आतंकवाद- धर्म
माना दन – दन बंदूके चलाना —–
माना धम – धम गोले बरसाना —–
आतंकवाद ! दहशत गर्दी का तन्त्र तेरा —-
क्यों दुश्मन पर तू —–
आतंकवाद फैला रहा तू —–
ढेर मानव देह के लगाये तूने ——
सोच ! वह भी इंसान है जैसे तेरे —–
जिन्दगी जिनकी दाव पर लगाई तूने —–
रहम कहाँ उनके मासूमों पर तुझे ?
जैसे जु ड़ा पक्के धागों से अपनों के संग तू,
वैसे दुश्मन भी जु ड़ा अपनों के संग
अरमान भी है, उनके जैसे तेरे —–
माना आतंकवाद फैलाना, समझे धर्म अपना तू —
‘दुश्मन’ की पवित्र राखी खत्म कर खुश होता तू —
किस हक से उजाड़े सुहाग -सिन्दूर बहनों के तू ?
काश ! जानता कीमत इन रिश्तों की तू ।
माना सब दुश्मन – परिजन बेबस ,
देखे ओर तेरी ——
पर बद् दुआ देते थकते नहीं तुझे —–
दुश्मन – परिजनों के आहत मन !
सकते में है, यह भोली पृथ्वी माँ,
नहीं जानता है, आतंकवादी तू,
जिस दरिंदगी पर गर्व करे तू,
उपर वाला करतूत देखकर तेरी,
इस अव्यवस्थित कनायात में,
मन ही मन सोच कितना परेशान है ।।2
डाo सुकर्मा थरेजा
क्राइस्ट चर्च कालेज
कानपुर