वानस्पतिक नाम – Cinnamomum zeylanicum Breyn - सिनेमोमम् जिलेनिकम
सामान्य नाम – त्वक्, उत्कट, दालचीनी
कुल – कर्पूर-कुल (Lauraceae – लॉरेसी)
स्वरूप – यह सदाहरित प्राय: 20-25 फीट ऊँचा होता है। इसकी छाल नये वृक्षों से लेने पर चिकनी पाण्डुवर्ण तथा पुराने वृक्षों की रूखड़ी और भूरे रंग की, प्राय: 5 मि.मी. मोटी और भंगुर एवं सुगन्धित होती है।
गुण- कर्म:-
गुण - लघु, रूक्ष, तीक्ष्ण
रस - कटु, तिक्त, मधुर
वीर्य - उष्ण
विपाक - कटु
प्रभाव - कफवातशामक
प्रयोज्य अंग - त्वक्, तैल, पत्र।
विशिष्ट योग - सितोपलादि चूर्ण।
मात्रा – त्वक् चूर्ण - 1-3 ग्राम
पत्र चूर्ण - 1-3 ग्राम
तैल - 2-5 बूँद
प्रयोग -
संस्थानिक प्रयोग-बाह्य – मुखशोधन, मुखदुर्गन्धनाशन एवं दाँतों को मजबूत बनाने के लिए दालचीनी मुख में रखते हैं। इससे वमन और उत्क्लेश भी बन्द होता है। न्यच्छ, व्यंग आदि चर्मरोगों में इसका पतला लेप करते हैं।
नाड़ीशूल एवं शिर:शूल में इसका लेप लाभकर होता है। शोथवेदनायुक्त स्थानों पर भी इसका लेप करते हैं।
रक्तवह संस्थान – यह हृद्दौर्बल्य में उपयोगी है। अनेक रक्तविकारों तथा जीवाणुजन्य रोगों में यह प्रयुक्त होता है।
आभ्यन्तर नाड़ीसंस्थान – नाड़ीदौर्बल्य, पक्षाघात आदि में प्रयुक्त होता है।
पाचन संस्थान – अरूचि, अग्निमांद्य, आमदोष, उदरशूल, ग्रहणी तथा अर्श में लाभकर है। जन्तुघ्न भी होने से आन्त्रिक ज्वर में प्रयुक्त होता है।
श्वसन संस्थान – यह श्लेष्महर होने से कास, श्वास में प्रयुक्त होता है। राजयक्ष्मा में इसका तैल खिलाते हैं या सूचीवेध से देते हैं।
मूत्रवह संस्थान – यह मूत्रकृच्छ्, पूयमेह में प्रयुक्त होता है।
प्रजनन संस्थान – यह रजोरोध, गर्भाशयशैथिल्य एवं क्लैव्य रोग में उपयोगी है।