उर्दू भाषा और साहित्य
विकास: उर्दू भारतवर्ष की आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं में से एक है। इसका विकास मध्ययुग में उत्तरी भारत के उस क्षेत्र में हुआ जिसमें आज पश्चिमी उत्तर प्रदेश, दिल्ली और पूर्वी पंजाब सम्मिलित हैं। इसका आधार उस प्राकृत और अपभ्रंश पर था जिसे शौरसेनी कहते थे और जिससे खड़ीबोली, ब्रजभाषा, हरियाणी और पंजाबी आदि ने जन्म लिया था। मुसलमानों के भारत में आने और पंजाब तथा दिल्ली में बस जाने के कारण इस प्रदेश की बोलचाल की भाषा में फारसी और अरबी शब्द भी सम्मिलित होने लगे और धीरे-धीरे उसने एक पृथक् रूप धारण कर लिया। मुसलमानों का राज्य और शासन स्थापित हो जाने के कारण ऐसा होना स्वाभाविक भी था कि उनके धर्म, नीति, रहन-सहन, आचार-विचार का रंग उस भाषा में झलकने लगे। इस प्रकार उसके विकास में कुछ ऐसी प्रवृत्तियाँ सम्मिलित हो गईं जिनकी आवश्यकता उस समय की दूसरी भारतीय भाषाओं को नहीं थी। पश्चिमी उत्तर प्रदेश और दिल्ली में बोलचाल में खड़ीबोली का प्रयोग होता था। उसी के आधार पर बाद में उर्दू का साहित्यिक रूप निर्धारित हुआ। इसमें काफी समय लगा, अत: देश के कई भागों में थोड़े-थोड़े अंतर के साथ इस भाषा का विकास अपने-अपने ढंग से हुआ।
उर्दू का मूल आधार तो खड़ीबोली ही है किंतु दूसरे क्षेत्रों की बोलियों का प्रभाव भी उसपर पड़ता रहा। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि आरंभ में इसको बोलनेवाली या तो बाजार की जनता थी अथवा वे सुफी-फकीर थे जो देश के विभिन्न भागों में घूम-घूमकर अपने विचारों का प्रचार करते थे। इसी कारण इस भाषा के लिए कई नामों का प्रयोग हुआ है। अमीर खुसरो ने उसको 'हिंदी', 'हिंदवी' अथवा 'ज़बाने देहलवी' कहा था; दक्षिण में पहुँची तो 'दकिनी' या 'दक्खिनी' कहलाई, गुजरात में 'गुजरी' (गुजराती उर्दू) कही गई; दक्षिण के कुछ लेखकों ने उसे 'ज़बाने-अहले-हिंदुस्तान' (उत्तरी भारत के लोगों की भाषा) भी कहा। जब कविता और विशेष रूप से गजल के लिए इस भाषा का प्रयोग होने लगा तो इसे 'रेख्ता' (मिली-जुली बोली) कहा गया। बाद में इसी को 'ज़बाने उर्दू', 'उर्दू-ए-मुअल्ला' या केवल 'उर्दू' कहा जाने लगा। यूरोपीय लेखकों ने इसे साधारणत: 'हिंदुस्तानी' कहा है और कुछ अंग्रेज लेखकों ने इसको 'मूस' के नाम से भी संबोधित किया है।
उद्गम की दृष्टि से उर्दू वही है जो हिंदी; देखने में केवल इतना ही अंतर मालूम देता है कि उर्दू में अरबी-फारसी शब्दों का प्रयोग कुछ अधिक होता है। इसकी लिपि देवनागरी से भिन्न है और कुछ मुहावरों के प्रयोग ने इसकी शैली और ढाँचे को बदल दिया है। परंतु साहित्यिक परंपराएँ और रूप सब एक अन्य साँचे में ढले हुए हैं। यह सब कुछ ऐतिहासिक कारणों से हुआ है जिसका ठीक-ठीक अनुमान उसके साहित्य के अध्ययन से किया जा सकता है। परंतु इससे पहले एक बात की ओर और ध्यान देना चाहिए। उर्दू तुर्की भाषा का शब्द है जिसका अर्थ है वह बाजार जो शाही सेना के साथ-साथ एक स्थान से दूसरे स्थान पर चलता रहता था। वहाँ जो मिली-जुली भाषा बोली जाती थी उसको उर्दूवालों की भाषा कहते थे, क्रमश: वही भाषा स्वयं उर्दू कही जाने लगी। इस अर्थ में इस शब्द का प्रयोग 17वीं शताब्दी के अंत से मिलता है।
उर्दू का प्रांरभिक रूप या तो सूफी फकीरों की बानी में मिलता है या जनता की बोलचाल में। भाषा की दृष्टि से उर्दू के विकास में पंजाबी का प्रभाव सबसे पहले दिखाई पड़ता है, क्योंकि जब 15वीं और 16वीं सदी में इसका प्रयोग दक्षिण के कवि और लेखक साहित्यिक रचनाओं के लिए करने लगे तो उसमें पंजाबीपन पर्याप्त मात्रा में पाया जाता था। 17वीं और 18वीं शताब्दी में ब्रजभाषा का गहरा प्रभाव उर्दू पर पड़ा और बड़े-बड़े विद्वान् कविता में 'ग्वालियरी भाषा' को अधिक शुद्ध मानने लगे, किंतु उसी युग में कुछ विद्वानों और कवियों ने उर्दू को एक नया रूप देने के लिए ब्रज के शब्दों का बहिष्कार किया और फारसी-अरबी के शब्दों को बढ़ाने लगे। दक्षिण में उर्दू का प्रयोग किया जाता था, उत्तरी भारत में उसे नीची श्रेणी की भाषा समझा गया क्योंकि वह दिल्ली की बोलचाल की उस भाषा से भिन्न थी जिसमें फारसी साहित्य और संस्कृति की झलक थी।
सच तो यह है कि उर्दू भाषा के बनने में जो संघर्ष जारी रहा उसमें ईरानी और हिंदुस्तानी तत्व एक दूसरे से टकराते रहे और धीरे-धीरे हिंदुस्तानी तत्व ईरानी तत्व पर विजय पाता गया। अनुमान लगाया गया है कि जिस भाषा को उर्दू कहा जाता है उसमें 75 प्रतिशत शब्द वे ही हैं जिनका आधार हिंदी का कोई न कोई रूप है। शेष 15 प्रतिशत में फारसी, अरबी, तुर्की और अन्य भाषाओं के शब्द सम्मिलित हैं जो सांस्कृतिक कारणों से मुसलमान शासकों के जमाने में स्वाभाविक रूप से उर्दू में घुल-मिल गए थे। इस समय उर्दू पाकिस्तान के अनेक क्षेत्रों में, उत्तरी भारतवर्ष के कई भागों में, कश्मीर और आंध्र प्रदेश में बहुत से लोगों की मातृभाषा है।
मुसलमान भारतवर्ष में आए तो यहाँ के जीवन पर उनका प्रभाव पड़ा और वे स्वयं यहाँ की स्थिति से प्रभावित हुए। उन्होंने यहाँ की भाषाएँ सीखीं और उनमें अपने विचार प्रकट किए। सबसे पहले लाहौर के ख्वाजा मसऊद साद सलमान (1166 ई.) का नाम मिलता है जिन्होंने हिंदी में अपना काव्यसंग्रह एकत्र किया जो दुर्भाग्य से आज प्राप्त नहीं होता। उसी समय में कई सूफी फकीरों के नाम मिलते हैं जो देश के कोने-कोने में घूम फिरकर जनता में अपने विचारों का प्रचार कर रहे थे। इस बात का अनुमान करना कठिन नहीं है कि उस समय कोई बनी बनाई भाषा प्रचलित नहीं रही होगी इसलिए वे बोलचाल की भाषा में फारसी अरबी के शब्द मिलाकर काम चलाते होंगे। इसके बहुत से उदाहरण सूफियों के संबंध में लिखी हुई पुस्तकों में मिल जाते हैं। जिन लोगों को कविताएँ अथवा वाक्य मिले हैं उनमें से कुछ के नाम ये हैं : बाबा फ़रीद शकरगंज (मृ. 1262 ई.), शेख़ हमीदउद्दीन नागौरी (मृ. 1284 ई.), शेख़ शरफ़ुद्दीन अबू अली क़लंदर (मृ. 1323 ई.), अमीर खुसरो (मू. 1380 ई.), मख़दूम अशरफ़ जहाँगीर (मृ. 1355 ई.), शेख़ अब्दुलहक़ (मृ. 1433 ई.), सैयद गेसू दरज़ (मृ. 1421 ई.), सैयद मुहम्मद जौनपुरी (मृ. 1504 ई.), शेख़ बहाउद्दीन बाजन (मृ. 1506 ई.) इत्यादि। इनमे बचन और दोहरे इस बात का पता देते हैं कि एक ऐसी भाषा बन रही थी जो जनसाधरण समझ सकता था और जिसका रूप दूसरी बोलियों से भिन्न था।
ऊपर के कवियों में अमरी खुसरो और गेसू दराज़ उर्दू साहित्य के प्रारंभिक इतिहास में बहुत महत्व रखते हैं। खुसरो की हिंदी रचनाएँ, जिनका कुछ अंश दिल्ली की खड़ीबोली में होने के कारण उर्दू कहा जाता है, देवनागरी में भी प्रकाशित हो चुकी हैं, परंतु गेसू दराज़ के लेखों और कविताओं की खोज अभी जारी है। इस समय तक 'चक्कीनाम', 'तिलावतुल वजूद', 'मेराजनामा' प्राप्त हो चुकी हैं, इन सब में सूफी विचार प्रकट किए गए हैं। गेसू दराज़ दिल्ली निवासी थे परंतु उनका ज्यादा समय दक्षिण में बीता, वहीं उनकी मृत्यु हुई और इसी कारण उनकी भाषा को दक्किनी उर्दू कहा जाता है। सच यह है कि उर्दू, जिसने दिल्ली के आसपास एक भाषा का रूप ग्रहण किया था, सेनाओं, सूफी फकीरों, सरकारी कर्मचारियों और व्यापारियों के साथ देश के अन्य भागों में पहुँची और उचित वातावरण पाकर बढ़ी और फैली।
उर्दू के साहित्यिक रूप के प्रारंभिक विकास के चिह्न सबसे पहले दक्षिण और गुजरात में दिखाई पड़ते हैं। गेसू दराज़ के अतिरिक्त मीरानजी शमसुल उश्शाक़, बुरहानुद्दीन जानम, निज़ामी, फिरोज़, महमूद, अमीनुद्दीन आला ने ऐसी रचनाएँ लिखी हैं जो प्रत्येक उर्दू साहित्य के इतिहास में स्थान प्राप्त कर सकती हैं। बहमनी राज्य के पतन के पश्चात् जब दक्षिण में पाँच राज्य बने तो उर्दू को उन्नति करने का और अवसर मिला। जनता से संपर्क रखने के लिए बादशाहों ने भी उर्दू को ही मुख्य स्थान दिया। गोलकुंडा और बीजापुर में साहित्य और कला कौशल की उन्नति हुई। दिल्ली से नाता तोड़ने और अपनी स्वाधीनता प्रकट करने के लिए उन्होंने फारसी के विरुद्ध इस देशी भाषा को अपनाया और साहित्यकारों का साहस बढ़ाया। बीजापुर के इब्राहीम आदिलशाह ने अपनी सुविख्यात रचना 'नौरस' 16वीं शताब्दी के अंत में प्रस्तुत की। इसमें ब्रज और खड़ीबोली का मेल है, फारसी अरबी के शब्द भी बीच-बीच में आ जाते हैं। परंतु इसका पूरा ढाँचा एकमात्र हिंदुस्तानी है। इसके समस्त गीत भारतीय संगीत के आधार पर लिखे गए हैं। इसकी भूमिका फारसी के सुप्रसिद्ध विद्वान, 'ज़हूरी' ने फारसी में लिखी जो 'सेहनस्र' (तीन गद्य) के नाम से आज भी महत्व रखती है। बीजापुर के अन्य दूसरे बादशाह भी स्वयं कवि और कवियों के संरक्षक थे। इनमें 'आतशी', 'मुक़ीमी', 'अमीन', 'रुसतमी', 'ख़ुशनूद', 'दौलतशाह' के नाम स्मरणीय हैं। बीजापुर के अंतिम दिनों में उर्दू का कहान् कवि 'नुसरती' पैदा हुआ जिसने श्रृंगार और वीररस में श्रेष्ठ कविताएँ लिखीं।
बीजापुर की ही भाँति गोलकुंडा में भी बादशाह और जनता सब अधिकतर उर्दू ही में लिख रहे थे। मुहम्मद क़ुली कुतुबशाह (मृ. 1611 ई.) स्वयं उर्दू, फारसी और तेलुगु में कविताएँ लिखता और कवियों को प्रोत्साहन देता था। उसके काव्यसंग्रह में भारत के मौसमों, फलों, फूलों, चिड़ियों और त्यौहारों का विचित्र वर्णन मिलता है। उसके बाद जो और बादशाह हुए वे भी अच्छे कवि हुए और उनके संग्रह भी विद्यमान हैं। प्रसिद्ध कवियों और लेखकों में 'वजही', 'इब्ने निशाती', 'गुलामअली' इत्यादि महत्व रखते हैं। इस प्रकार दक्षिण में उर्दू के इस पहले साहित्यिक रूप ने कुछ ऐसी रचनाओं को जन्म दिया जो साहित्य और चिंतन दोनों की दृष्टि से सराहनीय हैं। इन रचनाओं में कुलियाते क़लीक़ुतबशाह, क़ुतुब मुशतरी (वजही), फलबन (इब्नेनिशाती), सैफ़ुल-मुलूक व बदीउल जमाल (ग़्व्वाासी), मनोहर मधुमालती (नुसरती), चंद्रबदन व महयार (मुक़ीमी) इत्यादि उर्दू की श्रेष्ठ रचनाओं में गिनी जाती हैं।
17वीं शताब्दी की समाप्ति के पूर्व गुजरात, अरकाट, मैसूर और मद्रास तक पहुँच चुकी थी। गुजरात में इसकी उन्नति अधिकतर सूफी कवियों के हाथों हुई जिनमें शेख़ बाजन, शाहअलोज्यु और ख़ूब मुहम्मद चिश्ती की रचनाएँ बहुत महत्व रखती हैं।
क्योंकि उर्दू की परंपराएँ बन चुकी थीं और लगभग 300 वर्षों में उनका संगठन भी हो चुका था इसलिए जब सन् 1687 ई. में मुगलों ने दक्षिण को अपने राज्य में मिला लिया तब भी उर्दू साहित्य के सोते नहीं सूखे बल्कि काव्यरचना ने और तीव्र गति से उन्नति की। १७वीं शताब्दी के अंत और १८वीं शताब्दी के आरंभ में 'वली' दक्किनी (1707 ई.), 'बहरी', 'वजही', 'वली', 'वेलोरी, 'सेराज' (1763 ई.), 'दाऊद', और 'उज़लत' जैसे कवियों ने जन्म लिया। इनमें भी 'वली', 'दक्किनी', 'बहरी', 'सेराज' की गणना उर्दू के बहुत बड़े कवियों में होती है। 'वली' को तो उत्तरी और दक्षिणी भारत के बीच की कड़ी कहा जा सकता है। यह स्पष्ट है कि दिल्ली की बोलचाल की भाषा उर्दू थी परंतु फारसी के प्रभाव से वहाँ के पढ़े-लिखे लोग अपनी सांस्कृतिक आवश्यकताएँ फारसी से ही पूरी करते थे। वे समझते थे कि उर्दू से इनकी पूर्ति नहीं हो सकती। 'वली' और उनकी कविता के उत्तरी भारत में पहुँचने से यह भ्रम दूर हो गया और सहसा उत्तरी भारत की साहित्यिक स्थिति में एक क्रांतिकारी परिवर्तन हो गया। थोड़े ही समय में दिल्ली सैंकड़ों उर्दू कवियों की वाणी से गूँज उठी।
अब उर्दू के दिल्ली स्कूल का आरंभ होता है। यह बात स्मरणीय है कि यह सामंत काल के पतन का युग था। मुगल राज केवल अंदर से ही दुर्बल नहीं था वरन् बाहर से भी उसपर आक्रमण होते रहते थे। इस स्थिति से जनता की बोलचाल की भाषा ने लाभ उठाया। अगर राज्य प्रबल होता तो न नादिरशाह दिल्ली को लूटता और न फारसी की जगह जनता की भाषा मुख्य भाषा का स्वरूप धारण करती। इस समय के कवियों में 'ख़ाने आरज़ू', 'आबरू', 'हातिम' (1783 ई.), 'यकरंग', 'नाज़ी', 'मज़मून', 'ताबाँ', (1748 ई.) 'फ़ुगाँ' (1772 ई.), 'मज़हर जानेजानाँ', 'फ़ायेज़' इत्यादि उर्दू साहित्य में बहुत ऊँचा स्थान रखते हैं। दक्षिण में प्रबंध काव्यों और मरसियों (शोक कविताओं) की उन्नति हुई थी, दिल्ली में गजल का बोलबाला हुआ। यहाँ की प्रगतिशील भाषा हृदय के सूक्ष्म भावों को प्रकट करने के लिए दक्षिणी भाषा की अपेक्षा अधिक समर्थ थी इसलिए गजल की उन्नति स्वाभाविक जान पड़ती है। यह बात भी याद रखने योग्य है कि इस समय की कविताओं में श्रृंगार रस और भक्ति के विचारों को प्रमुख स्थान मिला है। सैंकड़ों वर्ष के पुराने समाज की बाढ़ रुक गई थी और जीवन के सामने कोई नया लक्ष्य नहीं था इसलिए इस समय की कविता में कोई शक्ति और उदारता नहीं दिखलाई पड़ती। 18वीं शताब्दी के समाप्त होने से पहले एक ओर नई-नई राजनीतिक शक्तियाँ सिर उठा रहीं थी जिससे मुगल राज्य निर्बल होता जा रहा था, दूसरी ओर वह सभ्यता अपनी परंपराओं की रोगी सुंदरता की अंतिम बहार दिखा रही थी। दिल्ली में उर्दू कविता और साहित्य के लिए ऐसी स्थिति पैदा हो रही थी कि उसकी पहुँच राजदरबार तक हो गई। मुगल बादशाह शाहआलम (1749-1806 ई.) स्वयं कविता लिखते थे और कवियों को आश्रय देते थे। इस युग में जिन कवियों ने उर्दू साहित्य का सिर ऊँचा किया, वे हैं 'मीर दर्द' (1784 ई.), 'मिर्ज़ा सौदा' (1785 ई.), मीर तक़ी 'मीर' (1710 ई.) और 'मीर सोज़'। इनके विचारों की गहराई और ऊँचाई, भाषा की सुंदरता तथा कलात्मक निपुणता प्रत्येक दृष्टि से सराहनी है। 'दर्द' ने सूफी विचार के काव्य में, 'मीर' ने गजल में और 'सौदा' समस्त क्षेत्रों में उर्दू कविता की सीमाएँ विस्तृत कर दी।
परंतु दिन बहुत बुरे आ गए थे। ईस्ट इंडिया कंपनी का दबाव बढ़ता जा रहा था और दिल्ली का राजसिंहासन डावाँडोल था। विवश होकर शाह आलम ने अपने को कंपनी की रक्षा में दे दिया और पेंशन लेकर दिल्ली छोड़ प्रयाग में बंदियों की भाँति जीवन बिताने लगे। इसका फल यह हुआ कि बहुत से कवि और कलाकार अन्य स्थानों को चले गए। इस समय कुछ नए नए राजदरबार स्थापित हो गए थे, जैसे हैदराबाद, अवध, अजीमाबाद (पटना), फर्रुखाबाद इत्यादि। इनकी नई ज्योति और जगमगाहट ने बहुत से कवियों को अपनी ओर खींचा। सबसे अधिक आकर्षक अवध का राजदरबार सिद्ध हुआ, जहाँ के नवाब अपने दरबार की चमक दमक मुगल दरबार की चमक-दमक से मिला देना चाहते थे। दिल्ली की स्थिति खराब होते ही 'फ़ुगाँ', 'सौदा', 'मीर', 'हसन' (1787 ई.) और कुछ समय बाद 'मुसहफ़ी' (1825 ई.), 'इंशा' (1827 ई.), 'जुरअत' और अन्य कवि अवध पहुँच गए और वहाँ काव्यरचना का एक नया केंद्र बन गया जिसको 'लखनऊ स्कूल' कहा जाता है।
सन् 1775 ई. में लखनऊ अवध की राजधानी बना। उसी समय से यहाँ फारसी-अरबी की शिक्षा बड़े पैमाने पर आंरभ हुई और अवधी के प्रभाव से उर्दू में नई मिठास उत्पन्न हुई। क्योंकि यहाँ के नवाब शिया मुसलमान थे और वह शिया धर्म की उन्नति और शोभा चाहते थे, इसलिए यहाँ को काव्यरचना में कुछ नई प्रवृत्तियाँ पैदा हो गई जो लखनऊ की कविता को दिल्ली की कविता से अलग करती हैं। उर्दू साहित्य के इतिहास में दिल्ली और लखनऊ स्कूल की तुलना बड़ा रोचक विषय बनी रही है; परंतु सच यह है कि सांमती युग की पतनशील सीमाओं के अंदर दिल्ली और लखनऊ में कुछ बहुत अंतर नहीं था। यह अवश्य है कि लखनऊ में भाषा और जीवन के बाह्य रूप पर अधिक जोर दिया जाता था और दिल्ली में भावों पर। परंतु वस्तुत: दिल्ली की ही साहित्यिक परंपराएँ थीं जिन्होंने लखनऊ की बदली हुई स्थिति में यह रूप धारण किया। यहाँ के कवियों में 'मीर', 'मीर हसन', 'सौदा', 'इंशा', 'मुसहफ़ी', 'जुरअत', के पश्चात 'आतिश' (1847 ई.), 'नासिख' (1838 ई.), 'अनोस' (1874 ई.), 'दबीर', 'वज़ीर', 'नसीम', 'रश्क', 'रिंद ओर 'सबा' ऊँचा स्थान रखते हैं। लखनऊ में मरसिया और मसनवी की विशेष रूप से उन्नति करने का अवसर मिला।
लखनऊ और दिल्ली स्कूलों के बाहर भी साहित्यरचना हो रही थी और ये रचनाएँ राजदरबारों के प्रभाव के दूर होने के कारण जनसाधारण के भावों के निकट थीं। इस संबंध में सबसे महत्वपूर्ण नाम 'नज़ीर' अकबराबादी का है। उन्होंने रूढ़िवादी विचारों से नाता तोड़कर हिंदुस्तानी जनता के दिलों कीे धड़कनें अपनी कविताओं में बंद कीं। उनकी शैली और विचारधारा दोनों में भारतीय जीवन की सरलता और उदारता मिलती है।
पश्चिमी संपर्क के फलस्वरूप १९वीं शताब्दी के मध्य में भारतवर्ष की दूसरी भाषाओं की तरह उर्दू में भी नई चेतना का आंरभ हो गया और आर्थिक, सामाजिक, तथा राजनीतिक परिवर्तनों के कारण नई विचारधारा का उद्भव हुआ। किंतु इससे पहले दिल्ली की मिटती हुई सामंती सभ्यता ने 'ज़ौक' (१८५२ ई.), 'मोमिन' (१८५५ ई.), 'ग़्ाालिब', (१८६९ ई.), 'शेफ़ता' (१८६९) और 'ज़फ़र' जैसे कवियों को जन्म दिया। इनमें विशेष रूप से ग़्ाालिब की साहित्यिक रचनाएँ उस जीवन की शक्तियों और त्रुटियों दोनों की प्रतीक हैं। उनकी महत्ता इसमें हैं कि उन्होंने अपनी कविताओं में हार्दिक भावों और मानसिक स्थितियों, दोनों का समन्वय एक विचित्र शैली में किया है।
उर्दू गद्य का विकास नए युग से पहले ही हो चुका था परंतु उसकी उन्नति १९वीं शताब्दी में हुई। दक्षिण में 'मेराजुअल आशिक़ीन' और 'सबरस' (१६३४ ई.) के अतिरिक्त कुछ धार्मिक रचनाएँ मिलती हैं। उत्तरी भारत में 'तहसीन' की 'नौ तरज़े मुरस्सा' (१७७५ ई.) का नाम लिया जा सकता है। अंग्रेजों ने अपनी सुविधा के लिए फोर्ट विलियम कालेज (१८०० ई.) स्थापित किया और गद्य में कुछ पुस्तकें लिखवाई जिसके फलस्वरूप उर्दू गद्य की उस नई शैली क विकास हुआ जो ५० वर्ष बाद पूर्णतया प्रचलित हुई। यहाँ की रचनाओं में मीर अम्मन की 'बाग़्बाोहार' हैदरी की 'आराइशे महफ़िल', अफ़सोस की 'बाग़्ो उर्दू' विला को 'बेताल पचीसी', जवान की 'सिंहासन बत्तीसी', निहालचंद की 'मज़हबे इश्क़', उच्च कोटि की रचनाएँ हैं। १९वीं सदी के आरंभ में ही 'इंशा' ने 'रानी केतकी की कहानी' ओर 'दरियाए लताफ़त' लिखी थीं। लखनऊ में सबसे महत्वपूर्ण और कथासाहित्य में सुविख्यात पुस्तक 'फ़िसानए अजायब' १८२४ ई. में लिखी गई; इसके लेखक रजब अली बेग 'सुरूर' हैं। अंग्रेजी शिक्षा के विस्तार के कारण नए पाठयक्रम बन रहे थे। इसके लिए १८४२ ई. में देहली कालेज में 'वर्नाक्युलर' ट्रांसलेशन सोसाइटी' की स्थापना हुई जहाँ रामायण, महाभारत, लीलावती, धर्मशास्त्र इत्यादि के अतिरिक्त विभिन्न विषयों की लगभग १५० पुस्तकों के उर्दू अनुवाद हुए। इस प्रकार उर्दू गद्य भी उन्नति करता रहा और इस योग्य हुआ कि नई चेतना का साथ दे सके।
उर्दू साहित्य में नवजागृति के वास्तविक चिह्न १८५७ के विद्रोह के बाद ही से मिलते हैं। इसके ऐतिहासिक, राजनीतिक और सामाजिक कारण स्पष्ट हैं। इन कारणों से जो नई चेतना उत्पन्न हुई उसी ने नए कवियों और साहित्यकारों को नई स्थिति के अनुकूल लिखने का अवसर दिया। इसमें सबसे पहला नाम सर सैयद (१८१७-१८९७ ई.) का लिया जा सकता है। उन्हीं के नेतृत्व में हाली, (१८८७-१९१४ ई.) आज़ाद (१८३३-१९१० ई.) नज़ीर अहमद (१८३४-१९१२ ई.) और शिबली (१८५७-१९१४ ई.) ने उर्दू गद्य और पद्य में महान् रचनाएँ कीं और अंग्रेज साहित्य से प्रेरणा लेकर अपने साहित्य को समय के अनुकूल बनाया। मौलाना मुहम्मद हुसैन आज़ाद नई उर्दू कविता के निर्माता थे। वे दिल्ली कालेज में अपने विद्यार्थी जीवन में यूरोपीय विद्वानों और साहित्य से प्रभावित हो चुके थे। लाहौर में उन्होंने शिक्षा विभाग के अधिकारियों के सहयोग से 'अंजुमने पंजाब' की स्थापना की और १८६७ ई. में उसकी एक सभा में व्याख्यान देते हुए उन्होंने उर्दू कविता की त्रुटियों की ओर ध्यान दिलाते हुए कहा कि कविता को मानव जीवन और प्रकृति के सभी अंगों पर प्रकाश डालना चाहिए जो दुर्भाग्यवश अभी तक उर्दू कविता में नहीं हो सका। हमें अब पुरानी लकीर पीटने के बजाए नए वातावरण की समस्याओं को चिंतन और काव्य का विषय बनाना चाहिए। इन्हीं विचारों के फलस्वरूप उर्दू कविता में नई शायरी का निर्माण हुआ और बाद के अधिकतर महान् कवि इसी से प्रभावित हुए। बहुत से छापेखाने खुल गए थे, पत्र-पत्रिकाएँ निकल रही थीं, नए पुराने का संघर्ष चल रहा था, इसलिए इन लोगों को अपने नए विचार प्रकट करने और उन्हें फैलाने में बड़ी सुविधा हुई। इसी युग में 'सरशार', 'शरर' और मिर्ज़ा रुसवा का नाम भी लिया जा सकता है, जिन्होंने उपन्यास साहित्य में बहूमूल्य वृद्धि की। इस युग को हर प्रकार से आलोचना का युग कहा जा सकता है; जो कुछ लिखा जा रहा था उसको इतिहास अपनी कसौटी पर परख रहा था। इन महान् लेखकों ने आलोचना, निबंध, उपन्यास, जीवनी, कविता के रूप में जो कुछ लिखा है वही आज के नए साहित्य का आधार है। इस युग की महानता यह है कि साहित्यकार ही नवचेतना के अग्रदूत और नेता बन गए थे। राजनीतिक दृष्टि से ये लोग क्रांतिकारी नहीं थे, किंतु इन्हीं की विचारधारा के बाद के लेखकों को प्रेरणा दी।
20वीं सदी का आरंभ होने से बहुत पहले राष्ट्रीयता की भावना पैदा हो चुकी थी और उसकी झलक इन साहित्यकारों की कृतियों में भी मिल जाती है; परंतु इसका पूरा विकास 'इक़बाल' (१८७३-१९३८ ई.), 'चकबस्त' (१८८२-१९२६), 'प्रेमचंद' (१८८०-१९३६ ई.), इत्यादि की कविताओं और लेखों में हुआ। यह भी याद रखना चाहिए कि इसी के साथ साहित्य की पुरानी परंपराएँ भी चल रही थीं और 'अमीर' (१८९९), 'दाग़' (१९०५), 'जलाल' (१९१०) और दूसरे कवि भी अपनी गजलों से पढ़नेवालों को मोहित कर रहे थे। किसी न किसी रूप में यह धारा अब तक चली जा रही है। इस शताब्दी के उल्लेखनीय कवियों में 'सफ़ी', दुर्गा सहाय 'सुरूर', 'साक़िब', 'महशर', 'अज़ीज़', 'रवाँ, 'हसरत', 'फ़ानी', 'जिगर', 'असर' और लेखकों में हसन निज़ामी, राशिदुल खैरी, सुलैमान नदवी, अब्दुलहक़, रशीद अहमद, मसूद हसन, मौलाना आज़ाद और आबिदहुसेन हैं।
वर्ममान काल में साहित्य की सीमाएँ और विस्तृत हुई हैं और हर विचार के लेखक अपने-अपने ढंग से उर्दू साहित्य को दूसरे साहित्यों के बराबर लाने में लगे हुए हैं। कवियों में 'जोश', 'फ़िराक़', 'फ़ैज़', 'मजाज़', 'हफ़ीज', 'साग़्रा', 'मुल्ला', 'रविश', 'सरदार', 'जमील' और 'आज़ाद' के नाम उल्लेखनीय हैं, तो गद्य में कृष्णचंद्र 'अश्क', हुसेनी, 'मिंटो', हायतुल्लाह, इसमत, अहमद नदीम, ख्वाज़ा अहमद अब्बास अपना महत्व रखते हैं। २०वीं शताब्दी में आलोचना साहित्य की बड़ी उन्नति हुई। इसमें नियाज़, फ़िराक़, ज़ोर, कलीम, मजनूँ, सुरूर, एहतेशाम हुसैन, एजाज़ हुसैन, मुमताज़ हुसैन, इबादत इत्यादि ने बहुत सी बहुमूल्य पुस्तकें लिखीं।
20वीं शताब्दी में साहित्यिक स्कूलों के झगड़े समाप्त होकर विचारधाराओं के आधार पर साहित्यरचना होने लगी थी। अंग्रेजी साहित्य और शिक्षा के प्रभाव से छायावादी कविता को बढ़ावा मिला। फिर प्रजातंत्र और राष्ट्रीयता की भावना ने प्रगतिशील आंदोलन को जन्म दिया जो 1936 ई. से आरंभ होकर किसी न किसी रूप में अब तक चल रहा है। इस बीच में 'मार्क्स' और 'फ्रायड' ने भी लेखकों को भिन्न-भिन्न समूहों में बाँटा। कुछ लेखक मुक्त छंद में भी कविताएँ लिखने लगे, किंतु इस प्रकार के समस्त प्रयोग अभी तक अपनी जड़ें बहुत गहरी नहीं कर सके हैं।
समकालीन उर्दू साहित्य में नई काव्यरचना प्रयोगवाद, स्पष्टवाद, प्रतीकवाद और निरुद्देश्यवाद से बहुत प्रभावित हो रही है। नई कविता जीवन के सभी मूल्यों का बहिष्कार करती है क्योंकि नए कवि सामाजिक चेतना को काव्यरचना में बाधक मानते हैं। इसके अतिरिक्त नए कवि अपने व्यक्तित्व अपने व्यक्तित्व को सिद्ध करने के लिए भाषा, विचार, कला और साहित्य के सभी नियमों को तोड़ना आवश्यक समझते हैं। कुछ लोग इसी को विचार स्वतंत्रता का नाम भी देते हैं, किंतु यह बात अभी तक स्पष्ट नहीं हो सकी कि नई कविता लिखनेवाले एक ओर तो साहित्य और कला की सभी परंपराओं से अपना नाता तोड़ रहे हैं और दूसरी ओर वे अपनी विचारधारा को यूरोप और अमरीका के कुछ दार्शनिकों, लेखकों और कवियों की विचारधारा से मिलाने की अनथक चेष्टा कर रहे हैं। यह आधुनिकता उर्दू कहानी और उपन्यास को भी प्रभावित कर रही है। नई कविता, कहानी और उपन्यास को साहित्य के इतिहास में क्या स्थान मिलेगा, इस समय इस संबंध में कुछ नहीं कहा जा सकता।
नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा प्रकाशित ’विश्वकोश’ से उद्धत