अपभ्रंश का काल 800 ईसवी से 1100 ईसवी तक का है।
अपभ्रंश द्वितीय प्राकृत [1 ईसवी से 5वीं ईसवी तक की भाषा जिसके प्रकार थे महाराष्ट्री, पैशाची, शौरसेनी, मागधी और अर्धमागधी] और आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं के बीच की भाषा है। अपभ्रंश शब्द का अर्थ है बिगड़ा हुआ या बिगड़े हुए शब्दों वाली भाषा।
यह भाषा आज के पश्चिमी राजस्थान और अविभाजित पंजाब से लेकर तक गुजरात, कलिंग (वर्तमान उड़िसा) और गौड़ देश (वर्तमान बंगाल) तक मुख्यत: बोली जाती थी।
इसलिए अपभ्रंश में पूर्वी और पश्चिमी का भी अतंर किया जाता है।
अपभ्रंश के कवियों ने अपनी भाषा को केवल 'भासा', 'देसी भासा' अथवा 'गामेल्ल भासा' (ग्रामीण भाषा) कहा है, परंतु संस्कृत के व्याकरणों और अलंकारग्रंथों में उस भाषा के लिए प्रायः 'अपभ्रंश' तथा कहीं-कहीं 'अपभ्रष्ट' नाम का प्रयोग किया गया है।
गुजरात-राजस्थान में जैन कवियों ने अपभ्रंश में काव्य लिखा।
बिहार में सिद्धों द्वारा अपभ्रंश में काव्य लिखा गया।
इस प्रकार से अपभ्रंश नाम संस्कृत के आचार्यों का दिया हुआ है जो पहले संस्कृत से बिगड़े हुए शब्दों को कहा गया और बाद में अपभ्रंश साहित्य और शासन की भाषा बन गई।
कुछ विद्वान इसे तृतीय प्राकृत भी कहते हैं।
अपभ्रंश शब्द का भाषा के रूप में प्रयोग सबसे पहले छठी शताब्दी में प्राकृत वैयाकरण (grammarian) चंड ने अपनी पुस्तक प्राकृत लक्षणम् में किया था।
अपभ्रंश के कुछ प्रकार:
महाराष्ट्री प्राकृत से महाराष्ट्री अपभ्रंश बनी।
पैशाची प्राकृत से पैशाची और ब्राचड़ अपभ्रंश बने
शौरसेनी प्राकृत से शौरसेनी, नागर, उपनागर अपभ्रंश बने
मागधी प्राकृत से मागधी अपभ्रंश बनी