ले चला जान मेरी रूठ के जाना तेरा
ऐसे आने से तो बेहतर था न आना तेरा
अपने दिल को भी बताऊँ न ठिकाना तेरा
सब ने जाना जो पता एक ने जाना तेरा
तू जो ऐ ज़ुल्फ़ परेशान रहा करती है
किस के उजड़े हुए दिल में है ठिकाना तेरा
आरज़ू ही न रही सुबहे-वतन[1] की मुझको
शामे-गुरबत[2] है अजब वक़्त सुहाना तेरा
ये समझकर तुझे ऐ मौत लगा रक्खा है
काम आता है बुरे वक़्त में आना तेरा
ऐ दिले शेफ़्ता में आग लगाने वाले
रंग लाया है ये लाखे का जमाना तेरा
तू ख़ुदा तो नहीं ऐ नासहे नादाँ मेरा
क्या ख़ता की जो कहा मैंने न माना तेरा
रंज क्या वस्ले अदू का जो तअल्लुक़ ही नहीं
मुझको वल्लाह हँसाता है रुलाना तेरा
क़ाबा-ओ-दैर[3] में या चश्मो-दिले-आशिक़[4] में
इन्हीं दो-चार घरों में है ठिकाना तेरा
तर्के आदत से मुझे नींद नहीं आने की
कहीं नीचा न हो ऐ गौर[5] सिरहाना तेरा
मैं जो कहता हूँ उठाए हैं बहुत रंजेफ़िराक़
वो ये कहते हैं बड़ा दिल है तवाना तेरा
बज़्मे दुश्मन से तुझे कौन उठा सकता है
इक क़यामत का उठाना है उठाना तेरा
अपनी आँखों में अभी कून्द गई बिजली- सी
हम न समझे के ये आना है या जाना तेरा
यूँ वो क्या आएगा फ़र्ते नज़ाकत से यहाँ
सख्त दुश्वार है धोके में भी आना तेरा
दाग़ को यूँ वो मिटाते हैं, ये फ़रमाते हैं
तू बदल डाल, हुआ नाम पुराना तेरा
शब्दार्थ
1 स्वदेश की सुबह
2 परदेस की शाम
3 मंदिर-मस्जिद
4 आशिक़ केदिल की आँख
5 क़ब्र
श्रेणी: ग़ज़ल
आफत की शोख़ियां है तुम्हारी निगाह में
मेहशर के फितने खेलते हैं जल्वा-गाह में..
वो दुश्मनी से देखते हैं देखते तो हैं
मैं शाद हूँ कि हूँ तो किसी कि निगाह में..
आती है बात बात मुझे याद बार बार
कहता हूं दोड़ दोड़ के कासिद से राह में..
इस तौबा पर है नाज़ मुझे ज़ाहिद इस कदर
जो टूट कर शरीक हूँ हाल-ए-तबाह में
मुश्ताक इस अदा के बहुत दर्दमंद थे
ऐ दाग़ तुम तो बैठ गये एक आह में....
श्रेणी: ग़ज़ल
न बदले आदमी जन्नत से भी बैतुल-हज़न[1] अपना
कि अपना घर है अपना और है अपना वतन अपना
जो यूँ हो वस्ल तो मिट जाए सब रंजो-महन[2] अपना
ज़बाँ अपनी दहन[3]उनका ज़बाँ उनकी दहन अपना
न सीधी चाल चलते हैं न सीधी बात करते हैं
दिखाते हैं वो कमज़ोरों को तन कर बाँकपन अपना
अजब तासीर पैदा की है वस्फ़े-नोके-मिज़गाँ[4] ने
कि जो सुनता है उसके दिल में चुभता है सुख़न अपना
पयामे-वस्ल[5],क़ासिद[6] की ज़बानी और फिर उनसे
ये नादानी वो नाफ़हमी[7] ये था दीवानापन अपना
बचा रखना जुनूँ के हाथ से ऐ बेकसो, उसको
जो है अब पैरहन[8] अपना वही होगा क़फ़न अपना
निगाहे-ग़म्ज़ा[9] कोई छोड़ते हैं गुलशने दिल को
कहीं इन लूटने वालों से बचता है चमन अपना
यह मौका मिल गया अच्छा उसे तेशा[10] लगाने का
मुहब्बत में कहीं सर फोड़ता फिर कोहकन अपना
जो तख़्ते-लाला-ओ-गुल के खिले वो देख लेते हैं
तो फ़रमाते हैं वो कि ‘दाग़’ का ये है ये चमन अपना
शब्दार्थ
1 रहने की जगह
2 पीड़ा
3 मुँह
4 विशिष्ट पलकों
5 प्रणय-सन्देश
6 सन्देशवाहक
7 नासमझी
8 वस्त्र
9 दृष्टिपात
10 कुल्हाड़ी
श्रेणी: ग़ज़ल
तुम्हारे ख़त में नया इक सलाम किस का था
न था रक़ीब[1]तो आख़िर वो नाम किस का था
वो क़त्ल कर के हर किसी से पूछते हैं
ये काम किस ने किया है ये काम किस का था
वफ़ा करेंगे ,निबाहेंगे, बात मानेंगे
तुम्हें भी याद है कुछ ये कलाम किस का था
रहा न दिल में वो बेदर्द और दर्द रहा
मुक़ीम[2] कौन हुआ है मुक़ाम किस का था
न पूछ-ताछ थी किसी की वहाँ न आवभगत
तुम्हारी बज़्म में कल एहतमाम[3] किस का था
हमारे ख़त के तो पुर्जे किए पढ़ा भी नहीं
सुना जो तुम ने बा-दिल वो पयाम किस का था
इन्हीं सिफ़ात[4] से होता है आदमी मशहूर
जो लुत्फ़ आप ही करते तो नाम किस का था
तमाम बज़्म जिसे सुन के रह गई मुश्ताक़[5]
कहो, वो तज़्किरा-ए-नातमाम [6]किसका था
गुज़र गया वो ज़माना कहें तो किस से कहें
ख़याल मेरे दिल को सुबह-ओ-शाम किस का था
अगर्चे देखने वाले तेरे हज़ारों थे
तबाह हाल बहुत ज़ेरे-बाम[7] किसका था
हर इक से कहते हैं क्या 'दाग़' बेवफ़ा निकला
ये पूछे इन से कोई वो ग़ुलाम किस का था
शब्दार्थ
1 दुश्मन
2 निवासी
3 प्रबन्ध
4 गुणों
5 उत्सुक
6 अधूरा ज़िक्र
7 साये के नीचे
श्रेणी: ग़ज़ल
रंज की जब गुफ्तगू होने लगी
आप से तुम तुम से तू होने लगी
चाहिए पैग़ामबर दोने तरफ़
लुत्फ़ क्या जब दू-ब-दू होने लगी
मेरी रुस्वाई की नौबत आ गई
उनकी शोहरत की क़ू-ब-कू़ होने लगी
नाजि़र बढ़ गई है इस क़दर
आरजू की आरजू होने लगी
अब तो मिल कर देखिए क्या रंग हो
फिर हमारी जुस्तजू होने लगी
'दाग़' इतराए हुए फिरते हैं आप
शायद उनकी आबरू होने लगी
दिल को क्या हो गया ख़ुदा जाने
क्यों है ऐसा उदास क्या जाने
कह दिया मैं ने हाल-ए-दिल अपना
इस को तुम जानो या ख़ुदा जाने
जानते जानते ही जानेगा
मुझ में क्या है वो अभी क्या जाने
तुम न पाओगे सादा दिल मुझसा
जो तग़ाफ़ुल को भी हया जाने
श्रेणी: ग़ज़ल
अजब अपना हाल होता जो विसाल-ए-यार होता
कभी जान सदक़े होती कभी दिल निसार होता
न मज़ा है दुश्मनी में न है लुत्फ़ दोस्ती में
कोई ग़ैर ग़ैर होता कोई यार यार होता
ये मज़ा था दिल्लगी का कि बराबर आग लगती
न तुम्हें क़रार होता न हमें क़रार होता
तेरे वादे पर सितमगर अभी और सब्र करते
अगर अपनी जिन्दगी का हमें ऐतबार होता
श्रेणी: ग़ज़ल
डरते हैं चश्म-ओ-ज़ुल्फ़, निगाह-ओ-अदा से हम
हर दम पनाह माँगते हैं हर बला से हम
माशूक़ जाए हूर मिले, मय बजाए आब
महशर में दो सवाल करेंगे ख़ुदा से हम
गो हाल-ए-दिल छुपाते हैं पर इस को क्या करें
आते हैं ख़ुद ख़ुद नज़र इक मुबतला से हम
देखें तो पहले कौन मिटे उसकी राह में
बैठे हैं शर्त बाँध के हर नक्श-ए-पा से हम
श्रेणी: ग़ज़ल
लुत्फ़ इश्क़ में पाए हैं कि जी जानता है
रंज भी इतने उठाए हैं कि जी जानता है
जो ज़माने के सितम हैं वो ज़माना जाने
तूने दिल इतने दुखाए हैं कि जी जानता है
तुम नहीं जानते अब तक ये तुम्हारे अंदाज़
वो मेरे दिल में समाए हैं कि जी जानता है
इन्हीं क़दमों ने तुम्हारे इन्हीं क़दमों की क़सम
ख़ाक में इतने मिलाए हैं कि जी जानता है
दोस्ती में तेरी दरपर्दा हमारे दुश्मन
इस क़दर अपने पराए हैं कि जी जानता है
ख़ातिर से या लिहाज़ से मैं मान तो गया
झूठी क़सम से आप का ईमान तो गया
दिल ले के मुफ़्त कहते हैं कुछ काम का नहीं
उल्टी शिकायतें रही एहसान तो गया
अफ़्शा-ए-राज़-ए-इश्क़ में गो जिल्लतें हुईं
लेकिन उसे जता तो दिया, जान तो गया
देखा है बुतकदे में जो ऐ शेख कुछ न पूछ
ईमान की तो ये है कि ईमान तो गया
डरता हूँ देख कर दिल-ए-बेआरज़ू को मैं
सुनसान घर ये क्यूँ न हो मेहमान तो गया
क्या आई राहत आई जो कुंज-ए-मज़ार में
वो वलवला वो शौक़ वो अरमान तो गया
गो नामाबर से कुछ न हुआ पर हज़ार शुक्र
मुझको वो मेरे नाम से पहचान तो गया
बज़्म-ए-उदू में सूरत-ए-परवाना मेरा दिल
गो रश्क़ से जला तेरे क़ुर्बान तो गया
होश-ओ-हवास-ओ-ताब-ओ-तवाँ 'दाग़' जा चुके
अब हम भी जाने वाले हैं सामान तो गया
श्रेणी: ग़ज़ल
पर्दे पर्दे में अताब[1] अच्छे नहीं
ऐसे अन्दाज़-ए-हिजाब[2] अच्छे नहीं
मयकदे में हो गए चुपचाप क्यों
आज कुछ मस्त-ए-शराब अच्छे नहीं
ऐ फ़लक! क्या है ज़माने की बिसात
दम-ब-दम के इन्क़लाब अच्छे नहीं
तू भी उसकी ज़ुल्फे-पेचाँ [3] हो गया
ऐ दिल, ऐसे पेचो-ताब [4] अच्छे नहीं
बज्म-ए-वाइज़[5] से कोई कहता गया
ऐसे जलसे बे-शराब अच्छे नहीं
तौबा कर लें हम मय-ओ-माशूक़ से
बे-मज़ा हैं ये सवाब[6] अच्छे नहीं
इक नजूमी[7] 'दाग़' से कहता था आज
आप के दिन ऐ जनाब अच्छे नहीं
शब्दार्थ
1 अत्याचार्
2 शरमाने के ढंग
3 उलझे हुए बाल
4 चक्कर
5 उपदेशकों की सभा
6 पुण्य-कार्य
7 ज्योतिषी
कहाँ थे रात को हमसे ज़रा निगाह मिले
तलाश में हो कि झूठा कोई गवाह मिले
तेरा गुरूर समाया है इस क़दर दिल में
निगाह भी न मिलाऊं तो बादशाह मिले
मसल-सल ये है कि मिलने से कौन मिलता है
मिलो तो आँख मिले, मिले तो निगाह मिले
श्रेणी: ग़ज़ल
मुहब्बत में करे क्या कुछ किसी से हो नहीं सकता
मेरा मरना भी तो मेरी ख़ुशी से हो नही सकता
न रोना है तरीक़े का न हंसना है सलीके़ का
परेशानी में कोई काम जी से हो नहीं सकता
ख़ुदा जब दोस्त है ऐ 'दाग़' क्या दुश्मन से अन्देशा
हमारा कुछ किसी की दुश्मनी से हो नहीं सकता
सितम ही करना जफ़ा ही करना निगाह-ए-लुत्फ़ कभी न करना
तुम्हें क़सम है हमारे सर की हमारे हक़ में कमी न करना
कहाँ का आना कहाँ का जाना वो जानते ही नहीं ये रस्में
वहां है वादे की भी ये सूरत कभी तो करना कभी न करना
हमारी मय्यत पे तुम जो आना तो चार आँसू बहा के जाना
ज़रा रहे पास-ए-आबरू भी कहीं हमारी हँसी न करना
वो इक हमारा तरीक़-ए-उल्फ़त कि दुश्मनों से भी मिल के चलना
ये एक शेवा तेरा सितमगर कि दोस्त से दोस्ती न करना
श्रेणी: ग़ज़ल
फिर शब-ए-ग़म ने मुझे शक्ल दिखाई क्योंकर
ये बला घर से निकाली हुई आई क्योंकर
तू ने की ग़ैर से मेरी बुराई क्योंकर
गर् न थी दिल में तो लब पर तेरे आई क्योंकर
तुम दिलाज़ार-ओ-सितमगर नहीं मैं ने माना
मान जायेगी इसे सारी ख़ुदाई क्योंकर
आईना देख के वो कहने लगे आप ही आप
ऐसे अच्छों की करे कोई बुराई क्योंकर
कसरत-ए-रंज-ओ-अलम सुन के ये इल्ज़ाम मिला
इतने से दिल में है इतनों की समाई क्योंकर
दाग़ कल तक तो दुआ आप की मक़बूल न थी
आज मूँह माँगी मुराद आप ने पाई क्योंकर
हसरतें ले गए इस बज़्म से चलने वाले
हाथ मलते ही उठे इत्र के मलने वाले
वो गए गोर-ए-गरीबाँ*पे तो आई ये सदा--- आशिक़ की क़ब्र
थम ज़रा ओ रविश-ए-नाज़ से चलने वाले
देखिए क्या हवा लाए मेरे नामे का जवाब
पास उनके हैं बहुत ज़हर उगलने वाले
इन जफ़ाओं पे वफ़ा करिए न करिए लेकिन
दिल बदलता नहीं ओ आँख बदलने वाले
शर्म आलूदा*निगाहें तो करेंगी बिस्मिल------शर्म से भरी
अब कोई आन में ये तीर हैं चलने वाले
दिल ने हसरत से कहा तीर जो उसका निकला
देख इस तरहा निकलते हैं निकलने वाले
दिल-ए-बेताब वो आते हैं ख़बर आई है
सब्र कर सब्र ज़रा मेरे मचलने वाले
इमतेहान तेग़-ए-जफ़ा*का जो उन्हें हो मंज़ूर-----अत्याचार की
बच- चा कर अभी टल जाते हैं टलने वाले
गरमि-ए-सोहबत-ए-अग़यार*के शिकवे पे कहा---- दुश्मन के अधिक पास रहने पर
आप ऎ दाग़ हमेशा के हैं जलने वाले
श्रेणी: ग़ज़ल
अच्छी सूरत पे ग़ज़ब टूट के आना दिल का
याद आता है हमें हाय! ज़माना दिल का
तुम भी मुँह चूम लो बेसाख़ता प्यार आ जाए
मैं सुनाऊँ जो कभी दिल से फ़साना दिल का
पूरी मेंहदी भी लगानी नहीं आती अब तक
क्योंकर आया तुझे ग़ैरों से लगाना दिल का
इन हसीनों का लड़कपन ही रहे या अल्लाह
होश आता है तो आता है सताना दिल का
मेरी आग़ोश से क्या ही वो तड़प कर निकले
उनका जाना था इलाही के ये जाना दिल का
दे ख़ुदा और जगह सीना-ओ-पहलू के सिवा
के बुरे वक़्त में होजाए ठिकाना दिल का
उंगलियाँ तार-ए-गरीबाँ में उलझ जाती हैं
सख़्त दुश्वार है हाथों से दबाना दिल का
बेदिली का जो कहा हाल तो फ़रमाते हैं
कर लिया तूने कहीं और ठिकाना दिल का
छोड़ कर उसको तेरी बज़्म से क्योंकर जाऊँ
एक जनाज़े का उठाना है उठाना दिल का
निगहा-ए-यार ने की ख़ाना ख़राबी ऎसी
न ठिकाना है जिगर का न ठिकाना दिल का
बाद मुद्दत के ये ऎ दाग़ समझ में आया
वही दाना है कहा जिसने न माना दिल का
श्रेणी: ग़ज़ल
तेरी महफ़िल में यह कसरत कभी थी
हमारे रंग की सोहबत कभी थी
इस आज़ादी में वहशत कभी थी
मुझे अपने से भी नफ़रत कभी थी
हमारा दिल, हमारा दिल कभी था
तेरी सूरत, तेरी सूरत कभी थी
हुआ इन्सान की आँखों से साबित
अयाँ कब नूर में जुल्मत कभी थी
दिल-ए-वीराँ में बाक़ी हैं ये आसार
यहाँ ग़म था, यहाँ हसरत कभी थी
तुम इतराए कि बस मरने लगा ‘दाग़’
बनावट थी जो वह हालत कभी थी.
श्रेणी: ग़ज़ल
क्यों चुराते हो देखकर आँखें
कर चुकीं मेरे दिल में घर आँखें
ज़ौफ़ से कुछ नज़र नहीं आता
कर रही हैं डगर-डगर आँखें
चश्मे-नरगिस को देख लें फिर हम
तुम दिखा दो जो इक नज़र आँखें
कोई आसान है तेरा दीदार
पहले बनवाए तो बशर आँखें
न गई ताक-झाँक की आदत
लिए फिरती हैं दर-ब-दर आँखें
ख़ाक पर क्यों हो नक्शे-पा तेरा
हम बिछाएँ ज़मीन पर आँखें
नोहागर कौन है मुक़द्दर पर
रोने वालों में हैं मगर आँखें
दाग़ आँखें निकालते हैं वो
उनको दे दो निकाल कर आँखें
श्रेणी: ग़ज़ल
1.
बड़ा मज़ा हो जो महशर में हम करें शिकवा
वो मिन्नतों से कहें चुप रहो ख़ुदा के लिए।
2.
होशो-हवास ताब-ओ-तबां 'दाग़' जा चुके
अब हम भी जाने वाले हैं सामान तो गया।
3.
उर्दू है जिसका नाम हमीं जानते हैं 'दाग़'
सारे जहां में धूम हमारी ज़बां की है।
4.
ख़बर सुनकर मिरे मरने की वो बोले रक़ीबों से
ख़ुदा बख़्शे बहुत सी खूबियां थीं मरने वाले में।
5.
हज़ारों काम महब्बत में हैं मज़े के 'दाग़'
जो लोग कुछ नहीं करते कमाल करते हैं।
श्रेणी: शेर
ज़बाँ हिलाओ तो हो जाए,फ़ैसला दिल का
अब आ चुका है लबों पर मुआमला दिल का
किसी से क्या हो तपिश में मुक़ाबला दिल का
जिगर को आँख दिखाता है आबला दिल का
कुसूर तेरी निगाह का है क्या खता उसकी
लगावटों ने बढ़ाया है हौसला दिल का
शबाब आते ही ऐ काश मौत भी आती
उभरता है इसी सिन में वलवला दिल का
निगाहे-मस्त को तुम होशियार कर देना
ये कोई खेल नहीं है मुक़ाबिला दिल का
हमारी आँख में भी अश्क़े-गर्म ऐसे हैं
कि जिनके आगे भरे पानी आबला दिल का
अगरचे जान पे बन-बन गई मुहब्बत में
किसी के मुँह पे न रक्खा मुआमला दिल का
करूँ तो दावरे-महशर के सामने फ़रियाद
तुझी को सौंप न दे वो मुआमला दिल का
कुछ और भी तुझे ऐ `दाग़' बात आती है
वही बुतों की शिकायत वही गिला दिल का
श्रेणी: ग़ज़ल
दर्द बन के दिल में आना , कोई तुम से सीख जाए
जान-ए-आशिक़ हो के जाना , कोई तुम से सीख जाए
हमसुख़न पर रूठ जाना , कोई तुम से सीख जाए
रूठ कर फिर मुस्कुराना, कोई तुम से सीख जाए
वस्ल की शब[1] चश्म-ए-ख़्वाब-आलूदा[2] के मलते उठे
सोते फ़ित्ने[3] को जगाना,कोई तुम से सीख जाए
कोई सीखे ख़ाकसारी की रविश[4] तो हम सिखाएँ
ख़ाक में दिल को मिलाना,कोई तुम से सीख जाए
आते-जाते यूँ तो देखे हैं हज़ारों ख़ुश-ख़राम[5]
दिल में आकर दिल से जाना,कोई तुम से सीख जाए
इक निगाह-ए-लुत्फ़ पर लाखों दुआएँ मिल गयीं
उम्र को अपनी बढ़ाना,कोई तुम से सीख जाए
जान से मारा उसे, तन्हा जहाँ पाया जिसे
बेकसी में काम आना ,कोई तुम से सीख जाए
क्या सिखाएगा ज़माने को फ़लत तर्ज़-ए-ज़फ़ा
अब तुम्हारा है ज़माना,कोई तुम से सीख जाए
महव-ए-बेख़ुद[6] हो, नहीं कुछ दुनियादारी की ख़बर
दाग़ ऐसा दिल लगाना,कोई तुम से सीख जाए
शब्दार्थ
1मिलन की रात
2 नींद से बोझिल आँखें
3 उपद्रव
4 तरीका
5 मस्त चाल
6 ध्यान मग्न
श्रेणी: ग़ज़ल
ये जो है हुक़्म मेरे पास न आए कोई
इसलिए रूठ रहे हैं कि मनाए कोई
ये न पूछो कि ग़मे-हिज्र में कैसी गुज़री
दिल दिखाने का हो तो दिखाए कोई
हो चुका ऐश का जलसा तो मुझे ख़त पहुँचा
आपकी तरह से मेहमान बुलाए कोई
तर्के-बेदाद की तुम दाद न पाओ मुझसे
करके एहसान ,न एहसान जताए कोई
क्यों वो मय-दाख़िले-दावत ही नहीं ऐ वाइज़
मेहरबानी से बुलाकर जो पिलाए कोई
सर्द -मेहरी से ज़माने के हुआ है दिल सर्द
रखकर इस चीज़ को क्या आग लगाए कोई
आपने दाग़ को मुँह भी न लगाया, अफ़सोस
उसको रखता था कलेजे से लगाए कोई
श्रेणी: ग़ज़ल