वानस्पतिक नाम – Commiphora Mukul – कौमिफोरा मुकुल
सामान्य नाम – गुग्गुलु, देवधुप, गुग्गुल
कुल – गुग्गुलु - कुल (Burseraceae - बर्सरेसी)
स्वरूप – इसका छोटा वृक्ष या गुल्म 4-6 फीट उँचा होता है, इसकी शाखायें काँटेदार होती है। फल-माँसल, लंब-गोल और रक्तवर्ण होते हैं। इसका निर्यास-गाढ़ा, सुगन्धि तथा अनेक वर्ण का होता है। यह अग्नि में जलता है, धूप में पिघल जाता है तथा गरम जल में डालने पर दूध के समान हो जाता है।
गुण- धर्म -
गुण - लघु, रूक्ष , तीक्ष्ण, विशद, सूक्ष्म, सर, सुगन्धि
रस - तिक्त, कटु
वीर्य- उष्ण
विपाक - कटु
प्रभाव - त्रिदोषहर
प्रयोज्य अंग - निर्यास
मात्रा – 2- 4 ग्राम
विशिष्ट योग - योगराजगुग्गुल, कैशोरगुग्गुल, चन्द्रप्रभा वटी।
प्रयोग –
दोषप्रयोग - इसका प्रयोग कफवातिक विकारों में होता है।
बाह्य संस्थानिक प्रयोग - सन्धिवात, आमवात, गण्डमाला, अपची, चर्मरोग, प्लेग, अर्श आदि पर इसका लेप करते हैं। दुर्गन्ध और कृमि को नष्ट करने के लिए निवास स्थान एवं व्रणों का धूपन इससे करते हैं।
आभ्यन्तर-नाड़ीसंस्थान - गुग्गुलु, नाड़ीशूल, सन्धिवात, आमवात, गृधसी, अर्दित, पक्षाघात आदि समस्त वातव्याधि के लिए सर्वप्रसिद्ध महौषध है। वातरक्त में भी इसका प्रयोग करते हैं।
पाचन संस्थान - अग्निमांद्य, विबन्ध, यकृद्रोग, अर्श, कृमि में इसका प्रयोग लाभकर है।
रक्तवह संस्थान - हृद्रोग विशेषत: हृदयावरोध तथा पाण्डु आदि में इसका उपयोग करते हैं। उपदंश जनित रक्तविकार में भी इससे पर्याप्त लाभ होता है।
श्वसन संस्थान - कफघ्न होने से जीर्ण कास, श्वासकास एवं क्षय की अवस्थाओं में इसका प्रयोग करते हैं।
मूत्रवह संस्थान - अश्मरी, मूत्रकृच्छ्, पूयमेह आदि मूत्रगत विकारों में इसका प्रयोग होता है। इससे अशमरी टूट कर निकल जाती है और मूत्र भी स्वच्छ होता है।
प्रजनन संस्थान - शुक्रदौर्बल्य, क्लैब्य, कष्टार्त्तव तथा अन्य योनिव्यापत् में इसका प्रयोग करते हैं।
सात्मीकरण - पुराने गुग्गुल का प्रयोग प्रमेह और मेदारोग में करते हैं। गुग्गुल का प्रयोग रसायन के रूप में भी करते हैं।
त्वचा - कुष्ठ और वर्णविकार में यह उपयोगी है।
तापक्रम- शीतजन्य विकार एवं शीतज्वर आदि में शीतजन्य उपद्रवों की शान्ति के लिए इसका प्रयोग करते हैं।