रीतिकाल (वर्ष 1650 ई. से 1857 ई. तक)
हिंदी साहित्य के उत्तर मध्यकाल के समय को रीतिकाल के नाम से जाना जाता है ।
जार्ज ग्रियर्सन ने इसे ‘कला काल’ कहा है, जो इस काल के कवियों की विशिष्टता को पहले के कवियों से अलग दिखाता है। दूसरी ओर मिश्रबंधुओं ने इसे ‘अलंकृत काल’ कहा है, जबकि आचार्य रामचंद्र शुक्ल इसे ‘रीतिकाल’ और पं. विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ‘श्रृंगार काल’ नाम देते हैं।
रीति का अर्थ है : पद्धति । रस, अलंकार, गुण, ध्वनि और नायिका भेद आदि काव्य के अंगो का विवेचन करते हुए, इनके लक्षण बताते हुए रचे गए काव्य की प्रधानता के कारण इस काल को रीतिकाल कहा गया । रीतिग्रंथों, रीतिकाव्यों तथा अन्य प्रवृत्तियों के कवियों की रचनाओं में भी श्रृंगार रस की प्रधानता के कारण इस काल को श्रृंगारकाल भी कहा जाता है । इसके अतिरिक्त इस काल को अलंकार काल और कला काल भी कहा जाता है, लेकिन रीतिकाल नाम ही सबसे अधिक जाना जाता है ।
रीतिकाल के प्रवर्त्तक कवियों में केशवदास और चिंतामणि का नाम प्रमुख रूप से लिया जाता है । लेकिन आम तौर से केशवदास को ही रीतिकाल का प्रवर्त्तक कवि माना गया है । रीतिकाल के अधिकांश कवि दरबारी थे।
रीतिकाल के कुछ प्रमुख कवि और उनकी रचना— केशवदास (रसिकप्रिया, कविप्रिया), चिंतामणि (कविकुलकल्पतरु), देव (भावविलास, काव्य रसायन), बिहारी (सतसई), मतिराम (रसराज, ललितललाम), भूषण (शिवराज भूषण), धनानंद('सुजान हित), पद्माकर (जगविनोद, पद्माभरण) आदि। इनमें से केशव, बिहारी, धनानंद और भूषण को इस युग का प्रतिनिधि कवि माना जा सकता है। बिहारी ने दोहों की संभावनाओं को पूर्ण रूप से विकसित कर दिया। अधिकांश कवि दरबारी कवि थे।
रीतिकाल के कवियों को मुख्यत: तीन वर्गों में रखा गया है :-
1. रीतिग्रंथकार कवि या लक्षण बद्ध कवि या रीतिबद्ध कवि: जिन कवियों ने रीतिग्रंथों एवं लक्षणग्रंथों का निर्माण किया तथा अपने ग्रंथों में बताए गए काव्य-सिद्धांतों के लिए काव्य लिखा। उदाहरण – केशवदास, मतिराम, देव, चिंतामणि
2. रीतिसिद्ध कवि: ऎसे कवि जिन्हे रीतशास्त्र का ज्ञान है और वे रीति-परंपरा का पालन भी करते है, परन्तु रीतिग्रंथ न लिखकर सीधे काव्य की रचना करते हैं। उदाहरण: बिहारीलाल
3. रीतिमुक्त कवि: ऎसे कवि जिन्होंने रीति-परंपरा को नहीं माना और स्वतंत्र काव्य की रचना की। उदाहरण: घनानंद, बोधा, आलम, ठाकुर
रीतिकाल में उक्त काव्य धाराओं के साथ-साथ निम्नलिखित काव्य धाराएँ भी विकसित होती रही :-
1. नीतिकाव्य
2. भक्ति काव्य
3. वीर काव्य
आप जानते है कि हिंदी साहित्य में वर्ष 1650 ई. से 1857 ई. तक का समय रीतिकाल नाम से जाना जाता है । यह काल समृद्धि और विलासिता का काल है । श्रृंगार की अधिकता इस युग के जीवन और साहित्य, दोनों में स्पष्ट दिखती है । कला वासना-पूर्ति (आकांक्षा, इच्छा या कामना को पूरा करने) का साधन बनी और नारी उसका आधार । कहा जा सकता है कि प्रेम क्रीड़ाओं और नायक-नायिका -भेद का जो विविधतापूर्वक चित्रण इस काल की कविता में मिलता है, वह तत्कालीन परिस्थितियों को दिखाता है ।
राजनीतिक परिस्थितियाँ : राजनीतिक दृष्टि से यह दो सौ साल का समय मुगल-काल में शाहजहाँ से लेकर लार्ड हार्डिंग तक का समय है, जिसमें शाहजहाँ की सुन्दर कला-प्रियता का युग भी है और औरंगजेब की धार्मिक कट्टरता, नादिरशाह और अहमदशाह अब्दाली के कत्लेआम और नृशंसता की घटनाएँ भी इसी काल में घटित हुई । अंग्रेजों की कूटनीतिक चालों का समय भी यही है । छोटे-छोटे राज्यों, सरदार-सामंतों का इस परेशानी में अंग्रेज शासकों की अधीनता स्वीकार कर आँख मूँदकर दरबारी विलासिता में मस्त जीवन व्यतीत करने की कहानी भी इसी काल की कहानी है । इस काल के कवि इन विलासी रजवाड़ों के दरबारों में रहकर आश्रयदाताओं का मनोरंजन कर रहे थे। राजमहलों में नाच-रंग तथा मदिरापान का ही बोलबोला था । सुरा, सुराही और सुंदरी के राज में विलासी जीवन से उत्पन्न कविता श्रृंगारिक कविता बनती गई ।
सामाजिक परिस्थितियाँ : सामाजिक दृष्टि से यह काल घोर पतन का युग रहा । यह सामंतवादी युग था , जो सामंतवाद के अपने सभी दोषों से युक्त था । नीचे वर्ग के लोगों को राजा मात्र अपनी संपत्ति मानते थे, जिनका अस्तित्व केवल उनके लिए, उनकी सेवा के लिए ही था । नारी को अपनी सम्पत्ति मानकर उसका भोग, इनके जीवन का मूल मंत्र हो गया था । सुरा और सुंदरी राजा और प्रजा के लिए मह्त्वपूर्ण हो गए थे । नैतिक मूल्यों का पूर्णत: अभाव था । चिकित्सा, शिक्षा और संपत्ति-रक्षा का कोई प्रबंध न था । धर्म-स्थान भ्रष्टाचार और पापाचार (पाप+आचार) के केंद्र बन गए थे । हिंदू धर्म के लोग अपने भगवान राम-कृष्ण का अधिक श्रृंगार ही नहीं करते थे, बल्कि उनकी लीलाओं में अपने विलासी-जीवन को खोजने लगे थे । रुढ़िवादिता के अत्यधिक बढ़ जाने से मुसलमान जीवन की वास्तविकता से दूर पड़ गए । कर्म और आचार का स्थान अंधविश्वास ने ले लिया ।
साहित्य और कला : साहित्य और कला की दृष्टि से यह युग काफी समृद्ध रहा । ललित कलाओं में चित्रकला, स्थापत्य और संगीत-कला का पोषण राजमहलों में हुआ । संगीत-शास्त्र पर कुछ प्रामाणिक ग्रंथ लिखे गए ।
रीतिकाल की मुख्य विशेषताएँ:
केशवदास: केशवदास रीतिकाल के प्रवर्तक माने जाते हैं। इनकी जन्मतिथि के बारे में पता नहीं चल पाया है। वे ओरछा के राजा इंद्रजीत सिंह के दरबारी कवि थे। केशवदास एक अलंकारवादी आचार्य हैं। संस्कृत के आचार्य होने के कारण उन्होंने अपने काव्य में कठिन से कठिन शब्दों का उपयोग किया। जिसकारण इन्हे शब्दों का भूत या कठिन काव्य का प्रेत कहा जाता है। केशवदास की प्रमाणिक रचनाएँ रचनाक्रम के अनुसार ये हैं- 'रसिकप्रिया' (1591 ई.), 'कविप्रिया' और 'रामचन्द्रिका' (1601 ई.), 'विज्ञानगीता' (1610 ई.) और 'जहाँगीरजसचन्द्रिका' (1612 ई.), नखशिख, छंदमाला, विज्ञान गीता आदि। 'रतनावली' का रचनाकाल अज्ञात है, पर यह इनकी सर्वप्रथम रचना है। केशव दरबारी कवि थे। अन्य दरबारी कवियों की भांति उन्होंने भी अपने आश्रयदाता राजाओं का यशोगान किया है। वीर सिंह देव चरित और जहांगीर जस चंद्रिका उनकी ऐसी ही रचनाएं हैं।
केशव का दूसरा रूप आचार्य का है। कवि-प्रिया और रसिक-प्रिया में इन्होंने संस्कृत के लक्षण, ग्रंथों का अनुवाद किया और उदाहरण स्वरूप अपनी कविताओं की रचना की। राम चंद्रिका का विषय राम-भक्ति है किंतु केशव कवि पहले थे, कवि बाद में। अतः उनमें भक्ति-भावना की अपेक्षा काव्य-चमत्कार के प्रदर्शन की भावना अधिक है। विज्ञान गीता में केशव ने वैराग्य से संबंधित भावनाओं को व्यक्त किया है। केशवदास की भाषा बुन्देलखंडी मिली हुई ब्रजभाषा है।
बिहारी / बिहारीलाल: रीतिकाल के सबसे अधिक लोकप्रिय कवि बिहारी हैं। बिहारी का जन्म अनुमानत: सन 1600 ई में ग्वालियर के पास बसुआ गोविंद्पुर नाम के एक गाँव में हुआ था। वे जयपुर के राजा जयसिंह के दरबारी कवि थे। उनकी एक कथा है कि राजा जयसिंह अपनी नयी रानी के प्रेम में इतने डूबे रहते थे कि वे महल से बाहर भी नहीं निकलते थे और राज-काज की ओर कोई ध्यान नहीं देते थे। मन्त्री आदि लोग इससे बड़े चिंतित थे, किंतु राजा से कुछ कहने को शक्ति किसी में न थी। बिहारीलाल ने यह कार्य अपने ऊपर लिया। उन्होंने निम्नलिखित दोहा किसी प्रकार राजा के पास पहुंचाया-
नहिं पराग नहिं मधुर मधु, नहिं विकास यहि काल ।
अली कली ही सौं बिंध्यों, आगे कौन हवाल ।।
इस दोहे ने राजा पर मन्त्र जैसा कार्य किया। वे रानी के प्रेम-पाश से मुक्त होकर पुनः अपना राज-काज संभालने लगे। वे बिहारीलाल की काव्य कुशलता से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने बिहारीलाल से और भी दोहे रचने के लिए कहा और प्रति दोहे पर एक अशर्फ़ी देने का वचन दिया। बिहारीलाल जयपुर नरेश के दरबार में रहकर काव्य-रचना करने लगे, वहां उन्हें पर्याप्त धन और यश मिला। सन 1663 ई में उनकी मृत्यु हो गई। बिहारीलाल ने 719 दोहे लिखे जिसका संग्रह बिहारी सतसई के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इसका एक-एक दोहा हिन्दी साहित्य का अनमोल रत्न माना जाता है। बिहारीलाल की कविता का मुख्य विषय श्रृंगार है। उन्होंने श्रृंगार के संयोग और वियोग दोनों ही पक्षों का वर्णन किया है। संयोग पक्ष में बिहारीलाल ने हाव-भाव और अनुभवों का बड़ा ही सूक्ष्म चित्रण किया हैं। उसमें बड़ी मार्मिकता है। संयोग का एक उदाहरण देखिए-
बतरस लालच लाल की मुरली धरी लुकाय ।
सौंह करे, भौंहनु हंसे दैन कहे, नटि जाय ।।
घनानंद: घनानंद का जन्म सन 1689 ई में दिल्ली में हुआ था। वे रीतिमुक्त काव्य के सबसे बड़े कवि हैं। कवि घनानंद दिल्ली के बादशाह मुहम्मद शाह के मीर मुंशी (Secretary) थे। कहते हैं कि सुजान नाम की एक स्त्री से उनका अटूट प्रेम था। उसी के प्रेम के कारण घनानंद बादशाह के दरबार में बे-अदबी (अपमान) कर बैठे, जिससे नाराज होकर बादशाह ने उन्हें दरबार से निकाल दिया। साथ ही घनानंद को सुजान की बेवफाई ने भी निराश और दुखी किया। वे वृंदावन चले गए और निंबार्क संप्रदाय में दीक्षित होकर भक्त के रूप में जीवन-निर्वाह करने लगे। परंतु वे सुजान को भूल नहीं पाए और अपनी रचनाओं में सुजान के नाम का प्रतीकात्मक प्रयोग करते हुए काव्य-रचना करते रहे। घनानंद मूलतः प्रेम की पीड़ा के कवि हैं। वियोग वर्णन में उनका मन अधिक रमा है। घनानंद द्वारा रचित ग्रंथों की संख्या 41 बताई जाती है पर अब जो रचनाएँ मिलती है उनके नाम हैं सुजान हित,प्रेम सरोवर, गोकुल विनोद, प्रिय प्रसाद,प्रेम पत्रिका। घनानंद ग्रंथावली में उनकी 16 रचनाएँ संकलित हैं। घनानंद के नाम से लगभग चार हजार की संख्या में कवित और सवैये मिलतें हैं। इनकी सर्वाधिक लोकप्रिय रचना 'सुजान हित ' है, जिसमें 407 पद हैं । इन में सुजान के प्रेम,रूप,विरह आदि का वर्णन हुआ है। सुजान सागर,विरह लीला, कृपाकंड निबंध, रसकेलि वल्ली आदि इनकी अन्य प्रमुख रचनाए हैं। उन्होंने अपने काव्य में ब्रजभाषा का प्रयोग किया है । रीतिकाल की यही प्रमुख भाषा थी । इनकी ब्रजभाषा अरबी, फारसी,राजस्थानी,खड़ी बोली आदि के शब्दों से समृद्ध है । उन्होंने सरल-सहज लाछणिक व्यंजनापूर्ण भाषा का प्रयोग किया है । घनानंद ने लोकोक्तियों और मुहावरों के प्रयोग से भाषा सौंदर्य को चार चाँद लगा दिए हैं। घनानंद ने अपने काव्य में अलंकारो का प्रयोग अत्यंत सहज ढंग से किया है । उन्होंने काव्य में अनुप्रास, यमक,उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा एवं विरोधाभास आदि अलंकारो का प्रयोग बहुलता के साथ हुआ है।
उनके काव्य का एक उदाहरण: रूप सौंदर्य का वर्णन करने में कवि घनानंद का कोई सानी नहीं है । वह काली साड़ी में अपनी नायिका को देखकर उन्मत्त सा हो जातें हैं ।
सावँरी साड़ी ने सुजान के गोरे सरीर को कितना कांतिमान बना दिया हैं।
स्याम घटा लिपटी थिर बीज की सौहैं अमावस-अंक उजयारी ।
धूम के पुंज में ज्वाल की माल पै द्विग-शीतलता-सुख-कारी ।।
कै छबि छायौ सिंगार निहारी सुजान-तिया-तन-दीपति-त्यारी ।
कैसी फबी घनानन्द चोपनि सों पहिरी चुनी सावँरी सारी ।।