वानस्पतिक नाम – Ocimum sanctum Linn.–ऑसिमम सैंक्टम
सामान्य नाम – सुरसा, अपेतराक्षसी, देवदुन्दुभि, तुलसा, तुलसी
कुल – तुलसी-कुल (Labiatae -लैबिएटी)
स्वरूप – यह गुल्मवत् क्षुप 1-3 फुट ऊँचा, शाखाप्रशाखायुक्त, रोमश प्राय: बैंगनी आभा लिये होता है। पत्र- 1-2 इन्च अण्डाकार दोनो पृष्ठों पर रोमश, सुगन्धित होते हैं।
गुण-धर्म:-
गुण – लघु, रूक्ष
रस – कटु, तिक्त
वीर्य – उष्ण
विपाक – कटु, बीज, स्निग्ध, पिच्छिल और शीत हैं।
प्रभाव – कफवात शामक,पित्तवर्धक
प्रयोज्य अंग - पत्र, मूल, बीज
मात्रा - स्वरस – 10-20 मि.लि.
मूलक्वाथ - 50-100 मि.लि.
बीजचूर्ण - 3-6 ग्राम।
प्रयोग –
1. दोषप्रयोग - यह कफवातविकारों में प्रयुक्त होता है।
2. संस्थानिक प्रयोग-बाह्य-जीर्ण व्रण, शोथ, पीड़ा में इसका लेप करते हैं। अवसाद की अवस्था में इसको त्वचा पर मलते हैं। बाह्य कृमियों में भी इसका प्रयोग करते हैं।
3. आभ्यन्तर-पाचनसंस्थान - अग्निमांद्य, छर्दि, उदरशूल तथा कृमि में प्रयुक्त होता है। बीज पिच्छिल होने से प्रवाहिका में देते हैं।
4. रक्तवहसंस्थान - हृद्दौबल्य, रक्तविकार, शोथ में दिया जाता है।
5. श्वसनसंस्थान - प्रतिश्याय, कास, श्वास तथा पार्श्वशूल में उपयोगी है।
6. मूत्रवहसंस्थान - तुलसी के बीज पूयमेह, मूत्रकृच्छ्, मूत्रदाह, बस्तिशोथ तथा अश्मरी में देते हैं।
7. त्वचा - कुष्ठ में लाभकर है।
8. तापक्रम - विषमज्वर तथा जीर्णज्वर में इसका मूल एवं पत्र प्रयुक्त होता है। विषमज्वर का यह प्रतिषेधक भी है। इसका क्षुप लगाने से मच्छरों तथा मलेरिया के जीवाणुओं से रक्षा हो जाती है।
9. सात्मीकरण - बीजों का प्रयोग दौर्बल्य में करते हैं।