आध्यात्मिक कायाकल्प

अध्यात्म द्वारा दैनिक जीवन के प्रश्नों के समाधान

Refinement of Personality Through Spirituality

Answers to the questions of day-to-day life through Spirituality

पाठ्यक्रम 620112 - ब्रह्मविद्या का ज्ञान विज्ञान (ब्रह्मविद्या द्वारा ब्रह्मवर्चस की प्राप्ति) (जीवात्मा का विज्ञान Science of Soul)

(परम पूज्य गुरुदेव, पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य जी द्वारा दिए गए उद्बोधनों पर आधारित पाठ्यक्रम) (स्व-शिक्षण पाठ्यक्रम Self-Learning Course)

आस्तिकता की महत्ता

परम पूज्य गुरुदेव, पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य जी द्वारा दिया गया उद्बोधन

यहाँ दिए गए उद्बोधन (.mp3 फाइल) को सुनें, एवं उस पर चिंतन / मनन करें

उद्बोधन के कुछ अंश नीचे दिए गए हैं

इन्हें डाउनलोड भी कर सकते हैं - (.doc फाइल) (.pdf फाइल)

उद्बोधन के कुछ अंश

1. साधना के संबंध में आमतौर से ये ख्याल था कि साधना कुछ ऐसे ही अंधविश्वासों का, अंधविश्वासों का जमघट, अंधविश्वासों का जमघट समझा जाता था

2. और ये ख्याल किया जाता था - साधना तीर-तुक्का है, साधना का कोई परिणाम, जैसे निकलना चाहिए, कोई निश्चित नहीं है। ये विचारधारा लोगों में फैल गई थी, और धीरे-धीरे लोगों का विश्वास और लोगों की श्रद्धा उस पर से उठती चली जा रही थी।

3. एक पचास वर्ष का प्रयोग ऐसा हुआ जिसने एक बात साबित कर के दिखाई कि साधना (अगर) सही ढंग से की जा सके, सही व्यक्तियों से की जा सके, सही उद्देश्य के लिए की जा सके, तो उसकी सफलता निश्चित है।

4. पचास वर्ष के प्रयोग ने ये साबित कर के दिखाया कि ये जैसा कि समझा जा रहा है वैसी बात नहीं है - ये महत्वपूर्ण बात है, ये (त त) तथ्यपूर्ण बात है, ये तर्कपूर्ण बात है, और ये प्रयोगशाला और ये प्रयोगों की कसौटी पर सही कसे जाने वाली बात है

5. पचास वर्ष का बहुत लम्बा समय होता है मित्रों - ये किसी बात के प्रयोग के लिए, और परीक्षण के लिए कम समय नहीं है। (इसके) बारे में कई तरीके से उठक-पटक की जा सकती है, और कई तरीके से देखभाल की जा सकती है - ये विचारधारा, ये विज्ञान, ये मान्यता - आया सही भी है, (कि) गलत है?

6. गत वर्ष, एक लाख व्यक्तियों ने, मिलजुल कर के, साधना के समर्थन में, साधना के जयकार में, साधना के प्रति (अपना) निष्ठा व्यक्त करने में, इस (माने) में अपने विचार, और अपनी मान्यता व्यक्त की, कि हम एक वर्ष तक, एक वर्ष तक लगातार उपासना कर के, साधना कर के, अपनी निष्ठाओं को पक्की करेंगे।

7. न केवल अपनी निष्ठाओं को पक्की करेंगे, बल्कि अन्य समीपवर्ती क्षेत्रों में ये बताने कि कोशिश करेंगे - साधना अगर सही ढंग से की जा सके तो किसी भी मानवीय प्रयत्न की तुलना में कम महत्वपूर्ण नहीं है।

8. साइंस ने कहा - नो गॉड, नो सोल (No God, No Soul)। सोल के बारे में हमको कोई विश्वास नहीं है, सोल के बाबत हम नहीं कह सकते कोई चीज़ होती (है ही) भी कि नहीं। गॉड के बारे में हम नहीं कह सकते कोई चीज़ होती है कि नहीं।

9. दोनों ओर से - साइंस की ओर से, बुद्धिवाद की ओर से, तर्क की ओर से, ये हमले हुए - दर्शन की ओर से हमले हुए, साइंस की ओर से हमले हुए, जिसने कि हमारी आस्तिकता की नींव को लड़खड़ा दिया।

10. एक बड़ी भारी महत्वपूर्ण बात ये थी कि हम अगर आस्तिकता को दुनिया में से निकाल दें, तब फिर, तब फिर मनुष्य का क्या होगा? फिर व्यक्ति का क्या होगा? फिर समाज का क्या होगा? फिर हमारी मानवीय (प्र) (प्रगति) का क्या होगा?

11. भगवान - आस्तिकता - एक ऐसी मान्यता है, (जिससे कि) जिसे कि हम मनुष्य के ऊपर स्थापित किया हुआ अंकुश कह सकते हैं - स्वेच्छा अंकुश।

12. और मित्रों - एक और शासन की ज़रूरत है - जो हमारी बुद्धि पर, जो हमारी अकल पर, और जो (हमारी) ईमान पर हावी रहता है।

13. अगर भगवान को भी, अगर हम निकाल दें, दिमाग में से, तो क्या स्थिति हो सकती है बताइए आप? फिर हमारे लिए कर्मफल की मान्यता का कोई सवाल नहीं रह जाएगा। भगवान ही नहीं है तो कर्मफल देगा कौन?

14. फिर कर्मफल की आवश्यकता क्या है? फिर कर्मफल मिलेगा क्यों? जो हमने कर लिया सो ठीक, न कर लिया सो ठीक।

15. बड़ा एक अंकुश लगा हुआ है अभी भी, (कि) आदमी समझता है, मरने के बाद में कर्मफल मिलेगा, मरने के बाद में अगला जनम मिलेगा। इस समय नहीं भी सही, तो (थो) थोड़े दिन बाद मिल सकता है।

16. अगले जनम में मिल सकता है, नरक में मिल सकता है, स्वर्ग में मिल सकता है - बुरे और भले कर्मों का फल। ये हमारी मान्यता है, इसीलिए हमारा (अं) अंकुश, हमारा (भी) भीतर वाला अंकुश, हमेशा, हमेशा हमको रोकता रहता है, टोकता रहता है।

17. अंकुश की, थोड़ी और बहुत, जितनी भी ताकत हो, उस हिसाब से हम कर्मफल पे विश्वास करते हैं, और अपने चाल-चलन को बनाए रखने में हमको मदद मिलती है, ईश्वर के विश्वास के नाम से।

18. व्यक्ति के लिए ये बड़ा उपयोगी है - आस्तिकवाद - और समाज की दृष्टि से बड़ा उपयोगी है - ये (आ) आस्तिकवाद - दोनों ही दृष्टियों से उपयोगिता है

19. आस्तिकता की मान्यता, परलोक की मान्यता, हमको धीरज दिलाती है, और ये कहती है, (कि आ) कि आज, (दूध का) आज का जमाया हुआ दूध, अगर आज ही दही नहीं बना, तो कोई परेशान होने की बात नहीं है - कल का दूध आज दही हो सकता है।

20. आज का कर्मफल, कल सामने आ सकता है, परसों सामने आ सकता है। समय के हिसाब से कोई डरने की बात नहीं है, क्योंकि भगवान है - इंसाफ करने वाला है, न्यायनिष्ठ है, निष्पक्ष है

21. इसीलिए हमको ये मान के चलना चाहिए, कि भगवान के (दर) दरबार में हमको कभी न कभी जवाब देना पड़ेगा, और उसके दंड से, और उसके पुरस्कार से, हमको लाभ या हानि होगी।

22. ये मान्यता, मित्रों, मनुष्यों की नैतिकता के ऊपर एक बहुत बड़ा अंकुश है। ये हमारी सामाजिकता के लिए ज़रूरी है।

23. भीतर की नास्तिकता पनप रही थी धीरे-धीरे। क्यों पनप रही थी? इसीलिए पनप रही थी, कि (ब) भजन के, उपासना के, ईश्वर विश्वास के, जो फल बताए गए थे, जो महातम बताए गए थे, वो सही साबित नहीं हो रहे थे।

24. जब आप ये कहते हैं कि भजन करने के लिए हमको समय नहीं मिलता, फुर्सत नहीं मिलती, तब मैं उसका अर्थ (स) सीधा सा ये मान लेता हूँ, कि आप नास्तिकता के हिमायती हो रहे हैं।

25. क्यों? नास्तिकता के हिमायती तो नहीं हैं साहब, हम तो भजन नहीं करते हैं। ठीक है बेटे, भजन नहीं करता, पर मैं ये समझता हूँ, कि जो आदमी जिस काम की कीमत नहीं समझता, महत्व नहीं समझता, उसी के बारे में ये बहाना बनाता है - हमें टाइम नहीं मिलता, फुर्सत नहीं मिलती।

26. फुर्सत न मिलने का मतलब यही हुआ न - इससे अच्छी-(अच्छी) चीज़ें हमारे सामने हैं, और ये बेकार चीज़ है - सीधा मतलब ये होता है।

27. हम जिस चीज़ को अच्छा समझते हैं, उसके लिए अपना सारा का सारा काम बंद कर देते हैं, फौरन उस काम में लग जाते हैं, बाकी के कामों (को) नुकसान करते हैं, उस काम के लिए सबसे पहले (प्रायटी) (priority) देते हैं, और सबसे पहले उस काम में हाथ डालते हैं। उसके लिए हमारे पास समय सुरक्षित रहता है, (जिसको) हम कीमती समझते हैं।

28. ये हमारे भीतर संदेह, और ये आशंकाएँ, और ये अविश्वास, धीरे-धीरे जो पनपते चले जा रहे थे, इससे ये मालुम होता था, कि (हम) बाहर से, बाहर से भी हमला हो रहा था, और भीतर से हमारी निष्ठाएँ कमज़ोर होती चली जा रही थीं।

29. ऐसे मालुम पड़ता था कि आस्तिकवाद, जिसके साथ में (सा) साधना विज्ञान जुड़ा हुआ है, धीरे, धीरे, धीरे, धीरे, कमज़ोर होता चला जाता है

30. ऐसे मुझे मालुम पड़ा - कब? आज से बहुत समय पहले। मित्रों, मुझे एक विशेष काम के लिए भेजा गया, कि लोगों (के) समझ में ये बात, ये बात जमाई जाए कि (आ आ) आस्तिकता बेकार चीज़ नहीं है, निरर्थक चीज़ नहीं है, बिना बुद्धिसंगत नहीं है, लाभहीन नहीं है - उपयोगी है।

31. लोग उपासना (को) स्वरूप समझें। उपासना कैसे की जानी चाहिए, इसका तारतम्य मिलाएँ। (उपे उ) उपासना करने के लिए क्या करना होता है, इसको जानें - इसको जानें, तो उपासना की बात समझ में आ सकती है।

32. भजन करने के लिए, उपासना करने के लिए, साधना करने के लिए, उसका सही तरीका, और सही स्वरूप मालुम होना आवश्यक है। अगर वो न हो सकेगा, तो उसका लाभ न मिल सकेगा, ये बात सही है।

33. मित्रों, फिर उसका स्वरूप क्या हो सकता था? (उसका) स्वरूप कैसा होना चाहिए, जिससे कि (जै) जो महातम, (और) जो लाभ, (और) जो परिणाम बताए गए हैं, वो सही (सा सा) साबित हों?

34. ये ऐसे सवाल थे, जो कि मुझसे (व्यक्तिगत) संबंध नहीं (रखते) - ये, ये मानवीय मान्यता से संबंध रखते थे। ये ऐसी फिलॉसफी से संबंध रखते थे, जिसका कि मनुष्य की, मनुष्य जाति के जीवन मरण से (ता) ताल्लुक था।

35. ईश्वर अगर खतम होता है, भजन के प्रति आस्था खतम होती है, साधना विज्ञान के प्रति अगर (अ) अनास्था फैलती है, तो उसका परिणाम ये नहीं होगा - भगवान को जो पूजा भजन मिल जाता है, या भगवान को जो चावल अक्षत मिल जाते हैं, वो न मिलने की वजह से भगवान को, को गरीबी आ जाएगी, कंगाली आ जाएगी, भगवान भूखे मरने लगेंगे - ये (उम्) ये लाभ नहीं था उसका।

36. असल लाभ ये था - कि ये मान्यता जनसाधारण के मन में दबी हुई थी, जो, जो जनसाधारण के ऊपर हावी थी लाखों करोड़ों वर्षों से, अगर हमने उसको इस युग में, बुद्धिवादी युग में, उखाड़, उखाड़ कर के फेंक दिया, तो हमारी नई पीढ़ी के लिए क्या परिणाम सामने आएंगे?

37. जब हर आदमी ये अनुभव करेगा - कोई नियामक सत्ता नहीं है, कोई ऐसी सत्ता नहीं है जो हमारे भीतर अंकुश करने में समर्थ हो। जो कोई भी सत्ता है, केवल गवर्मेंट (government) की सत्ता है - तो बेटे हम गवर्मेंट के लिए चाहे जो कर सकते हैं - अपनी पार्टी की गवर्मेंट बना लेंगे, और जो भी हमको चाहिए (गा) वो ही हम करेंगे, और मन, मन मर्जी की बात करेंगे

38. हम चाहें जो फिर कर सकते हैं - अपनी अकल के सहारे, अपनी ताकत के सहारे, अपनी होशियारी के सहारे। फिर दुनिया में ऐसा अनाचार और ऐसा अंधेर फैलेगा, कि फिर (मान) मनुष्य जाति जीवित रहेगी कि नहीं, हम नहीं जानते। आस्तिकता को खतम करने के बाद बड़ी मुश्किल आ जाएगी।

39. आस्तिकता की मान्यता साधना के साथ जुड़ी हुई - साधना की वजह से हम पक्का करते हैं इन विश्वासों को, रोजाना उसको जमाते हैं

40. भजन के नाम पर, साधना के नाम पर, हम अपने ईमान को, और अपनी ईश्वर संबंधी मान्यता को, कर्मफल को पक्का करते हैं - ताकि हमारा चरित्र, ताकि हमारी चरित्रनिष्ठा, ताकि हमारी दूरदृष्टि, ताकि (हमारे) ताकि हमारी समाजनिष्ठा, इत्यादि, उच्चस्तरीय, जो मनुष्य के (सु) सुख शांति के आधार हैं, उसको हम अक्षुण्ण बनाए रह सकें।

41. मित्रों ये उपासना की महत्ता थी - लेकिन वो कमज़ोर हो गई थी, कमज़ोर हो गई थी - एक जोखिम पैदा हो गया था।

42. गड़रिए के गीत, (दक) दकियानूसीपन - हिन्दू धर्म पर जाने कितने आक्षेप लगाए जा रहे थे। विवेकानन्द आए, और उन्होंने न केवल हिन्दुस्तान को ये समझाया (कि) आपकी सभ्यता और संस्कृति महान है

43. न केवल हिन्दुस्तान को समझाया, बल्कि उन्होंने विदेशों में जा कर के लोगों को समझाया - आप ढेले फेंकना बंद कीजिए, ढेले फेंकना बंद कीजिए। भारतीय सभ्यता और संस्कृति, मानवीय सभ्यता और संस्कृति है। ये विश्व सभ्यता और संस्कृति है - (इसको) आप मिटा कर के क्या पाइएगा? इससे अच्छी, अच्छी संस्कृति दुनिया के पर्दे पे नहीं है।

44. ठीक है - आज हिन्दुस्तान के लोग, उसका व्यवहार और आचार, ठीक तरीके से आपके सामने पेश करने में समर्थ नहीं हैं। लेकिन ये फिलॉसफी तो बड़ी कीमती है, ये साइंस तो बड़ी कीमती है, इस पर आप ढेले फेंकिए मत।

45. विवेकानन्द ने हर आदमी को समझाने की कोशिश की, (और) उसका परिणाम ये हुआ - जर्मनी के लोग हिन्दुस्तान में आए - उन्होंने वेदों को तलाश किया, वेदों का ट्रांसलेशन (translation) जर्मन भाषा में हुआ।

46. जर्मन भाषा के बाद में (अंग्रेजी) में हुआ। लोगों ने समझने की कोशिश की कि आखिर हिन्दू सभ्यता और संस्कृति क्या है?

47. उनका बहुत बड़ा काम था, (ब) उनका (बे) बहुत बड़ा मिशन था। विवेकानन्द बड़े स्वामी थे - हाँ स्वामी भी थे - लेकिन युग के संदेशवाहक।

48. स्वामी के लिए, और महात्मा की दृष्टि से, ज्ञानी की दृष्टि से, वक्ता की दृष्टि से विवेकानन्द को नहीं मानते - हमारी मान्यता है कि (विवेकानन्द) एक मिशन ले कर के आए थे, युग की एक समस्या का समाधान करने के लिए आए थे, एक हवा को पीछे की तरफ पलट देने के लिए आए थे - (हम) ऐसा मानते हैं विवेकानन्द के संबंध में।

49. मित्रों, ठीक उसी तरह की ज़िम्मेदारी मुझे सौंपी गई, सौंपी गई। एक (के) खास काम के लिए आया हूँ मैं। अखबार नवीसी - नहीं बेटे, (मेरे) अखबार नवीसी कोई धंधा नहीं है।

50. आप वक्ता हैं, पंडित हैं, पुरोहित हैं, यज्ञ कराते हैं, (य) गुरु हैं - नहीं बेटे, न हम गुरु हैं, न हम यज्ञ कराते हैं, न हम पंडित हैं, न हम वक्ता हैं - हम तो कोई खास आदमी हैं, और खास काम के लिए आए हैं - अपना खास काम समेट देने के बाद में, हमको जहाँ से भेजा गया है, फिर वहाँ चले जाएंगे।

51. नहीं साहब, आपका कोई स्वार्थ है - बेटे हमारा कोई स्वार्थ नहीं है। भगवान का, और युग का, और समय का एक स्वार्थ था, कि लोगों को ये समझाया जाए - कि आस्तिकता, जिसका कि साधना अविच्छिन्न अंग (है), वो (कैसे) सही हो सकती है? और कहाँ तक सही हो सकती है?

52. ये हमने पचास वर्ष के प्रयोगों में, पचास पन्नों में, एक पचास पन्ने की किताब के प्रत्येक पन्ने पर, ये लोगों को लिख कर के दिखाया, समझाया, अपनी प्रयोगशाला में।

53. प्रयोगशाला में दिखाया, कि, कि - आस्तिकता क्या हो सकती है? आस्तिकता का परिणाम क्या हो सकता है? साधना कैसे होनी चाहिए? साधना की व्याख्या किस तरीके से की जानी चाहिए?

54. (हमने) लोगों को समझाया - साधना उतनी छोटी, उतनी सीमित नहीं है, जैसे कि आम लोगों ने समझ रखा है।

55. आम लोगों ने ये समझ रखा है - कि थोड़े से अक्षर, थोड़े से अक्षरों को बार-बार रिपीट (repeat) करने से, माला के ऊपर थोड़े से शब्दों को घुमा देने से, साधना का उद्देश्य पूरा हो जाता है - लोगों ने ये समझ रखा है।

56. लोगों की समझ ये है - कि किसी देवी-देवता की तस्वीर चौकी पे स्थापित कर ली जाए, उस पर अक्षत चढ़ा दिए जाएँ, चावल चढ़ा दिए जाएँ, धूप-बत्ती चढ़ा दी जाए, आरती चढ़ा दी जाए, स्तोत्र कर (दिए) जाएँ, ये कर दिया जाए - बस उपासना खतम हो जाती है - लोगों की ये मान्यता है।

57. (मित्रों) ये मान्यता सही नहीं है, सही नहीं है। ठीक है - ये, ये इसका कलेवर है, साधना का कलेवर है - ये साधना का प्राण नहीं है, साधना का प्राण नहीं है। कलेवर से आप कैसे फायदा - जो फायदा व्यक्ति का होना चाहिए, वो कलेवर से कैसे उठा सकते हैं?

58. भजन और (पूजा), जिसमें जप भी शामिल है, ध्यान भी शामिल है, चावल, धूप, दीप, नैवेद्य, अक्षत चढ़ाने शामिल हैं - ये कलेवर है उसका, भजन का।

59. नहीं महाराज जी, यही भजन है - नहीं बेटे ये भजन नहीं है - ये कलेवर है उसका। कलेवर अलग होता है, और भजन, और प्राण अलग होता है। ये शरीर हमारा कलेवर है - तो यही शरीर ही (हैं) आप? नहीं बेटे हम नहीं हैं शरीर।

60. महाराज जी, उंगलियाँ तो फिर आपकी लेख (लिखती) हैं। उंगलियाँ‌ लिखती तो हैं, पर हमारा दिमाग लिखता है - दिमाग नहीं लिखता (है), बेटे (हमारी) हमारा (हमारी) प्राण लिखता है।

61. सारे के सारे कर्मकाण्ड, कर्मकाण्ड ये बेटे (क क) कलेवर हैं, ये प्राण नहीं हैं।

62. (सा) साधना के संबंध में, हमने एक नई मान्यता लोगों को दी - (और) लोगों को एक नया विचार दिया कि आप (यो) भजन और (पू) पूजा की बात कहते हैं, ये सब अच्छी हैं, सही हैं, उपयोगी हैं, मुनासिब हैं, महत्वपूर्ण हैं

63. ये सब बात होते हुए भी, आपको ये जान के चलना पड़ेगा, कि साधना यहाँ से न, न तो प्रारम्भ होती है, न यहाँ समाप्त होती है - न इसकी (ये) जड़ है, न इसकी ये मूल है, जिसको आप भजन कहते हैं, राम नाम लेना कहते हैं।

64. ये इसका एक स्वरूप है, ये इसका एक मीडियम है, ये इसका एक माध्यम (है) - माध्यम है, तो (अ) असली बात क्या है? असली बात साधना के संबंध में, हमने लोगों को ये समझाने की कोशिश की, कि अपनेआप को साध लेना।

65. अपनेआप को - जो (अ अ अ अन) अनगढ़पन है हमारे भीतर, इसको (सु) सुगढ़ बना लेना। (अ अ) अनगढ़ मनुष्य, इसको सुगढ़ बना लेना, सुसंस्कृत बना देना।

66. ये जमीन जब बनी थी बेटे, तो ऐसी थी, खाबड़-खूबड़ थी - कहीं गड्ढे थे, कहीं दरारें थीं, कहीं टीले थे, कहीं ऊँचा था, कहीं नीचा था - मनुष्य ने पृथ्वी को संस्कारित किया, समतल बनाया, झाड़ियों को काटा, खड्डों को बंद किया

67. जो बड़े-बड़े जलाशय थे उनको (हिसाब) से बनाया, निकलने के लिए रास्ते बनाए - तब ये जमीन इस लायक हुई, हम मनुष्य जाति के लोग इस पर निवास करते हैं, खेती-बाड़ी करते हैं, बगीचे लगाते हैं

68. खोद-खाद कर के भागीरथ ने गंगा की धारा को, किस मुस्तैदी से और किस होशियारी से, सारे इलाके में जहाँ-तहाँ फैली हुई थी, काट कर के नहर के रूप में निकाला

69. संस्कारवान बनाने से क्या हो सकता है? ये सभ्यता और संस्कृति - क्या हो सकती है?

70. मनुष्य का व्यक्तित्व, मनुष्य की अकल, मनुष्य की समझ, मनुष्य का श्रम, मनुष्य की वाणी, मनुष्य का धन, मनुष्य की इच्छाएँ - सब चीज़ें संस्कारविहीन, (कु) कुसंस्कारी, अस्त-व्यस्त, बेहूदी, बेढंगी, बेसिलसिले (की), बेसिलसिले की हैं

71. इन सब चीज़ों को, आदि से अंत तक, किस तरीके से क्रमबद्ध बनाया जाए? किस तरीके से सुंदर और सुसज्जित बनाया जाए? कैसे कलात्मक बनाया जाए? साधना इस चीज़ का नाम है।

72. साधना इस चीज़ का नाम है - जो भजन पूजन के साथ में हमने जोड़ कर के रखी है। भजन पूजन के (सि) सिद्धांतों के साथ, जैसे कि मैं आमतौर से व्याख्या (क) किया करता हूँ, कभी आपने सुना होगा।

73. फूल की व्याख्या करता हूँ, कभी चंदन की व्याख्या करता हूँ, कभी धूपबत्ती की व्याख्या करता हूँ, कभी चावल की व्याख्या करता हूँ।

74. इन क्रिया कृत्यों के पीछे, मनुष्य की वृत्तियों का परिष्कार करना, मनुष्य की समझ, और मनुष्य के साधनों का सही निर्माण करना - साधना का उद्देश्य, साधना का उद्देश्य ये है।

75. हम (ने) इन क्रिया कृत्यों के माध्यम से अपनेआप को शिक्षण करते हैं कि - हमको कैसे जीना चाहिए? विचार कैसे करना चाहिए? अपने साधनों का उपयोग क्या करना चाहिए? पूरे का पूरा शिक्षण है, पूरे का पूरा शिक्षण है।

76. जब नहीं थीं किताबें, तो क्रिया कृत्य के माध्यम से हम शिक्षण लेते थे। साहब, जीवन कैसे होना चाहिए? अग्नि जला कर के हम सिखा सकते हैं। अग्नि अपनेआप को जैसे बना लेती है, जो भी उसके समीप जाता है वो सीख देती है - सीख गए साहब? हाँ साहब सीख गए।

77. अग्नि गरम होती है, प्रकाशवान होती है - अच्छा तो हम क्या करें? इसकी आप भजन कीजिए, पूजा कीजिए - अग्नि की - और हमको भी गरम रहना चाहिए, प्रकाशवान रहना चाहिए - सीख गए साहब पाठ? सीख गए पाठ? हाँ साहब, अग्नि से हम पाठ सीख गए।

78. इस तरीके से इन (इस) क्रिया कृत्यों के माध्यम से, जीवनयापन करने की विधि, और अपनेआप को (किस) तरीके से परिष्कृत और सुसंस्कृत बनाया जाता है - इसका शिक्षण करने का एक निर्धारण था - जो साधना और उपासना के माध्यम से जनमानस में उतारा जाना चाहिए था - (उता) उतारा गया होता, तो हमने अपनेआप को परिष्कृत किया (होता)।

79. साधना करने से, (सधाने) से, चीज़ें कितनी सुंदर हो जाती हैं, कितनी संस्कारवान हो जाती हैं - संस्कारवान बनाने का तरीका, सुसंस्कृत बनाने के तरीके का नाम है - साधना। साधना की शिक्षा - साधना (की) भी (लोगों को) सीखी जा सके

80. साधना का, का विज्ञान अगर लोगों की समझ में आ जाए, तो लोगों को समझ में (आए) आएगा कि मनुष्य अपनी सत्ता को, मनुष्य अपनी विचारणा को, मनुष्य अपने समय को, मनुष्य अपने वक्त को, मनुष्य अपने (चि) चिंतन को, मनुष्य अपनी सम्पत्ति को, मनुष्य अपने परिवार को, रहन-सहन को, वाणी को - किस तरीके से श्रेष्ठ बना सकता है, और (परिष्कृत) कर सकता है

81. और परिष्कृत करने के बाद में, यही चीज़ें, जो आमतौर से हमारे पास बेकार पड़ी रहती हैं, निरर्थक पड़ी रहती हैं - इसका कितना फायदा (उठा) उठाया जा सकता है

82. मसलन समय - समय से कितना बड़ा फायदा उठाया जा सकता है, लोगों को मालुम नहीं है। समय को हम अस्त-व्यस्त करते रहते हैं, बिगाड़ते रहते हैं, बर्बाद करते रहते हैं, आवारागर्दी में खर्च (कर) करते रहते हैं।

83. लेकिन अगर कोई आदमी, एक घंटा रोज़, अपना समय, ठीक तरीके से इस्तेमाल कर पाए, तो विनोबा भावे की तरीके से, जिंदगी के थोड़े ही वर्षों में, तेईस भाषाओं का विद्वान बन सकता है।

84. एक घंटे समय की कीमत - एक घंटे समय की कीमत बेटे ये है, कि मैंने अपनी जिंदगी के पचास साल में, एक (व), एक घंटा रोज़, साधना के लिए सुरक्षित रखा है - स्वाध्याय की साधना के लिए।

85. स्वाध्याय की (स) साधना का परिणाम है, जो कुछ भी आप देखते हैं। अखण्ड ज्योति के लेखों में जो आप पढ़ते हैं, हमारी पुस्तकों में जो आप पढ़ते हैं।

86. जब आप ये कहते हैं, कि आचार्य जी चलते-फिरते एन्साइक्लोपीडिया (encyclopedia) हैं, तब आप मेरी प्रशंसा नहीं करते - एक घंटा समय, नियमित रूप से, स्वाध्याय के लिए, खर्च करने के क्या परिणाम, (क) क्या परिणाम होते हैं - (इ) इसके प्रति आप अपना सम्मान जाहिर करते हैं, (उसका) चमत्कार देखते हैं - एक घंटा कैसा होना चाहिए।

87. समय, समय का हमने कभी उपयोग जाना नहीं, समय को हम बर्बाद करते रहे। समय को हमने ठीक तरीके से इस्तेमाल किया होता - उसका परिणाम, उसका प्रभाव, (उसकी) प्रतिक्रिया हमारे जीवन में कैसी होती?

88. धन के संबंध में, जो हमारे पास पैसा हमने कमाया, अगर उसका हमने ठीक उपयोग किया होता, तो न जाने हमने (क्य) क्या करके दिखा दिया होता।

89. थोड़े से पैसे में हम (अपने) गुजारा कर सकते थे, शालीनता के साथ - और जो अपना बचा हुआ पैसा, ईश्वरचंद्र विद्यासागर की तरीके से, (अगर) हम खर्च करने में समर्थ हो गए होते, तो इसी पैसे से हमारा नाम इतिहास में अजर अमर हो गया होता।

90. ईश्वरचंद्र विद्यासागर को, (पचा) पाँच सौ रुपए महीने का वेतन मिलता था। पचास रुपए में अपना गुजारा करते थे, और साढ़े चार सौ रुपया महीना, उसके समीपवर्ती (वा) के लोगों के लिए, खर्च के लिए, निकालते थे।

91. विद्यार्थी इसका फायदा उठाते थे। फीस वहीं से लोग ले जाते थे, जिनके बच्चे फीस नहीं दे सकते थे। (कापियाँ) का इंतजाम करते थे, मिट्टी के तेल का, रात के पढ़ने के लिए, रोशनी के लिए इंतजाम करते थे। साढ़े चार सौ रुपए महीने से कितने लोगों ने उनसे फायदा उठाया।

92. धन का उपयोग, धन का उपयोग अगर किया जा सके, ईश्वरचंद्र विद्यासागर की तरीके से, तो वही धन, वही धन, मित्रों, भामाशाह आप न हों तो न हों

93. आप मामूली सी पिसनहारी हों, और दो आने रोज की, अपने हाथ की पीसने वाले पैसे में से, एक पैसा रोज निकालते हुए चले जाएँ, और जिंदगी (की) आखिर में उसी पैसे से आप, एक पिसनहारी (के) कुआँ, जिसका मैं अक्सर वर्णन करता रहता हूँ, बना दें, तो आप इतिहास में अजर अमर हो सकते हैं।

94. नई नई चीज़ें तो मांगी, नई नई ख्वाहिशें तो (में) कीं - ये मिलना चाहिए, पैसा मिलना चाहिए - अच्छा हम आपको नया पैसा देंगे, लेकिन आप (ये) ये बात बताइए - इस समय तक जो आप कमाते रहे, उसका क्या इस्तेमाल किया आपने?

95. नहीं साहब - इस्तेमाल तो जो हमारी इच्छा थी, सो किया, मनमर्जी से किया। नहीं बेटे - आपकी मर्जी, और आपकी इच्छा के लिए, अपने परिश्रम से कमाइए, और, और उसको इस्तेमाल कीजिए। आपको ये हक नहीं है, कि हम चाहे जैसे खर्च करेंगे, और हम क्या पाएंगे - हम तब नहीं देंगे आपको।

96. भगवान से पाने के लिए ज़रूरी है, कि आप जो चीज़ें मांगना चाहते हैं, उस चीज़ के बारे में आप ये साबित कीजिए, कि हम इसका बेहतरीन इस्तेमाल कर सकते हैं।

97. आपको इस्तेमाल करना तो नहीं आता। नहीं साहब - एक बेटा हमारे होना चाहिए। अच्छा बेटा हम आपको नया देंगे, लेकिन पहले आप ये बताइए - जो आपकी शादी हो चुकी है, बीवी के साथ में आपने क्या सलूक किया? और जो एक कन्या हो चुकी थी, उस कन्या को आपने योग्य बनाने के लिए क्या काम किया?

98. नहीं साहब - कन्या तो ऐसी ही है, बेकार है, और, और हमारी बीवी तो ऐसी ही है, उसको तो हम कोई ध्यान नहीं देते - बेटा पैदा कर दीजिए।

99. नहीं बेटे - हमें आपके ऊपर कोई विश्वास नहीं है, कि आप बेटे को अच्छा, अच्छा इस्तेमाल कर सकेंगे - बेटे को भी हम दे दें तो आप चौपट कर डालेंगे, और सत्यानाश कर देंगे, और दुनिया के लिए एक और मुसीबत पैदा कर देंगे - आपको सम्भालना जो नहीं आता, सो।

100. मित्रों, हम अपनी हर चीज़ को, जो हमको मिली हुई है, इस समय, इसका ठीक इस्तेमाल करना सीख पाएँ - इस विद्या का नाम, इस कला का नाम, मैं कहूँगा - साधना।

101. साधना के बारे में, साधना के बारे में, भजन जिसके साथ जुड़ा हुआ है - भजन तक सीमित नहीं है - आप ध्यान रखिए। साधना भजन तक सीमित नहीं है - भजन भी साधना का एक हिस्सा है।

102. भजन अपनेआप में साधना नहीं है - साधना का एक (हि) एक हिस्सा, भजन - एक हिस्सा भजन है - ये बात समझ में आ गई होती लोगों के

103. और भजन के साथ-साथ, पूजा के साथ-साथ, जप के साथ-साथ, लोगों ने इस बात पर भी गौर किया होता - कि हमको, हमको जीवन को परिष्कृत करने के लिए - हमारा चिंतन कैसा होना चाहिए? सोचना हमारा कैसा होना चाहिए?

104. क्रियाकलाप हमारा कैसा होना चाहिए? हमको अपनी जमीन कैसे बनानी चाहिए, जिसके ऊपर कि भजन अगर बोया जा सके, तो ठीक तरीके से उगे।

105. बीज काफी नहीं है, बीज (का) हम महत्व को (हम) मानते हैं, लेकिन बीज के साथ-साथ में, बीज के साथ-साथ में जमीन अच्छी होनी चाहिए।

106. नहीं साहब, जमीन की (को) कोई ज़रूरत नहीं है - बीज है तो चाहे जैसे फसल पैदा हो जाएगी। नहीं बेटे, चाहे जैसे फसल नहीं हो (जा) सकती, जमीन की ज्यादा कीमत है, बीज की कम कीमत है।

107. फाउन्टेन पेन हमारे पास है - (हम) तो पीएच.डी. (Ph.D.) करेंगे, और थीसिस (thesis) लिखेंगे। नहीं बेटे, फाउन्टेन पेन से थीसिस नहीं लिखा जा सकता - अकल से, अध्ययन से थीसिस लिखा जाता है।

108. अकल तेरे पास है? अध्ययन तेरे पास है? नहीं साहब, अध्ययन तो नहीं है मेरे पास, अकल तो नहीं है मेरे पास - मेरे पास तो पार्कर का फाउन्टेन पेन है - इससे मैं लिखूंगा लेख, तो बस (मेरे) थीसिस हो जाएगी, और मैं पीएच.डी. हो जाऊंगा। नहीं बेटे, फाउन्टेन पेन से नहीं हो सकता - अकल होनी चाहिए।

109. भजन से सब कुछ हो जाएगा, सिद्धि मिल जाएगी - नहीं बेटे, भजन से सिद्धि नहीं मिलेगी। भजन के साथ-साथ में जीवन का परिष्कार आवश्यक है - ये सिद्धांत लोगों ने भुला सा दिया था।

110. अध्यात्म का उद्देश्य मनुष्य को चरित्रनिष्ठ, और समाजनिष्ठ बनाना था। लेकिन हाय रे भगवान, ये क्या हो गया - इन दोनों ही चीज़ों को, हमारे आज के अध्यात्म ने, काटना शुरू कर दिया।

111. जब चरित्रनिष्ठा की बात थी - कि हम लोगों को ये, ये सिखाते - (ग) गलत काम करने का नतीजा गलत, गलत ही होगा, और आपको कर्म का फल भुगतना पड़ेगा - तो आदमी कम से कम भयभीत तो होता, विचार तो करता, रुकता तो सही, (ठहरता) तो सही

112. लेकिन हमने तो ठीक उल्टा कर दिया - हमने ये लोगों से कहा - गंगा में स्नान करने के बाद में, मनुष्यों के सारे के सारे कर्म के फल, (ब) बुरे कर्मों के फल दूर हो जाते हैं। हमने तो पूरी (छु) छुट्टी दे दी, छुट्टी दे दी

113. आप चाहे जैसे बुरे काम कीजिए - गंगा जी में नहाइए - बस, फिर आपको कोई डरने की ज़रूरत नहीं है, चाहे (लाख मन) पाप कीजिए, पूरे मन से पाप कीजिए, (सारे) जिंदगी भर पाप कीजिए - आपको कोई सजा नहीं (मिल) सकती, क्योंकि आपने गंगा जी नहा ली

114. ये क्या कर डाला? बेटे हमारा भय था, वो भी निकाल दिया - आध्यात्मिकता का सारा सिद्धांत ही खतम कर दिया, आध्यात्मिकता की ग्राउंड (ground) ही खतम कर दी, आध्यात्मिकता की (ग रि मार) के फेंक दी - ये क्या क्या कर दिया तैने?

115. नहीं महाराज जी, हमने तो अध्यात्म (का) सही महत्ता बताई थी। (नहीं) बेटे, ऐसी महत्ता बताने से क्या फायदा (था), (जबकि) तैने लोगों से ये कहना शुरू कर दिया?

116. मित्रों, (लोगों का) अध्यात्म का उद्देश्य था - चरित्रनिष्ठा पैदा करना - हमने उसकी जड़ें काट दीं; और (हमने) समाज का उद्देश्य था - समाजनिष्ठा, अर्थात मनुष्य को लोकसेवी बनना चाहिए, उदार बनना चाहिए, परोपकारी होना चाहिए, नैतिक और सामाजिक कर्तव्यों का पालन करना चाहिए।

117. पर हमने तो ठीक उल्टा कर दिया - हमने तो लोगों को ये बताना शुरू किया, कि छोटे-मोटे कर्मकाण्ड कीजिए - स्वर्ग पाइए, भगवान की कृपा पाइए, सिद्धि पाइए, (मुक्ति) पाइए।

118. हमने लोगों से ये कहा - आप सत्यनारायण स्वामी की कथा कहलवाइए - क्या हो जाएगा? भगवान जी प्रसन्न हो जाएंगे।

119. अच्छा - और क्या कहा हमने? हमने लोगों से ये कहा - वहाँ चले जाइए, बद्रीनारायण। तो फिर क्या हो जाएगा (बद्रीनारायण) से? बद्रीनाथ के खिलौने का दर्शन कीजिए, ग्यारह रुपए चढ़ाइए। क्या फायदा हो जाएगा? बैकुंठ मिल जाएगा।

120. अच्छा तो बैकुंठ के लिए जो ये, ये कह रहे थे आचार्य जी - कि लोगों को लोकसेवा करनी पड़ेगी, संयम बरतना पड़ेगा, त्याग, त्याग (तप) करना पड़ेगा, कष्ट सहना पड़ेगा, और कोई समाज के लिए अच्छा काम करना पड़ेगा

121. साहब, वो सब बेकार बातें हैं - आप तो इक्कीस रुपया खर्च कीजिए, और बद्रीनारायण जाइए, ग्यारह रुपए उसको चढ़ाइए - बस सीधे आपको हवाई जहाज (की) टिकट मिल जाएगा, सीधे (उठते) हुए चले जाइए, बैकुंठ को जा पहुँचेंगे।

122. हाँ, ऐसा हमने सुना था, कोई बहका रहा था हमको, कि साहब बैकुंठ जाने के लिए आदमी को सारा जीवन संयमित बनाना पड़ता है, परिष्कृत करना पड़ता है, श्रेष्ठ जीवन (पड़ना) पड़ता है - तभी तो हम कहें, कि इतना झगड़ा भला कौन करेगा, तब बैकुंठ मिलेगा - हमने तो बहुत सस्ता तरीका ले लिया - कथा कराएंगे, बैकुंठ को जाएंगे।

123. ये बेटे हमने काट डाला था, बिल्कुल काट दिया था, अध्यात्म को बिल्कुल काट दिया था - (उल्) उल्टा कर दिया था - जिस जमाने में मैं आया।

124. बेटे मैंने नए सिरे से अध्यात्म की व्याख्या करना शुरू की। भजन, भजन तो वो ही बताए - कौन से? जो पहले ही लोग बताते आ रहे थे।

125. गायत्री मंत्र हिंदू संस्कृति का मूल था - उसी को मैंने लोगों को समझाया। गायत्री के साथ-साथ मैंने कितनी तरह की चीज़ों को जोड़-जोड़ के रखा, और (कितनी) व्याख्याएँ कीं।

126. और लोगों को ये समझाने की कोशिश की - गायत्री मंत्र के साथ, के साथ-साथ, हमारे (ज) जीवन की मान्यताओं में, और हमारे (हे फे) में, और दृष्टिकोण में क्या अंतर होना चाहिए? तब वो हमको मंत्र, फल दे सकता है।

127. ये बात साबित करने के लिए - कि (जे) सही तरीके से अगर अध्यात्म को साबित किया जा सके, उपयोग किया जा सके - उसका फल मिल कर के रहेगा।

128. लोगों ने कहा - साहब कैसे फल मिलेगा? हम तो नहीं विश्वास करते। बेटे मैंने अपनी गवाही का थोड़ा सा हिस्सा, (अपने) जिंदगी का थोड़ा सा हिस्सा, लोगों के सामने खुला हुआ रखा है।

129. भजन और पूजा, उपासना, के परिणाम, मनुष्य के सामने, भौतिक दृष्टि से क्या आ सकते हैं? (आध्यात्मिक) (च चा) के लिए तो मैं कैसे बताऊँ आपको? अपना जी खोल कर के मैं कैसे रखूँ?

130. भगवान से मेरे कोई संबंध हैं - ये मैं (कै) कैसे कहूँ? मेरे भीतर शांति, संतोष रहता है - इसका मेरे पास क्या सबूत है? मुझे आनन्द आता है जीवन में, और मुझे भगवान की भक्ति में रस आता है - इसका आपको (को) मैं कैसे समझा सकता हूँ?

131. लेकिन एक बात के सबूत - कि भौतिक जीवन भी - अगर आध्यात्मिकता की साधना की दृष्टि से, ठीक तरीके से उपयोग किया जा सके, तो हम सांसारिक जीवन में भी

132. चलिए आप तो सांसारिकता की बात करते हैं न - हाँ साहब - लौकिक जीवन की बात करते हैं - हाँ साहब, लौकिक जीवन की बात करते हैं, तो हम तो लौकिक जीवन और सांसारिक जीवन की दृष्टि से ही भजन करना चाहते हैं।

133. तो बेटे, अगर तू सही तरीके से भजन करना चाहेगा, तो मैं तुझे यकीन दिलाता हूँ, कि भौतिक चीज़ों के लाभ भी हमको बराबर मिलते रह सकते हैं, और मिलने चाहिए।

134. शर्त केवल एक है - कि साधना केवल माला घुमाने तक सीमित न हो - मन को भी घुमाने तक सीमित हो - आदमी का व्यक्तित्व, और आदमी के चरित्र पर भी इसका प्रभाव पड़ता हो।

135. व्यक्तित्व पर प्रभाव न पड़े, चरित्र पे प्रभाव न पड़े, केवल जीभ की नोंक पर (इसका) प्रभाव पड़े, और उंगलियों के (पो पो ए) पर प्रभाव पड़े, तब तो मैं नहीं कह सकता, कि ऐसा भजन हमारे लिए उपयोगी भी हो सकता है कि नहीं, उससे कोई लाभ मिल सकता है कि नहीं।

136. लेकिन अगर हमारा भजन, हमारे शरीर में शामिल हो जाए, हमारे खून में शामिल हो जाए, हमारे विचारों में शामिल हो जाए, (हमारी) क्रिया कृत्य में शामिल हो जाए - अध्यात्मवाद - भजन - तब इसका परिणाम (न) होना निश्चित।

137. जो बातें आपको मेरे बारे में जानकारियाँ हैं, उसके, उसके संबंध में, उसकी गवाहियाँ, और साक्षी दे कर के, जनसाधारण को ये समझा सकते हैं - आदमी के भौतिक जीवन में, साधना का क्या परिणाम होना चाहिए? सत्तर वर्ष की उमर में मेरी सेहत, और मेरे काम करने के क्रम - आप देख कर के अंदाज लगा सकते हैं

138. तब आप देखते हैं कि मैं (ताइस वर्षीय) जवान की तरीके से सोलह घंटे अभी भी काम करता हूँ। अभी भी बिना थकान के काम करता हूँ, और अभी भी वो ज़ुर्रत मेरे (मनों) में, और वो आशा और उमंगें, अभी भी ज्यों की त्यों मेरे मन में हैं, जो (स सत्रह) वर्ष, अथवा सत्ताइस वर्ष के मन में होती हैं।

139. मैं बड़े काम करना चाहता हूँ, बड़े काम करने में लगा हुआ हूँ। थक गए हैं साहब? नहीं बेटे, मैं (न तो) थका नहीं हूँ। आप हार गए? नहीं बेटे, मैं तो, मैं तो नहीं हारा हूँ।

140. बेटे, मैं पचपन साल के बाद, पंद्रह साल तक, अभी भी काम करता रहता हूँ, (क) करता रहता हूँ, सही तरीके से।

141. जब तक मुझे जिंदा रहना पड़ा, उस (वखत) तक मैं समझता हूँ - मेरी अकल, मेरी समझ, मेरी सेहत, मेरी काम करने की शक्ति - ज्यों की त्यों बनी रहनी चाहिए।

142. तो आप कौन सी दवा खाते हैं? बेटे हम कोई दवा नहीं खाते। हम आध्यात्मिकता की दवा खाते हैं - उसकि वजह से, अपने कलपुर्ज़ों का, अपनी अकल का, अपने शरीर का, अपने श्रम का, अपनी वस्तुओं का ठीक तरीके से इस्तेमाल करते हैं।

143. ये आध्यात्मिकता हमारी सेहत की, सेहत की गवाही के रूप में, आप सब लोगों को बता सकती है - कोई आदमी अगर सच्चे अर्थों में अध्यात्मवादी हो, तो उसकी सेहत, बिना किसी बीमारी का शिकार हुए, बिना किसी कमज़ोरी का शिकार हुए, ठीक तरीके से (च) चलती रह सकती है।

144. जब तक मैं जिऊँगा, मेरा ऐसा विश्वास है - तब तक मैं अपनी सेहत को ठीक तरीके से बनाए रहूंगा, क्योंकि मैं सच्चे अर्थों में अध्यात्मवादी हूँ।

145. ये मैं साधना की महत्ता बता रहा हूँ - अपनी महत्ता नहीं - व्यक्ति की क्या महत्ता हो सकती है? व्यक्ति की कोई महत्ता नहीं है। मैं तो साधना की गरिमा

146. जिसकी ओर से लोगों की निष्ठाएँ कमज़ोर हो गई थीं, जिसको लोग बेकार समझते थे, जिसको लोग बेवकूफी समझते थे, जिसके लिए समय लगाना निरर्थक समझते थे - मैं उसकी महिमा बता रहा हूँ - जिसकी मान्यता, जिसकी निष्ठा को (पु) पुनर्जीवित करने के लिए मैं दुनिया में आया।

147. मित्रों, समझ के बारे में, अकल के बारे में - स्कूलों की पढ़ाई से, कॉलेजों की पढ़ाई से - विज्ञान का (संवर्धन) नहीं हो सकता।

148. आध्यात्मिकता (के) की शक्ति के सहारे - कालीदास की तरीके से, जिसने न स्कूलों में पढ़ा था, न कोई चीज़, किताब (खी) थी - जिसने अपनी अकल को कितनी पैनी, और कितनी तीखी कर लिया था - जिसने (र) रघुवंश लिखा, जिसने मेघदूत लिखा, जिसने दूसरे ग्रंथ लिखे