आखों में दर्द क़ा साथ लिए पूछती वह ?
बदसलूकी का शिकार हमेशा मैं ही क्यों ?
नसीब मेरा फूटा है क्यों ?
माना जन्मदाता कर्ज़ को उठाने,
धकेला बाल विवाह की तरफ अपनों ने,
क्या करूँ माँ – बापू इन सुंदर गहनों को?
क्या देगे यह अद्भुत कपड़े मुझको?
जब मन अटका मेरा हम जोली,
बीच खेलने – कूदने एवं पढ़ने को ।
हे ! समाज के ठेकेदारों, बताओ तुम ही,
किसको बताऊँ दास्ताँ बदनसीबी की,
मायके वा ससुराल वालों को,
कितना ठीक है, समाज में,
वर से आधी उम्र की बहू लाना ?
इस पर वह समझे अपने को गर्वित क्यों ?
रखकर देखे ,वह अपनी बेटी को,
मेरी जगह बेमेल विवाह में,
तब कांपती उनकी atmaआत्मा क्यों ?
यह शराफत मेरी जो बन बहू,
पर्दापण किया इस घर में ।
दूर कोसो मील,
पल – पल ख़ुशी से मैं,
सुबह सब उठते अपने – अपने काम करने को,
मैं उठती सबकी तीमारदारी करने को,
मैं तरसूँ सम्मान पूर्वक घर बसाने को ।
मुझ पर जब जोर जबरदस्ती से सभी राज़ करते ,
मेरा अन्तःकरण, बुरी तरह जल जाता ,
तब जानवर से बतर मै समझूं अपने को,
क्योंकि बचपन मेरा तिल – तिल घट जाता ।
यह संवेदनहीन, पहचान मेरी,
यह बोझिल मन वजूद मेरा,
जब कभी भूले भटके आते, पैसेbhent मायके से मेरी,
पति देव छीन ले, वह लघु धन मेरा,
बालिका वधू तो है, शोषण करने को,
पर सब भावुक उपदेश देते दूसरों को,
बहू – बेटियाँ में, अन्तर ना समझने को ——-
डाo सुकर्मा थरेजा
क्राइस्ट चर्च कालेज
कानपुर