!" जाने क्यों मैं यह कह गई। कोई है जो मुझे कचोटे डाल रहा है। क्यों नहीं मैं बता देती कि नौकरी के बाद मैं संजय से विवाह करूँगी, मैं संजय से प्रेम करती हूँ, वह मुझसे प्रेम करता है? वह बहुत अच्छा है, बहुत ही! वह मुझे तुम्हारी तरह धोखा नहीं देगा, पर मैं कुछ भी तो नहीं कह पाती। अपनी इस बेबसी पर मेरी आँखें छलछला आती हैं। मैं दूसरी ओर मुँह फेर लेती हूँ।
"तुम्हारे यहाँ आने से मैं बहुत खुश हूँ!"
मेरी साँस जहाँ-की-तहाँ रुक जाती है आगे के शब्द सुनने के लिए, पर शब्द नहीं आते। बड़ी कातर, करुण और याचना-भरी दृष्टि से मैं उसे देखती हूँ, मानो कह रही होऊँ कि तुम कह क्यों नहीं देते निशीथ, कि आज भी तुम मुझे प्यार करते हो, तुम मुझे सदा अपने पास रखना चाहते हो, जो कुछ हो गया है, उसे भूलकर तुम मुझसे विवाह करना चाहते हो? कह दो, निशीथ, कह दो! य़ह सुनने के लिए मेरा मन अकुला रहा है, छटपटा रहा है! मैं बुरा नहीं मानूँगी, जरा भी बुरा नहीं मानूँगी। मान ही कैसे सकती हूँ निशीथ! इतना सब हो जाने के बाद भी शायद मैं तुम्हें प्यार करती हूँ - शायद नहीं, सचमुच ही मैं तुम्हें प्यार करती हूँ!
मैं जानती हूँ - तुम कुछ नहीं कहोगे, सदा के ही मितभाषी जो हो। फिर भी कुछ सुनने की आतुरता लिए मैं तुम्हारी तरफ देखती रहती हूँ। पर तुम्हारी नजर तो लेक के पानी पर जमी हुई है शांत, मौन!
आत्मीयता के ये क्षण अनकहे भले ही रह जाएँ पर अनबूझे नहीं रह सकते। तुम चाहे न कहो, पर मैं जानती हूँ, तुम आज भी मुझे प्यार करते हो, बहुत प्यार करते हो! मेरे कलकत्ता आ जाने के बाद इस टूटे संबंध को फिर से जोड़ने की बात ही तुम इस समय सोच रहे हो। तुम आज भी मुझे अपना ही समझते हो, तुम जानते हो, आज भी दीपा तुम्हारी है! और मैं?
लगता है, इस प्रश्न का उत्तर देने का साहस मुझमें नहीं है। मुझे डर है कि जिस आधार पर मैं तुमसे नफरत करती थी, उसी आधार पर कहीं मुझे अपने से नफरत न करनी पड़े।
लगता है, रात आधी से भी अधिक ढल गई है।
कानपुर
मन में उत्कट अभिलाषा होते हुए भी निशीथ की आवश्यक मीटिंग की बात सुनकर मैंने कह दिया था कि तुम स्टेशन मत आना। इरा आई थी, पर गाड़ी पर बिठाकर ही चली गई, या कहूँ कि मैंने जबर्दस्ती ही उसे भेज दिया। मैं जानती थी कि लाख मना करने पर भी निशीथ आएगा और विदा के उन अंतिम क्षणों में मैं उसके साथ अकेली ही रहना चाहती थी। मन में एक दबी-सी आशा थी कि चलते समय ही शायद वह कुछ कह दे। गाड़ी चलने में जब दस मिनट रह गए तो देखा, बड़ी व्यग्रता से डिब्बों में झाँकता-झाँकता निशीथ आ रहा था। पागल! उसे इतना तो समझना चाहिए कि उसकी प्रतीक्षा में मैं यहाँ बाहर खड़ी हूँ!
मैं दौड़कर उसके पास जाती हूँ, "आप क्यों आए?" पर मुझे उसका आना बड़ा अच्छा लगता है! वह बहुत थका हुआ लग रहा है। शायद सारा दिन बहुत व्यस्त रहा और दौड़ता-दौड़ता मुझे सी-ऑफ करने यहाँ आ पहुँचा। मन करता है कुछ ऐसा करूँ, जिससे इसकी सारी थकान दूर हो जाए। पर क्या करूँ? हम डिब्बे के पास आ जाते हैं।
"जगह अच्छी मिल गई?" वह अंदर झाँकते हुए पूछता है।
"हाँ!"
"पानी-वानी तो है?"
"है।"
"बिस्तर फैला लिया?"
मैं खीज पड़ती हूँ। वह शायद समझ जाता है, सो चुप हो जाता है। हम दोनों एक क्षण को एक-दूसरे की ओर देखते हैं। मैं उसकी आँखों में विचित्र-सी छायाएँ देखती हूँ, मानो कुछ है, जो उसके मन में घुट रहा है, उसे मथ रहा है, पर वह कह नहीं पा रहा है। वह क्यों नहीं कह देता? क्यों नहीं अपने मन की इस घुटन को हल्का कर लेता?
"आज भीड़ विशेष नहीं है," चारों ओर नजर डालकर वह कहता है।
मैं भी एक बार चारों ओर देख लेती हूँ, पर नजर मेरी बार-बार घड़ी पर ही जा रही है। जैसे-जैसे समय सरक रहा है, मेरा मन किसी गहरे अवसाद में डूब रहा है। मुझे कभी उस पर दया आती है तो कभी खीज। गाड़ी चलने में केवल तीन मिनट बाकी रह गए हैं। एक बार फिर हमारी नजरें मिलती हैं।
"ऊपर चढ़ जाओ, अब गाड़ी चलनेवाली है।"
बड़ी असहाय-सी नजर से मैं उसे देखती हूँ, मानो कह रही होऊँ, तुम्हीं चढ़ा दो। और फिर धीरे-धीरे चढ़ जाती हूँ। दरवाजे पर मैं खड़ी हूँ और वह नीचे प्लेटफॉर्म पर।
"जाकर पहुँचने की खबर देना। जैसे ही मुझे इधर कुछ निश्चित रूप से मालूम होगा, तुम्हें सूचना दूँगा।"
मैं कुछ बोलती नहीं, बस उसे देखती रहती हूँ
सीटी... हरी झंडी... फिर सीटी। मेरी आँखें छलछला आती हैं।
गाड़ी एक हल्के-से झटके के साथ सरकने लगती है। वह गाड़ी के साथ कदम आगे बढ़ाता है और मेरे हाथ पर धीरे-से अपना हाथ रख देता है। मेरा रोम-रोम सिहर उठता है। मन करता है चिल्ला पड़ूँ - मैं सब समझ गई, निशीथ, सब समझ गई! जो कुछ तुम इन चार दिनों में नहीं कह पाए, वह तुम्हारे इस क्षणिक स्पर्श ने कह दिया। विश्वास करो, यदि तुम मेरे हो तो मैं भी तुम्हारी हूँ, केवल तुम्हारी, एकमात्र तुम्हारी! पर मैं कुछ कह नहीं पाती। बस, साथ चलते निशीथ को देखती-भर रहती हूँ। गाड़ी के गति पकड़ते ही वह हाथ को जरा-सा दबाकर छोड़ देता है। मेरी छलछलाई आँखें मुँद जाती हैं। मुझे लगता है, यह स्पर्श, यह सुख, यह क्षण ही सत्य है, बाकी सब झूठ है, अपने को भूलने का, भरमाने का, छलने का असफल प्रयास है।
आँसू-भरी आँखों से मैं प्लेटफॉर्म को पीछे छूटता हुआ देखती हूँ। सारी आकृतियाँ धुँधली-सी दिखाई देती हैं। असंख्य हिलते हुए हाथों के बीच निशीथ के हाथ को, उस हाथ को, जिसने मेरा हाथ पकड़ा था, ढूँढ़ने का असफल-सा प्रयास करती हूँ। गाड़ी प्लेटफॉर्म को पार कर जाती है, और दूर-दूर तक कलकत्ता की जगमगाती बत्तियाँ दिखाई देती हैं। धीरे-धीरे वे सब दूर हो जाती हैं, पीछे छूटती जाती हैं। मुझे लगता है, यह दैत्याकार ट्रेन मुझे मेरे घर से कहीं दूर ले जा रही है - अनदेखी, अनजानी राहों में गुमराह करने के लिए, भटकाने के लिए!
बोझिल मन से मैं अपने फैलाए हुए बिस्तर पर लेट जाती हूँ। आँखें बंद करते ही सबसे पहले मेरे सामने संजय का चित्र उभरता है कानपुर जाकर मैं उसे क्या कहूँगी? इतने दिनों तक उसे छलती आई, अपने को छलती आई, पर अब नहीं। मैं उसे सारी बात समझा दूँगी। कहूँगी, संजय जिस संबंध को टूटा हुआ जानकर मैं भूल चुकी थी, उसकी जड़ें हृदय की किन अतल गहराइयों में जमी हुई थीं, इसका अहसास कलकत्ता में निशीथ से मिलकर हुआ। याद आता है, तुम निशीथ को लेकर सदैव ही संदिग्ध रहते थे, पर तब मैं तुम्हें ईर्ष्यालु समझती थी, आज स्वीकार करती हूँ कि तुम जीते, मैं हारी! सच मानना संजय, ढाई साल मैं स्वयं भ्रम में थी और तुम्हें भी भ्रम में डाल रखा था, पर आज भ्रम के, छलना के सारे ही जाल छिन्न-भिन्न हो गए हैं। मैं आज भी निशीथ को प्यार करती हूँ। और यह जानने के बाद, एक दिन भी तुम्हारे साथ और छल करने का दुस्साहस कैसे करूँ? आज पहली बार मैंने अपने संबंधों का विश्लेषण किया, तो जैसे सब कुछ ही स्पष्ट हो गया और जब मेरे सामने सब कुछ स्पष्ट हो गया, तो तुमसे कुछ भी नहीं छिपाऊँगी, तुम्हारे सामने मैं चाहूँ तो भी झूठ नहीं बोल सकती।
आज लग रहा है, तुम्हारे प्रति मेरे मन में जो भी भावना है वह प्यार की नहीं, केवल कृतज्ञता की है। तुमने मुझे उस समय सहारा दिया था, जब अपने पिता और निशीथ को खोकर मैं चूर-चूर हो चुकी थी। सारा संसार मुझे वीरान नजर आने लगा था, उस समय तुमने अपने स्नेहिल स्पर्श से मुझे जिला दिया, मेरा मुरझाया, मरा मन हरा हो उठा, मैं कृतकृत्य हो उठी, और समझने लगी कि मैं तुमसे प्यार करती हूँ। पर प्यार की बेसुध घड़ियाँ, वे विभोर क्षण, तन्मयता के वे पल, जहाँ शब्द चुक जाते हैं, हमारे जीवन में कभी नहीं आए। तुम्हीं बताओ, आए कभी? तुम्हारे असंख्य आलिंगनों और चुंबनों के बीच भी, एक क्षण के लिए भी तो मैंने कभी तन-मन की सुध बिसरा देनेवाली पुलक या मादकता का अनुभव नहीं किया।
सोचती हूँ, निशीथ के चले जाने के बाद मेरे जीवन में एक विराट शून्यता आ गई थी, एक खोखलापन आ गया था, तुमने उसकी पूर्ति की। तुम पूरक थे, मैं गलती से तुम्हें प्रियतम समझ बैठी।
मुझे क्षमा कर दो संजय और लौट जाओ। तुम्हें मुझ जैसी अनेक दीपाएँ मिल जाएँगी, जो सचमुच ही तुम्हें प्रियतम की तरह प्यार करेंगी। आज एक बात अच्छी तरह जान गई हूँ कि प्रथम प्रेम ही सच्चा प्रेम होता है, बाद में किया हुआ प्रेम तो अपने को भूलने का, भरमाने का प्रयास-मात्र होता है।
इसी तरह की असंख्य बातें मेरे दिमाग में आती हैं, जो मैं संजय से कहूँगी। कह सकूँगी यह सब? लेकिन कहना तो होगा ही। उसके साथ अब एक दिन भी छल नहीं कर सकती। मन से किसी और की आराधना करके तन से उसकी होने का अभिनय करती रहूँ? छिः! नहीं जानती, यही सब सोचते-सोचते मुझे कब नींद आ गई।
लौटकर अपना कमरा खोलती हूँ, तो देखती हूँ, सब कुछ ज्यों-का-त्यों है, सिर्फ फूलदान के रजनीगंधा मुरझा गए हैं। कुछ फूल झरकर जमीन पर इधर-उधर भी बिखर गए हैं।
आगे बढ़ती हूँ तो जमीन पर पड़ा एक लिफाफा दिखाई देता है। संजय की लिखाई है, खोला तो छोटा-सा पत्र था :
दीपा,
तुमने जो कलकत्ता जाकर कोई सूचना ही नहीं दी। मैं आज ऑफिस के काम से कटक जा रहा हूँ। पाँच-छह दिन में लौट आऊँगा। तब तक तुम आ ही जाओगी। जानने को उत्सुक हूँ कि कलकत्ता में क्या हुआ?
तुम्हारा
संजय
एक लंबा निःश्वास निकल जाता है। लगता है, एक बड़ा बोझ हट गया। इस अवधि में तो मैं अपने को अच्छी तरह तैयार कर लूँगी। नहा-धोकर सबसे पहले में निशीथ को पत्र लिखती हूँ। उसकी उपस्थिति से जो हिचक मेरे होंठ बंद किए हुए थी, दूर रहकर वह अपने-आप ही टूट जाती हैं। मैं स्पष्ट शब्दों में लिख देती हूँ कि चाहे उसने कुछ नहीं कहा, फिर भी मैं सब कुछ समझ गई हूँ। साथ ही यह भी लिख देती हूँ कि मैं उसकी उस हरकत से बहुत दुखी थी, बहुत नाराज भी, पर उसे देखते ही जैसे सारा क्रोध बह गया। इस अपनत्व में क्रोध भला टिक भी कैसे पाता? लौटी हूँ, तब से न जाने कैसी रंगीनी और मादकता मेरी आँखों के आगे छाई है!
एक खूबसूरत-से लिफाफे में उसे बंद करके मैं स्वयं पोस्ट करने जाती हूँ।
रात में सोती हूँ तो अनायास ही मेरी नजर सूने फूलदान पर जाती है। मैं करवट बदलकर सो जाती हूँ।
कानपुर
आज निशीथ को पत्र लिखे पाँचवाँ दिन है। मैं तो कल ही उसके पत्र की राह देख रही थी। पर आज की भी दोनों डाकें निकल गईं। जाने कैसा सूना-सूना, अनमना-अनमना लगता रहा सारा दिन! किसी भी तो काम में जी नहीं लगता। क्यों नहीं लौटती डाक से ही उत्तर दे दिया उसने? समझ में नहीं आता, कैसे समय गुजारूँ!
मैं बाहर बालकनी में जाकर खड़ी हो जाती हूँ। एकाएक खयाल आता है, पिछले ढाई सालों से करीब इसी समय, यहीं खड़े होकर मैंने संजय की प्रतीक्षा की है। क्या आज मैं संजय की प्रतीक्षा कर रही हूँ? या मैं निशीथ के पत्र की प्रतीक्षा कर रही हूँ? शायद किसी की नहीं, क्योंकि जानती हूँ कि दोनों में से कोई भी नहीं आएगा। फिर?
निरुद्देश्य-सी कमरे में लौट पड़ती हूँ। शाम का समय मुझसे घर में नहीं काटा जाता। रोज ही तो संजय के साथ घूमने निकल जाया करती थी। लगता है, यहीं बैठी रही तो दम ही घुट जाएगा। कमरा बंद करके मैं अपने को धकेलती-सी सड़क पर ले आती हूँ। शाम का धुँधलका मन के बोझ को और भी बढ़ा देता है। कहाँ जाऊँ? लगता है, जैसे मेरी राहें भटक गई हैं, मंजिल खो गई है। मैं स्वयं नहीं जानती, आखिर मुझे जाना कहाँ है। फिर भी निरुद्देश्य-सी चलती रहती हूँ। पर आखिर कब तक यों भटकती रहूँ? हारकर लौट पड़ती हूँ।
आते ही मेहता साहब की बच्ची तार का एक लिफाफा देती है।
धड़कते दिल से मैं उसे खोलती हूँ। इरा का तार था - 'नियुक्ति हो गई है। बधाई!'
इतनी बड़ी खुशखबरी पाकर भी जाने क्या है कि खुश नहीं हो पाती। यह खबर तो निशीथ भेजनेवाला था। एकाएक ही एक विचार मन में आता है : क्या जो कुछ मैं सोच गई, वह निरा भ्रम ही था, मात्र मेरी कल्पना, मेरा अनुमान? नहीं-नहीं! उस स्पर्श को मैं भ्रम कैसे मान लूँ, जिसने मेरे तन-मन को डुबो दिया था, जिसके द्वारा उसके हृदय की एक-एक परत मेरे सामने खुल गई थी? लेक पर बिताए उन मधुर क्षणों को भ्रम कैसे मान लूँ, जहाँ उसका मौन ही मुखरित होकर सब कुछ कह गया था? आत्मीयता के वे अनकहे क्षण! तो फिर उसने पत्र क्यों नहीं लिखा? क्या कल उसका पत्र आएगा? क्या आज भी उसे वही हिचक रोके हुए है?
तभी सामने की घड़ी टन्-टन् करके नौ बजाती है। मैं उसे देखती हूँ। यह संजय की लाई हुई है। लगता है, जैसे यह घड़ी घंटे सुना-सुनाकर मुझे संजय की याद दिला रही है। फहराते ये हरे पर्दे, यह हरी बुक-रैक, यह टेबल, यह फूलदान, सभी तो संजय के ही लाए हुए हैं। मेज पर रखा यह पेन उसने मुझे साल-गिरह पर लाकर दिया था। अपनी चेतना के इन बिखरे सूत्रों को समेटकर मैं फिर पढ़ने का प्रयास करती हूँ, पर पढ़ नहीं पाती। हारकर मैं पलंग पर लेट जाती हूँ।
सामने के फूलदान का सूनापन मेरे मन के सूनेपन को और अधिक बढ़ा देता है। मैं कसकर आँखें मूँद लेती हूँ। एक बार फिर मेरी आँखों के आगे लेक का स्वच्छ, नीला जल उभर आता है, जिसमें छोटी-छोटी लहरें उठ रही थीं। उस जल की ओर देखते हुए निशीथ की आकृति उभरकर आती है। वह लाख जल की ओर देखे, पर चेहरे पर अंकित उसके मन की हलचल को मैं आज भी, इतनी दूर रहकर भी महसूस करती हूँ। कुछ न कह पाने की मजबूरी, उसकी विवशता, उसकी घुटन आज भी मेरे सामने साकार हो उठती है। धीरे-धीरे लेक के पानी का विस्तार सिमटता जाता है, और एक छोटी-सी राइटिंग टेबल में बदल जाता है, और मैं देखती हूँ कि एक हाथ में पेन लिए और दूसरे हाथ की उँगलियों को बालों में उलझाए निशीथ बैठा है वही मजबूरी, वही विवशता, वही घुटन लिए। वह चाहता है, पर जैसे लिख नहीं पाता। वह कोशिश करता है, पर उसका हाथ बस काँपकर रह जाता है। ओह! लगता है, उसकी घुटन मेरा दम घोंटकर रख देगी। मैं एकाएक ही आँखें खोल देती हूँ। वही फूलदान, पर्दे, मेज, घड़ी !
आखिर आज निशीथ का पत्र आ गया। धड़कते दिल से मैंने उसे खोला। इतना छोटा-सा पत्र!
प्रिय दीपा,
तुम अच्छी तरह पहुँच गई, यह जानकर प्रसन्नता हुई।
तुम्हें अपनी नियुक्ति का तार तो मिल ही गया होगा। मैंने कल ही इरा जी को फोन करके सूचना दे दी थी, और उन्होंने बताया था कि तार दे देंगी। ऑफिस की ओर से भी सूचना मिल जाएगी।
इस सफलता के लिए मेरी ओर से हार्दिक बधाई स्वीकार करना। सच, मैं बहुत खुश हूँ कि तुम्हें यह काम मिल गया! मेहनत सफल हो गई। शेष फिर।
शुभेच्छु,
निशीथ
बस? धीरे-धीरे पत्र के सारे शब्द आँखों के आगे लुप्त हो जाते हैं, रह जाता है केवल, "शेष फिर!"
तो अभी उसके पास 'कुछ' लिखने को शेष है? क्यों नहीं लिख दिया उसने अभी? क्या लिखेगा वह?
"दीप!"
मैं मुड़कर दरवाजे की ओर देखती हूँ। रजनीगंधा के ढेर सारे फूल लिए मुस्कुराता-सा संजय खड़ा है। एक क्षण मैं संज्ञा-शून्य-सी उसे इस तरह देखती हूँ, मानो पहचानने की कोशिश कर रही हूँ। वह आगे बढ़ता है, तो मेरी खोई हुई चेतना लौटती है, और विक्षिप्त-सी दौड़कर उससे लिपट जाती हूँ।
"क्या हो गया है तुम्हें, पागल हो गई हो क्या?"
"तुम कहाँ चले गए थे संजय?" और मेरा स्वर टूट जाता है। अनायास ही आँखों से आँसू बह चलते हैं।
"क्या हो गया? कलकत्ता का काम नहीं मिला क्या? मारो भी गोली काम को। तुम इतनी परेशान क्यों हो रही हो उसके लिए?"
पर मुझसे कुछ नहीं बोला जाता। बस, मेरी बाँहों की जकड़ कसती जाती है, कसती जाती है। रजनीगंधा की महक धीरे-धीरे मेरे तन-मन पर छा जाती है। तभी मैं अपने भाल पर संजय के अधरों का स्पर्श महसूस करती हूँ, और मुझे लगता है, यह स्पर्श, यह सुख, यह क्षण ही सत्य है, वह सब झूठ था, मिथ्या था, भ्रम था।
और हम दोनों एक-दूसरे के आलिंगन में बँधे रहते हैं - चुंबित, प्रति-चुंबित!
सोमा बुआ बुढ़िया है।
सोमा बुआ परित्यक्ता है।
सोमा बुआ अकेली है।
सोमा बुआ का जवान बेटा क्या जाता रहा, उनकी जवानी चली गयी। पति को पुत्र-वियोग का ऐसा सदमा लगा कि व पत्नी, घर-बार तजकर तीरथवासी हुए और परिवार में कोई ऐसा सदस्य नहीं था जो उनके एकाकीपन को दूर करता। पिछले बीस वर्षों से उनके जीवन की इस एकरसता में किसी प्रकार का कोई व्यवधान उपस्थित नहीं हुआ, कोई परिवर्तन नहीं आया। यों हर साल एक महीने के लिए उनके पति उनके पास आकर रहते थे, पर कभी उन्होंने पति की प्रतीक्षा नहीं की, उनकी राह में आँखें नहीं बिछायीं। जब तक पति रहते, उनका मन और भी मुरझाया हुआ रहता, क्योंकि पति के स्नेहहीन व्यवहार का अंकुश उनके रोज़मर्रा के जीवन की अबाध गति से बहती स्वच्छन्द धारा को कुण्ठित कर देता। उस समय उनका घूमना-फिरना, मिलना-जुलना बन्द हो जाता, और संन्यासीजी महाराज से यह भी नहीं होता कि दो मीठे बोल बोलकर सोमा बुआ को एक ऐसा सम्बल ही पकड़ा दें, जिसका आसरा लेकर वे उनके वियोग के ग्यारह महीने काट दें। इस स्थिति में बुआ को अपनी ज़िन्दगी पास-पड़ोसवालों के भरोसे ही काटनी पड़ती थी। किसी के घर मुण्डन हो, छठी हो, जनेऊ हो, शादी हो या गमी, बुआ पहुँच जाती और फिर छाती फाड़कर काम करतीं, मानो वे दूसरे के घर में नहीं, अपने ही घर में काम कर रही हों।
आजकल सोमा बुआ के पति आये हैं, और अभी-अभी कुछ कहा-सुनी होकर चुकी है। बुआ आँगन में बैठी धूप खा रही हैं, पास रखी कटोरी से तेल लेकर हाथों में मल रही हैं, और बड़बड़ा रही हैं। इस एक महीने में अन्य अवयवों के शिथिल हो जाने के कारण उनकी जीभ ही सबसे अधिक सजीव और सक्रिय हो उठती है। तभी हाथ में एक फटी साड़ी और पापड़ लेकर ऊपर से राधा भाभी उतरीं। ”क्या हो गया बुआ, क्यों बड़बड़ा रही हो? फिर संन्यासीजी महाराज ने कुछ कह दिया क्या?“ ”अरे, मैं कहीं चली जाऊँ सो इन्हें नहीं सुहाता। कल चौकवाले किशोरीलाल के बेटे का मुण्डन था, सारी बिरादरी की न्यौता था। मैं तो जानती थी कि ये पैसे का गरूर है कि मुण्डन पर सारी बिरादरी को न्यौता है, पर काम उन नयी-नवेली बहुओं से सँभलेगा नहीं, सो जल्दी ही चली गयी। हुआ भी वही।“ और सरककर बुआ ने राधा के हाथ से पापड़ लेकर सुखाने शुरू कर दिये। ”एक काम गत से नहीं हो रहा था। अब घर में कोई बड़ा-बूढ़ा हो तो बतावे, या कभी किया हो तो जानें। गीतवाली औरतें मुण्डन पर बन्ना-बन्नी गा रही थीं। मेरा तो हँसते-हँसते पेट फूल गया।“ और उसकी याद से ही कुछ देर पहले का दुःख और आक्रोश धुल गया। अपने सहज स्वाभाविक रूप में वे कहने लगीं, ”भट्टी पर देखो तो अजब तमाशा-समोसे कच्चे ही उतार दिये और इतने बना दिये कि दो बार खिला दो, और गुलाबजामुन इतने कम कि एक पंगत में भी पूरे न पड़े। उसी समय मैदा सानकर नये गुलाबजामुन बनाये। दोनों बहुएँ और किशोरीलाल तो बेचारे इतना जस मान रहे थे कि क्या बताऊँ! कहने लगे, ‘अम्माँ! तुम न होतीं तो आज भद्द उड़ जाती। अम्माँ! तुमने लाज रख ली!’ मैंने तो कह दिया कि अरे, अपने ही काम नहीं आवेंगे तो कोई बाहर से तो आवेगा नहीं। यह तो आजकल इनका रोटी-पानी का काम रहता है, नहीं तो मैं सवेरे से ही चली आती!“
”तो संन्यासी महाराज क्यों बिगड़ पड़े? उन्हें तुम्हारा आना-जाना अच्छा नहीं लगता बुआ!“
”यों तो मैं कहीं आऊँ-जाऊँ सो ही इन्हें नहीं सुहाता, और फिर कल किशोरी के यहाँ से बुलावा नहीं आया। अरे, मैं तो कहूँ कि घरवालों का कैसा बुलावा! वे लोग तो मुझे अपनी माँ से कम नहीं समझते, नहीं तो कौन भला यों भट्टी और भण्डारघर सौंप दे। पर उन्हें अब कौन समझावे? कहने लगे, तू ज़बरदस्ती दूसरों के घर में टाँग अड़ाती फिरती है।“ और एकाएक उन्हें उस क्रोध-भरी वाणी और कटु वचनों का स्मरण हो आया, जिनकी बौछार कुछ देर पहले ही उन पर होकर चुकी थी। याद आते ही फिर उनके आँसू बह चले।
”अरे, रोती क्यों हो बुआ? कहना-सुनना तो चलता ही रहता है। संन्यासीजी महाराज एक महीने को तो आकर रहते हैं, सुन लिया करो और क्या?“
”सुनने को तो सुनती ही हूँ, पर मन तो दुखता ही है कि एक महीने को आते हैं तो भी कभी मीठे बोल नहीं बोलते। मेरा आना-जाना इन्हें सुहाता नहीं, सो तू ही बता राधा, ये तो साल में ग्यारह महीने हरिद्वार रहते हैं। इन्हें तो नाते-रिश्तेवालों से कुछ लेना-देना नहीं, पर मुझे तो सबसे निभाना पड़ता है। मैं भी सबसे तोड़-ताड़कर बैठ जाऊँ तो कैसे चले? मैं तो इनसे कहती हूँ कि जब पल्ला पकड़ा है तो अन्त समय में भी साथ रखो, सो तो इनसे होता नहीं। सारा धरम-करम ये ही लूटेंगे, सारा जस ये ही बटोरेंगे और मैं अकेली पड़ी-पड़ी यहाँ इनके नाम को रोया करूँ। उस पर से कहीं आऊँ-जाऊँ तो वह भी इनसे बर्दाश्त नहीं होता...“ और बुआ फूट-फूटकर रो पड़ीं। राधा ने आश्वासन देते हुए कहा, ”रोओ नहीं बुआ! अरे, वे तो इसलिए नाराज़ हुए कि बिना बुलाये तुम चली गयीं।“
”बेचारे इतने हंगामे में बुलाना भूल गये तो मैं भी मान करके बैठ जाती? फिर घरवालों का कैसा बुलाना? मैं तो अपनेपन की बात जानती हूँ। कोई प्रेम नहीं रखे तो दस बुलावे पर नहीं जाऊँ और प्रेम रखे तो बिना बुलाये भी सिर के बल जाऊँ। मेरा अपना हरखू होता और उसके घर काम होता तो क्या मैं बुलावे के भरोसे बैठी रहती? मेरे लिए जैसा हरखू वैसा किशोरीलाल! आज हरखू नहीं है, इसी से दूसरों को देख-देखकर मन भरमाती रहती हूँ।“ और वे हिचकियाँ लेने लगीं।
सूखे पापड़ों को बटोरते-बटोरते स्वर को भरसक कोमल बनाकर राधा ने कहा, ”तुम भी बुआ बात को कहाँ-से-कहाँ ले गयीं! लो, अब चुप होओ। पापड़ भूनकर लाती हूँ, खाकर बताना, कैसा है?“ और वह साड़ी समेटकर ऊपर चढ़ गयी।
कोई सप्ताह-भर बाद बुआ बड़े प्रसन्न मन से आयीं और संन्यासीजी से बोलीं, ”सुनते हो, देवरजी के सुसरालवालों की किसी लड़की का सम्बन्ध भागीरथजी के यहाँ हुआ है। वे सब लोग यहीं आकर ब्याह कर रहे हैं। देवरजी के बाद तो उन लोगों से कोई सम्बन्ध ही नहीं रहा, फिर भी हैं समधी ही। वे तो तुमको भी बुलाये बिना नहीं मानेंगे। समधी को आखिर कैसे छोड़ सकते हैं?“ और बुआ पुलकित होकर हँस पड़ी। संन्यासीजी की मौन उपेक्षा से उनके मन को ठेस तो पहुँची, फिर भी वे प्रसन्न थीं। इधर-उधर जाकर वे इस विवाह की प्रगति की खबरें लातीं! आखिर एक दिन वे यह भी सुन आयीं कि उनके समधी यहाँ आ गये। ज़ोर-शोर से तैयारियाँ हो रही हैं। सारी बिरादरी को दावत दी जायेगी-खूब रौनक होने वाली है। दोनों ही पैसेवाले ठहरे।
”क्या जाने हमारे घर तो बुलावा आयेगा या नहीं? देवरजी को मरे पच्चीस बरस हो गये, उसके बाद से तो कोई सम्बन्ध ही नहीं रखा। रखे भी कौन? यह काम तो मर्दों का होता है, मैं तो मर्दवाली होकर भी बेमर्द की हूँ।“ और एक ठण्डी साँस उनके दिल से निकल गयी।
”अरे, वाह बुआ! तुम्हारा नाम कैसे नहीं हो सकता! तुम तो समधिन ठहरीं। सम्बन्ध में न रहे, कोई रिश्ता थोड़े ही टूट जाता है!“ दाल पीसती हुई घर की बड़ी बहू बोली। ”है, बुआ, नाम है। मैं तो सारी लिस्ट देखकर आयी हूँ।“ विधवा ननद बोली। बैठे-ही-बैठे एकदम आगे सरककर बुआ ने बड़े उत्साह से पूछा, ”तू अपनी आँखों से देखकर आयी है नाम? नाम तो होना ही चाहिए। पर मैंने सोचा कि क्या जाने आजकल की फैशन में पुराने सम्बन्धियों को बुलाना हो, न हो।“ और बुआ बिना दो पल भी रुके वहाँ से चली पड़ीं। अपने घर जाकर सीधे राधा भाभी के कमरे में चढ़ी, ”क्यों री राधा, तू तो जानती है कि नए फैशन में लड़की की शादी में क्या दिया जावे है? समधियों का मामला ठहरा, सो भी पैसेवाले। खाली हाथ जाऊँगी तो अच्छा नहीं लगेगा। मैं तो पुराने ज़माने की ठहरी, तू ही बता दे, क्या दूँ? अब कुछ बनने का समय तो रहा नहीं, दो दिन बाकी हैं, सो कुछ बना-बनाया ही खरीद लाना।“ ”क्या देना चाहती हो अम्मा-जे़वर, कपड़ा या शृंगारदान या कोई और चांदी की चीज़ें?“
”मैं तो कुछ भी नहीं समूझँ, री। जो कुछ पास है, तुझे लाकर दे देती हूँ, जो तू ठीक समझे ले आना, बस भद्द नहीं उड़नी चाहिए! अच्छा, देखूँ पहले कि रुपये कितने हैं। और वे डगमगाते कदमों से नीचे आयीं। दो-तीन कपड़ों की गठरियाँ हटाकर एक छोटा-सा बक्स निकाला। बड़े जतन से उसे खोला-उसमें सात रुपये, कुछ रेज़गारी पड़ी थी, और एक अँगूठी। बुआ का अनुमान था कि रुपये कुछ ज़्यादा होंगे, पर जब सात ही रुपये निकले तो सोच में पड़ गयीं। रईस समधियों के घर में इतने-से रुपयों से तो बिन्दी भी नहीं लगेगी। उनकी नज़र अँगूठी पर गयी। यह उनके मृत-पुत्र की एकमात्र निशानी उनके पास रह गयी थी। बड़े-बड़े आर्थिक संकटों के समय भी वे उस अँगूठी का मोह नहीं छोड़ सकी थीं। आज भी एक बार उसे उठाते समय उनका दिल धड़क गया। फिर भी उन्होंने पाँच रुपये और वह अँगूठी आँचल में बाँध ली। बक्स को बन्द किया और फिर ऊपर को चलीं। पर इस बार उनके मन का उत्साह कुछ ठण्डा पड़ गया था, और पैरों की गति शिथिल! राधा के पास जाकर बोलीं, ”रुपये तो नहीं निकले बहू। आये भी कहाँ से, मेरे कौन कमानेवाला बैठा है? उस कोठरी का किराया आता है, उसमें तो दो समय की रोटी निकल जाती है जैसे-तैसे!“ और वे रो पड़ीं। राधा ने कहा, ”क्या करूँ बुआ, आजकल मेरा भी हाथ तंग है, नहीं तो मैं ही दे देती। अरे, पर तुम देने के चक्कर में पड़ती ही क्यों हो? आजकल तो देने-लेने का रिवाज ही उठ गया।“
”नहीं रे राधा! समधियों का मामला ठहरा! पच्चीस बरस हो गये तो भी वे नहीं भूले, और मैं खाली हाथ जाऊँ? नहीं, नहीं, इससे तो न जाऊँ सो ही अच्छा!“
”तो जाओ ही मत। चलो छुट्टी हुई, इतने लोगों में किसे पता लगेगा कि आयी या नहीं।“ राधा ने सारी समस्या का सीधा-सा हल बताते हुए कहा।
”बड़ा बुरा मानेंगे। सारे शहर के लोग जावेंगे, और मैं समधिन होकर नहीं जाऊँगी तो यही समझेंगे कि देवरजी मरे तो सम्बन्ध भी तोड़ लिया। नहीं, नहीं, तू यह अँगूठी बेच ही दे।“ और उन्होंने आँचल की गाँठ खोलकर एक पुराने ज़माने की अँगूठी राधा के हाथ पर रख दी। फिर बड़ी मिन्नत के स्वर में बोलीं, ”तू तो बाज़ार जाती है राधा, इसे बेच देना और जो कुछ ठीक समझे खरीद लेना। बस, शोभा रह जावे इतना ख्याल रखना।“
गली में बुआ ने चूड़ीवाले की आवाज़ सुनी तो एकाएक ही उनकी नज़र अपने हाथ की भद्दी-मटमैली चूड़ियों पर जाकर टिक गयी। कल समधियों के यहाँ जाना है, ज़ेवर नहीं तो कम-से-कम काँच की चूड़ी तो अच्छी पहन ले। पर एक अत्यन्त लाज ने उनके कदमों को रोक दिया। कोई देख लेगा तो? लेकिन दूसरे क्षण ही अपनी इस कमज़ोरी पर विजय पाती-सी वे पीछे के दरवाजे़ पर पहुँच गयीं और एक रुपया कलदार खर्च करके लाल-हरी चूड़ियों के बन्द पहन लिये। पर सारे दिन हाथों को साड़ी के आँचल से ढके-ढके फिरीं।
शाम को राधा भाभी ने बुआ को चाँदी की एक सिन्दूरदानी, एक साड़ी और एक ब्लाउज़ का कपड़ा लाकर दे दिया। सब कुछ देख पाकर बुआ बड़ी प्रसन्न हुईं, और यह सोच-सोचकर कि जब वे ये सब दे देंगी तो उनकी समधिन पुरानी बातों की दुहाई दे-देकर उनकी मिलनसारिता की कितनी प्रशंसा करेगी, उनका मन पुलकित होने लगा। अँगूठी बेचने का गम भी जाता रहा। पासवाले बनिये के यहाँ से एक आने का पीला रंग लाकर रात में उन्होंने साड़ी रंगी। शादी में सफेद साड़ी पहनकर जाना क्या अच्छा लगेगा? रात में सोयीं तो मन कल की ओर दौड़ रहा था।
दूसरे दिन नौ बजते-बजते खाने का काम समाप्त कर डाला। अपनी रंगी हुई साड़ी देखी तो कुछ जँची नहीं। फिर ऊपर राधा के पास पहुँची, ”क्यों राधा, तू तो रंगी साड़ी पहनती है तो बड़ी आब रहती है, चमक रहती है, इसमें तो चमक आयी नहीं!“
”तुमने कलफ़ जो नहीं लगाया अम्माँ, थोड़ा-सा माँड दे देतीं तो अच्छा रहता। अभी दे लो, ठीक हो जायेगी। बुलावा कब का है?“
”अरे, नये फैशन वालों की मत पूछो, ऐन मौकों पर बुलावा आता है। पांच बजे का मुहूरत है, दिन में कभी भी आ जावेगा।“
राधा भाभी मन-ही-मन मुस्करा उठी।
बुआ ने साड़ी में माँड लगाकर सुखा दिया। फिर एक नयी थाली निकाली, अपनी जवानी के दिनों में बुना हुआ क्रोशिये का एक छोटा-सा मेजपोश निकाला। थाली में साड़ी, सिन्दूरदानी, एक नारियल और थोड़े-से बताशे सजाये, फिर जाकर राधा को दिखाया। सन्यासी महाराज सवेरे से इस आयोजन को देख रहे थे, और उन्होंने कल से लेकर आज तक कोई पच्चीस बार चेतावनी दे दी थी कि यदि कोई बुलाने न आये तो चली मत जाना, नहीं तो ठीक नहीं होगा। हर बार बुआ ने बडे़ ही विश्वास के साथ कहा, ”मुझे क्या बावली समझ रखा है जो बिन बुलाये चली जाऊँगी? अरे वह पड़ोसवालों की नन्दा अपनी आँखों से बुलावे की लिस्ट में नाम देखकर आयी है। और बुलायेंगे क्यों नहीं? शहरवालों को बुलायेंगे और समधियों को नहीं बुलायेंगे क्या?“
तीन बजे के करीब बुआ को अनमने भाव से छत पर इधर-उधर घूमते देख राधा भाभी ने आवाज़ लगायी, ”गयीं नहीं बुआ?“
एकाएक चौंकते हुए बुआ ने पूछा, ”कितने बज गये राधा? ... क्या कहा, तीन? सरदी में तो दिन का पता नहीं लगता। बजे तीन ही हैं और धूप सारी छत पर से ऐसे सिमट गयी मानो शाम हो गयी।“ फिर एकाएक जैसे ख्याल आया कि यह तो भाभी के प्रश्न का उत्तर नहीं हुआ, ज़रा ठण्डे स्वर में बोलीं, ”मुहूरत तो पाँच बजे का है, जाऊँगी तो चार तक जाऊँगी, अभी तो तीन ही बजे है।“ बड़ी सावधानी से उन्होंने स्वर में लापरवाही का पुट दिया। बुआ छत पर से गली में नज़र फैलाये खड़ी थीं, उनके पीछे ही रस्सी पर धोती फैली हुई थी, जिसमें कलफ़ लगा था, और अबरक छिड़का हुआ था। अबरक के बिखरे हुए कण रह-रहकर धूप में चमक जाते थे, ठीक वैसे ही जैसे किसी को भी गली में घुसता देख बुआ का चेहरा चमक उठता था।
सात बजे के धुँधलके में राधा ने ऊपर से देखा तो छत की दीवार से सटी, गली की ओर मुँह किये एक छाया-मूर्ति दिखायी दी। उसका मन भर आया। बिना कुछ पूछे इतना ही कहा, ”बुआ!“ सर्दी में खड़ी-खड़ी यहाँ क्या कर रही हो? आज खाना नहीं बनेगा क्या, सात तो बज गये। जैसे एकाएक नींद में से जागते हुए बुआ ने पूछा, ”क्या कहा सात बज गये?“ फिर जैसे अपने से ही बोलते हुए पूछा, ”पर सात कैसे बज सकते हैं, मुहूरत तो पाँच बजे का था!“ और फिर एकाएक ही सारी स्थिति को समझते हुए, स्वर को भरसक संयत बनाकर बोलीं, ”अरे, खाने का क्या है, अभी बना लूँगी। दो जनों का तो खाना है, क्या खाना और क्या पकाना!“
फिर उन्होंने सूखी साड़ी को उतारा। नीचे जाकर अच्छी तरह उसकी तह की, धीरे-धीरे हाथों की चूड़ियाँ खोलीं, थाली में सजाया हुआ सारा सामान उठाया और सारी चीज़ें बड़े जतन से अपने एकमात्र सन्दूक में रख दीं। और फिर बड़े ही बुझे हुए दिल से अँगीठी जलाने लगीं।
मई की साँझ!
साढ़े छह बजे हैं। कुछ देर पहले जो धूप चारों ओर फैली पड़ी थी, अब फीकी पड़कर इमारतों की छतों पर सिमटकर आयी है, मानो निरन्तर समाप्त होते अपने अस्तित्व को बचाये रखने के लिए उसने कसकर कगारों को पकड़ लिया हो।
आग बरसाती हुई हवा धूप और पसीने की बदबू से बहुत बोझिल हो आयी है। पाँच बजे तक जितने भी लोग आॅफ़िस की बड़ी-बड़ी इमारतों में बन्द थे, इस समय बरसाती नदी की तरह सड़कों पर फैल गये हैं। रीगल के सामनेवाले फुटपाथ पर चलनेवालों और हॉकर्स का मिला-जुला शोर चारों और गूँज रहा हैं गजरे बेचनेवालों के पास से गुज़रने पर सुगन्ध भरी तरावट का अहसास होता है, इसीलिए न ख़रीदने पर भी लोगों को उनके पास खड़ा होना या उनके पास से गुज़रना अच्छा लगता है।
टी-हाउस भरा हुआ है। उसका अपना ही शोर काफ़ी है, फिर बाहर का सारा शोर-शराबा बिना किसी रुकावट के खुले दरवाज़ों से भीतर आ रहा है। छतों पर फुल स्पीड में घूमते पंखे भी जैसे आग बरसा रहे हैं। एक क्षण को आँख मूँद लो तो आपको पता ही नहीं लगेगा कि आप टी-हाउस में हैं या फुटपाथ पर। वही गरमी, वही शोर।
गे-लॉर्ड भी भरा हुआ है। पुरुष अपने एयर-कण्डिशण्ड चेम्बरांे से थककर और औरतें अपने-अपने घरों से ऊबकर मन बहलाने के लिए यहाँ आ बैठे हैं। यहाँ न गरमी है, न भन्नाता हुआ शोर। चारों ओर हल्का, शीतल, दूधिया आलोक फैल रहा है और विभिन्न सेण्टों की मादक कॉकटेल हवा में तैर रही है। टेबिलों पर से उठते हुए फुसफुसाते-से स्वर संगीत में ही डूब जाते हैं। गहरा मेक-अप किये डायस पर जो लड़की गा रही है, उसने अपनी स्कर्ट की बेल्ट खूब कसकर बाँध रखी है, जिससे उसकी पतली कमर और भी पतली दिखाई दे रही है और उसकी तुलना में छातियों का उभार कुछ और मुखर हो उठा है। एक हाथ से उसने माइक का डण्डा पकड़ रखा है और जूते की टोसे वह ताल दे रही है। उसके होठों से लिपस्टिक भी लिपटी है और मुसकान भी। गाने के साथ-साथ उसका सारा शरीर एक विशेष अदा के साथ झूम रहा है।
पास में दोनों हाथों से झुनझुने-से बजाता जो व्यक्ति सारे शरीर को लचका-लचकाकर ताल दे रहा है, वह नीग्रो है। बीच-बीच में जब वह उसकी ओर देखती है तो आँखें मिलते ही दोनों ऐसे हँस पड़ते हैं मानो दोनों के बीच कहीं ‘कुछ’ है। पर कुछ दिन पहले जब एक एंग्लो-इण्डियन उसके साथ बजाता था, तब भी यह ऐसे ही हँसती थी, तब भी इसकी आँखें ऐसे की चमकती थीं। इसकी हँसी और इसकी आँखों की चमक का इसके मन के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है। वे अलग ही चलती हैं।
डायस की बग़लवाली टेबिल पर एक युवक और युवती बैठे हैं। दोनों के सामने पाइन-एप्पल जूस के ग्लास रखे हैं। युवती का ग्लास आधे से अधिक खाली हो गया है, पर युवक ने शायद एक-दो सिप ही लिये हैं। वह केवल स्ट्रॉ हिला रहा है।
युवती दुबली और गौरी है। उसके बाल कटे हुए हैं। सामने आ जाने पर सिर को झटक देकर वह उन्हें पीछे कर देती है। उसकी कलफ़ लगी साड़ी का पल्ला इतना छोटा है कि कन्धे से मुश्किल से छह इंच नीचे तक आ पाया है। चोलीनुमा ब्लाउज़ से ढकी उसकी पूरी की पूरी पीठ दिखाई दे रही है।
”तुम कल बाहर गयी थीं?“ युवक बहुत ही मुलायम स्वर में पूछता है।
”क्यों?“ बाँयें हाथ की लम्बी-लम्बी पतली उँगलियों से ताल देते-देते ही वह पूछती है।
”मैंने फ़ोन किया था।“
”अच्छा? पर किसलिए? आज मिलने की बात तो तय हो ही गयी थी।“
”यों ही तुमसे बात करने का मन हो आया था।“ युवक को शायद उम्मीद थी कि उसकी बात की युवती के चेहरे पर कोई सुखद प्रतिक्रिया होगी। पर वह हल्के से हँस दी। युवक उत्तर की प्रतीक्षा में उसके चेहरे की ओर देखता रहा, पर युवती का ध्यान शायद इधर-उधर के लोगों में उलझ गया था। इस पर युवक खिन्न हो गया। वह युवती के मुँह से सुनना चाह रहा था कि वह कल विपिन के साथ स्कूटर पर घूम रही थी। इस बात के जवाब में वह क्या-क्या करेगा-यह सब भी उसने सोच लिया था और कल शाम से लेकर अभी युवती के आने से पहले तक उसको कई बार दोहरा भी लिया था। पर युवती की चुप्पी से सब गड़बड़ा गया। वह अब शायद समझ ही नहीं पा रहा था कि बात कैसे शुरू करे।
”ओ गोरा!“ बाल्कनी की ओर देखते हुए युवती के मुँह से निकला -
”यह सारी की सारी बाल्कनी किसने रिजर्व करवा ली?“ बाल्कनी की रेलिंग पर एक छोटी-सी प्लास्टिक की सफ़ेद तख्ती लगी थी,
जिस पर लाल अक्षरों में लिखा था - ‘रिज़व्र्ड’।
युवक ने सिर झुकाकर एक सिप लिया - ”मैं तुमसे कुछ बात करना चाहता हूँ।“
उसकी आवाज़ कुछ भारी हो आयी थी, जैसे गला बैठ गया हो। युवती ने सिप लेकर अपनी आँखें युवक के चेहरे पर टिका दीं। वह हल्के-हल्के मुसकरा रही थी और युवक को उसकी मुसकराहट से थोड़ा कष्ट हो रहा था।
”देखो, मैं इस सारी बात में बहुत गम्भीर हूँ।“ झिझकते-से स्वर में वह बोला।
”गम्भीर?“ युवती खिलखिला पड़ी तो उसके बाल आगे को झूल आये। सिर झटककर उसने उन्हें पीछे किया।
”मैं तो किसी भी चीज़ को गम्भीरता से लेने में विश्वास ही नहीं करती। ये दिन तो हँसने-खेलने के हैं, हर चीज़ को हल्के-फुल्के ढंग से लेने के। गम्भीरता तो बुढ़ापे की निशानी है। बूढ़े लोग मच्छरों और मौसम को भी बहुत गम्भीरता से लेते हैं....और मैं अभी बूढ़ा होना नहीं चाहती।“
ओर उसने अपने दोनों कन्धे जोर से उचका दिये। वह फिर गाना सुनने में लग गयी। युवक का मन हुआ कि वह उसकी मुलाक़ातों और पुराने पत्रों का हवाला देकर उससे अनेक बातें पूछे, पर बात उसके गले में ही अटककर रह गयी और वह खाली-खाली नज़रों से इधर-उधर देखने लगा। उसकी नज़र ‘रिज़व्र्ड’ की उस तख्ती पर जा लगी। एकाएक उसे लगने लगा जैसे वह तख्ती वहाँ से उठकर उन दोनों के बीच आ गयी है और प्लास्टिक के लाल अक्षर नियॉन लाइट के अक्षरों की तरह द्पि-द्पि करने लगे।
तभी गाना बन्द हो गया और सारे हॉल मंे तालियों की गड़गड़ाहट गूँज उठी। गाना बन्द होने के साथ ही लोगों की आवाजें़ धीमी हो गयीं, पर हॉल के बीचों-बीच एक छोटी टेबिल के सामने बैठे एक स्थूलकाय खद्दरधारी व्यक्ति का धाराप्रवाह भाषण स्वर के उसी स्तर पर जारी रहा। सामने पतलून और बुश-शर्ट पहने एक दुबला-पतला का व्यक्ति उनकी बातों को बड़े ध्यान से सुन रहा है। उनके बोलने से थोड़ा-थोड़ा थूक उछल रहा है जिसे सामनेवाला व्यक्ति ऐसे पोंछता है कि उन्हें मालूम न हो। पर उनके पास शायद इन छोटी-मोटी बातों पर ध्यान देने लायक़ समय ही नहीं है। वे मूड में आये हुए हैं -
”गाँधीजी की पुकार पर कौन व्यक्ति अपने को रोक सकता था भला? क्या दिन थे वे भी! मैंने बिज़नेस की तो की ऐसी की तैसी और देश-सेवा के काम में जुट गया। फिर तो सारी ज़िन्दगी पॉलिटिकल-सफ़रर की तरह ही गुजार दी!“
सामनेवाला व्यक्ति चेहरे पर श्रद्धा के भाव लाने का भरसक प्रयत्न करने लगा।
”देश आज़ाद हुआ तो लगा कि असली काम तो अब करना है। सब लोग पीछे पड़े कि मैं खड़ा होऊँ, मिनिस्ट्री पक्की है, पर नहीं साहब, यह काम अब अपने बस का नहीं रहा। जेल के जीवन ने काया को जर्जर कर दिया, फिर यह भी लगा कि नव-निर्माण में नया खून ही आना चाहिए, सो बहुत पीछे पड़े तो बेटों को झोंका इस चक्कर में। उन्हें समझाया, ज़िन्दगी-भर के हमारे त्याग और परिश्रम का फल है यह आज़ादी, तुम लोग अब इसकी ल़ाज रखो, बिज़नेस हम सम्भालते हैं।“
युवक शब्दों को ढेलता-सा बोला- ”आपकी देश-भक्ति को कौन नहीं जानता?“
वे संतोष की एक डकार लेते हैं और जेब से रूमाल निकालकर अपना मुँह और मूँछों को साफ करते हैं। रूमाल वापस जेब में रखते हैं और पहलू बदलकर दूसरी जेब से चाँदी की डिबिया निकालकर पहले खुद पान खाते हैं, फिर सामनेवाले व्यक्ति की ओर बढ़ा देते हैं।
”जी नहीं, मैं पान नहीं खाता।“ कृतज्ञता के साथ ही उसके चेहरे पर बेचैनी का भाव उभर जाता है।
”एक यही लत है जो छूटती नहीं।“ पान की डिबिया को वापस जेब में रखते हुए वे कहते हैं
”इंग्लैण्ड गया तो हर सप्ताह हवाई जहाज़ से पानों की गड्डी आती थी।“
जब मन की बेचैनी केवल चेहरे से नहीं संभलती तो वह धीरे-धीरे हाथ रगड़ने लगता है।
पान को मुँह में एक ओर ठेलकर वे थोड़ा-सा हकलाते हुए कहते हैं,
”अब आज की ही मिसाल लो। हमारे वर्ग का एक भी आदमी गिना दो जो अपने यहाँ के कर्मचारी की शिकायत इस प्रकार सुनता हो? पर जैसे ही तुम्हारा केस मेरे सामने आया,
मंैने तुम्हें बुलाया, यहाँ बुलाया।“
”जी हाँ।“ उसके चेहरे पर कृतज्ञता का भाव और अधिक मुखर हो जाता है। वह अपनी बात शुरू करने के लिए शब्द ढँूढ़ने लगता है। उसने बहुत विस्तार से बात करने की योजना बनायी थी, पर अब सारी बात को संक्षेप में कह देना चाहता है।
”सुना है, तुम कुछ लिखते-लिखाते भी हो?“ एकाएक हाल में फिर संगीत गूँज उठता है। वे अपनी आवाज-को थोड़ा और ऊँचा करते हैं। युवक का उत्सुक चेहरा थोड़ा और आगे को झुक आता है।
”तुम चाहो तो हमारी इस मुलाक़ात पर एक लेख लिख सकते हो। मेरा मतलब...लोगों को ऐसी बातों से नसीहत और प्रेरणा लेनी चाहिए...यानी...“
पान शायद उन्हें वाक्य पूरा नहीं करने देता। तभी बीच की टेबिल पर ‘आई...उई’... का शोर होता है और सबका ध्यान अनायास ही उधर चला जाता है। बहुत देर से ही वह टेबिल लोगों का ध्यान अनायास ही खींच रही थी। किसी के हाथ से कॉफ़ी-का प्याला गिर पड़ा है। बैरा झाड़न लेकर दौड़ पड़ा और असिस्टेण्ट मैनेजर भी आ गया। दो लड़कियाँ खड़ी होकर अपने कुर्तों को रूमाल से पोंछ रही हैं। बाक़ी लड़कियाँ हँस रही हैं। सभी लड़कियों ने चूड़ीदार पाजामे और ढीले-ढीले कुर्ते पहन रखे हैं। केवल एक लड़की साड़ी में है और उसने ऊँचा-सा जूड़ा बना रखा है। बातचीत और हाव-भाव से सब ‘मिरेण्डियन्स’ लग रही हैं। मेज़ साफ़ होते ही खड़ी लड़कियाँ बैठ जाती हैं और उनकी बातों का टूटा क्रम (?) चल पड़ता है।
”पापा को इस बार हार्ट-अटैक हुआ है सो छुट्टियों में कहीं बाहर तो जा नहीं सकेंगे। हमने तो सारी छुट्टियाँ यहीं बोर होना है। मैं और ममी सप्ताह में एक पिक्चर तो देखते ही हैं, इट्स ए मस्ट फ़ॉर अस। छुट्टियों में तो हमने दो देखनी हैं।“
”हमारी किटी ने बड़े स्वीट पप्स दिये हैं। डैडी इस बार उसे ‘मीट’ करवाने मुम्बई ले गये थे। किसी पिं्रस का अल्सेशियन था। ममी बहुत बिगड़ी थीं। उन्हें तो दुनिया में सब कुछ वेस्ट करना ही लगता है। पर डैडी ने मेरी बात रख ली एंड इट पेड अस आॅलसो। रीयली पप्स बहुत स्वीट हैं।“
”इस बार ममी ने, पता है, क्या कहा है? छुट्टियों में किचन का काम सीखो। मुझे तो बाबा, किचन के नाम से ही एलर्जी है! मैं तो इस बार मोराविया पढ़ूंगी! हिन्दीवाली मिस ने हिन्दी-नॉवेल्स की एक लिस्ट पकड़ायी है। पता नहीं, हिन्दी के नावेल्स तो पढ़े ही नहीं जाते!“
वह ज़ोर से कन्धे उचका देती है। तभी बाहर का दरवाजा खुलता है और चुस्त-दुरुस्त शरीर और रोबदार चेहरा लिये एक व्यक्ति भीतर आता है। भीतर का दरवाज़ा खुलता है तब वह बाहर का दरवाज़ा बन्द हो चुका होता है, इसलिए बाहर के शोर और गरम हवा का लवलेश भी भीतर नहीं आ पाता।
सीढ़ियों के पासवाले कोने की छोटी-सी टेबिल पर दीवाल से पीठ सटाये एक महिला बड़ी देर से बैठी है। ढलती उम्र के प्रभाव को भरसक मेकअप से दबा रखा है। उसके सामने कॉफ़ी का प्याला रखा है और वह बेमतलब थोड़ी-थोड़ी देर के लिए सब टेबिलों की ओर देख लेती है। आनेवाले व्यक्ति को देखकर उसके ऊब भरे चेहरे पर हल्की-सी चमक आ जाती है और वह उस व्यक्ति को अपनी ओर मुखतिब होने की प्रतीक्षा करती है। खाली जगह देखने के लिए वह व्यक्ति चारों ओर नजर दौड़ा रहा है। महिला को देखते ही उसकी आँखों में परिचय का भाव उभरता है और महिला के हाथ हिलाते ही वह उधर ही बढ़ जाता है।
”हल्लोऽ़! आज बहुत दिनों बाद दिखाई दीं मिसेज रावत!“ फिर कुरसी पर बैठने से पहले पूछता है,
”आप यहाँ किसी के लिए वेट तो नहीं कर रही हैं?“
”नहीं जी, घर में बैठे-बैठे या पढ़ते-पढ़ते जब तबीयत ऊब जाती है तो यहाँ आ बैठती हूँ। दो कप कॉफी के बहाने घण्टा-डेढ़ घण्टा मज़े से कट जाता है। कोई जान-पहचान का फ़ुरसत में मिल जाये तो लम्बी ड्राइव पर ले जाती हूँ। आपने तो किसी को टाइम नहीं दे रखा है न?“
”नो...नो... बाहर ऐसी भयंकर गरमी है कि बस। एकदम आग बरस रही है। सोचा, यहाँ बैठकर एक कोल्ड कॉफ़ी ही पी ली जाये।“ बैठते हुए उसने कहा। जवाब से कुछ आश्वस्त हो मिसेज़ रावत ने बैरे को कोल्ड कॉफ़ी का आॅर्डर दिया -
”ओर बताइए, मिसेज आहूजा कब लौटनेवाली हैं? सालभर तो हो गया न उन्हें?“
”गॉड नोज।“ वह कन्धे उचका देता है और फिर पाइप सुलगाने लगता है। एक कश खींचकर टुकड़ों-टुकड़ों में धुआँ उड़ाकर पूछता है,
”छुट्टियों में इस बार आपने कहाँ जाने का प्रोग्राम बनाया है?“
”जहाँ का भी मूड आ जाये चल देंगे। बस इतना तय है कि दिल्ली में नहीं रहेंगे। गरमियों में तो यहाँ रहना असम्भव है। अभी यहाँ से निकलकर गाड़ी में बैठेंगे तब तक शरीर झुलस जायेगा! सड़कें तो जैसे भट्टी हो रही है।“
गाने का स्वर डायस से उठकर फिर सारे हॉल में तैर गया... ‘आॅन सण्डे आइ एम हैप्पी...’
”नॉन सेन्स! मेरा तो सण्डे ही सबसे बोर दिन होता है!“
तभी संगीत की स्वर-लहरियों के साये में फैले हुए भिनभिनाते-से शोर-को चीरता हुए एक असंयत सा कोलाहल सारे हॉल में फैल जाता है। सबकी नज़रे दरवाजे की ओर उठ जाती है। विचित्र दृश्य है। बाहर और भीतर के दरवाजे एक साथ खुल गए हैं और नन्हें-मुन्ने बच्चों के दो-दो, चार-चार के झुण्ड हल्ला-गुल्ला करते भीतर घुस रहे हैं। सड़क का एक टुकड़ा दिखाई दे रहा है, जिस पर एक स्टेशन-बेगन खड़ी है, आस-पास कुछ दर्शक खड़े हैं और उसमें-से बच्चे उछल-उछलकर भीतर दाखिल हो रहे हैं-
‘बॉबी, इधर आ जा!’ - ‘निद्धू,
मेरा डिब्बा लेते आना...!’ बच्चों के इस शोर के साथ-साथ बाहर का शोर भी भीतर आ रहा हैं बच्चे टेबिलों से टकराते, एक-दूसरे को धकेलते हुए सीढ़ियों पर जाते हैं। लकड़ी की सीढ़ियाँ कार्पेट बिछा होने के बावजूद धम्-धम् करके बज उठी है।
हॉल की संयत शिष्टता एक झटके के साथ बिखर जाती है। लड़की गाना बन्द करके मुग्ध भाव से बच्चों को देखने लगती हैं। सबकी बातों पर विराम-चिन्ह लग जाता है और चेहरों पर एक विस्मयपूर्ण कौतुक फैल जाता है। कुछ बच्चे बाल्कनी की रेलिंग पर झूलते हुए-से हॉल में गुब्बारे उछाल रहे हैं कुछ गुब्बारे कार्पेट पर आ गिरे हैं, कुछ कन्धों पर सिरों से टकराते हुए टेबिलों पर लुढ़क रहे हैं तो कुछ बच्चों की किलकारियों के साथ-साथ हवा में तैर रहे है।.... नीले, पीले, हरे, गुलाबी...
कुछ बच्चे ऊपर उछल-उछलकर कोई नर्सरी राइम गाने लगते हैं तो लकड़ी का फर्श धम्-धम् बज उठता है।
हॉल में चलती फ़िल्म जैसे अचानक टूट गयी है।
सब पर मानो बुआजी का व्यक्तित्व हावी है। सारा काम वहाँ इतनी व्यवस्था से होता जैसे सब मशीनें हों, जो कायदे में बँधीं, बिना रुकावट अपना काम किए चली जा रही हैं। ठीक पाँच बजे सब लोग उठ जाते, फिर एक घंटा बाहर मैदान में टहलना होता, उसके बाद चाय-दूध होता।उसके बाद अन्नू को पढने के लिए बैठना होता। भाई साहब भी तब अखबार और ऑफिस की फाइलें आदि देखा करते। नौ बजते ही नहाना शुरू होता। जो कपडे बुआजी निकाल दें, वही पहनने होते। फिर कायदे से आकर मेज पर बैठ जाओ और खाकर काम पर जाओ।
सयानी बुआ का नाम वास्तव में ही सयानी था या उनके सयानेपन को देखकर लोग उन्हें सयानी कहने लगे थे, सो तो मैं आज भी नहीं जानती, पर इतना अवश्य कँगी कि जिसने भी उनका यह नाम रखा, वह नामकरण विद्या का अवश्य पारखी रहा होगा।
बचपन में ही वे समय की जितनी पाबंद थीं, अपना सामान संभालकर रखने में जितनी पटु थीं, और व्यवस्था की जितना कायल थीं, उसे देखकर चकित हो जाना पडता था। कहते हैं, जो पेंसिल वे एक बार खरीदती थीं, वह जब तक इतनी छोटी न हो जाती कि उनकी पकड में भी न आए तब तक उससे काम लेती थीं। क्या मजाल कि वह कभी खो जाए या बार-बार नोंक टूटकर समय से पहले ही समाप्त हो जाए। जो रबर उन्होंने चौथी कक्षा में खरीदी थी, उसे नौवीं कक्षा में आकर समाप्त किया।
उम्र के साथ-साथ उनकी आवश्यकता से अधिक चतुराई भी प्रौढता धारण करती गई और फिर बुआजी के जीवन में इतनी अधिक घुल-मिल गई कि उसे अलग करके बुआजी की कल्पना ही नहीं की जा सकती थी। उनकी एक-एक बात पिताजी हम लोगों के सामने उदाहरण के रूप में रखते थे जिसे सुनकर हम सभी खैर मनाया करते थे कि भगवान करे, वे ससुराल में ही रहा करें, वर्ना हम जैसे अस्त-व्यस्त और अव्यवस्थित-जनों का तो जीना ही हराम हो जाएगा।
ऐसी ही सयानी बुआ के पास जाकर पढने का प्रस्ताव जब मेरे सामने रखा गया तो कल्पना कीजिए, मुझ पर क्या बीती होगी? मैंने साफ इंकार कर दिया कि मुझे आगे पढना ही नहीं। पर पिताजी मेरी पढाई के विषय में इतने सतर्क थे कि उन्होंने समझाकर, डाँटकर और प्यार-दुलार से मुझे राजी कर लिया। सच में, राजी तो क्या कर लिया, समझिए अपनी इच्छा पूरी करने के लिए बाध्य कर दिया। और भगवान का नाम गुहारते-गुहारते मैंने घर से विदा ली और उनके यहाँ पहुँची।
इसमें संदेह नहीं कि बुआजी ने बडा स्वागत किया। पर बचपन से उनकी ख्याति सुनते-सुनते उनका जो रौद्र रूप मन पर छाया हुआ था, उसमें उनका वह प्यार कहाँ तिरोहित हो गया, मैं जान ही न पाई। हाँ, बुआजी के पति, जिन्हें हम भाई साहब कहते थे, बहुत ही अच्छे स्वभाव के व्यक्ति थे। और सबसे अच्छा कोई घर में लगा तो उनकी पाँच वर्ष की पुत्री अन्नू।
घर के इस नीरस और यंत्रचालित कार्यक्रम में अपने को फिट करने में मुझे कितना कष्ट उठाना पडा और कितना अपने को काटना-छाँटना पडा, यह मेरा अंतर्यामी ही जानता है। सबसे अधिक तरस आता था अन्नू पर। वह इस नन्ही-सी उमर में ही प्रौढ हो गई थी। न बच्चों का-सा उल्लास, न कोई चहचहाहट। एक अज्ञात भय से वह घिरी रहती थी। घर के उस वातावरण में कुछ ही दिनों में मेरी भी सारी हँसी-खुशी मारी गई।
यों बुआजी की गृहस्थी जमे पंद्रह वर्ष बीच चुके थे, पर उनके घर का सारा सामान देखकर लगता था, मानाें सब कुछ अभी कल ही खरीदा हो। गृहस्थी जमाते समय जो काँच और चीनी के बर्तन उन्होंने खरीदे थे, आज भी ज्यों-के-त्यों थे, जबकि रोज उनका उपयोग होता था। वेसारे बर्तन स्वयं खडी होकर साफ करवाती थीं। क्या मजाल, कोई एक चीज भी तोड दे। एक बार नौकर ने सुराही तोड दी थी। उस छोटे-से छोकरे को उन्होंने इस कसूर पर बहुत पीटा था। तोड-फोड से तो उन्हें सख्त नफरत थी, यह बात उनकी बर्दाश्त के बाहर थी। उन्हेंबडा गर्व था अपनी इस सुव्यवस्था का। वे अक्सर भाई साहब से कहा करती थीं कि यदि वे इस घर में न आतीं तो न जाने बेचारे भाई साहब का क्या हाल होता। मैं मन-ही-मन कहा करती थी कि और चाहे जो भी हाल होता, हम सब मिट्टी के पुतले न होकर कम-से-कम इंसान तो अवश्य हुए होते।
बुआजी की अत्यधिक सतर्कता और खाने-पीने के इतने कंट्रोल के बावजूद अन्नू को बुखार आने लगा, सब प्रकार के उपचार करने-कराने में पूरा महीना बीत गया, पर उसका बुखार न उतरा। बुआजी की परेशानी का पार नहीं, अन्नू एकदम पीली पड गई। उसे देखकर मुझे लगता मानो उसके शरीर में ज्वर के कीटाणु नहीं, बुआजी के भय के कीटाणु दौड रहे हैं, जो उसे ग्रसते जा रहे हैं। वह उनसे पीडित होकर भी भय के मारे कुछ कह तो सकती नहीं थी, बस सूखती जा रही है।
आखिर डॉक्टरों ने कई प्रकार की परीक्षाओं के बाद राय दी कि बच्ची को पहाड पर ले जाया जाए, और जितना अधिक उसे प्रसन्न रखा जा सके, रखा जाए। सब कुछ उसके मन के अनुसार हो, यही उसका सही इलाज है। पर सच पूछो तो बेचारी का मन बचा ही कहाँ था? भाई साहब के सामने एक विकट समस्या थी। बुआजी के रहते यह संभव नहीं था, क्योंकि अनजाने ही उनकी इच्छा के सामने किसी और की इच्छा चल ही नहीं सकती थी। भाई साहब ने शायद सारी बात डॉक्टर के सामने रख दी, तभी डॉक्टर ने कहा कि माँ का साथ रहना ठीक नहीं होगा। बुआजी ने सुना तो बहुत आनाकानी की, पर डॉक्टर की राय के विरुध्द जाने का साहस वे कर नहीं सकीं सो मन मारकर वहीं रहीं।
जोर-शोर से अन्नू के पहाड जाने की तैयारी शुरू हुई। पहले दोनों के कपडों की लिस्ट बनी, फिर जूतों की, मोजों की, गरम कपडों की, ओढने-बिछाने के सामान की, बर्तनों की। हर चीज रखते समय वे भाई साहब को सख्त हिदायत कर देती थीं कि एक भी चीज खोनी नहीं चाहिए- 'देखो, यह फ्रॉक मत खो देना, सात रुपए मैंने इसकी सिलाई दी है। यह प्याले मत तोड देना, वरना पचास रुपए का सेट बिगड जाएगा। और हाँ, गिलास को तुम तुच्छ समझते हो, उसकी परवाह ही नहीं करोगे, पर देखो, यह पंद्रह बरस से मेरे पास है और कहीं खरोंच तक नहीं है, तोड दिया तो ठीक न होगा।
प्रत्येक वस्तु की हिदायत के बाद वे अन्नू पर आईं। वह किस दिन, किस समय क्या खाएगी, उसका मीनू बना दिया। कब कितना घूमेगी, क्या पहनेगी, सब कुछ निश्चित कर दिया। मैं सोच रही थी कि यहाँ बैठे-बैठे ही बुआजी ने इन्हें ऐसा बाँध दिया कि बेचारे अपनी इच्छा के अनुसार क्या खाक करेंगे! सब कह चुकीं तो जरा आर्द्र स्वर में बोलीं, 'कुछ अपना भी खयाल रखना, दूध-फल बराबर खाते रहना। हिदायतों की इतनी लंबी सूची के बाद भी उन्हें यही कहना पडा, 'जाने तुम लोग मेरे बिना कैसे रहोगे, मेरा तो मन ही नहीं मानता। हाँ, बिना भूले रोज एक चिट्ठी डाल देना।
आखिर वह क्षण भी आ पहुँचा, जब भाई साहब एक नौकर और अन्नू को लेकर चले गए। बुआजी ने अन्नू को खूब प्यार किया, रोई भी। उनका रोना मेरे लिए नई बात थी। उसी दिन पहली बार लगा कि उनकी भयंकर कठोरता में कहीं कोमलता भी छिपी है। जब तक ताँगा दिखाई देता रहा, वे उसे देखती रहीं, उसके बाद कुछ क्षण निर्र्जीव-सी होकर पडी रहीं। पर दूसरे ही दिन से घर फिर वैसे ही चलने लगा।
भाई साहब का पत्र रोज आता था, जिसमें अन्नू की तबीयत के समाचार रहते थे। बुआजी भी रोज एक पत्र लिखती थीं, जिसमें अपनी उन मौखिक हिदायतों को लिखित रूप से दोहरा दिया करती थीं। पत्रों की तारीख में अंतर रहता था। बात शायद सबमें वही रहती थी। मेरे तो मन में आता कि कह दूँ, बुआजी रोज पत्र लिखने का कष्ट क्यों करती हैं? भाई साहब को लिख दीजिए कि एक पत्र गत्ते पर चिपकाकर पलंग के सामने लटका लें और रोज सबेरे उठकर पढ लिया करें। पर इतना साहस था नहीं कि यह बात कह सकूँ।
करीब एक महीने के बाद एक दिन भाई साहब का पत्र नहीं आया। दूसरे दिन भी नहीं आया। बुआजी बडी चिंतित हो उठीं। उस दिन उनका मन किसी भी काम में नहीं लगा। घर की कसी-कसाई व्यवस्था कुछ शिथिल-सी मालूम होने लगी। तीसरा दिन भी निकल गया।
अब तो बुआजी की चिंता का पार नहीं रहा। रात को वे मेरे कमरे में आकर सोईं, पर सारी रात दु:स्वप्न देखती रहीं और रोती रहीं। मानो उनका वर्षों से जमा हुआ नारीत्व पिघल पडा था और अपने पूरे वेग के साथ बह रहा था। वे बार-बार कहतीं कि उन्होंने स्वप्न में देखाहै कि भाई साहब अकेले चले आ रहे हैं, अन्नाू साथ नहीं है और उनकी आँखें भी लाल हैं और वे फूट-फूटकर रो पडतीं। मैं तरह-तरह से उन्हें आश्वासन देती, पर बस वे तो कुछ सुन नहीं रही थीं। मेरा मन भी कुछ अन्नू के ख्याल से, कुछ बुआजी की यह दशा देखकर बडा दु:खी हो रहा था।
तभी नौकर ने भाई साहब का पत्र लाकर दिया। बडी व्यग्रता से काँपते हाथों से उन्होंने उसे खोला और पढने लगीं। मैं भी साँस रोककर बुआजी के मुँह की ओर देख रही थी कि एकाएक पत्र फेंककर सिर पीटती बुआजी चीखकर रो पडीं। मैं धक् रह गई। आगे कुछ सोचने का साहस ही नहीं होता था। आँखों के आगे अन्नू की भोली-सी, नन्ही-सी तस्वीर घूम गई। तो क्या अब अन्नू सचमुच ही संसार में नहीं है? यह सब कैसे हो गया? मैंने साहस करके भाई साहब का पत्र उठाया। लिखा था-
प्रिय सयानी,
समझ में नहीं आता, किस प्रकार तुम्हें यह पत्र लिखूँ। किस मुँह से तुम्हें यह दु:खद समाचार सुनाऊँ । फिर भी रानी, तुम इस चोट को धैर्यपूर्वक सह लेना। जीवन में दु:ख की घडियाँ भी आती हैं, और उन्हें साहसपूर्वक सहने में ही जीवन की महानता है। यह संसार नश्वर है। जो बना है वह एक-न-एक दिन मिटेगा ही, शायद इस तथ्य को सामने रखकर हमारे यहाँ कहा है कि संसार की माया से मोह रखना दु:ख का मूल है। तुम्हारी इतनी हिदायतों के और अपनी सारी सतर्कता के बावजूद मैं उसे नहीं बचा सका, इसे अपने दुर्भाग्य के अतिरिक्त और क्या कँ।यह सब कुछ मेरे ही हाथों होना था ...आँसू-भारी आँखों के कारण शब्दों का रूप अस्पष्ट से अस्पष्टतर होता जा रहा था और मेरे हाथ काँप रहे थे। अपने जीवन में यह पहला अवसर था, जब मैं इस प्रकार किसी की मृत्यु का समाचार पढ रही थी। मेरी आँखें शब्दों को पार करती हुई जल्दी-जल्दी पत्र के अंतिम हिस्से पर जा पडी- 'धैर्य रखना मेरी रानी, जो कुछ हुआ उसे सहने की और भूलने की कोशिश करना। कल चार बजे तुम्हारे पचास रुपए वाले सेट के दोनों प्याले मेरे हाथ से गिरकर टूट गए। अन्नू अच्छी है। शीघ्र ही हम लोग रवाना होने वाले हैं।
एक मिनट तक मैं हतबुध्दि-सी खडी रही, समझ ही नहीं पाई यह क्या-से-क्या हो गया। यह दूसरा सदमा था। ज्यों ही कुछ समझी, मैं जोर से हँस पडी। किस प्रकार मैंने बुआजी को सत्य से अवगत कराया, वह सब मैं कोशिश करके भी नहीं लिख सकूँगी। पर वास्तविकता जानकारी बुआजी भी रोते-रोते हँस पडीं। पाँच आने की सुराही तोड देने पर नौकर को बुरी तरह पीटने वाली बुआजी पचास रुपए वाले सेट के प्याले टूट जाने पर भी हँस रही थीं, दिल खोलकर हँस रही थीं, मानो उन्हें स्वर्ग की निधि मिल गई हो।
प्यारी बहनो, न तो मैं कोई विचारक हूँ, न प्रचारक, न लेखक, न शिक्षक। मैं तो एक बड़ी मामूली-सी नौकरीपेशा घरेलू औरत हूँ, जो अपनी उम्र के बयालीस साल पार कर चुकी है। लेकिन उस उम्र तक आते-आते जिन स्थितियों से मैं गुजरी हूँ, जैसा अहम अनुभव मैंने पाया... चाहती हूँ, बिना किसी लाग-लपेट के उसे आपके सामने रखूँ और आपको बहुत सारे खतरों से आगाह कर दूँ।
अब सीधी बात सुनिए। सीधी और सच्ची! मेरा अपने बॉस से प्रेम हो गया। वाह! आपके चेहरों पर तो चमक आ गयी! आप भी क्या करें? प्रेम कम्बख्त है ही ऐसी चीज। चाहे कितनी ही पुरानी और घिसी-पिटी क्यों न हो जाये... एक बार तो दिल फड़क ही उठता है... चेहरे चमचमाने ही लगते हैं। खैर, तो यह कोई अनहोनी बात नहीं थी। डॉक्टरों का नर्सों से, प्रोफेसरों का अपनी छात्राओं से, अफसरों का अपनी स्टेनो - सेक्रेटरी से प्रेम हो जाने का हमारे यहाँ आम रिवाज है। यह बात बिलकुल अलग है कि उनकी ओर से इसमें प्रेम कम और शगल ज्यादा रहता है।
शिंदे नये-नये तबादला होकर हमारे विभाग में आये थे। बेहद खुशमिजाज और खूबसूरत। आँखों में ऐसी गहराई कि जिसे देख लें, वह गोते ही लगाता रह जाये।
बड़ा शायराना अन्दाज था उनका और जल्दी ही मालूम पड़ गया कि वे कविताएँ भी लिखते हैं। पत्र-पत्रिकाओं में वे धड़ाधड़ छपती भी रहती हैं और इस क्षेत्र में उनका अच्छा-खासा नाम है। आयकर विभाग की अफसरी और कविताएँ। हैं न कुछ बेमेल-सी बात! पर यह उनके जीवन की हकीकत थी।
मैं स्थितियों और उम्र के उस दौर से गुजर रही थी, जब लड़कियों में प्रेम के लिए विशेष प्रकार का लपलप भाव रहता है। बूढ़ी माँ तीनों छोटे भाई-बहनों को लेकर गाँव में रहती थी और मैं इस महानगरी में कामकाजी महिलाओं के एक होस्टल में। न घर का कोई अंकुश था और न इस बात की सम्भावना कि कहीं मेरा ठौर-ठिकाना लगा देंगे।
आखिर मैंने अपनी नाक और आँखों को कुछ अधिक सजग और तेज कर लिया। बस, ऐसा करते ही मुझे हर नौजवान की नजरों में अपने लिए विशेष संकेत दिखने लगे और उनकी बातों में विशेष अर्थ और आमंत्रण की गन्ध आने लगी। तभी भिड़ गया शिंदे। उसके तो संकेत भी बहुत साफ थे ... निमंत्रण भी बहुत खुला। लगा, किस्मत ने छप्पन पकवानों से भरी थाली मुझ भुक्खड़ के आगे परोसकर रख दी है। सो मैंने न उसका आगा-पीछा जानने की कोशिश की और न अपना आगा-पीछा सोचने की। बस, आँख मूँदी और प्रेम की डगर पर चल पड़ी।
हर प्रेम की शुरुआत करीब-करीब एक-सी होती है। प्रेमियों को वे सारी बातें चाहे जितनी रोमांचकारी और गुदगुदानेवाली लगें, देखने-सुननेवालों को बड़ी उबाऊ और सपाट लगने लगती हैं। शामें हमारी किसी रेस्तराँ के नीम-अँधेरे कोने में बीततीं, तो कभी बाग के झुरमुट के बीच। कभी हम आपस में उँगलियाँ उलझाये रहते, तो कभी वह मेरी लटों से खिलवाड़ करता रहता। एक बार उसने कविता में मेरे बालों की उपमा बदली से दे दी। बस, फिर क्या था, मैं जब-तब गोदी में रखे उसके सिर पर झुककर बदली छितरा देती और वह उचककर...
यह क्या, आपकी आँखों में तो अविश्वास उभर आया। मैं समझ गयी। एक सीनियर अधिकारी और ऐसी छिछोरी फिल्मी हरकतें। पर सच मानिए, अब भी मैं दावे के साथ कह सकती हूँ कि यहाँ के हर पुरुष के भीतर एक ऐसा ही फिल्मी हीरो आसन मारे बैठा रहता है और जब तक वह पूरी तरह तृप्त न हो जाये, मरता नहीं। उम्र के किसी भी दौर पर, उस समय चाहे वह छह बच्चों का बाप ही क्यों न हो... जरा-सा मौका मिलते ही भड़भड़ाकर जाग उठता है और पूरी तरह अपनी गिरफ्त में जकड़ लेता है। फिर तो बड़ी-बड़ी तोपें तक ऐसी बचकाना और बेवकूफाना हरकतें करती हैं कि बस, तौबा! न कोई शर्म, न उम्र का लिहाज! आजकल की लड़कियों ने उस राज को अच्छी तरह समझ लिया है, पर मैं तो उन बहनों को सावधान करना चाहती हूँ, जो शादी के पहले ही से उस हीरो के चंगुल में आकर अपने को चौपट कर लेती हैं।
हाँ, तो मैं पूरी तरह शिंदेमयी हो गयी, पर तभी एक भयंकर झटका लगा। बल्कि कहूँ कि जो लगा, उसके लिए झटका शब्द हल्का ही है। मालूम पड़ा कि शिंदे की एक अदद बीवी है, जो पहली बार पुत्रवती बनकर पाँच महीने बाद अपने मैके से लौटी है यानी एक अदद बीवी और एक अदद बच्चा। मुझे तो सारी दुनिया ही लड़खड़ाती नजर आने लगी। लगा, मैं बहुत बड़ा धोखा खा गयी हूँ। मेरे भीतर गुस्सा बुरी तरह बलबलाने लगा। बीवी-बच्चे के रहते मेरी ओर प्रेम का हाथ बढ़ाने का मतलब? मैंने जब भी उससे घर और घरवालों के बारे में पूछा, वह तीन-चार शेर दोहरा दिया करता था, जिनका शाब्दिक अर्थ होता था, ''मेरा न कोई घर है न दर, न कोई अपना न पराया। इस जमीन और आसमान के बीच मैं अकेला हूँ, बिल्कुल अकेला,'' पर मेरे लिए इन शेरों का सीधा-सादा अर्थ था - हरी झंडी, लाइन क्लीयर। सो मैं सपाटे से चल पड़ी। बल्कि चलने में थोड़ा फुर्ती भी की। आप तो जानती ही होंगी कि इस उम्र तक शादी न होने पर लड़कियों में एक खास तरह की हड़बड़ाहट आ जाती है। चाहती हैं, जैसे भी हो, जल्दी-से-जल्दी प्रेमी को पूरी तरह कब्जे में करके, पति बनाकर अपनी टेंट में खोंस लें।
मैं भी इसी नेक इरादे से लपक रही थी कि बीच में ही औंधे मुँह गिरी।
पर गिरने नहीं दिया शिंदे ने। हाथों-हाथ झेल लिया।
उसने बिना किसी बात को मौका दिये मुझे बाँहों में भर लिया और धुआँधार रोने लगा, ''पिता के दबाव में आकर की हुई शादी मेरे जीवन की सबसे बड़ी ट्रेजेडी बन गयी... बीवी के रहते भी मैं कितना अकेला हूँ ... दो अजनबियों की तरह एक छत के नीचे रहने की यातना..." ऐसी-ऐसी बातों के न जाने कितने टुकड़े आँसुओं से भीग-भीगकर टपक रहे थे। मेरा विवेक मुझसे संकल्प करवा रहा था कि लौट जाओ, इस दिशा में अब एक कदम भी मत बढ़ो। मैं रो-रोकर अपना संकल्प देाहरा रही थी। वह रो-रोकर अपना दुःख दोहरा रहा था।
इसी तरह हम दो-तीन बार और मिले। वही बातें, वही रोना। मैंने सोचा था कि आँसुओं के साथ मैं अपना सारा प्रेम और गम भी बहा दूँगी और हमेशा के लिए अलबिदा कहकर लौट जाऊँगी। पर हुआ एकदम उल्टा। आँसुओं के जल से सिंचकर प्रेम की बेल तो और ज्यादा लहलहा उठी। अब देखिए न, मीरा का पद - ''अँसुवन जल सींच-सींच...'' बचपन से पढ़ा था। पर हम सबकी ट्रेजेडी यही है कि स्कूली शिक्षा को जीवन में गुनते नहीं। शिक्षा एक तरफ जीवन एक तरफ और इसीलिए ठोकर खाते हैं।
यही हुआ। उसका दुखी और दयनीय चेहरा देखकर मेरे मन में प्रेम का ज्वार उमड़ने लगा। उसके आँसुओं ने प्रेम को इतना गीला और रपटीला बना दिया कि वापस मुड़ने को तैयार मेरा पैर अपने आपको स्वाहा करने के लिए आगे बढ़ गया।
शिंदे इस मैदान का पक्का खिलाड़ी था। मेरे असमंजस और दुविधा को चट भाँप गया। केवल भाँप ही नहीं गया, वरन उसने यह भी महसूस कर लिया कि बीवी की उपस्थिति से हमारे प्रेम में आपातकालीन स्थिति पैदा हो गयी है। अब यदि इसे बचाकर रखना है, तो प्रेम करने के तरीके में एक क्रान्तिकारी परिवर्तन लाना होगा। बिना उसके मामला चलनेवाला नजर नहीं आ रहा था। रेस्तराँ और बाग-बगीचों के बीच तो यह परिवर्तन आ नहीं सकता था, इसलिए बड़ी शिद्दत के साथ एक कमरे की तलब महसूस होने लगी।
तीन-चार कमरा-मुलाकातों में ही मैंने समझ लिया कि इन मुलाकातों के कारण उसके भीतर किसी तरह का अपराध-बोध, या कुछ गलत करने का भाव लेशमात्र भी नहीं है। वह काफी तृप्त और छका हुआ लगता था। मुझे समझते देर नहीं लगी कि शरीर के स्तर पर भी मैंने अपने को उसके लिए अनिवार्य बना लिया है। मुझे पक्का विश्वास हो गया कि मेरा यह समर्पण तुरुप के इक्के की तरह कारगर सिद्ध होगा और बाजी मेरे हाथ। निश्चय ही इन मुलाकातों ने मेरे प्रेम को बड़ी मजबूत बैसाखियाँ थमा दीं और मेरे लड़खड़ाते कदम फिर जम गये।
वह मेरे साथ भविष्य की योजनाएँ बनाता, पर उन्हें अमल में लाये, तब तक के लिए एक मौन समझौता हम लोगों के बीच हो गया। अपना शरीर, अपनी भावनाएँ उसने मेरे जिम्मे कर दीं और घर, बच्चा, बूढ़ा बाप और सारी पारिवारिक खिचखिच बीवी के जिम्मे। इस विभाजन में मैं कुछ समय के लिए परम प्रसन्न। यों भी इस उम्र में आदमी को सबसे ज्यादा भरोसा अपने शरीर पर ही होता है। शरीर पा लिया, समझो दुनिया-जहान हथिया लिया। ऊपर से मुझे वह कभी बातों से, तो कभी कविताओं से समझाता रहता कि मन और शरीर की पवित्र भूमि पर ही असली प्रेम पनपता है। घर की चहारदीवारी के बीच निरन्तर होनेवाली खिचखिच में तो वह मरता ही है। मैं समझती रहती और अपने को बहुत पुख्ता जमीन पर महसूस करती। वह बातें ही ऐसी करता कि सन्देह की कोई गुंजाइश नहीं छोड़ता। मुझे पूरा विश्वास था कि एक दिन वह खूँटे से उखड़कर मेरी गिरफ्त में आ जायेगा।
बीवी की याद और बात से ही शिंदे अपना चेहरा एकदम मायूस बना लेता और बिना कहे ही मेरे दिमाग में यह बिठाने की कोशिश करता कि बीवी बनते ही औरत बहुत उबाऊ और त्रासदायक बन जाती है... कि रिश्तों में बँधते ही प्रेम नीरस और बेजान हो जाता है... कि सच्चे प्रेमियों को तो हमेशा मुक्त ही रहना चाहिए।
बीवी बनने की ललक जब-तब मेरे भीरत जोर मारती थी। सच बात है, मुझे तो घर भी चाहिए था, पति भी और बच्चे भी। पर उसे तो जैसे बीवी नाम से ही चिढ़ हो गयी थी। कभी-कभी तो वह अपनी बीवी के कर्कश स्वभाव और तुनकमिजाजी की बात करते-करते रो तक पड़ता। तब मैं लपककर उसे बाँहों में भरती, अपने होंठों से उसके आँसू पोंछती और उसे हौसला बँधाती कि जल्दी ही हम कुछ ऐसा करेंगे कि वह इस दुःख से मुक्त हो... कि मैं उसे एक सही, सुखद जिन्दगी दूँगी। यह आश्वासन उसके लिए कम, मेरे अपने लिए ज्यादा होता था।
दिन सरकते जा रहे थे और अपने प्रेम करने के तरीके में क्रान्तिकारी परिवर्तन लाने के बावजूद स्थिति जहाँ-की-तहाँ थी यानी कि मैं अपने हॉस्टल के कमरे में बन्द, शिंदे अपनी बीवी की मुट्ठी में। आज सोचती हूँ तो अपने पर ही सौ-सौ धिक्कार के साथ आश्चर्य भी होता है कि कैसे मेरी बुद्धि पर ऐसा मोटा परदा पड़ गया था कि यह भी नहीं सोच सकी कि उसकी बीवी भी आखिर मेरी तरह ही एक स्त्री है... अपने पति के छलावे और मक्कारी की शिकार। पर नहीं, यह तो तब समझ में आया जब उसकी मक्कारी ने मुझे भी तबाही के कगार पर ला पटका।
तभी तो मैंने सोचा कि क्यों न मैं जब-तब वहाँ उपस्थित होकर उसके त्रास को इतना बढ़ा दूँ कि वह खुद ही इस अपमानजनक स्थिति को नकारकर अलग हो जाये। रकीब को सामने देखकर अच्छों-अच्छों के हौसले पस्त हो जाते हैं, फिर अपमान और अपेक्षा की आग में झुलसी इस औरत का हौसला ही क्या होगा। और यही सोचकर आखिर मैं एक दिन शिंदे के घर जा धमकी।
एक सुहागिन औरत की सारी नियामतों यानी कि बूढ़े ससुर के वरदहस्त की छत्रा-छाया और बच्चे के पोतड़ों के वन्दनवार के बीच, दूधों नहायी पूतों फली भाव से वह कुर्सी पर विराजमान थी।
मुझे देखकर उसके चेहरे पर किसी तरह का कोई विकार नहीं आया।
विकार तो मुझे देखकर शिंदे के चेहरे पर आया, जिसे उसने थोड़ी-सी कोशिश करके अफसरी नकाब के नीचे ढक लिया। दफ्तरी भाषा में दफ्तरी बातें करके उसने मुझे चलता किया। पर बाहर निकलते समय हाथ दबाकर लाड़ में लिपटी हल्की-सी-फटकार के साथ शाम को कमरे पर आने का निमन्त्रण भी दे दिया।
मैं उसकी बीवी को त्रस्त करने गयी थी, पर खुद ही त्रस्त और पस्त होकर लौटी। मुझे आश्चर्य हो रहा था कि यह औरत है या माँस का लोंदा? इसका आदमी तीन साल से एक दूसरी लड़की के साथ मस्ती मार रहा है और उसे न कोई तकलीफ, न कष्ट! मैं इसकी जगह होऊँ तो शायद एक दिन भी इस तरह की अपमानजनक स्थिति को बर्दाश्त न करूँ। इसके शरीर पर चमड़ी लिपटी है, या गैंडे की खाल? यह तो मुझे बहुत बाद में अपने अनुभव ने सिखाया कि अधिकतर शादी-शुदा औरतें ऐसी होती हैं, जिन्हें अपने घर की दीवारों से बेशुमार लगाव होता है। इतना ज्यादा कि धीरे-धीरे उन दीवारों को ही अपने शरीर के चारों ओर लपेट लेती हैं। फिर मान-अपमान के सारे हमले उनसे टकराकर बाहर ही ढेर हो जाते हैं और वे उनसे बे-असर सती-साध्वी-सी भीतर सुरक्षित बैठी रहती हैं।
शाम को शिंदे मुझ पर एकदम बरस पड़ा कि मैंने उसके घर आने की मूर्खता क्यों की? कितना चौकस रहना पड़ता है उसे हर समय, जिससे उसकी बीवी को इस प्रसंग की हवा भी न लग सके, वरना तो वह शूर्पनखा की तरह ऑफिस, परिवार और सारे शहर में हड़बोंग मचाकर रख देगी। मौका लगा तो मेरा झोंटा पकड़कर सड़क पर जूते लगवायेगी, और बड़ी चालाकी से उसने मेरे मन में अपनी पत्नी के लिए, जिसे वह अक्सर कोतवाल कहता था, ढेर सारी नफरत और आक्रोश भर दिया। साथ ही जल्दबाजी करने की अपनी नादानी-भरी मूर्खता पर मुझे बेहद शर्मिन्दा भी किया।
देखा आपने कि कैसे शातिराना अन्दाज से पुरुष नफरत और गुस्से की सुई अपनी ओर से सरकाकर दोनों औरतों की ओर घुमा देता है। वे ही आपस में लड़े-भिडें, कोसे-गलियायें और वह जो असली गुनहगार है, अपने पर आँच आये बिना आराम से दोनों का सुख भोगता रहे।
वह समझाता कि सहजीवन का मधुरतम पक्ष तो हम भोग ही रहे हैं, मैं क्यों बेकार में शादी-ब्याह और घर में जकड़कर इस मधुर सम्बन्ध का गला घोंटना चाहती हूँ। और इसी चक्कर में वह मधु उड़ेलती हुई तीन-चार फड़कती कविताएँ मेरे नाम ठोंक देता।
मेरे कन्धों पर स्त्री-पुरुष के सम्बन्धों को एक नयी दिशा देने का दायित्व है। अगली पीढ़ी अधिक स्वस्थ, अधिक मुक्त जिन्दगी जी सके, उसके लिए हमें पहल करनी होगी, एक उदाहरण रखना होगा - चाहे उसके लिए हमें खाद ही क्यों न बनना पड़े। शिंदे तो ये बातें झाड़कर मजे से अपनी बीवी का बगलगीर हो जाता और मैं असली अर्थों में खाद बनी अपने कमरे में सड़ती रहती।
तभी शिंदे का तबादला हो गया। मैं एक बार फिर डगमगा गयी। मुझे लगा कि बस, अब यह मेरी जिन्दगी से निकला।
पर उस समय तो बस, शिंदे में ही प्राण बसते थे... लगता था, उसके बिना जी नहीं सकूँगी। गलत-सही की समझ ही कहाँ रह गयी थी। मैं उसे पाना चाहती थी और वह मुझे खोना नहीं चाहता था।
उसके साथ होटल में गुजारे वे दिन। मैं तो भूल ही गयी कि हम दोनों के बीच कोई तीसरा भी है। तबीयत एकदम लहलहा उठी। इस बार उसने बाकायदा योजना बनायी कि पत्नी को अब यहाँ न बुलाकर उसके पिता के घर भेज देगा और धीरे-धीरे उसे कानूनी कार्रवाई करने के लिए राजी कर लेगा... यदि नहीं हुई तो, मजबूर करेगा।
बातों का तो वह बादशाह था ही, पत्र लिखने में भी उसे कमाल हासिल था। शरीरों में जो दूरी आ गयी थी, उसे वह पत्रों की भाषा से पाटता रहता। पत्रों में मुझे वह ''दिव्य-प्रेम'' का दर्शन समझाता। मेरे जन्म-दिन पर अपने इसी दिव्य-प्रेम में डुबोकर उसने एक खूबसूरत-सा तोहफा मेरे लिए भेजा। कभी वह चाँदनी रात के गीत लिखकर भेजता, तो कभी साथ बिताये मधुर क्षणों की याद को ताजा करनेवाली कविताएँ।
उसने आँखों में सचमुच के आँसू भरकर कहा कि मैं ही शिंदे की प्राण हूँ, शिंदे की प्रेरणा हूँ। घर-परिवार के अतिरिक्त शिंदे का जो कुछ भी है - और वही तो असली शिंदे है - वह उसने मुझे पूरी तरह सौंप रखा है और तुरंत उसने अपनी बात का प्रमाण पेश कर दिया मुझे समर्पित किया हुआ अपना नया कविता-संग्रह। हाथ से लिखा हुआ था - ''प्राण को''
उसकी प्रेरणा और प्राण बनने का हश्र यह हुआ कि वह तो दिन-दूना रात-चौगुना फलता-फूलता रहा। धन-यश, सफलता, मान-सम्मान - सभी का मालिक और मैं भीतर-ही-भीतर झुलसकर काठ का कुंदा हो गयी। सब ओर से मरी, मुरझायी, टूटी और पस्त। मैं समझ गयी कि मैं बुरी तरह ठगी गई हूँ।
धीरे-धीरे उम्र की बढ़ोत्तरी और ऑफिस और दुनियादारी की निरंतर बढ़ती जिम्मेदारियों के बीच शिंदे की रोमानी जरूरत घटती चली गयी। परिणाम यह हुआ कि हमारे बीच चलनेवाले पत्रों की संख्या कम और मजमून मौसम के सर्द-गर्म होने पर आकर टिक गया।
आठ साल तक चलनेवाला प्रेम-प्रसंग महज एक खिलवाड़ था, जिसकी बाजी बड़ी होशियारी से शिंदे ने बाँटी। भ्रमजाल के कटते ही नजर साफ हुई, तो बाजी में बँटे हुए पत्तों का यह नशा रह-रहकर मेरी आँखों में उभरने लगा :
तुरुप का इक्का यानी घर - उसके पास
तुरुप का बादशाह यानी बच्चा - उसके पास
तुरुप की बेगम यानी बीवी और प्रेम करने के लिए प्रेमिका - उसके पास
तुरुप का गुलाम यानी नौकर-चाकर-गाड़ी-बँगला - उसके पास
लब्बो-लुवाब यह कि तुरुप के सारे पत्ते उसके पास और मुझे मिले उसके दिये हुए छक्के-पंचे, यानी टोटके की तरह पुड़िया में बँधे, दार्शनिक लफ्फाजी में लिपटे हवाई प्यार के चन्द जुमले। इन टटपुँजिया पत्तों के सहारे मैं ज्यादा-से-ज्यादा इतना ही कर सकती थी कि जिन्दगी भर उसकी पूँछ पकड़े रहती और उसे ही अपनी उपलब्धि समझ-समझकर सन्तोष करती। मन बहुत घबराता, तो उसी पूँछ से हवा करके उसके साथ बिताये मधुर क्षणों पर जमी समय की धूल उड़ाकर कुछ समय के लिए अपना खालीपन भर लेती।
निहायत हवाई बातें पल्ले से बाँधे-बाँधे मैंने अपनी जिंदगी को बरबादी के कगार पर ला पटका था। अब चाहती हूँ, ठेठ दुनियादारी की बातें अपनी हजार-हजार मासूम किशोरी बहनों के पल्ले से बाँध दूँ, जिससे वह मेरी तरह भटकने से बच जायें।
इस देश में प्रेम के बीच मन और शरीर की ''पवित्र भूमि'' में नहीं, ठेठ घर-परिवार की उपजाऊ भूमि से ही फलते-फूलते हैं।
भूलकर भी शादीशुदा आदमी के प्रेम में मत पड़िए। 'दिव्य' और 'महान प्रेम' की खातिर बीवी-बच्चों को दाँव पर लगानेवाले प्रेम-वीरों की यहाँ पैदावार ही नहीं होती। दो नावों पर पैर रखकर चलनेवाले 'शूरवीर' जरूर सरेआम मिल जायेंगे।
हाँ, शादीशुदा औरतें चाहें, तो भले ही शादीशुदा आदमी से प्रेम कर लें। जब तक चाहा प्रेम किया, मन भर गया तो लौटकर अपने खूँटे पर। न कोई डर, न घोटाला, जब प्रेम में लगा हो शादी का ताला।
“घर की चहारदीवारी आदमी को सुरक्षा देती है, पर साथ ही उसे एक सीमा में बाँधती भी है। स्कूल-कॉलेज जहाँ व्यक्ति के मस्तिष्क का विकास करते हैं, वहीं नियम-कायदे और अनुशासन के नाम पर उसके व्यक्त्वि को कुठित भी करते हैं… बात यह है बंधु, कि हर बात का विरोध उसके भीतर ही रहता है।”
ये सब मैं किसी किताब के उदाहरण नहीं पेश कर रही। ऐसी भारी-भरकम किताबें पढ़ने का तो मेरा बूता ही नहीं। वे तो उन बातों और बहसों के टुकड़े हैं जो रात-दिन हमारे घर में हुआ करती हैं। हमारा घर, यानी बुद्धिजीवियों का अखाड़ा। यहाँ सिगरेट के धूएँ और कॉफी के प्यालों के बीच बातों के बड़े-बड़े तुमार बाँधे जाते हैं… बड़ी-बड़ी शाब्दिक क्रान्तियाँ की जाती हैं। इस घर में काम कम और बातें ज्यादा होती हैं। मैंने कहीं पढ़ा तो नहीं, पर अपने घर से यह लगता ज़रूर है कि बुद्धिजीवियों के लिए काम करना शायद वर्जित है। मातुश्री अपनी तीन घण्टे की तफरीहनुमा नौकरी बजाने के बाद मुक्त। थोड़ा बहुत पढ़ने-लिखने के बाद जो समय बचता है वह या तो बात-बहस में जाता है या फिर लेट लगाने में। उनका ख़्याल है कि शरीर के निष्क्रिय होते ही मन-मस्तिष्क सक्रिय हो उठते हैं और वे दिन के चौबीस घण्टों में से बारह घण्टे अपना मन-मस्तिष्क ही सक्रिय बनाए रखती हैं। पिताश्री और भी दो कदम आगे। उनका बस चले तो वे नहाएँ भी अपनी मेज़ पर ही।
जिस बात की हमारे यहाँ सबसे अधिक कताई होती है, वह है – आधुनिकता! पर जरा ठहरिए, आप आधुनिकता का गलत अर्थ मत लगाइए। यह बाल कटाने और छुरी-काँटे से खाने वाली आधुनिकता कतई नहीं है। यह है ठेठ बुद्धिजीवियों की आधुनिकता। यह क्या होती है सो तो ठीक-ठीक मैं भी नहीं जानती पर हाँ, इसमें लीक छोड़ने की बात बहुत सुनाई देती है। आप लीक को दुलत्ती झाड़ते आइए, सिर-आँखों पर लीक से चिपककर आइए, दुलत्ती खाइए।
बहसों में यों तो दुनिया-जहान के विषय पीसे जाते हैं पर एक विषय शायद सब लोगों को बहुत प्रिय है और वह है शादी। शादी यानी बर्बादी। हल्के-फुल्के ढंग से शुरू हुई बात एकदम बौद्धिक स्तर पर चली जाती है- विवाह-संस्था एकदम खोखली हो चुकी है… पति-पत्नी का सम्बन्ध बड़ा नकली और ऊपर से थोपा हुआ है… और फिर धुआँधार ढंग से विवाह की धज्जियाँ उड़ाई जाती हैं। इस बहस में अक्सर स्त्रियाँ एक तरफ हो जाती और पुरुष एक तरफ। और बहस का माहौल कुछ ऐसा गरम हो जाया करता कि मुझे पूरा विश्वास हो जाता कि अब ज़रूर एक-दो लोग तलाक दे बैठेंगे। पर मैंने देखा कि ऐसा कोई हादसा कभी नहीं हुआ। सारे ही मित्र लोग अपने-अपने ब्याह को खूब अच्छी तरह तह-समेटकर, उस पर जमकर आसन मारे बैठे हैं। हाँ, बहस की रफ्तार और टोन आज भी वही है।
अब सोचिए, ब्याह को कोसेंगे तो फ्री-लव और फ्री-सेक्स को तो पोसना ही पड़ेगा। इसमें पुरुष लोग उछल-उछलकर आगे रहते – कुछ इस भाव से मानो बात करते ही इसका आधा सुख तो वे ले ही लेंगे। पापा खुद बड़े समर्थक। पर हुआ यों कि घर में हमेशा चुप-चुप रहने वाली दूर-दराज़ की एक दिदिया ने बिना कभी इन बहसों में भाग लिए ही इस पर पूरी तरह अमल कर डाला तो पाया कि सारी आधुनिकता आऽऽऽधम् ! वह तो फिर ममी ने बड़े सहज ढंग से सारी बात को संभाला और निरर्थक विवाह के बंधन में बाँधकर दिदिया का जीवन सार्थक किया हालांकि यह बात बहुत पुरानी है और मैंने तो बड़ी दबी-ढकी जुबान से इसका जिक्र ही सुना है।
वैसे पापा-ममी का भी प्रेम विवाह हुआ था। यों यह बात बिल्कुल दूसरी है कि होश सँभालने के बाद मैंने उन्हें प्रेम करते नहीं केवल बहस करते ही देखा है। विवाह के पहले अपने इस निर्णय पर ममी को नाना से भी बहुत बहस करनी पड़ी थी और बहस का यह दौर बहुत लम्बा भी चला था शायद। इसके बावजूद यह बहस-विवाह नहीं प्रेम-विवाह ही है, जिसका जिक्र ममी बड़े गर्व से किया करती है। गर्व विवाह को लेकर नहीं, पर इस बात को लेकर है कि किस प्रकार उन्होंने नाना से मोर्चा लिया। अपने और नाना के बीच हुए संवादों को वे इतनी बार दोहरा चुकी हैं कि मुझे वे कंठस्थ-से हो गए हैं। आज भी जब वे उसकी चर्चा करती हैं तो लीक से हटकर कुछ करने का संतोष उनके चेहरे पर झलक उठता है।
बस, ऐसे ही घर में मैं पल रही हूँ – बड़े मुक्त और स्वच्छन्द ढंग से। और पलते-पलते एक दिन अचानक बड़ी हो गई। बड़े होने का यह अहसास मेरे अपने भीतर से इतना नहीं फूटा, जितना बाहर से। इसके साथ भी एक दिलचस्प घटना जुड़ी हुई है। हुआ यों कि घर के ठीक सामने एक बरसाती है। एक कमरा और उसके सामने फैली छत। उसमें हर साल दो-तीन विद्यार्थी आकर रहते… छत पर घूम-घूमकर पढ़ते, पर कभी ध्यान ही नहीं गया। शायद ध्यान जाने जैसी मेरी उम्र ही नहीं थी।
इस बार देखा, वहाँ दो लड़के आए हैं। थे तो वे दो ही, पर शाम तक उनके मित्रों का एक अच्छा-खासा जमघट हो जाता और सारी छत ही नहीं, सारा मोहल्ला तक गुलजार हँसी-मजाक, गाना-बजाना और आसपास की जो भी लड़कियाँ उनकी नजर के दायरे में आ जाती, उन पर चुटीली फब्तियाँ। पर उनकी नज़रों का असली केन्द्र हमारा घर, और स्पष्ट कहूँ तो मैं ही थी। बरामदे में निकलकर मैं कुछ भी करूँ, उधर से एक न एक रिमार्क हवा में उछलता हुआ टपकता और मैं भीतर तक थरथरा उठती। मुझे पहली बार लगा कि मैं हूँ और केवल हूँ ही नहीं… किसी के आकर्षण का केन्द्र हूँ। ईमानदारी से कहूँ तो अपने होने का यह पहला अहसास बड़ा रोमांचक लगा और अपनी ही नज़रों में मैं नयी हो उठी.. नयी और बड़ी।
अजीब सी स्थिति थी। जब वे फब्तियाँ कसते तो मैं गुस्से से भन्ना जाती – हालाँकि उनकी फब्तियों में अशिष्टता कहीं नहीं थी। …थी तो केवल मन को सहलाने वाली एक चुहल। पर जब वे नहीं होते या होकर भी आपस में ही मशगूल रहते तो मैं प्रतीक्षा करती रहती… एक अनाम-सी बेचैनी भीतर ही भीतर कसमसाती रहती। आलम यह है कि हर हालत में ध्यान वहीं अटका रहता और मैं कमरा छोड़कर बरामदे में ही टँगी रहती।
पर इन लड़कों के इस हल्ले-गुल्ले वाले व्यवहार ने मोहल्ले वालों की नींद ज़रूर हराम कर दी। हमारा मोहल्ला यानी हाथरस। खुरजा के लालाओं की बस्ती। जिनके घरों में किशोरी लड़कियाँ थीं वे बाँहें चढ़ा-चढ़ाकर दाँत और लात तोड़ने की धमकियाँ दे रहे थे क्योंकि सबको अपनी लड़कियों का भविष्य खतरे में जो दिखाई दे रहा था। मोहल्ले में इतनी सरगर्मी और मेरे ममी-पापा को कुछ पता ही नहीं। बात असल में यह है कि इन लोगों ने अपनी स्थिति एक द्वीप जैसी बना रखी है। सबके बीच रहकर भी सबसे अलग।
एक दिन मैंने ममी से कहा- “ममी, ये जो सामने लड़के आए हैं, जब देखो मुझ पर रिमार्क पास करते हैं। मैं चुपचाप नहीं सुनँगी, मैं भी यहाँ जवाब दूँगी।”
“कौन लड़के?” ममी ने आश्चर्य से पूछा।
कमाल है, ममी को कुछ पता ही नहीं। मैंने कुछ खीज और कुछ पुलक के मिले-जुले स्वर में सारी बात बतायी। पर ममी पर कोई विशेष प्रतिक्रिया ही नहीं हुई।
“बताना कौन हैं ये लड़के…” बड़े ठण्डे लहजे में उन्होंने कहा और फिर पढ़ने लगीं। अपना छेड़ा जाना मुझे जितना सनसनीखेज लग रहा था, उस पर ममी की ऐसी उदासीनता मुझे अच्छी नहीं लगी। कोई और माँ होती तो फेंटा कसकर निकल जाती और उनकी सात पुश्तों को तार देती। पर माँ पर जैसे कोई असर ही नहीं।
दोपहर ढले लड़कों की मजलिस छत पर जमी तो मैंने ममी को बताया – “देखो, ये लड़के हैं जो सारे समय इधर देखते रहते हैं और मैं कुछ भी करूं उस पर फब्तियाँ कसते हैं”, पता नहीं मेरे कहने में ऐसा क्या था कि ममी एकटक मेरी ओर देखती रहीं फिर धीरे से मुस्कराईं। थोड़ी देर तक छत वाले लड़कों का मुआयना करने के बाद बोलीं – “कल शाम को इन लोगों को चाय पर बुला लेते हैं और तुमसे दोस्ती करवा देते हैं।”
मैं तो अवाक्!
“तुम इन्हें चाय पर बुलाओगी?” मुझे जैसे ममी की बात पर विश्वास ही नहीं आ रहा था।
“हाँ। क्यों, क्या हुआ? अरे, यह तो हमारे ज़माने में होता था कि मिल तो सकते नहीं, बस दूर से ही फब्तियाँ कस-कसकर तसल्ली करो। अब तो ज़माना बदल गया।”
मैं तो इस विचार-मात्र से ही पुलकित। लगा, माँ सचमुच कोई ऊँची चीज़ हैं। ये लोग हमारे घर आएँगे और मुझसे दोस्ती करेंगे। एकाएक मुझे लगने लगा कि मैं बहुत अकेली हूँ और मुझे किसी की दोस्ती की सख्त आवश्यकता है। इस मोहल्ले में मेरा किसी से विशेष मेल-जोल नहीं और घर में केवल ममी-पापा के दोस्त ही आते हैं।
दूसरा दिन मेरा बहुत ही संशय में बीता। पता नहीं ममी अपनी बात पूरी भी करती हैं या यों ही रौ में कह गईं और बात खत्म। शाम को मैंने याद दिलाने के लिए ही कहा – “ममी, तुम सचमुच ही इन लड़कों को बुलाने जाओगी?” शब्द मेरे यही थे, वरना भाव तो था कि ममी, जाओ न, प्लीज़।
और ममी सचमुच ही चली गईं। मुझे याद नहीं, ममी दो-चार बार से अधिक मोहल्ले में किसी के घर गई हों। मैं साँस रोककर उनके लौटने की प्रतीक्षा करती रही। एक विचित्र सी थिरकन मैं अंग-प्रत्यंग में महसूस कर रही थी कि कहीं ममी साथ ही लेती आईं तो? कहीं वे ममी से भी बदतमीजी से पेश आए तो? पर नहीं, वे ऐसे लगते तो नहीं हैं। कोई घण्टे-भर बाद ममी लौटीं। बेहद प्रसन्न।
“मुझे देखते ही उनकी तो सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई। उन्हें अभी तक तो लोग अपने-अपने घरों से ही उनके लात-दाँत तोड़ने की धमकी दे रहे थे, मैं जैसे सीधे घर ही पहुँच गई उनकी हड्डी पसली एक करने पर फिर तो इतनी खातिर की बेचारों ने कि बस! बड़े ही स्वीट बच्चे हैं। बाहर से आए हैं – होस्टल में जगह नहीं मिली इसलिए कमरा लेकर रह रहे हैं। शाम को जब पापा आएगे तब बुलवा लेंगे।”
प्रतीक्षा में समय इतना बोझिल हो जाता है, यह भी मेरा पहला अनुभव था। पापा आए तो ममी ने बड़े उमंगकर सारी बात बताई। सबसे कुछ अलग करने का सन्तोष और गर्व उनके हर शब्द में से जैसे छलका पड़ रहा था। पापा ही कौन पीछे रहने वाले थे। उन्होंने सुना तो वे भी प्रसन्न।
“बुलाओ लड़कों को। अरे, खेलने-खाने दो और मस्ती मारने दो बच्चों को।” ममी-पापा को अपनी आधुनिकता तुष्ट करने का एक जोरदार अवसर मिल रहा था।
नौकर को भेजकर उन्हें बुलवाया गया तो अगले ही क्षण सब हाजिर। ममी ने बड़े कायदे से परिचय करवाया और ‘हलो….हाई’ का शुल्क आदि के रूप में लिया जानेवाला धन'>आदान-प्रदान हुआ।
“तनु बेटे, अपने दोस्तों के लिए चाय बनाओ।”
धत्तेरे की। ममी के दोस्त आएँ तब भी तनु बेटा चाय बनाए और उसके दोस्त आएँ तब भी। पर मन मारकर उठी।
चाय-पानी होता रहा। खूब हँसी-मज़ाक भी चली। ये सफाई पेश करते रहे कि मोहल्ले वाले झूठ-मूठ ही उनके पीछे पड़े रहते हैं… वे तो ऐसा कुछ भी नहीं करते। ‘जस्ट फॉर फन’ कुछ कर दिया वरना इस सबब का कोई मतलब नहीं।
पापा ने बढ़ावा देते हुए कहा- “अरे, इस उमर में तो यह सब करना ही चाहिए। हमें मौका मिले तो आज भी करने से बाज न आएँ।”
हँसी की एक लहर यहाँ से वहाँ तक दौड़ गई। कोई दो घण्टे बाद वे चलने लगे तो ममी ने कहा- “देखो, इसे अपना ही घर समझो। जब इच्छा हो चले आया करो। हमारी तनु बिटिया को अच्छी कम्पनी मिल जाएगी… कभी तुम लोगों से कुछ पढ़ भी लिया करेगी और देखो, कुछ खाने-पीने का मन हुआ करे तो बता दिया करना, तुम्हारे लिए बनवा दिया करूंगी…” और वे लोग पापा के खुलेपन और ममी की आत्मीयता और स्नेह पर मुग्ध होते हुए चले गए। बस, जिससे दोस्ती करवाने के लिए उन्हें बुलाया गया था वह बेचारी इस तमाशे की मात्र दर्शक-भर ही बनी रही।
उनके जाने के बाद बड़ी देर तक उनको लेकर ही चर्चा होती रही। अपने घर की किशोरी लड़की को छेड़ने वाले लड़कों को घर बुलाकर चाय पिलाई जाए और लड़की से दोस्ती करवाई जाए, यह सारी बात ही बड़ी थ्रिलिंग और रोमांचक लग रही थी। दूसरे दिन से ममी हर आने वाले से इस घटना का उल्लेख करती। वर्णन करने में पटु ममी नीरस से नीरस बात को भी ऐसा दिलचस्प बना देती हैं, फिर यह तो बात ही बड़ी दिलचस्प थी। जो सुनता वही कहता – “वाह, यह हुई न कुछ बात। आपका बड़ा स्वस्थ दृष्टिकोण है चीजों के प्रति। वरना लोग बातें तो बड़ी-बड़ी करेंगे पर बच्चों को घोटकर रखेंगे और जरा सा शक-शुबह हो जाए तो बाकायदा जासूसी करेंगे।” और ममी इस प्रशंसा से निहाल होती हुई कहतीं – “और नहीं तो क्या? मुक्त रहो और बच्चों को मुक्त रखो। हम लोगों को बचपन में यह मत करो.. यहाँ मत जाओ कह-कहकर कितना बाँधा गया था। हमारे बच्चे तो कम से कम इस घुटने के शिकार न हों।
पर ममी का बच्चा उस समय एक दूसरी ही घुटन का शिकार हो रहा था और वह यह कि जिस नाटक की हीरोइन उसे बनना था, उसकी हीरोइन ममी बन बैठीं।
खैर, इस सारी घटना का परिणाम यह हुआ कि उन लड़कों का व्यवहार एकदम ही बदल गया। जिस शराफत को ममी ने उन पर लाद दिया, उसके अनुरूप व्यवहार करना उनकी मजबूरी बन गया। अब जब भी वे अपनी छत पर ममी-पापा को देखते तो अदब में लपेटकर एक नमस्कार और मुझे देखते तो मुस्कान में पलटकर एक ‘हाई’ उछाल देते। फब्तियों की जगह बाकायदा हमारा वार्तालाप शुरू हो गया… बड़ा खुला और बेझिझक वार्तालाप। हमारे बरामदे और छत में इतना ही फासला था कि जोर से बोलने पर बातचीत की जा सकती थी। हाँ, यह बात ज़रूर थी कि हमारी बातचीत सारा मोहल्ला सुन सकता था और काफी दिलचस्पी से सुनता था।
जैसे ही हम लोग चालू होते, पास-पड़ोस की खिड़कियों में चार-छ: सिर और धड़ आकर चिपक जाते। मोहल्ले में लड़कियों के प्रेम-प्रसंग न हों ऐसी बात तो थी नहीं, बाकायदा लड़कियों के भागने तक की घटनाएँ घट चुकी थीं। पर वह सब-कुछ बड़े गुप्त और छिपे ढंग से होता था। और मोहल्ले वाले जब अपनी पैनी नज़रों से ऐसे किसी रहस्य को जान लेते थे तो बड़ा सन्तोष उन्हें होता था। पुरुष मूंछों पर ताव देकर और स्त्रियाँ हाथ नचा-नचाकर खूब नमक-मिर्च लगाकर इन घटनाओं का यहाँ से वहाँ तक प्रचार करतीं। कुछ इस भाव से कि अरे, हमने दुनिया देखी है… हमारी आँखों में कोई नहीं धूल झोंक सकता। पर यहाँ स्थिति ही उलट गई थी। हमारी वार्तालाप इतने खुलेआम होता था कि लोगों को खिड़कियों की ओट में छिप-छिपकर देखना-सुनना पड़ता था और सुनकर भी ऐसा कुछ उनके हाथ नहीं लगता था जिससे वे कुछ आत्मिक संतोष पाते।
पर बात को बढ़ना था और बात बढ़ी। हुआ यह कि धीरे-धीरे छत की मजलिस मेरे अपने कमरे में जमने लगी। रोज ही कभी दो, तो कभी तीन या चार लड़के आकर जम जाते और दुनियाभर के हँसी-मज़ाक और गपशप का दौर चलता। गाना-बजाना भी होता और चाय-पानी भी। शाम को ममी-पापा के मित्र आते तो इन लोगों में से कोई न कोई बैठा ही होता। शुरू में जिन लोगों ने ‘मुक्त रहो और मुक्त रखो’ की बड़ी प्रशंसा की थी, उन्होंने मुक्त रहने का जो रूप देखा तो उनकी आँखों में भी कुछ अजीब-सी शंकाएँ तैरने लगीं। ममी की एकाध मित्र ने दबी जुबान में कहा भी- ‘तनु तो बढ़ी फास्ट चल रही है।’ ममी का अपना सारा उत्साह मन्द पड़ गया था और लीक से हटकर कुछ करने की थ्रिल पूरी तरह झड़ चुकी थी। अब तो उन्हें इस नंगी सच्चाई को झेलना था कि उनकी निहायत कच्ची और नाजुक उम्र की लड़की तीन-चार लड़कों के बीच, घिरी रही है। और ममी की स्थिति यह थी कि वे न इस स्थिति को पूरी तरह स्वीकार कर पा रही थीं और न अपने ही द्वारा बड़े जोश में शुरू किए इस सिलसिले को नकार ही पा रही थीं।
आखिर एक दिन उन्होंने मुझे अपने पास बिठाकर कहा – “तनु बेटे, ये लोग रोज-रोज यहाँ आकर जम जाते हैं। आखिर तुमको पढ़ना-लिखना भी तो है। मैं तो देख रही हैं कि इस दोस्ती के चक्कर में तेरी पढ़ाई-लिखाई सब चौपट हुई जा रही है। इस तरह तो यह सब चलेगा नहीं।”
“रात को पढ़ती तो हूँ।” लापरवाही से मैंने कहा।
“खाक पढ़ती है रात को, समय ही कितना मिलता है? और फिर यह रोज़-रोज़ की धमा-चौकड़ी मुझे वैसे भी पसन्द नहीं। ठीक है, चार-छः दिन में कभी आ गए, गपशप कर ली, पर यहाँ तो एक न एक रोज़ ही डटा रहता है।” ममी के स्वर में आक्रोश का पुट गहराता जा रहा था।
ममी की यह टोन मुझे अच्छी नहीं लगी, पर मैं चुप।
“तू तो उनसे बहुत खुल गई है। कह दे कि वे लोग भी बैठकर पढ़े और तुझे भी पढ़ने दें। और तुझसे न कहा जाए तो मैं कह दूँगी।”
पर किसी के भी कहने की नौबत नहीं आई। कुछ तो पढ़ाई के डर से, कुछ दिल्ली के दूसरे आकर्षणों से खिचकर होस्टल वाले लड़कों का आना कम हो गया। पर सामने के कमरे से शेखर रोज़ ही आ जाता… कभी दोपहर में तो कभी शाम को। तीन-चार लोगों की उपस्थिति में उसकी जिस बात पर मैंने ध्यान नहीं दिया, वही बात अकेले में सबसे अधिक उजागर होकर आई। वह बोलता कम था, पर शब्दों के परे बहुत कुछ कहने की कोशिश करता था और एकाएक ही मैं उसकी अनकही भाषा समझने लगी थी… केवल समझने ही नहीं लगी थी, प्रत्युत्तर भी देने लगी थी। जल्दी ही मेरी समझ में आ गया कि शेखर और मेरे बीच प्रेम जैसी कोई चीज पनपने लगी है। यों तो शायद मैं समझ ही नहीं पाती, पर हिन्दी फिल्में देखने के बाद इसको समझने में खास मुश्किल नहीं हुई।
जब तक मन में कहीं कुछ नहीं था, सब कुछ बड़ा खुला था पर जैसे ही ‘कुछ’ हुआ तो उसे औरों की नजर से बचाने की इच्छा भी साथ ही आई। जब कभी दूसरे लड़के आते तो सीढ़ियों से ही शोर करते आते… जोर-जोर से बोलते, लेकिन शेखर जब भी आता रेंगता हुआ आता और फुसफुसाकर हम बातें करते। वैसे बातें बहुत ही साधारण होती थीं – स्कूल की, कॉलेज की। पर फुसफुसाकर करने में ही वे कुछ विशेष लगती थीं। प्रेम को कुछ रहस्यमय, कुछ गुपचुप बना दो तो वह बड़ा थ्रिलिंग हो जाता है वरना तो एकदम सीधा-सपाट! पर ममी के पास घर और घरवालों के हर रहस्य को जान लेने की एक छठी इन्द्रिय है और जिससे पापा भी काफी त्रस्त रहते हैं… उससे उन्हें यह सब समझने में ज़रा भी देर नहीं लगी। शेखर कितना ही दब-छिपकर आता और ममी घर के किसी कोने में होतीं… फट, से प्रकट हो जातीं या फिर वहीं से पूछतीं – “तनु, कौन है तुम्हारे कमरे में?”
मैंने देखा कि शेखर के इस रवैये से ममी के चेहरे पर एक अजीब-सी परेशानी झलकने लगी है। पर ममी इस बात को लेकर यों परेशान हो उठेंगी, यह मैं सोच भी नहीं सकती थी। जिस घर में रात-दिन तरह-तरह के प्रेम-प्रसंग ही पीसे जाते रहे हों – कुँआरों के प्रेम-प्रसंग, विवाहितों के प्रेम-प्रसंग, दो तीन प्रेमियों से एक साथ चलने वाले प्रेम-प्रसंग—उस घर के लिए तो यह बात बहुत ही मामूली होनी चाहिए। जब लड़कों से दोस्ती की है तो एकाध से प्रेम भी हो ही सकता है। ममी ने शायद समझ लिया था कि यह सारी स्थिति आजकल की कलात्मक फिल्मों की तरह चलेगी – जिनकी वे बड़ी प्रशंसक और समर्थक हैं – पर जिनमें शुरू से लेकर आखिर तक कुछ भी सनसनीखेज़ घटता ही नहीं।
जो भी हो, ममी की इस परेशानी ने मुझे भी कहीं हल्के से विचलित ज़रूर कर दिया। ममी मेरी माँ ही नहीं, मित्र और साथिन भी हैं। दो घनिष्ठ मित्रों की तरह ही हम दुनिया-जहान की बातें करते हैं – हँसी-मज़ाक करते हैं। मैं चाहती थी कि वे इस बारे में भी कोई बात करें, पर उन्होंने कोई बात नहीं की। बस, जब शेखर आता तो वे अपनी स्वभावगत लापरवाही छोड़कर बड़े सहज भाव से मेरे कमरे के इर्द-गिर्द ही मंडराती रहती।
एक दिन ममी के साथ बाहर जाने के लिए मैं नीचे उतरी तो दरवाजे पर ही पड़ोस की एक भद्र महिला टकरा गई। नमस्कार और कुशल-क्षेम के शुल्क आदि के रूप में लिया जानेवाला धन'>आदान-प्रदान के बाद वे बात के असली मुद्दे पर आईं।
“ये सामने की छत वाले लड़के आपके रिश्तेदार हैं क्या?”
“नहीं तो।”
“अच्छा? शाम को रोज़ ही आपके घर बैठे रहते हैं तो सोचा आपके जरूर कुछ लगते होंगे।”
“तनु के दोस्त हैं।” ममी ने कुछ ऐसी लापरवाही और निसंकोच भाव से यह वाक्य उछाला कि बेचारी तीर निशाने पर न लगने का गम लिए ही लौट गई।
वे तो लौट गईं पर मुझे लगा कि इस बात का सूत्र पकड़कर ही ममी अब जरूर मेरी थोड़ी धुनाई कर देंगी। कहने वाली का तो कुछ न बना, पर मेरा कुछ बिगाड़ने का हथियार तो ममी के हाथ में आ ही गया। बहुत दिनों से उनके अपने मन में भी कुछ उमड़-घुमड़ तो रहा ही है पर ममी ने इतना ही कहा – “लगता है, इनके अपने घर में कोई धन्धा नहीं है। …जब देखो दूसरे के घर में चोंच गड़ाए रहते हैं।”
मैं आश्वस्त ही नहीं हुई, बल्कि ममी की ओर से हरा सिगनल समझकर मैंने अपनी रफ्तार कुछ और तेज कर दी। पर इतना ज़रूर किया कि शेखर के साथ तीन घण्टों में से एक घण्टा ज़रूर पढ़ाई में गुजारती। वह बहुत मन लगाकर पढ़ाता और मैं बहुत मन लगाकर पढ़ती। हाँ, बीच-बीच में वह कागज़ की छोटी-छोटी पर्चियों पर कुछ ऐसी पंक्तियाँ लिखकर थमा देता कि मैं भीतर तक झनझना जाती। उसके जाने के बाद भी उन पंक्तियों के वे शब्द, शब्दों के पीछे के भाव मेरी रग-रग में सनसनाते रहते और मैं उन्हीं में डूबी रहती।
मेरे भीतर अपनी ही एक दुनिया बनती चली जा रही थी। बड़ी भरी-पूरी और रंगीन। आजकल मुझे किसी की ज़रूरत ही महसूस नहीं होती। लगता जैसे मैं अपने में ही पूरी हूँ। हमेशा साथ रहने वाली ममी भी आउट होती जा रही है और शायद यही कारण है कि इधर मैंने ममी पर ध्यान देना ही छोड़ दिया है। रोजमर्रा की बातें तो होती हैं, पर केवल बातें ही होती हैं – उसके परे कहीं कुछ नहीं।
दिन गुजरते जा रहे थे और मैं अपने में ही डूबी, अपनी दुनिया में और गहरे धंसती जा रही थी – बाहर की दुनिया से एक तरह से बेखबर-सी।
एक दिन स्कूल से लौटी, कपड़े बदले। शोर-शराबे के साथ खाना माँगा, मीन-मेख के साथ खाया और जब कमरे में घुसी तो ममी ने लेटे-लेटे ही बुलाया – “तनु इधर आओ।”
पास आई तो पहली बार ध्यान गया कि ममी का चेहरा तमतमा रहा है। मेरा माथा ठनका। उन्होंने साइड टेबल पर से एक किताब उठाई और उसमें से कागज़ की पाँध-छ: पर्चियाँ निकालकर सामने कर दी। ‘तौबा।’ ममी से कुछ पढ़ना था तो जाते समय उन्हें अपनी किताब दे गई थी। गलती से शेखर की लिखी पर्चियाँ उसी में रह गईं।
“तो इस तरह चल रही है शेखर और तुम्हारी दोस्ती? यही पढ़ाई होती है यहाँ बैठकर…. यही सब करने के लिए आता है वह यहाँ?”
मैं चुप। जानती हूँ, गुस्से में ममी को जवाब देने से बढ़कर मूर्खता और कोई नहीं।
“तुमको छूट दी… आजादी दी, पर इसका यह मतलब तो नहीं कि तुम उसका नाजायज़ फायदा उठाओ।”
मैं फिर चुप।
“बिते-भर की लड़की और करतब देखो इनके। जितनी छूट दो उतने ही पैर पसरते जा रहे हैं इनके। एक झापड़ दूँगी तो सारा रोमांस झड़ जाएगा दो मिनट में…”
इस वाक्य पर मैं एकाएक तिलमिला उठी। तमककर नज़र उठाई और ममी की तरफ देखा- पर यह क्या यह तो मेरी ममी नहीं है। न यह तेवर ममी का है, न यह भाषा। फिर भी ये सारे वाक्य बहुत परिचित-से लगे। लगा, यह सब मैंने कहीं सुना है और सटाक से मेरे मन में कौंधा- नाना। पर नाना को मरे तो कितने साल हो गए, ये फिर जिन्दा कैसे हो गए? और वह भी ममी के भीतर… जो होश सँभालने के बाद हमेशा उनसे झगड़ा ही करती रहीं… उनकी हर बात का विरोध ही करती रहीं।
ममी का ‘नानई’ लहजे वाला भाषण काफी देर तक चालू रहा, पर वह सब मुझे कहीं से भी छू नहीं रहा था.. बस, कोई बात झकझोर रही थी तो यही कि ममी के भीतर नाना कैसे आ बैठे?
और फिर घर में एक विचित्र-सा तनावपूर्ण मौन छा गया। खासकर मेरे और ममी के बीच। नहीं, ममी तो घर में रही ही नहीं, मेरे और नाना के बीच। मैं ममी को अपनी बात समझा भी सकती हूँ, उनकी बात समझ भी सकती हूँ- पर नाना? मैं तो इस भाषा से भी अपरिचित हूँ और इस तेवर से भी – बात करने का प्रश्न ही कैसे उठता? पापा ज़रूर मेरे दोस्त हैं, पर बिलकुल दूसरी तरह के। शतरंज खेलना, पंजा लड़ाना और जो फर्माइश ममी पूरी न करें, उनसे पूरी करवा लेना। बचपन में उनकी पीठ पर लदी रहती थी और आज भी बिना किसी झिझक के उनकी पीठ पर लदकर अपनी हर इच्छा पूरी करवा लेती हूँ। पर इतने ‘माई डियर दोस्त’ होने के बावजूद अपनी निजी बातें मैं ममी के साथ ही करती आई हूँ। और वहाँ एकदम सन्नाटा – ममी को पटखनी देकर नाना पूरी तरह उन पर सवार जो हैं।
शेखर को मैंने इशारे से ही लाल झंडी दिखा दी थी सो वह भी नहीं आ रहा और शाम का समय है कि मुझसे काटे नहीं कटता।
कई बार मन हुआ कि ममी से जाकर बात करूं और साफ-साफ पूछूँ कि तुम इतना बिगड़ क्यों रही हो? मेरी और शेखर की दोस्ती के बारे में जानती तो हो। मैंने तो कभी कुछ छिपाया नहीं। और दोस्ती है तो यह सब तो होगा ही। तुम क्या समझ रही थीं कि हम भाई-बहन की तरह… पर तभी ख्याल आता कि ममी है ही कहाँ, जिनसे जाकर यह सब कहूँ।
चार दिन हो गए, मैंने शेखर की सूरत तक नहीं देखी। मेरे हलके से इशारे से ही उस बेचारे ने तो घर क्या, छत पर आना भी छोड़ दिया। होस्टल में रहने वाले उसके साथी भी छत पर न दिखाई दिए, न घर ही आए। कोई आता तो कम से कम उसका हालचाल ही पूछ लेती। मैं जानती हूँ, वह बेवकूफी की हद तक भावुक है। उसे तो ठीक से यह भी नहीं मालूम कि आखिर यहाँ हुआ क्या है? लगता है, ममी के गुस्से की आशंका मात्र से ही सबके हौसले पस्त हो गए थे।
वैसे कल से ममी के चेहरे का तनाव कुछ ढीला ज़रूर हुआ है। तीन दिन से जमी हुई सख्ती जैसे पिघल गई हो। पर मैंने तय कर लिया है कि बात अब ममी ही करेंगी।
सवेरे नहा-धोकर मैं दरवाजे के पीछे अपनी यूनिफार्म प्रेस कर रही थी। बाहर मेज पर ममी चाय बना रही थीं और पापा अखबार में सिर गड़ाए बैठे थे। ममी को शायद मालूम ही नहीं पड़ा कि मैं कब नहाकर बाहर निकल आई। वे पापा से बोलीं- “जानते हो, कल रात को क्या हुआ? पता नहीं, तब से मन बहुत खराब हो गया – उसके बाद मैं तो सो ही नहीं पाई।”
ममी के स्वर की कोमलता से मेरा हाथ जहाँ का तहाँ थम गया और कान बाहर लग गए।
“आधी रात के करीब मैं बाथरूम जाने के लिए उठी। सामने छत पर घुप्प अँधेरा छाया हुआ था। अचानक एक लाल सितारा-सा चमक उठा। मैं चौकी। गौर से देखा तो धीरे-धीरे एक आकृति उभर आई। शेखर छत पर खड़ा सिगरेट पी रहा था। मैं चुपचाप लौट आई। कोई दो घण्टे बाद फिर गई तो देखा, वह उसी तरह छत पर टहल रहा था। बेचारा… मेरा मन जाने कैसा हो आया। तनु भी कैसी बुझी-बुझी रहती है…” फिर जैसे अपने को ही धिक्कारती-सी बोली- “पहले तो छूट दो और फिर जब आगे बढ़े तो खींचकर चारों खाने चित कर दो। यह भी कोई बात हुई भला।”
राहत की एक गहरी नि:श्वास मेरे भीतर से निकल पड़ी। जाने कैसा आवेग मन में उमड़ा कि इच्छा हुई दौड़कर ममी के गले से लग जाऊँ। लगा जैसे अरसे के बाद मेरी ममी लौट आई हों। पर मैंने कुछ नहीं कहा। बस, अब खुलकर बात करूंगी। चार दिन से न जाने कितने प्रश्न मन में घुमड़ रहे थे। अब क्या, अब तो ममी हैं और उनसे तो कम से कम सब कहा-पूछा जा सकता है।
पर घर पहुँचकर जो देखा तो अवाक। शेखर हथेलियों में सिर थामे कुर्सी पर बैठा है और ममी उसी कुर्सी के हत्थे पर बैठी उसकी पीठ और माथा सहला रही हैं। मुझे देखते ही बड़े सहज-स्वाभाविक स्वर में बोलीं- “देखा इस पगले को। चार दिन से ये साहब कॉलेज नहीं गए हैं। न ही कुछ खाया-पिया है। अपने साथ इसका भी खाना लगवाना।”
और फिर ममी ने खुद बैठकर बड़े स्नेह से मनुहार कर-करके उसे खाना खिलाया। खाने के बाद कहने पर भी शेखर ठहरा नहीं। ममी के प्रति कृतज्ञता के बोझ से झुका-झुका ही वह लौट गया और मेरे भीतर खुशी का ऐसा ज्वार उमड़ा कि अब तक के सोचे सारे प्रश्न उसी में बिला गए।
सारी स्थिति को समय पर आने में समय तो लगा, पर आ गई। शेखर ने भी अब एक दो दिन छोड़कर आना शुरू किया और आता भी तो अधिकतर हम लिखाई-पढ़ाई की ही बातें करते। अपने किए पर शर्मिन्दगी प्रकट करते हुए उसने ममी से वायदा किया कि वह अब कोई ऐसा काम नहीं करेगा, जिससे ममी को शिकायत हो। जिस दिन वह नहीं आता, मैं दो-तीन बार थोड़ी-थोड़ी देर के लिए अपने बरामदे से ही बात कर लिया करती। घर की अनुमति और सहयोग से यों सरेआम चलने वाले इस प्रेम-प्रसंग में मोहल्ले वालों के लिए भी कुछ नहीं रह गया था और उन्होंने इस जानलेवा जमाने के नाम दो-चार लानतें भेजकर, किसी गुल खिलने तक के लिए अपनी दिलचस्पी को स्थगित कर दिया।
लेकिन एक बात मैंने जरूर देखी। जब भी शेखर शाम को कुछ ज्यादा देर बैठ जाता या दोपहर में भी आ जाता तो ममी के भीतर नाना कसमसाने लगते और उसकी प्रतिक्रिया ममी के चेहरे पर झलकने लगती। ममी भरसक कोशिश करके नाना को बोलने तो नहीं देती, पर उन्हें पूरी तरह हटा देना भी शायद ममी के बस की बात नहीं रह गई थी।
हाँ, यह प्रसंग मेरे और ममी के बीच में अब रोजमर्रा की बातचीत का विषय ज़रूर बन गया था। कभी वे मजाक में कहतीं- “यह जो तेरा शेखर है न, बड़ा लिज़लिज़ा-सा लड़का है। अरे, इस उम्र में लड़कों को चाहिए घूमें, फिरें… मस्ती मारें। क्या मुहर्रमी-सी सूरत बनाए मजनू की तरह छत पर टँगा सारे समय इधर ही ताकता रहता है।”
मैं केवल हँस देती।
कभी बड़ी भावुक होकर कहतीं- “तू क्यों नहीं समझती बेटे, कि तुझे लेकर कितनी महत्वाकांक्षाएँ हैं मेरे मन में। तेरे भविष्य को लेकर कितने सपने सँजो रखे हैं मैंने।”
मैं हँसकर कहती- “ममी, तुम भी कमाल करती हो। अपनी ज़िन्दगी को लेकर भी तुम सपने देखो और मेरी जिन्दगी के सपने भी तुम्हीं देख डालो… कुछ सपने मेरे लिए भी तो छोड़ दो।”
कभी वे समझाने के लहजे में कहतीं- “देखो तनु, अभी तुम बहुत छोटी हो। अपना सारा ध्यान पढ़ने-लिखने में लगाओ और दिमाग से ये उलटे-सीधे फितूर निकाल डालो। ठीक है बड़े हो जाओ तो प्रेम भी करना और शादी भी। मैं तो वैसे भी तुम्हारे लिए लड़का ढूँढने वाली नहीं हूँ – अपने-आप ही ढूँढना, पर इतनी अक्ल तो आ जाए कि ढंग का चुनाव कर सको।”
अपने चुनाव के रिजेक्शन को मैं समझ जाती और पूछती- “अच्छा ममी, बताओ, जब तुमने पापा को चुना था तो नाना को वह पसन्द था?”
“मेरा चुनाव! अपनी सारी पढ़ाई-लिखाई खत्म करके पच्चीस साल की उमर में चुनाव किया था मैंने – खूब सोच-समझकर और अक्ल के साथ, समझीं।”
ममी अपनी बौखलाहट को गुस्से में छिपाकर कहती। उम्र और पढ़ाई-लिखाई- ये दो ही तो ऐसे मुद्दे हैं जिनपर ममी मुझे जब तब धौंसती रहती हैं। पढ़ने लिखने में मैं अच्छी थी और रहा, उम्र का सवाल, सो उसके लिए मन होता कि कहूँ- ‘ममी, तुम्हारी पीढ़ी जो काम पच्चीस साल की उम्र में करती थी, हमारी उसे पन्द्रह साल की उम्र में ही करेगी, इसे तुम क्यों नहीं समझतीं।’ पर चुप रह जाती। नाना का ज़िक्र तो चल ही पड़ा है, कहीं वे ही जाग उठे तो?
छमाही परीक्षाएँ पास आ गई थीं और मैंने सारा ध्यान पढ़ने में लगा दिया था। सबका आना और गाना-बजाना एकदम बन्द। इन दिनों मैंने इतनी जमकर पढ़ाई की कि ममी का मन प्रसन्न हो गया। शायद कुछ आश्वस्त भी। आखिरी पेपर देने के पश्चात् लग रहा था कि एक बोझ था, जो हट गया है। मन बेहद हलका होकर कुछ मस्ती मारने को कर रहा था।
मैंने ममी से पूछा- “ममी, कल शेखर और दीपक पिक्चर जा रहे हैं, मैं भी साथ चली जाऊँ?” आज तक मैं इन लोगों के साथ कभी घूमने नहीं गई थी, पर इतनी पढ़ाई करने के बाद अब इतनी छूट तो मिलनी ही थी।
ममी एक क्षण मेरा चेहरा देखती रहीं, फिर बोलीं- इधर आ, यहाँ बैठ। तुझसे कुछ बात करनी है।”
मैं जाकर बैठ गई, पर यह न समझ आया कि इसमें बात करने को क्या है- हाँ कहो या ना। लेकिन ममी को बात करने का मर्ज़ जो है। उनकी तो हाँ-ना भी पचास-साठ वाक्यों में लिपटे बिना नहीं निकल सकती।
“तेरे इम्तिहान खतम हुए हैं, मैं तो खुद पिक्चर का प्रोग्राम बना रही थी। बोल, कौन-सी पिक्चर देखना चाहती है?”
क्यों, उन लोगों के साथ जाने में क्या है?” मेरे स्वर में इतनी खीज भरी हुई थी कि ममी एकटक मेरा चेहरा ही देखती रह गई।
“तनु, तुझे पूरी छूट दे रखी है बेटे, पर इतना ही तेज़ चल कि मैं भी साथ तो चल सकूँ।”
“तुम साफ कहो न, कि जाने दोगी या नहीं? बेकार की बातें… मैं भी साथ चल सकूँ – तुम्हारे साथ चल सकने की बात भला कहाँ से आ गई।”
ममी ने पीठ सहलाते हुए कहा- “साथ तो चलना ही पड़ेगा। कभी औंधे मुँह गिरी तो कोई उठाने वाला भी तो चाहिए न?”
मैं समझ गई कि ममी नहीं जाने देंगी, पर इस तरह प्यार से मना करती हैं तो झगड़ा भी तो नहीं किया जा सकता। बहस करने का सीधा-सा मतलब है कि उनका बघारा हुआ दर्शन सुनो- यानी पचास मिनट की एक क्लास। पर मैं कतई नहीं समझ पाई कि जाने में आखिर हर्ज क्या है? हर बात में ना-नुकुर। कहाँ तो कहती थीं कि बचपन में, यह मत करो, यहाँ मत जाओ कहकर हमको बहुत डाँटा गया था और खुद अब वही सब कर रही हैं। देख लिया इनकी बड़ी-बड़ी बातों को। मैं उठी और दनदनाती हुई अपने कमरे में आ गई। हाँ, एक वाक्य ज़रूर थमा आई-“ममी जो चलेगा, वह गिरेगा भी और जो गिरेगा, वह उठेगा भी और खुद ही उठेगा, उसे किसी की ज़रूरत नहीं है।”
पता नहीं, मेरी बात की उन पर प्रतिक्रिया हुई या उनके मन में ही कुछ जागा कि शाम को उन्होंने खुद शेखर और उसके कमरे पर आए तीनों-चारों लड़कों को बुलवाकर मेरे ही कमरे में मजलिस जमवाई और खूब गरम-गरम खाना खिलवाया। कुछ ऐसा रंग जमा कि मेरा दोपहर वाला आक्रोश धुल गया।
इम्तिहान खतम हो गए थे और मौसम सुहाना था। ममी का रवैया भी अनुकूल था सो दोस्ती का स्थगित हुआ सिलसिला फिर शुरू हो गया और आजकल तो जैसे उसके सिवाय कुछ रह ही नहीं गया था। पर फिर एक झटका।
उस दिन मैं अपनी सहेली के घर से लौटी तो ममी की सख्त आवाज़ सुनाई दी-“तनु, इधर आओ तो।”
आवाज़ से ही लगा कि खतरे का सिगनल है। एक क्षण को मैं सकते में आ गई। पास गई तो चेहरा पहले की तरह सख्त।
“तुम शेखर के कमरे पर जाती हो?” ममी ने बन्दूक दागी। समझ गई कि पीछे गली में से किसी ने अपना करतब कर दिखाया।
“कब से जाती हो?”
मन तो हुआ कि कहूँ जिसने जाने की खबर दी है, उसने बाकी बातें भी बता दी होंगी… कुछ जोड़-तोड़कर ही बताया होगा। पर ममी जिस तरह भभक रही थीं, उसमें चुप रहना ही बेहतर समझा। वैसे मुझे ममी के इस गुस्से का कोई कारण समझ में नहीं आ रहा था। दो-तीन बार यदि मैं थोड़ी-थोड़ी देर के लिए शेखर के कमरे पर चली ही गई तो ऐसा क्या गुनाह हो गया? पर ममी का हर काम सकारण तो होता नहीं… बस, वे तो मूड पर ही चलती हैं।
अजीब मुसीबत थी- गुस्से में ममी से बात करने का मतलब नहीं… और मेरी चुप्पी ममी के गुस्से को और भड़का रही थी।
“याद नहीं है, मैंने शुरू में ही तुम्हें मना कर दिया था कि तुम उनके कमरे पर कभी नहीं जाओगी। तीन-तीन घण्टे वह यहाँ धूनी रमाकर बैठता है, उसमें जी भरा नहीं तुम्हारा?”
दुःख, क्रोध और आतंक की परतें उनके चेहरे पर गहरी होती जा रही थीं और मैं समझ ही नहीं पा रही थी कि कैसे उन्हें सारी स्थिति समझाऊँ?
“वह तो बेचारे सामने वालों ने मुझे बुलाकर आगाह कर दिया – जानती है, यह सिर आज तक किसी के सामने झुका नहीं, पर वहाँ मुझसे आँख नहीं उठाई गईं। मुँह दिखाने लायक मत रखना हमको कभी भी। सारी गली में थू-थू हो रही है। नाक कटाकर रख दी।”
गज़ब।
इस बार तो सारा मोहल्ला ही बोलने लगा ममी के भीतर से। आश्चर्य है कि जो ममी आज तक अपने आसपास से बिल्कुल कटी हुई थीं… जिसका मजाक ही उड़ाया करती थीं… आज कैसे उसके सुर में सुर मिलाकर बोल रही हैं।
ममी का भाषण बदस्तूर चालू… पर मैंने तो अपने कान के स्विच ही ऑफ कर लिए। जब गुस्सा ठंडा होगा… ममी अपने में लौट आएँगी तब समझा दूँगी- ममी, इस छोटी-सी बात को तुम नाहक इतना तूल दे रही हो।
पर जाने कैसी डोज लेकर आई हैं इस बार कि उनका गुस्सा ठंडा ही नहीं हो रहा और हुआ यह है कि अब उनके गुस्से से मुझे गुस्सा चढ़ने लगा।
फिर घर में एक अजीब सा तनाव बढ़ गया। इस बार ममी ने शायद पापा को भी सब-कुछ बता दिया है। कहा तो उन्होंने कुछ नहीं, वे शुरू से ही इस सारे मामले में आउट ही रहे… पर इस बार उनके चेहरे पर भी एक अनकहा-सा तनाव दिखाई दे रहा है।
कोई दो महीने पहले जब इस तरह की घटना हुई थी तो मैं भीतर तक सहम गई थी, पर इस बार मैंने तय कर लिया है कि इस सारे मामले में ममी को यदि नाना बनकर ही व्यवहार करना है तो मुझे भी फिर ममी की तरह ही मोर्चा लेना होगा उनसे… और मैं ज़रूर लूँगी। दिखा तो दूँ कि मैं तुम्हारी ही बेटी हूँ और तुम्हारे ही नक्शो-कदम पर चली हूँ। खुद तो लीक से हटकर चली थीं… सारी जिन्दगी इस बात की घुट्टी पिलाती रहीं, पर मैंने जैसे ही अपना पहला कदम रखा, घसीटकर मुझे अपनी ही खींची लीक पर लाने के दंद-फंद शुरू हो गए।
मैंने मन में ढेर-ढेर तर्क सोच डाले कि एक दिन बाकायदा ममी से बहस करूंगी। साफ-साफ कहूँगी कि ममी, इतने ही बन्धन लगाकर रखना था तो शुरू से वैसे पालतीं। क्यों झूठ-मूठ आज़ादी देने की बातें करती-सिखाती रहीं। पर इस बार मेरा भी मन सुलगकर इस तरह राख हो गया था कि मैं गुमसुम-सी अपने ही कमरे में पड़ी रहती। मन बहुत भर आता तो रो लेती। घर में सारे दिन हँसती-खिलखिलाती रहने वाली मैं एकदम चुप होकर अपने में ही सिमट गई थी। हाँ, एक वाक्य ज़रूर बार-बार दोहरा रही थी- ‘ममी, मुझे अच्छी तरह समझ लो कि मैं भी अपने मन की ही करूंगी।’ हालाँकि मेरे मन में क्या है, इसकी कोई भी रूपरेखा मेरे सामने न थी।
मुझे नहीं मालूम कि इन तीन-चार दिनों में बाहर क्या हुआ। घर-बाहर की दुनिया से कटी, अपने ही कमरे में सिमटी, मैं ममी से मोर्चा लेने के दाँव सोच रही थी।
पर आज दोपहर मुझे कतई-कतई अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ जब मैंने ममी को अपने बरामदे से ही चिल्लाते हुए सुना- “शेखर, कल तो तुम लोग छुट्टियों में अपने घर चले जाओगे, आज अपने दोस्तों के साथ खाना इधर ही खाना।”
नहीं जानती, किस जद्दोजहद से गुजरकर ममी इस स्थिति पर पहुँची होंगी।
और रात को शेखर, दीपक और रवि के साथ खाने की मेज पर डटा हुआ था। ममी उतने ही प्रेम से खाना खिला रही थी… पापा वैसे ही खुले ढंग से मज़ाक कर रहे थे, मानो बीच में कुछ घटा ही न हो। अगल-बगल की खिड़कियों में दो-चार सिर चिपके हुए थे। सब कुछ पहले की तरह बहुत सहज-स्वाभाविक हो उठा था..।
केवल मैं इस सारी स्थिति से एकदम तटस्थ होकर यही सोच रही थी कि नाना पूरी तरह नाना थे – शत-प्रतिशत और इसी से ममी के लिए लड़ना कितना आसान हो गया होगा। पर इन ममी से लड़ा भी कैसे जाए जो एक पल नाना होकर जीती हैं तो एक पल ममी होकर।
फाटक के ठीक सामने जेल था।
बरामदे में लेटी मिसेज़ शुक्ला की शून्य नज़रें जेल की ऊँची-ऊँची दीवारों पर टिकी थीं। मैंने हाथ की किताबें कुर्सी पर पटकते हुए कहा “कहिए, कैसी तबीयत रही आज?”
एक धीमी-सी मुस्कराहट उनके शुष्क अधरों पर फैल गई। बोलीं “ठीक ही रही! सरीन नहीं आई?”
“मेरे दोनो पीरियड्स ख़ाली थे सो मैं चली आई, सरीन यह पीरियड लेकर आएगी।” दोनों कोहनियों पर ज़ोर देकर उन्होंने उठने का प्रयत्न किया, मैंने सहारा देकर उन्हें तकिए के सहारे बिठा दिया। एक क्षण को उनके जर्द चेहरे पर व्यथा की लकीरें उभर आईं। अपने-आपको आरामदेह स्थिति में करते हुए उन्होंने पूछा “कैसा लग रहा है कॉलेज? मन लग जाएगा ना?”
“हाँ.. मन तो लग ही जाएगा। मुझे तो यह जगह ही बहुत पसन्द है। पहाड़ियों से घिरा हुआ यह शहर और एकान्त में बसा यह कॉलेज। जिधर नज़र दौड़ाओ हर तरफ हरा-भरा दिखाई देता है।” तभी मेरी नज़र सामने की जेल की दीवारों से टकरा गई। मैंने पूछा “पर एक बात समझ में नहीं आई। यह कॉलेज जेल के सामने क्यों बनाया? फाटक से निकलते ही जेल के दर्शन होते हैं तो लगता है, सवेरे-सवेरे मानो ख़ाली घड़ा देख लिया हो; मन जाने कैसा-कैसा हो उठता है।”
रूख़े केशों की लटों को अपने शिथिल हाथों से पीछे करते हुए मिसेज़ शुक्ला की कान्तिहीन आँखें जेल की ऊँची-ऊँची दीवारों पर टिकीं। बोलीं “सरीन जब आई थी तो उसने भी यही बात पूछी थी।’’
पता नहीं क्यों कॉलेज के लिए जगह चुनी गई।” फिर उनकी खोई-खोई दृष्टि दीवारों में जाने क्या खोजने लगी पैरों को कुछ फैलाकर उन्होंने एक बार फिर अपनी स्थिति को ठीक किया, और बोलीं “तुम लोग जब कॉलेज चली जाती हो तो मैं लेटी-लेटी इन दीवारों को ही देखा करती हूँ, तब मन में लालसा उठती है कि काश! ये दीवारें किसी तरह हट जातीं या पारदर्शी ही हो जातीं और मैं देख पाती कि उस पार क्या है!
सवेरे शाम इन दीवारों को बेधकर आती हुई कैदियों के पैरों की बेड़ियों की झनकार मेरे मन को मथती रहती है और अनायास ही मन उन कैदियों के जीवन की विचित्रा-विचित्रा कल्पनाओं से भर जाया करता है। इस अनन्त आकाश के नीचे और विशाल भूमि के ऊपर रहकर भी कितनी सीमित, कितना घुटा-घुटा रहता होगा उनका जीवन! चाँद और सितारों से सजी इस निहायत ही ख़ूबसूरत दुनिया का सौंदर्य, परिवार वालों का स्नेह और प्यार, ज़िन्दगी में मस्ती और बहारों के अरमान क्या इन्हीं दीवारों से टकराकर चूर-चूर न हो जाया करते होंगे?
इन सबसे वंचित कितना उबा देने वाला होता होगा इनका जीवन न आंनद, न उल्लास, न रस।” और एक गहरी निःश्वास छोड़कर वे फिर बोलीं “जाने क्या अपराध किए होंगे इन बेचारों ने, और न जाने कि न परिस्थितियों में वे अपराध किए होंगे कि यूँ सब सुखों से वंचित जेल की सीलन भरी अँधेरी कोठरियों में जीवित रहने का नाटक करना पड़ रहा है...।”
तभी दूधवाली के कर्कश स्वर ने मिसेज शुक्ला के भावना-स्त्रोत को रोक दिया। मैं उठी और दूध का बर्तन लाकर दूध लिया। मिसेज शुक्ला बोली “अब चाय का पानी भी रख ही दो, सरीन आएगी तब तक उबल जाएगा।”
मैं पानी चढ़ाकर फिर अपनी कुर्सी पर आ बैठी। बोली “मदर ने आपको पूरी तरह आराम करने के लिए कहा है। आपकी जगह जिन्हें रखा गया है, वे कल से काम पर आने लगेंगी। आज शाम को शायद मदर खुद आपको देखने आएँ।” “मदर यहाँ की बहुत अच्छी हैं रत्ना! जब मैं यहाँ आई थी तब जानती हो, सारा स्टाफ नन्स का ही था। मेरे लिए तो यही समस्या थी कि इन नन्स के बीच में रहूँगी कैसे। पर मदर के स्वभाव ने आगा-पीछा सोचने का अवसर ही नहीं दिया, बस यहाँ बाँधकर ही रख लिया। फिर तो सरीन और मिश्रा भी आ गई थीं। मिश्रा गई तो तुम आ गईं।”
“मुझे तो सिस्टर ऐनी और सिस्टर जेन भी बड़ी अच्छी लगीं। हमेशा हँसती रहती हैं। कुछ भी पूछो तो इतने प्यार से समझाती हैं कि बस! बड़ी अफेक्शनेट हैं। हाँ, ये लूसी और मेरी जाने कैसी हैं? जब देखो चेहरे पर मुर्दनी छाई रहती है, न किसी से बोलती हैं, न हँसती हैं।”
मिसेज शुक्ला ने पीछे से एक तकिया निकालकर गोद में रख लिया और दोनों कोहनियाँ उस पर गड़ाकर बोली “ऐनी और जेन तो अपनी इच्छा से ही सब कुछ छोड़-छाड़कर नन बनी थीं, पर इन बेचारियों ने ज़िन्दगी में चर्च और कॉलेज के सिवाय कुछ देखा ही नहीं। कॉलेज में काम करती हैं, बस यही है इनका जीवन! अब तुम्हीं बताओ, कहाँ से आए मस्ती और शोखी।” “वाह, यह भी कोई बात हुई। सिस्टर जूली को ही लीजिए, वह भी उम्र में इनके ही बराबर होंगी, पर चहकती रहती हैं। बातें करेगी तो ऐसी लच्छेदार कि तबीयत भड़क उठे। हँसेगी तो ऐसे कि सारा स्टाफ- रूम गूँज जाए, उसका तो अंग-अंग जैसे थिरकता रहता है।”
“वह अभी नई-नई आई है यहाँ, थोड़े दिन रह लेने दो, फिर देखना, वह भी लूसी और मेरी जैसी ही हो जाएगी।” और एक गहरी साँस छोड़कर उन्होंने आँखें मूंद ली। तभी सरीन हड़बड़ाती-सी आई और बोली “गजब हो गया शुक्ला आज तो! अब जूली का पता नहीं क्या होगा?”
“क्यों, क्या हुआ?” सरीन की घबराहट से एकदम चैंककर शुक्ला ने पूछा। “जूली फोर्थ इयर का क्लास ले रही थी। कीट्स की कोई कविता समझाते- समझाते जाने क्या हुआ कि उसने एक लड़की को बाँहो मे भरकर चूम लिया। सारी क्लास में हल्ला मच गया और पाँच मिनिट बीतते-न-बीतते बात सारे कॉलेज मैं फैल गई। मदर बड़ी नाराज़ भी हुईं और चिंतित भी। जूली को उसी समय चर्च भेज दिया और वे सीधी फादर के पास गईं।” और फिर बड़े ही रहस्यात्मक ढंग से इन्होंने शुक्ला की ओर देखा। “लगता है, अब जूली के भी दिन पूरे हुए!” बहुत ही निर्जीव स्वर में शुक्ला बोलीं। मुझे सारी बात ही बड़ी विचित्रा लग रही थी। लड़की-लड़की को किस कर ले! जूली के दिन पूरे हो गए कैसे दिन? दोनों के चेहरों की रहस्यमयी मुद्रा...मैं कुछ समझ नहीं पा रही थी। पूछा “फादर क्या करेंगे, कुछ सज़ा देंगे?” मेरा मन जूली के भविष्य की आशंका से जाने कैसा-कैसा हो उठा।
“अभी-अभी तो रत्ना, जूली की ही बात कर रही थी और अभी तुम यह खबर ले आईं। सुनते हैं, जूली पहले जिस मिशनरी में थी, वहाँ भी इसने ऐसा ही कुछ किया था, तभी तो उसे यहाँ भेजा गया कि फिर कभी कोई ऐसी-वैसी हरकत करे तो फादर का जादू का डंडा घुमवा दिया जाए।”
और शुक्ला के पपड़ी जमे शुष्क अधरों पर फीकी-सी मुस्कराहट फैल गई।
“जादू का डंडा? बताइए न क्या बात है? आप लोग तो जैसे पहेलियाँ बुझा रही हैं।” बेताब होकर मैंने पूछा।
“अरे, क्यों इतनी उत्सुक हो रही हो?” थोड़े दिन यहां रहोगी तो सब समझ जाओगी। यहाँ के फादर एक अलौकिक पुरूष हैं, एकदम दिव्य! कोई कैसा भी पतित हो या किसी का मन जरा भी विकार-ग्रस्त हो, इनके सम्पर्क में आने से ही उसकी आत्मा की शुद्धि हो जाती है। दूर-दूर तक बड़ा नाम है इन फादर का। बाहर की मिशनरीज़ से कितने ही लोग आते है। फादर के पास आत्म-शुद्धि के लिए।”
“चलिए, मैं नहीं मानती। मन के विकार भी कोई ठोस चीज़ हैं कि फादर ने निकाल दिए और आत्म शुद्धि हो गई।” मैंने अविश्वास से कहा। कमरे से चाय के प्याले बनाकर लाती हुई सरीन से शुक्ला बोलीं
“लो, इन्हें फादर की अलौकिक शक्ति पर विश्वास ही नहीं हो रहा है।” “इसमें अविश्वास की क्या बात है? हमारे देश में तो एक-से-एक पहुँचे हुए महात्मा हैं, तुमने कभी नहीं सुना ऐसी महान आत्माओं के बारे में?”
“सुनने को तो बहुत कुछ सुना है पर मैंने कभी विश्वास नही किया।”
“अच्छा, अब जूली को देख लेना, अपने आप विश्वास हो जाएगा। लूसी, जो आज इतनी मनहूस लगती है, यहाँ आई थी तब क्या जूली से कम चपल थी? फिर देखो! फादर ने तीन दिन में ही उसका काया पलट कर दिया या नहीं?” शुक्ला ने सरीन की ओर देखते हुए जैसे चुनौती के स्वर में पूछा।
तभी डॉक्टर साहब आए। मिसेज़ शुक्ला ने इंजेक्शन लगाया और पूछताछ करने लगे। सरीन मुझे गरम पानी की थैली का पानी बदल देने का आदेश देकर नहाने चली गई। इंजेक्शन लगाने के बाद करीब घंटे-भर तक शुक्ला की हालत बहुत खराब रहती थी, मैंने उन्हें गर्म पानी की थैली देकर आराम से लिटा दिया। उनके चेहरे पर पसीने की बूँदें झलक आई थीं, उन्हें पोंछ दिया। वे आँखें बन्द करके चुपचाप लेट गईं।
मन में अनेकानेक प्रश्न चक्कर काट रहे थे और रह-रहकर जूली का हँसता चेहरा आँखों के सामने घूम रहा था। फादर उसके साथ क्या करेंगे? यह प्रश्न मेरे दिमाग को बुरी तरह मथ रहा था। मैंने दूर से फादर को देखा है। ऊपर से नीचे तक सफ ेद लबादा पहने वह कभी-कभी चर्च जाते हुए दीख जाया करते थे। इतनी दूर से चेहरा तो दिखाई नहीं देता था, पर चाल-ढाल से बड़ी भव्य मूर्ति लगते थे। मन श्रद्धा से भर उठे, ऐसे। फादर में कौन सी शक्ति है जो आत्मा की शुद्धि कर देती है, यही बात मेरी समझ में नहीं आ रही थी। अगले दिन जूली नहीं आई। मैंने सिस्टर ऐनी से कुछ पूछना चाहा तो उन्होंने धीरे-से अंगुली मुँह पर रखकर चुप रहने का आदेश कर दिया। मैंने देखा कि लूसी और मेरी इस घटना से काफी सन्तुष्ट-सी नज़र आ रही थीं। कल से उनके खिजलाहट भरे चेहरों पर हल्के से सन्तोष की झलक नज़र आ रही थीं। दो दिन और इसी प्रकार बीत गए, तीसरे दिन मैं कुछ जल्दी ही कमरे से रवाना होने लगी तो सरीन ने पूछा “अरे, अभी से चल दी!”
“कुछ कॉपियाँ देखनी हैं, यहाँ लेकर नहीं आई, अब स्टाफ -रूम में बैठकर ही देख लूँगी। आज नम्बर देने ही हैं।” और मैं चल पड़ी। यों हमारे कमरों और कॉलेज के बीच में भी एक छोटा-सा फाटक था, पर वह अक्सर बन्द ही रहा करता था सो मेन गेट से ही जाना पड़ता था। जैसे ही मैं कॉलेज के फाटक में घुसी, मैंने देखा जूली चर्च का मैदान पार कर नीची नज़रें किए धीरे-धीरे कॉलेज की तरफ आ रही है। एक बार इच्छा हुई कि दौड़कर उसके पास पहुँच जाऊँ, पर जाने क्यों पैर बढ़े ही नहीं। मैं जहाँ-की-तहाँ खड़ी रही। वह मेरे पास आई, पर बिना आँख उठाए, बिना एक भी शब्द बोले वैसी ही शिथिल चाल से गुज़र गई। मैं अवाक्-सी उसका मुँह देखती रही। दो दिन में ही क्या हो गया इस जूली को? मै नहीं जानती, फादर ने उसके ऊपर जादू का डंडा घुमाया या उसे जन्तर मन्तर का पानी पिलाया, पर जूली हँसना भूल गई। इसकी सारी शोखी, सारी हँसी, सारी मस्ती जैसे किसी ने सोख ली हो। उस दिन किसी ने जूली से बात नहीं की, शायद मदर का ऐसा ही आदेश था। पर जूली के इस नए रूप ने मेरे मन में विचित्रा-सा भय भर दिया। लगता था जैसे जूली नहीं, उसकी ज़िंदा लाश घूम रही है। सिस्टर ऐनी ने इतना जरूर कहा कि फादर ने उसकी आत्मा को पवित्रा कर दिया, उसकी आत्मा के विकार मिट गए; पर मुझे लगता था जैसे जूली की आत्मा ही मिट गई थी, मर गई थी।
अपने कमरे पर आकर मैंने मिसेज शुक्ला को सारी बात बताई तो बिना किसी प्रकार का आश्चर्य प्रकट किए वे बोलीं “मैं तो पहले ही जानती थी। पता नहीं, कैसी शक्ति है फादर के पास।” रात में सोई तो बड़ी देर तक दिमाग़ में यही सब चक्कर काटता रहा। कभी लूसी और कभी मेरी की शक्लें आँखों के सामने घूम जातीं। उन्हें देखकर लगता था मानो वे अपने से ही लड़ रही हैं, अपने को ही कुतर रही हैं, एक अजीब खिझलाहट के साथ, एक अजीब आक्रोश के साथ। कॉलेज की बड़ी लड़कियों को हँसी-ठिठोली करते देख उनके दिलों से बराबर ही सर्द आहें निकल जाया करती थीं। उनके जवान दिलों में उमंगों और अरमानों की आंधियाँ नहीं मचलती थीं और उनकी आँखों में वह कान्ति और चमक नहीं थी, जो इस उम्र की खासियत होती है। ऐसा लगता था इनकी आँखें, आँखें न होकर दो कब्र हैं जिनमें उनके मासूम दिलों की सारी तमन्नाओं को, सारे अरमानों को मारकर सदा-सदा के लिए दफ ना दिया हो। पहले ये भी जूली जैसी ही चंचल थीं तो अब जूली भी हमेशा के लिए ऐसी ही हो जाएगी? और जूली का आज वाला रूप मेरी आँखों के सामने घूम जाता है। मैंने ज़ोर से तकिए में अपना मुँह छिपा लिया और इन सारे विचारों को दिमाग से निकालकर सोने की कोशिश करने लगी।
मैं नहीं जानती क्या हुआ, पर आँख खोली तो देखा मैं पसीने से तर थी और साँस जोर-जोर से ऊपर-नीचे हो रही थी। मिसेज शुक्ला मुझे पकड़े हुए थीं और बार-बार पूछ रही थीं “क्या सपना देखकर डर गईं?” एक बार तो भयभीत सी नज़रों से मैं चारों ओर देखती रही, फिर कमरे की परिचित चीज़ों और मिसेज़ शुक्ला को देखकर आश्वस्त सी हुई। “क्या हो गया? क्यों चिल्लाई थीं इतनी ज़ोर से? कोई सपना देखा था क्या?”
उन्होंने फिर पूछा।
“हाँ! मुझे ऐसा लगा कि एक बड़ी-सी सफेद चिड़िया आकर मुझे अपने पंजे में दबोचकर उड़े जा रही है और उसके पंजों के बीच मेरा दम घुटा जा रहा है।”
“चलो, थी चिड़िया ही, चिड़ा तो नहीं था, तब कोई बात नहीं। चिड़ियाँ कहीं नहीं ले जाने की, ले जानेवाले तो चिड़े ही होते हैं।” हँसते हुए उन्होंने कहा!
“चलिए, आपको मज़ाक सूझ रहा है, यहाँ डर के मारे जान निकल गई। वह दम घुटने की फीलिंग जैसे अभी भी है।”
मैंने पानी पिया और फिर सो गई।
और फिर वही ढर्रा चल पड़ा। जब कभी बाहर से कोई सिस्टर या ब्रदर आत्म शुद्धि के लिए फादर के पास आते तो सिस्टर ऐनी मुझे यह ख़बर सुनाया करती थी। मैं बड़ी उत्सुकता से सारा किस्सा सुनती और विश्वास से अधिक आश्चर्य करती सिस्टर ऐनी और जेन को मेरा यह अविश्वास करना अच्छा नहीं लगता था और उसे मिटाने के लिए ही वे और भी जोर-शोर से, घंटों फादर के अलौकिक गुणों का बखान करतीं। मन्दगति से चलती- फिरती फादर की वह सौम्य मूर्ति मेरे लिए श्रद्धा से अधिक कौतूहल और भय का विषय बनी रही।
महीने भर बाद एक दिन मदर ने मुझे बुलाया और बोलीं “मैं चाहती हूँ कि नन्स के लिए भी हिन्दी पढ़ाने की कुछ व्यवस्था कर दी जाए। अब हिन्दी जानना तो सबके लिए बहुत ज़रूरी हो उठा है क्योंकि मीडियम भी हिन्दी हो रहा है, नहीं तो सारा स्टाफ हमें दूसरा रखना होगा। क्यों?”
“तो आप सिस्टर्स के लिए भी एक क्लास खोल दीजिए, बहुत ही जल्दी सीख लेंगी। यों बोल तो सभी लेती हैं, लिखना- पढ़ना भी आ जाएगा।”
“इसीलिए तो तुम्हें बुलाया है। शुक्ला तो बीमारी से उठने के बाद काफी कमज़ोर हो गई है, सो मैं उस पर यह बोझ डालना ठीक नहीं समझती। तुम शाम को एक घंटा चर्च में आकर सिस्टर्स को हिन्दी पढ़ाने का काम ले लो, उसके लिए तुम्हें अलग से पे किया जाएगा।”
चर्च में जाकर पढ़ाना होगा, यह बात सुनते ही एक बार मेरे सामने फादर का चेहरा घूम गया। उनको और दूसरी नन्स को और अधिक निकट से जानने की लालासा को एक राह मिल रही थीं मैं बोल पड़ी “मुझे कोई ऐतराज नहीं, मैं बड़ी खुशी से यह काम करूँगी।”
“तब पहली तारीख से शुरू कर दो!”
मदर के पास से लौटी तो देखा, सरीन और शुक्ला चाय पर बैठीं मेरा इन्तज़ार कर रही है। मैंने आकर उन्हें सारी बात बताई तो सरीन हँसकर बोली “चलो, तुम तो सपने में भी फादर को देखा करती थीं।” अब पास से देखना। बहुत कौतूहल है ना फादर को लेकर तुम्हारे मन में।
“फादर अपने कॉटेज में ही रहते हैं या चर्च जाते हैं? सिस्टर्स के कमरों की तरफ तो वे शायद कभी जाते नहीं, तुम देखोगी क्या?” शुक्ला ने कहा।
“अरे, कभी चर्च में आते-जाते ही दीख जाया करेंगे।” सरीन बोली। फिर एकाएक प्रसंग बदलकर कहा “क्यों शुक्ला, आजकल तुमने एक नई बात मार्क की या नहीं?”
“क्या?” मिसेज़ शुक्ला ने पूछा।
“लूसी में कोई चेंज नज़र नहीं आता? आजकल उसके चेहरे पर पहले जैसी मुर्दनी नहीं छाई रहती। वह अनिमा है ना थर्ड इयर की, उसका भाई आजकल अक्सर कॉलेज में आया करता है, कभी कोई बहाना लेकर तो कभी कोई बहाना लेकर। विजिटर्स को अटैंड करने का काम लूसी पर ही है। मैं कई दिनांें से नोटिस कर रही हूँ कि जिस दिन वह आता है, लूसी का मूड बड़ा अच्छा रहता है।
“ख़्याल नहीं किया, अब देखेंगे।” शुक्ला ने कहा।
पता नहीं, मिसेज़ शुक्ला ने ख़्याल किया या नहीं, पर मैंने इस चीज़ को अच्छी तरह से मार्क किया कि अनिमा का भाई सप्ताह में दो बार आ ही जाता है और काफी देर तक वह उसके पास बैठती है। उसके जाने के बाद भी लूसी का मूड इतना अच्छा रहता है कि कोई हल्का-फुल्का मज़ाक भी कर लो तो बुरा नहीं मानती। पर जाने क्यों लूसी का यह नया रूप देखकर मेरा मन भर उठता। दो महीने पहले की हँसती, थिरकती जूली की तस्वीर आँखों के सामने नाच जाती और मैं सिहर उठती।
पहली तारीख की शाम को मैं चर्च गई। इसके पहले मैंने कभी चर्च की सरहद में पाँव नहीं रखा था। कॉलेज के दाहिनी ओर वाला लंबा मैदान पार करने पर एक नाला पड़ता था, वही चर्च और कॉलेज की विभाजक रेखा थी।
उसे पार करके ही चर्च का मैदान आरम्भ होता था। चर्च के पीछे रैवरेंड फादर और मदर के लिए दो छोटी सुन्दर कॉटेजेज़ बनी हुई थीं और बाईं ओर सिस्टर्स के लिए एक कतार में कमरे बने हुए थे। कमरों के सामने लम्बा-सा बरामदा था। जाकर देखा कि क्लास के लिए उसी बरामदे में व्यवस्था की गई है। मैं पढ़ाने लगी। चर्च, कॉलेज और हमारे कमरों के सामने कोई तीन फीट ऊँची लम्बी सी दीवार थी, यों सबके प्रवेश द्वार अलग-अलग थे, पर चर्च से कॉलेज जाने के लिए सब लोग नाला पार करके ही जाया करते थे। पढ़ाने बैठी तो फाटक की ओर ही मेरा मुँह था और अनायास ही यहाँ भी मेरी नज़रें सामने जेल की ऊँची-ऊँची दीवारों से टकराईं। जबर्दस्ती अपनी नज़रों को उस ओर से हटाकर मैंने पढ़ाना आरम्भ किया।
चर्च में सिस्टर्स को पढ़ाते-पढ़ाते मुझे क़रीब एक महीना हो गया था। रोज़ की तरह उस दिन भी जब मैं जाने लगी तो शुक्ला बोलीं “आज जरा जल्दी आ सके तो अच्छा हो रत्ना! बाज़ार चलेंगे। सरीन से कहा तो बोली कि उसे ज़रूरी नोट्स तैयार करने हैं, अकेले जाते मुझे अच्छा नहीं लगता, तुम आ जाना!”
“ठीक है, मैं जल्दी ही चली जाऊँगी। आप तैयार रहिएगा, आते ही चल पड़ेंगे।” और मैं चल दी। चर्च के मैदान में पहुँचते ही किसी स्त्राी के चीखने-चिल्लाने की आवाज़ें सुनकर एक क्षण को मैं स्तब्ध सी खड़ी हो गई, सोचा जाऊँ या नहीं। पर मन का कौतूहल किसी तरह ठहरने नहीं दे रहा था। जैसे ही बरामदे में पैर रखा, मैं हैरत में आ गई। एक बहुत ही खूबसूरत नन हाथ पैर पटक-पटककर बुरी तरह चिल्ला रही थी। सारी सिस्टर्स उसे संभाले हुए थीं, मदर बड़ी बेचैनी से उसे शान्त करने की कोशिश कर रही थीं, पर वह थी कि चिल्लाए चली जा रही थी।
तीन-चार सिस्टर्स ने उसे पकड़ रखा था, उसके बावजूद वह बुरी तरह हाथ-पैर पटक रही थी। उसे मैंने जो पास से देखा तो लगा कि ऐसा रूप मैंने आज तक नहीं देखा। संगमरमर की तरह सफेद उसका रंग था और मक्खन की तरह मुलायम देह। चेहरे पर ऐस लावण्य कि उपमा देते न बने! और उस लावण्यमय चेहरे पर वे दो नीली आँखें, जैसे समुद्र की गहराइयाँ उतर आई हों। मैं सच कहती हूँ कि यदि कोई एक बार भी उन नीली आँखें को देख ले तो कम से कम इस ज़िंदगी में तो वह उन्हें चाहकर भी न भूल पाए। मेरे घुसते ही उसकी नज़र मेरी ओर घूम गई, मुझे लगा वे नीली आँखें मेरे शरीर को भेदकर मेरे मन को कचोटे डाल रही हैं। और फिर वह एकाएक चिल्ला उठी “देखो मेरे रूप को...” और वह अपने कपड़ों को बुरी तरह फाड़कर इधर-उधर करने लगी। सबने बड़ी मुश्किल से उसे संभला मदर ने उसके कपड़ों को जल्दी से ठीक-ठाक कर दिया। वे बड़ी ही परेशान नज़र आ रही थीं। हाथ रुकने पर भी उसकी जीभ चल रही थी “मैं अपनी ज़िंदगी को, अपने इस रूप को चर्च की दीवारों के बीच नष्ट नहीं होने दूँगी। मैं ज़िंदा रहना चाहती हूँ, आदमी की तरह ज़िंदा रहना चाहती हूँं। मैं इस चर्च में घुट-घुटकर नहीं मरूँगी... मैं भाग जाऊँगी, मैं भाग जाऊँगी...। हम क्यों अच्छे कपड़े नहीं पहनें? हम इन्सान ही है..? मैं नहीं रहूँगी यहाँ, मैं कभी नहीं रहूँगी। देखो मेरे रूप को...”
तभी बाहर से सिस्टर ऐनी हड़बड़ाती- सी आई “फादर ने एकदम बुलाया है, लिए इसे वहीं ले चलिए!” सबने मिलकर उसे जबर्दस्ती उठाया। वह चिल्लाती जा रही थी “मैं फादर को भी दिखा दूँगी कि ज़िन्दगी क्या होती है, यह सब ढोंग है मैं यहाँ नही रहूँगी... आधी से अधिक सिस्टर्स उसे उठाकर ले गई। जो बची थीं, उनमें से इस घटना के बाद कोई भी इस मूड में नहीं थी कि बैठकर पढ़ती। सो मैं लौट जाने को घूमी तो देखा कि इस सबसे दूर एक खिड़की के सहारे लूसी खड़ी है। उसके चेहरे पर एक विशेष प्रकार की चमक आ गई थी, जैसे मन-ही-मन वह इस सारी घटना से बड़ी प्रसन्न हो।
मन में अपार विस्मय, भय और दुख लेकर मैं लौटी तो शुक्ला बोलीं “लो, तुम तो अभी से लौट आईं, अभी तो तैयार भी नहीं हुई।”
“आज क्लास ही नहीं हुई।” और मैंने सारी बातें उन्हें बताईं। मैं जितनी इस घटना से विचलित हो रही थी, वे उतनी नहीं हुईं। स्वाभाविक से स्वर में बोलीं “शायद बाहर से कोई सिस्टर आई होगी! क्या बताएँ, इन बेचारियों की ज़िंदगी पर भी बड़ा तरस आता है।”
रात भर मेरे दिमाग़ में उस नई सिस्टर का खूबसूरत चेहरा और उसका चीखना- चिल्लाना गूँजता रहा। वह फादर के पास भेज दी गई है। अब फादर उसका क्या करेंगे, शायद जूली की तरह उसके हृदय का यह बवंडर भी सदा-सदा के लिए शान्त हो जाएगा और फिर जिन्दगी-भर उसका यह चाँद को लजाने वाला रूप चर्च की दीवारों के बीच ही घुट-घुटकर नष्ट हो जाएगा और वह अपनी इस बर्बादी पर एक ठंडी साँस भी नहीं भर सकेगी। दूसरे दिन स्टाफ रूम में घुसते ही सबसे पहले मेरी नज़र लूसी पर पड़ी।
बिना पूछे ही बड़े उत्साह से उसने मुझे कल की बात बताई “जानती हो, यह जो नई सिस्टर आई है, इसका नाम एंजिला है। कहते हैं यह चर्च से भाग गई थी, पर फिर पकड़ ली गई। इसके बाद पागलों जैसा व्यवहार करती थी, सो इसे फादर के पास भेज दिया। देखा कितनी खू़बसूरत है?” और एक सर्द-सी आह उसके मुँह से निकल गई।
“अब क्या होगा? फादर आखिर करते क्या हैं?”
“देखो क्या होता है? आज तो मदर भी नहीं आईं। कल से वे फादर की कॉटेज़ पर ही हैं। सुनते हैं। एंजिला काबू में नही आ रही है, उसका पागलपन वैसे ही ही जारी है। हम लोगों को भी उधर जाने की इजाज़त नहीं है।”
दो दिन तक कॉलेज के वातावरण, विशेषकर स्टाफ-रूम के वातावरण में एक विचित्रा प्रकार का तनाव आ गया। कोई किसी से कुछ नहीं बोलता। बस मैं, शुक्ला और सरीन आपस में ही थोड़ा-बहुत बोल लेते थे, बाकी सारी सिस्टर्स तो ऐसे काम कर रही थीं मानो मौन-व्रत ले रखा हो, जैसे आॅपरेशन रूम में कोई बहुत बड़ा आॅपरेशन हो रहा हो और बाहर नर्सें व्यस्त, चिंतित-सी, परेशान इधर-उधर घूम रही हों। उनकी हर बात से ऐसा लग रहा था जैसे कह रही हों चुप-चुप! शोर मत करो, आॅपरेशन बिगड़ जाएगा! मदर थोड़ी देर के लिए कॉलेज आतीं और जरूरी काम करके चली जाती थीं। हाँ लूसी मौका पाकर और एकान्त देखकर चुपचाप यह ख़बर दे देती थी कि एंजिला किसी प्रकार शान्त नहीं हो रही है, फादर सबकुछ करके हार गए। यह कहते समय लूसी का मन प्रसन्नता से भर उठता था, मानो फादर की नाकमयाबी पर उसे परम सन्तोष हो रहा है।
चैथे दिन सवेरे मैं और मिसेज़ शुक्ला घूमने निकले तो देखा, सामने से एंजिला चली आ रही है। मैं देखते ही पहचान गई। बिल्कुल स्वस्थ, स्वाभाविक गति से वह चल रही थी। पास आते ही मैं पूछ बैठी, “सिस्टर एंजिला! आप कहाँ जा रही हैं?”
एक क्षण को एंजिला रूकी मुझे पहचानने का प्रयास-सा करते हुए बोली “मुझे कोई नहीं रोक सकता, जहाँ मेरा मन होगा, मैं जाऊँगी। मैंने तुम्हारे फादर ...” फिर सहसा ओंठ चबाकर बात तोड़कर वह बोली “अब वे कभी ऐसी फालतू की बातें नहीं करेंगे।” और एक बार अपनी नीली आँखों से उसने भरपूर नज़र मेरे चेहरे पर डाली, सिर को हल्का-सा झटका दिया और एक ओर चली गई। मैं अवाक्- सी उसकी ओर देखती रही।
“यही है एंजिला?” शुक्ला ने पूछा
“हाँ, पर यह तो जा रही है, किसी ने इसे रोका नहीं?”
“फादर का जादू-मंतर इस पर चला नहीं दीखता है। बड़ी खूबसूरत है। आँखें तो गजब की है, बस देखने लायक!”
पर मिसेज शुक्ला की बातें मेरे कानों में ही नहीं पहँचु रही थी। मैं कभी दूर जाती एंजिला को और कभी मौन, शान्त खड़ी चर्च की इमारत को देख रही थी। मेरा मन हो रहा था कि दौड़कर चर्च पहुँच जाऊँ और लूसी को बुलाकर सारी बातेन पूछ लूँ। लौटते समय भी मैंने चर्च के मैदानों पर नज़र दौड़ाई, पर वहाँ सभी कुछ शान्त था, जैसे कुछ हुआ ही नहीं हो। बड़ी मुश्किल से उस दिन दस बजे मैं एक तरफ दौड़ पड़ी और स्टाफरूम से लूसी को घसीटकर पीछे लाॅन में चली गई। लूसी स्वयं सब कुछ बताने के लिए बैठी थीं।
लानॅ में पहुँचते ही बोले “एंजिला चली गई फादर कुछ नहीं कर सके। उनकी खुद की तबीयत बड़ी खराब हो रही है। मदर उनकी देखभाल कर रही हैं। सवेरे तो हम लोग भी वहाँ गए थे। कमरे में तो नहीं जाने दिया हमें, पर बाहर से फादर को देखा था। फादर हम सब पर भी बड़ा रोब जमाया करते थे, एंजिला ने उनका नशा डाउन कर दिया। एंजिला को सुधार नही सके, अपनी इस असफलता का ग़म उन्हें बुरी तरह साल रहा है, आत्मग्लानि से बार-बार उनकी आँखों में आँसू आ रहे हैं, मदर बड़ी परेशान और दुखी हैं, उन्हें बहुत तसल्ली दे रही हैं बार-बार ईसा मसीह से उनकी शान्ति के लिए प्रार्थना भी कर रही हैं।” और एक बड़ी ही व्यंग्यात्मक मुस्कुराहट उसके होठों पर फैल गई।
इसके तीसरे दिन ही रात में सबसे आँख बचाकर, चर्च की छोटी-छोटी दीवारों को फांद कर कब और कैसे लूसी भाग गई, कोई जान ही नहीं पाया।
बड़ी विचित्रा स्थिति थी उस समय वहाँ की। एंजिला फादर की उस अलौकिक शक्ति को जैसे चुनौती देकर चली गई, जिसके बल पर उन्होंने कितने ही पतितों की आत्मा शुद्ध की थी। फादर इस असफलता पर आत्म-ग्लानि के मारे मेरे जा रहे थे। मदर बेहद परेशान थीं। कभी फादर के पास, कभी कॉलेज तो कभी चर्च में दौड़ती फिर रही थीं। तभी लूसी भाग गई। एक तो चर्च जैसी पवित्रा जगह, फिर लड़कियों का कॉलेज, क्या असर पड़ेगा इस घटना का लड़कियों पर!
दो दिन बाद ही चर्च और कॉलेज के चारों ओर की दीवारें ऊँची उठने लगीं और देखते-ही-देखते चारों ओर ऊँची-ऊँची दीवार खिंच गईं।
Ek Kahani Yeh Bhi : Mannu Bhandari
एक कहानी यह भी : मन्नू भंडारी (आत्मकथ्य)
जन्मी तो मध्य प्रदेश के भानपुरा गाँव में थी, लेकिन मेरी यादों का सिलसिला शुरू होता है अजमेर के ब्रह्मपुरी मोहल्ले के उस दो-मंज़िला मकान से, जिसकी ऊपरी मंज़िल में पिताजी का साम्राज्य था, जहाँ वे निहायत अव्यवस्थित ढंग से फैली-बिखरी पुस्तकों-पत्रिकाओं और अखबारों के बीच या तो कुछ पढ़ते रहते थे या फिर ‘डिक्टेशन’ देते रहते थे। नीचे हम सब भाई-बहिनों के साथ रहती थीं हमारी बेपढ़ी-लिखी व्यक्तित्वविहीन माँ...सवेरे से शाम तक हम सबकी इच्छाओं और पिता जी की आज्ञाओं का पालन करने के लिए सदैव तत्पर। अजमेर से पहले पिता जी इंदौर में थे जहाँ उनकी बड़ी प्रतिष्ठा थी, सम्मान था, नाम था। कांग्रेस के साथ-साथ वे समाज-सुधार के कामों से भी जुड़े हुए थे। शिक्षा के वे केवल उपदेश ही नहीं देते थे, बल्कि उन दिनों आठ-आठ, दस-दस विद्यार्थियों को अपने घर रखकर पढ़ाया है जिनमें से कई तो बाद में ऊँचे-ऊँचे ओहदों पर पहुँचे। ये उनकी खुशहाली के दिन थे और उन दिनों उनकी दरियादिली के चर्चे भी कम नहीं थे। एक ओर वे बेहद कोमल और संवेदनशील व्यक्ति थे तो दूसरी ओर बेहद क्रोधी और अहंवादी।
पर यह सब तो मैंने केवल सुना। देखा, तब तो इन गुणों के भग्नावशेषों को ढोते पिता थे। एक बहुत बड़े आर्थिक झटके के कारण वे इंदौर से अजमेर आ गए थे, जहाँ उन्होंने अपने अकेले के बल-बूते और हौसले से अंग्रेज़ी-हिंदी शब्दकोश (विषयवार) के अधूरे काम को आगे बढ़ाना शुरू किया जो अपनी तरह का पहला और अकेला शब्दकोश था। इसने उन्हें यश और प्रतिष्ठा तो बहुत दी, पर अर्थ नहीं और शायद गिरती आर्थिक स्थिति ने ही उनके व्यक्तित्व के सारे सकारात्मक पहलुओं को निचोड़ना शुरू कर दिया। सिकुड़ती आर्थिक स्थिति के कारण और अधिक विस्फारित उनका अहं उन्हें इस बात तक की अनुमति नहीं देता था कि वे कम-से-कम अपने बच्चों को तो अपनी आर्थिक विवशताओं का भागीदार बनाएँ। नवाबी आदतें, अधूरी महत्वाकांक्षाएँ, हमेशा शीर्ष पर रहने के बाद हाशिए पर सरकते चले जाने की यातना क्रोध बनकर हमेशा माँ को कँपाती-थरथराती रहती थीं। अपनों के हाथों विश्वासघात की जाने कैसी गहरी चोटें होंगी वे जिन्होंने आँख मूँदकर सबका विश्वास करने वाले पिता को बाद के दिनों में इतना शक्की बना दिया था कि जब-तब हम लोग भी उसकी चपेट में आते ही रहते।
पर यह पितृ-गाथा मैं इसलिए नहीं गा रही कि मुझे उनका गौरव-गान करना है, बल्कि मैं तो यह देखना चाहती हूँ कि उनके व्यक्तित्व की कौन-सी खूबी और खामियाँ मेरे व्यक्तित्व के ताने-बाने में गुँथी हुई हैं या कि अनजाने-अनचाहे किए उनके व्यवहार ने मेरे भीतर किन ग्रंथियों को जन्म दे दिया। मैं काली हूँ। बचपन में दुबली और मरियल भी थी। गोरा रंग पिता जी की कमज़ोरी थी सो बचपन में मुझसे दो साल बड़ी, खूब गोरी, स्वस्थ और हँसमुख बहिन सुशीला से हर बात में तुलना और फिर उसकी प्रशंसा ने ही, क्या मेरे भीतर ऐसे गहरे हीन-भाव की ग्रंथि पैदा नहीं कर दी कि नाम, सम्मान और प्रतिष्ठा पाने के बावज़ूद आज तक मैं उससे उबर नहीं पाई? आज भी परिचय करवाते समय जब कोई कुछ विशेषता लगाकर मेरी लेखकीय उपलब्धियों का ज़िक्र करने लगता है तो मैं संकोच से सिमट ही नहीं जाती बल्कि गड़ने-गड़ने को हो आती हूँ। शायद अचेतन की किसी पर्त के नीचे दबी इसी हीन-भावना के चलते मैं अपनी किसी भी उपलब्धि पर भरोसा नहीं कर पाती...सब कुछ मुझे तुक्का ही लगता है। पिता जी के जिस शक्की स्वभाव पर मैं कभी भन्ना-भन्ना जाती थी, आज एकाएक अपने खंडित विश्वासों की व्यथा के नीचे मुझे उनके शक्की स्वभाव की झलक ही दिखाई देती है...बहुत ‘अपनों’ के हाथों विश्वासघात की गहरी व्यथा से उपजा शक। होश सँभालने के बाद से ही जिन पिता जी से किसी-न-किसी बात पर हमेशा मेरी टक्कर ही चलती रही, वे तो न जाने कितने रूपों में मुझमें हैं...कहीं कुंठाओं के रूप में, कहीं प्रतिक्रिया के रूप में तो कहीं प्रतिच्छाया के रूप में। केवल बाहरी भिन्नता के आधार पर अपनी परंपरा और पीढ़ियों को नकारने वालों को क्या सचमुच इस बात का बिलकुल अहसास नहीं होता कि उनका आसन्न अतीत किस कदर उनके भीतर जड़ जमाए बैठा रहता है! समय का प्रवाह भले ही हमें दूसरी दिशाओं में बहाकर ले जाए-..स्थितियों का दबाव भले ही हमारा रूप बदल दे, हमें पूरी तरह उससे मुक्त तो नहीं ही कर सकता!
पिता के ठीक विपरीत थीं हमारी बेपढ़ी-लिखी माँ। धरती से कुछ ज़्यादा ही धैर्य और सहनशक्ति थी शायद उनमें। पिता जी की हर ज़्यादती को अपना प्राप्य और बच्चों की हर उचित-अनुचित फरमाइश और ज़िद को अपना फ़र्ज समझकर बड़े सहज भाव से स्वीकार करती थीं वे। उन्होंने ज़िन्दगी भर अपने लिए कुछ माँगा नहीं, चाहा नहीं...केवल दिया ही दिया। हम भाई-बहिनों का सारा लगाव (शायद सहानुभूति से उपजा) माँ के साथ था लेकिन निहायत असहाय मजबूरी में लिपटा उनका यह त्याग कभी मेरा आदर्श नहीं बन सका...न उनका त्याग, न उनकी सहिष्णुता। खैर, जो भी हो, अब यह पैतृक-पुराण यहीं समाप्त कर अपने पर लौटती हूँ।
पाँच भाई-बहिनों में सबसे छोटी मैं। सबसे बड़ी बहिन की शादी के समय मैं शायद सात साल की थी और उसकी एक धुँधली-सी याद ही मेरे मन में है, लेकिन अपने से दो साल बड़ी बहिन सुज़ीला और मैंने घर के बड़े से आँगन में बचपन के सारे खेल खेले—सतोलिया, लँगड़ी-टाँग, पकड़म-पकड़ाई, काली-टीलो...तो कमरों में गुड्डे-गुड़ियों के ब्याह भी रचाए, पास-पड़ोस की सहेलियों के साथ। यों खेलने को हमने भाइयों के साथ गिल्ली-डंडा भी खेला और पतंग उड़ाने, काँच पीसकर माँजा सूतने का काम भी किया, लेकिन उनकी गतिविधियों का दायरा घर के बाहर ही अधिक रहता था और हमारी सीमा थी घर। हाँ, इतना ज़रूर था कि उस ज़माने में घर की दीवारें घर तक ही समाप्त नहीं हो जाती थीं बल्कि पूरे मोहल्ले तक फैली रहती थीं इसलिए मोहल्ले के किसी भी घर में जाने पर कोई पाबंदी नहीं थी, बल्कि कुछ घर तो परिवार का हिस्सा ही थे। आज तो मुझे बड़ी शिद्दत के साथ यह महसूस होता है कि अपनी ज़िन्दगी खुद जीने के इस आधुनिक दबाव ने महानगरों के फ़्लैट में रहने वालों को हमारे इस परंपरागत ‘पड़ोस-कल्चर’ से विच्छिन्न करके हमें कितना संकुचित, असहाय और असुरक्षित बना दिया है। मेरी कम-से-कम एक दर्जन आरंभिक कहानियों के पात्र इसी मोहल्ले के हैं जहाँ मैंने अपनी किशोरावस्था गुज़ार अपनी युवावस्था का आरंभ किया था। एक-दो को छोड़कर उनमें से कोई भी पात्र मेरे परिवार का नहीं है। बस इनको देखते-सुनते, इनके बीच ही मैं बड़ी हुई थी लेकिन इनकी छाप मेरे मन पर कितनी गहरी थी, इस बात का अहसास तो मुझे कहानियाँ लिखते समय हुआ। इतने वर्षों के अंतराल ने भी उनकी भाव-भंगिमा, भाषा, किसी को भी धुँधला नहीं किया था और बिना किसी विशेष प्रयास के बड़े सहज भाव से वे उतरते चले गए थे। उसी समय के दा साहब अपने व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति के लिए अनुकूल परिस्थितियाँ पाते ही ‘महाभोज’ में इतने वर्षों बाद कैसे एकाएक जीवित हो उठे, यह मेरे अपने लिए भी आश्चर्य का विषय था... एक सुखद आश्चर्य का।
उस समय तक हमारे परिवार में लड़की के विवाह के लिए अनिवार्य योग्यता थी—उम्र में सोलह वर्ष और शिक्षा में मैट्रिक। सन् ’44 में सुशीला ने यह योग्यता प्राप्त की और शादी करके कोलकाता चली गई। दोनों बड़े भाई भी आगे पढ़ाई के लिए बाहर चले गए। इन लोगों की छत्र-छाया के हटते ही पहली बार मुझे नए सिरे से अपने वज़ूद का एहसास हुआ। पिता जी का ध्यान भी पहली बार मुझ पर केंद्रित हुआ। लड़कियों को जिस उम्र में स्कूली शिक्षा के साथ-साथ सुघड़ गृहिणी और कुशल पाक-शास्त्री बनाने के नुस्खे जुटाए जाते थे, पिता जी का आग्रह रहता था कि मैं रसोई से दूर ही रहूँ। रसोई को वे भटियारखाना कहते थे और उनके हिसाब से वहाँ रहना अपनी क्षमता और प्रतिभा को भट्टी में झोंकना था। घर में आए दिन विभिन्न राजनैतिक पार्टियों के जमावड़े होते थे और जमकर बहसें होती थीं। बहस करना पिता जी का प्रिय शगल था। चाय-पानी या नाश्ता देने जाती तो पिता जी मुझे भी वहीं बैठने को कहते। वे चाहते थे कि मैं भी वहीं बैठूँ, सुनूँ और जानूँ कि देश में चारों ओर क्या कुछ हो रहा है। देश में हो भी तो कितना कुछ रहा था। सन् ’42 के आंदोलन के बाद से तो सारा देश जैसे खौल रहा था, लेकिन विभिन्न राजनैतिक पार्टियों की नीतियाँ, उनके आपसी विरोध या मतभेदों की तो मुझे दूर-दूर तक कोई समझ नहीं थी। हाँ, क्रांतिकारियों और देशभक्त शहीदों के रोमानी आकर्षण, उनकी कुर्बानियों से ज़रूर मन आक्रांत रहता था।
सो दसवीं कक्षा तक आलम यह था कि बिना किसी खास समझ के घर में होने वाली बहसें सुनती थी और बिना चुनाव किए, बिना लेखक की अहमियत से परिचित हुए किताबें पढ़ती थी। लेकिन सन् ’45 में जैसे ही दसवीं पास करके मैं ‘फर्स्ट इयर’ में आई, हिंदी की प्राध्यापिका शीला अग्रवाल से परिचय हुआ। सावित्री गर्ल्स हाई स्कूल...जहाँ मैंने ककहरा सीखा, एक साल पहले ही कॉलिज बना था और वे इसी साल नियुक्त हुई थीं, उन्होंने बाकायदा साहित्य की दुनिया में प्रवेश करवाया। मात्र पढ़ने को, चुनाव करके पढ़ने में बदला...खुद चुन-चुनकर किताबें दीं...पढ़ी हुई किताबों पर बहसें कीं तो दो साल बीतते-न-बीतते साहित्य की दुनिया शरत्-प्रेमचंद से बढ़कर जैनेंद्र, अज्ञेय, यशपाल, भगवतीचरण वर्मा तक फैल गई और फिर तो फैलती ही चली गई। उस समय जैनेंद्र जी की छोटे-छोटे सरल-सहज वाक्यों वाली शैली ने बहुत आकृष्ट किया था। ‘सुनीता’ (उपन्यास) बहुत अच्छा लगा था, अज्ञेय जी का उपन्यास ‘शेखर: एक जीवनी’ पढ़ा ज़रूर पर उस समय वह मेरी समझ के सीमित दायरे में समा नहीं पाया था। कुछ सालों बाद ‘नदी के द्वीप’ पढ़ा तो उसने मन को इस कदर बाँधा कि उसी झोंक में शेखर को फिर से पढ़ गई...इस बार कुछ समझ के साथ। यह शायद मूल्यों के मंथन का युग था...पाप-पुण्य, नैतिक-अनैतिक, सही-गलत की बनी-बनाई धारणाओं के आगे प्रश्नचिन्ह ही नहीं लग रहे थे, उन्हें ध्वस्त भी किया जा रहा था। इसी संदर्भ में जैनेंद्र का ‘त्यागपत्र’, भगवती बाबू का ‘चित्रलेखा’ पढ़ा और शीला अग्रवाल के साथ लंबी-लंबी बहसें करते हुए उस उम्र में जितना समझ सकती थी, समझा।
शीला अग्रवाल ने साहित्य का दायरा ही नहीं बढ़ाया था बल्कि घर की चारदीवारी के बीच बैठकर देश की स्थितियों को जानने-समझने का जो सिलसिला पिता जी ने शुरू किया था, उन्होंने वहाँ से खींचकर उसे भी स्थितियों की सक्रिय भागीदारी में बदल दिया। सन् ’46-47 के दिन...वे स्थितियाँ, उसमें वैसे भी घर में बैठे रहना संभव था भला? प्रभात-फेरियाँ, हड़तालें, जुलूस, भाषण हर शहर का चरित्र था और पूरे दमखम और जोश-खरोश के साथ इन सबसे जुड़ना हर युवा का उन्माद। मैं भी युवा थी और शीला अग्रवाल की जोशीली बातों ने रगों में बहते खून को लावे में बदल दिया था। स्थिति यह हुई कि एक बवंडर शहर में मचा हुआ था और एक घर में। पिता जी की आज़ादी की सीमा यहीं तक थी कि उनकी उपस्थिति में घर में आए लोगों के बीच उठूँ-बैठूँ, जानूँ-समझूँ। हाथ उठा-उठाकर नारे लगाती, हड़तालें करवाती, लड़कों के साथ शहर की सड़कें नापती लड़की को अपनी सारी आधुनिकता के बावजूद बर्दाश्त करना उनके लिए मुश्किल हो रहा था तो किसी की दी हुई आज़ादी के दायरे में चलना मेरे लिए। जब रगों में लहू की जगह लावा बहता हो तो सारे निषेध, सारी वर्जनाएँ और सारा भय कैसे ध्वस्त हो जाता है, यह तभी जाना और अपने क्रोध से सबको थरथरा देने वाले पिता जी से टक्कर लेने का जो सिलसिला तब शुरू हुआ था, राजेंद्र से शादी की, तब तक वह चलता ही रहा।
यश-कामना बल्कि कहूँ कि यश-लिप्सा, पिता जी की सबसे बड़ी दुर्बलता थी और उनके जीवन की धुरी था यह सिद्धांत कि व्यक्ति को कुछ विशिष्ट बन कर जीना चाहिए...कुछ ऐसे काम करने चाहिए कि समाज में उसका नाम हो, सम्मान हो, प्रतिष्ठा हो, वर्चस्व हो। इसके चलते ही मैं दो-एक बार उनके कोप से बच गई थी। एक बार कॉलिज से प्रिंसिपल का पत्र आया कि पिता जी आकर मिलें और बताएँ कि मेरी गतिविधियों के कारण मेरे खिलाफ़ अनुशासनात्मक कार्रवाई क्यों न की जाए? पत्र पढ़ते ही पिता जी आग-बबूला। “यह लड़की मुझे कहीं मुँह दिखाने लायक नहीं रखेगी...पता नहीं क्या-क्या सुनना पड़ेगा वहाँ जाकर! चार बच्चे पहले भी पढ़े, किसी ने ये दिन नहीं दिखाया।“ गुस्से से भन्नाते हुए ही वे गए थे। लौटकर क्या कहर बरपा होगा, इसका अनुमान था, सो मैं पड़ोस की एक मित्र के यहाँ जाकर बैठ गई। माँ को कह दिया कि लौटकर बहुत कुछ गुबार निकल जाए, तब बुलाना। लेकिन जब माँ ने आकर कहा कि वे तो खुश ही हैं, चली चल, तो विश्वास नहीं हुआ। गई तो सही, लेकिन डरते-डरते। “सारे कॉलिज की लड़कियों पर इतना रौब है तेरा...सारा कॉलिज तुम तीन लड़कियों के इशारे पर चल रहा है? प्रिंसपल बहुत परेशान थी और बार-बार आग्रह कर रही थी कि मैं तुझे घर बिठा लूँ, क्योंकि वे लोग किसी तरह डरा-धमकाकर, डाँट-डपटकर लड़कियों को क्लासों में भेजते हैं और अगर तुम लोग एक इशारा कर दो कि क्लास छोड़कर बाहर आ जाओ तो सारी लड़कियाँ निकलकर मैदान में जमा होकर नारे लगाने लगती हैं। तुम लोगों के मारे कॉलिज चलाना मुश्किल हो गया है उन लोगों के लिए।“ कहाँ तो जाते समय पिता जी मुँह दिखाने से घबरा रहे थे और कहाँ बड़े गर्व से कहकर आए कि यह तो पूरे देश की पुकार है...इस पर कोई कैसे रोक लगा सकता है भला? बेहद गद्गद स्वर में पिता जी यह सब सुनाते रहे और मैं अवाक्। मुझे न अपनी आँखों पर विश्वास हो रहा था, न अपने कानों पर। पर यह हकीकत थी।
एक घटना और। आज़ाद हिंद फ़ौज के मुकदमे का सिलसिला था। सभी कॉलिजों, स्कूलों, दुकानों के लिए हड़ताल का आह्वान था। जो-जो नहीं कर रहे थे, छात्रें का एक बहुत बड़ा समूह वहाँ जा-जाकर हड़ताल करवा रहा था। शाम को अजमेर का पूरा विद्यार्थी-वर्ग चौपड़ (मुख्य बाशार का चौराहा) पर इकठ्ठा हुआ और फिर हुई भाषणबाज़ी। इस बीच पिता जी के एक निहायत दकियानूसी मित्र ने घर आकर अच्छी तरह पिता जी की लू उतारी, “अरे उस मन्नू की तो मत मारी गई है पर भंडारी जी आपको क्या हुआ? ठीक है, आपने लड़कियों को आज़ादी दी, पर देखते आप, जाने कैसे-कैसे उलटे-सीधे लड़कों के साथ हड़तालें करवाती, हुड़दंग मचाती फिर रही है वह। हमारे-आपके घरों की लड़कियों को शोभा देता है यह सब? कोई मान-मर्यादा, इज़्ज़त-आबरू का खयाल भी रह गया है आपको या नहीं?” वे तो आग लगाकर चले गए और पिता जी सारे दिन भभकते रहे, “बस, अब यही रह गया है कि लोग घर आकर थू-थू करके चले जाएँ। बंद करो अब इस मन्नू का घर से बाहर निकलना।“
इस सबसे बेखबर मैं रात होने पर घर लौटी तो पिता जी के एक बेहद अंतरंग और अभिन्न मित्र ही नहीं, अजमेर के सबसे प्रतिष्ठित और सम्मानित डॉ. अंबालाल जी बैठे थे। मुझे देखते ही उन्होंने बड़ी गर्मजोशी से स्वागत किया, आओ, आओ मन्नू। मैं तो चौपड़ पर तुम्हारा भाषण सुनते ही सीधा भंडारी जी को बधाई देने चला आया। ‘आई एम रिअली प्राउड ऑफ़ यू’-..क्या तुम घर में घुसे रहते हो भंडारी जी...घर से निकला भी करो। ‘यू हैव मिस्ड समथिंग’, और वे धुआँधार तारीफ़ करने लगे—वे बोलते जा रहे थे और पिता जी के चेहरे का संतोष धीरे-धीरे गर्व में बदलता जा रहा था। भीतर जाने पर माँ ने दोपहर के गुस्से वाली बात बताई तो मैंने राहत की साँस ली।
आज पीछे मुड़कर देखती हूँ तो इतना तो समझ में आता ही है क्या तो उस समय मेरी उम्र थी और क्या मेरा भाषण रहा होगा! यह तो डॉक्टर साहब का स्नेह था जो उनके मुँह से प्रशंसा बनकर बह रहा था या यह भी हो सकता है कि आज से पचास साल पहले अजमेर जैसे शहर में चारों ओर से उमड़ती भीड़ के बीच एक लड़की का बिना किसी संकोच और झिझक के यों धुआँधार बोलते चले जाना ही इसके मूल में रहा हो। पर पिता जी! कितनी तरह के अंतर्विरोधों के बीच जीते थे वे! एक ओर ‘विशिष्ट’ बनने और बनाने की प्रबल लालसा तो दूसरी ओर अपनी सामाजिक छवि के प्रति भी उतनी ही सजगता। पर क्या यह संभव है? क्या पिता जी को इस बात का बिलकुल भी अहसास नहीं था कि इन दोनों का तो रास्ता ही टकराहट का है?
सन् ’47 के मई महीने में शीला अग्रवाल को कॉलिज वालों ने नोटिस थमा दिया—लड़कियों को भड़काने और कॉलिज का अनुशासन बिगाड़ने के आरोप में। इस बात को लेकर हुड़दंग न मचे, इसलिए जुलाई में थर्ड इयर की क्लासेज़ बंद करके हम दो-तीन छात्राओं का प्रवेश निषिद्ध कर दिया।
हुड़दंग तो बाहर रहकर भी इतना मचाया कि कॉलिज वालों को अगस्त में आखिर थर्ड इयर खोलना पड़ा। जीत की खुशी, पर सामने खड़ी बहुत-बहुत बड़ी चिर प्रतीक्षित खुशी के सामने यह खुशी बिला गई।
शताब्दी की सबसे बड़ी उपलब्धि...15 अगस्त 1947
Kitne Kamleshwar ! : (Sansmaran) Mannu Bhandari
कितने कमलेश्वर ! : मन्नू भंडारी (संस्मरण)
कमलेश्वर जी से मेरी पहली मुलाकात 1957 में इलाहाबाद में प्रगतिशील लेखक संघ के एक बड़े आयोजन में हुई थी। मैं तब कलकत्ता में रहती थी और लेखन में बस कदम ही रखा था। राजकमल प्रकाशन से मेरा एक कहानी संग्रह छप चुका था, लेकिन तब भी मैं खुद को साहित्यकारों में शुमार कर पाने की न हिम्मत रखती थी न हैसियत। जब इस आयोजन में शामिल होने के लिए मुझे अमृत राय जी का निमंत्रण मिला तो मैं चकित तो हुई लेकिन चकित से ज्यादा उल्लसित भी। लगा जिन लेखकों को आज तक पढ़ती आई उनसे मिलना होगा, उन्हें देखूंगी-सुनूंगी। जब राजेन्द्र ने बताया कि वे इस आयोजन में भाग लेने जा रहे हैं तो मैं भी उनके साथ लटक ली। वहीं मैंने हजारी प्रसाद द्विवेदी और महादेवी वर्मा के अविस्मरणीय भाषण सुने। वहीं मैं मोहन राकेश, कमलेश्वर जी, नामवर जी, फणीश्वरनाथ रेणु से मिली और उनसे बात की, लेकिन निकटता बनी तो केवल कमलेश्वर जी, राकेश जी और बाद में नामवर जी से।
कमलेश्वर जी उन दिनों इलाहाबाद में ही रहते थे और इस आयोजन में व्यवस्थापक की भूमिका में थे। उन्होंने मुझे अपनी एक मित्र दीपा के यहां ठहराया। वे आयोजन में भूत की तरह काम कर रहे थे। कभी रात को एक बजे तो कभी दो बजे खाना खाने आते। दीपा उनकी प्रतीक्षा में जगती रहती थी और खाना गरम करके खिलाती। अगर कमलेश्वर जी उस आयोजन की व्यवस्था में लगे हुए थे तो दीपा उनकी देखभाल में! मुझे लेकर वह दीपा को आदेश देते रहते कि वह मेरी सुख-सुविधा और जरूरतों का पूरा ध्यान रखे, मुझे किसी तरह की असुविधा न हो। उन तीन दिनों में मैं इतना तो समझ ही गई कि दीपा उनकी मित्र से अधिक बढ़कर ‘कुछ’ है। कलकत्ता लौटकर कमलेश्वर जी और राकेश जी से मेरा पत्र-व्यवहार भी शुरू हो गया। कुछ समय बाद कमलेश्वर जी ने दीपा के साथ मिलकर ‘श्रमजीवी प्रकाशन’ खोला और उसके लिए पुस्तकें मांगीं तो मैंने ‘तीन निगाहों की एक तस्वीर’ नाम से अपने दूसरे कहानी-संग्रह की पाण्डुलिपि भेज दी और राजेंद्र ने ‘कुलटा’ नाम की उपन्यासिका। दोनों पुस्तकें उन्होंने छापीं भी।
गर्मी की छुट्टियों में मैं अजमेर चली गई थी। वहीं कमलेश्वर जी का पत्र मिला कि दीपा आपके पास आ रही है आप उसे राजस्थान के तीन-चार शहरों के प्रमुख पुस्तक-विक्रेताओं से मिलवा दीजिए और श्रमजीवी प्रकाशन की पुस्तकों के अधिक से अधिक ग्राहक बनवाने की कोशिश कीजिए, प्रकाशन के लिए मित्रों का सहयोग बहुत-बहुत जरूरी है! काफी गर्मी थी और मैं चर्म रोग से पीड़ित थी लेकिन दीपा आई तो उसे लेकर मैं जोधपुर और जयपुर तो गई – इससे अधिक मेरे लिए संभव नहीं था। बात दीपा ही करती थी और जमकर करती थी पर बहुत कोशिश के बावजूद दोनों शहरों से पांच-पांच प्रतियों की व्यवस्था ही हो पाई। वह जब बात करती थी तो मैं सिर्फ दीपा को देखती रहती थी उत्साह से भरी श्रमजीवी को सफल बनाने के लिए कृत-संकल्प। मेरे मन में एक ही बात उभरती कि सह-जीवन की पृष्ठभूमि तैयार करने के लिए कितना उत्साह भरा है यह सह-आयोजन। पर कोई साल-सवा साल बाद मुझे कमलेश्वर जी की शादी का कार्ड मिला- शादी हो रही थी गायत्री सक्सेना से। मैं हैरान-परेशान। यह क्या किया कमलेश्वर जी ने, क्यों किया, कैसे किया? क्या बीत रही होगी दीपा पर? उस समय तक कमलेश्वर जी से संबंध केवल पत्रों तक ही सीमित था। इतनी अनौपचारिक नहीं हो पाई थी कि उनसे कुछ पूछती या फटकारती सो बिना कुछ पूछे-कहे जो भी हुआ, उसे स्वीकार कर लिया। बहुत बाद में जब सारी स्थितियां खुलीं तो जो दुख उस समय दीपा के लिए उभरा था, वह गायत्री भाभी के लिए भी उभर आया! पता नहीं गायत्री भाभी को इस प्रसंग के बारे में कुछ मालूम भी था या नहीं!
कमलेश्वर जी से दूसरी मुलाकात दिल्ली में उनके नाई वालान गली के मकान में हुई जहां वे गायत्री भाभी के साथ रहते थे। कलकत्ता से मैं अकेली ही दिल्ली आई थी। उनसे मिलना तो था ही साथ ही अपने द्वारा संपादित ‘नई कहानियां’ के लिए कहानी भी लेनी थी। मैंने कोई पंद्रह दिन पहले ही लिख दिया था कि मैं दिल्ली आ रही हूं कहानी तैयार रखियेगा। जिंदगी में पहली और अंतिम बार संपादन का काम कर रही थी सो पूरी लगन से जुटी थी। उनके बताए पते पर पहुंची। शुरू की कुछ औपचारिक बातों के बाद मैंने अपनी मांग रख दी। बेहद निश्चिंत भाव से हंसते हुए उन्होंने कहा, ‘ठीक है कल ले लेना कहानी।’
‘लिख ली है क्या जो कल दे देंगे?’ उनके हाव-भाव व्यवहार से ही लग रहा था कि उन्होंने कहानी लिखी ही नहीं है!
‘लिखी तो नहीं, पर चलो अभी शुरू कर देते हैं।’
‘मजाक मत करिए कमलेश्वर जी, मैंने आपको कितने दिन पहले लिख दिया था और आप हैं कि…’ इस बार मेरी आवाज में मनुहार की जगह गुस्सा था।
मेरी पीठ थपथपाते हुए उन्होंने मुझे तसल्ली दी, ‘कहा न तुम्हें कल मिल जाएगी तो समझो कि बस कल मिल जाएगी।’
कमलेश्वर जी ने दरी बिछाई, कागज-कलम लिया और पेट के नीचे तकिया रखकर उल्टे लेट गए।
‘देखो मैं कहानी शुरू करता हूं, तब तक तुम गायत्री के पास एक प्याला कॉफी पियो।’ और भाभी को कॉफी बनाने को कहकर वे सचमुच लिखने बैठ गए।
पत्रों में हम चाहे अब तक बहुत अनौपचारिक हो गए थे पर मात्र दूसरी मुलाकात में ही इस तरह का नाटक मैं गले नहीं उतार पा रही थी। मैं मिलने आई हूं और ये कहानी लिखने बैठे हैं। इस तरह तो न बातचीत होगी, न कहानी। मन मारकर उठी और मैं रसोई में चली गई। वहीं मैं भाभी से पहली बार मिली थी। उन्होंने नमस्ते किया और कॉफी बनाने लगीं। एक चुपचुप उदास चेहरा। खयाल आया कि इस उदासी के पीछे कहीं दीपा-प्रसंग तो नहीं छिपा। मैं आई और कमलेश्वर जी ने भाभी को मुझसे मिलने के लिए बाहर भी नहीं बुलाया, न ही वे खुद आईं। सब कुछ बड़ा असहज, असामान्य सा लगा। मन हुआ कि इस बारे में अब कमलेश्वर जी से बात की जाए पर वह न घर में संभव था, न कॉफी हाउस में सो फिर टल गया।
आधे घंटे बाद कमलेश्वर जी ने आवाज दी। बाहर निकली तो देखा कि बहुत खूबसूरत लिखाई से भरा कोई पौन पेज लिखा था। न कहीं कोई काट-छांट, न कोई बदलाव! मैं तो हैरान।
‘देखो, शुरू कर ही दी न, अब कल पूरी करके शाम को जब कॉफी हाउस में मिलेंगे तो तुम्हें सौंप दूंगा, अब गुस्सा थूको और हो जाए गपशप’, उनकी इस अदाकारी पर मैं हंसे बिना नहीं रह सकी।
दूसरे दिन शाम को कॉफी हाउस में राकेश जी और कमलेश्वर जी मिले तो उन्होंने कहानी सौंप दी। कहानी खोलकर मैंने अपने विश्वास को पुख्ता करना चाहा कि कहानी ही है और पूरी है। शुरू का पेज कल वाला ही था। जस का तस। मैं तो हैरान। हंस-हंस कर मैंने राकेश जी को पिछले दिन वाला किस्सा सुनाया तो कमलेश्वर जी का कमेंट आया, ‘देखो मन्नू, मैं कोई मोहन राकेश तो हूं नहीं कि लिखने के लिए टाइपराइटर चाहिए ही…कमरे में ए।सी। भी चाहिए। बड़ी चीज लिखनी है तो पहाड़ पर गए बिना लिख ही नहीं सकते… या वो तुम्हारा राजेंद्र यादव… कॉफी के प्याले पर प्याले गटके जा रहा है… सिगरेट पे सिगरेट फूंके जा रहा है… लोट लगा रहा है, टहल रहा है पर शब्द हैं कि कलम से झरते ही नहीं! अब शब्द हों तो झरें। बस, लिखने के नाम पर ये चोंचलेबाजी किए जाओ।’ और फिर राकेश जी का छत-फोड़ ठहाका और कमलेश्वर जी की पीठ पर एक धप्प। और मैं सोच रही थी कि इतना आसान है कमलेश्वर जी के लिए लिखना? अपनी आंखों से देखा। कोई तामझाम नहीं। लिखा और बिना किसी काट-छांट, बदलाव-दोहराव के लिखते चले गए! मेरे लिए चाहे यह अविश्वसनीय हो, पर हकीकत थी यह उनके लेखन की! ऐसी ही एक और याद है।