वानस्पतिक नाम – Berberis aristata DG (बर्बेरिस एरिस्टेटा)
सामान्य नाम – दारूहरिद्रा, दार्वी, कटंकटेरी
कुल – दारूरिद्रा-कुल / Berberidaceae – बर्बेरिडेसी
स्वरूप – इसका कंटकित गुल्म 6-18 फीट ऊँचा होता है। फल-अण्डाकार, नीले बैंगनी रंग के चमकीले होते हैं।
गुण-धर्म:-
गुण - लघु, रूक्ष
रस - तिक्त, कषाय
वीर्य - उष्ण
विपाक - कटु
प्रभाव - कफपैत्तिक विकारों में।
प्रयोज्य अंग – मूल, काण्ड, फल
विशिष्ट योग – दार्व्यादि क्वाथ, दार्व्यादि लेह, दार्व्यादि तैल।
मात्रा – क्वाथ - 5-10 मि.लि.
रसायन -1-3 ग्राम
फल -5-10 ग्राम
प्रयोग-
1. संस्थानिक प्रयोग बाह्य - यह शोथवेदनायुक्त स्थानों पर लेप के रूप में प्रयुक्त होता है। नेत्राभिष्यन्द में इसका द्रव (250मि.ग्रा. रसौत 25 मि.लि. गुलाब जल में मिला कर) नेत्र में डालते हैं। नेत्र शोथ में पलकों पर रसौत का लेप करते हैं।
2. कर्णशूल तथा कर्णस्त्राव में यह द्रव कानों में डालते हैं। मुख तथा गले के रोगों में रसांजन द्रव से गण्डुष करते हैं।
3. रक्तविकारजन्य शोथ, फिरंग-उपदंश, गण्डमाला, भगन्दर, विसर्प आदि में भी इसका लेप करते हैं।
4. प्रदर में योनि में इसकी उत्तरबस्ति देते हैं।
5. आभ्यन्तर-पाचनसंस्थान -अग्निमान्द्य, प्रवाहिका, कामला तथा यकृद्विकारों में यह अतीव उपयोगी है। फल का प्रयोग अरूचि एवं तृष्णा में करते हैं। रसांजन को मूलकस्वरस से भावित कर चने के बराबर गोलियाँ बना रक्तार्श में प्रयोग करते हैं।
6. रक्तवहसंस्थान - फिरंग आदि रक्तविकारों में दारूहरिद्रा का क्वाथ देते हैं। रक्तपित्त, रक्तार्श, रक्तप्रदर में रसौत अकेले या अन्य स्तम्भन द्रव्यों के साथ देते हैं। इससे रक्त रूक जाता है।
7. श्वसनसंस्थान - कास में इसका प्रयोग होता है।
8. प्रजननसंस्थान - श्वेतप्रदर तथा रक्तप्रदर में यह लाभकर है।
9. त्वचा - त्वचा तथा वर्ण के विकारों (कण्डू, स्फोट आदि) में यह प्रयुक्त होता है।
10. तापक्रम - स्वेदजनन होने से यह सामान्य ज्वर में प्रयुक्त होता है। जीर्ण ज्वर और विषमज्वर में इससे बहुत लाभ होता है। विषमज्वर में जब जीवाणु यकृत में स्थित हो जाते हैं तब औषधों का प्रभाव नहीं होता। ऐसी स्थिति में रसौत देने से जीवाणु बाहर निकल जाते हैं, और उन पर औषधों की क्रिया ठीक से होती है। इस प्रकार यह मलेरिया के निदान में भी सहायक है।
11. सात्मीकरण - यह कटुपौष्टिक होने से सामान्य दौर्बल्य में प्रयुक्त होता है।