रासो साहित्य
पृष्ठभूमि (background) :11वी सदी (11th century AD) में भारत कई छोटे-छोटे राज्यों में बटाँ हुआ था। भारत के पश्चिम ( आज के राजस्थान, सिंध, पंजाब आदि) में अरब / ईरान की ओर से आने वाली मुसलमान सेनाओं का आक्रमण शुरू हो गया था। ये राजा आपस में या मुसलमान सेनाओं से हमेशा संघर्ष (struggle) करते रहते थे। इन राजाओं के बारे उनके दरबार (court) के कवि लिखते थे। रासो साहित्य का सबसे अधिक विकास राजपूताना क्षेत्र (आधुनिक राजस्थान - Modern Rajasthan) में हुआ था।
रासो: रासो शब्द की उत्पत्ति लोक नाट्य (folk drama) के एक प्रकार रास से हुई है। रास में गीत और नाट्य दोनों का मिश्रण होता है।
रासो काव्य का संबंध राजाओं के चरित और प्रशंसा से है। यह साहित्य वीरगाथा का साहित्य।
अधिकांश रासो काव्यॊं में उनके लिखने वाले जिस राजा के बारे में लिखते है, उसके उत्तराधिकारी (succesor) राजा लोग अपने दरबार(court) के अन्य कवियों की सहायता से उसमें अपने चरित भी शामिल करवा देते थे।
उद्देश्य: रासो काव्य का मूल उद्देश्य शासन करने वालों के शौर्य / वीरता और विकास का वर्णन करना है। इसमें उनके प्रेम प्रसंगों (love affairs) का भी वर्णन होता था। किसी दूसरे राजा के राज्य की सुन्दर स्त्री का हरण (abduction) भी कई युद्धों का कारण था। जहाँ ऎसा कारण न था वहाँ भी किसी सुन्दर स्त्री की कल्पना करके उसे युद्ध का कारण बताया जाता था। इस साहित्य में इतिहास और कल्पना (imagination) का मिश्रण है।
रस: रासो काव्य में वीर और श्रृंगार रस की प्रधानता है।
रासो काव्य की रचना प्रबंध और मुक्तक दोनो रूपों में की गई है।
महत्वपूर्ण रचनाएँ:
खुमाण रासो: यह पाँच हजार छंदो का विशाल काव्य ग्रंथ है। इसकी रचना दलपति विजय ने 9वीं शताब्दी में की थी। इसमें चित्तौड़ के राजा खुमाण के जीवन का वर्णन किया गया है। इसकी भाषा राजस्थानी हिंदी है।
बीसलदेव रासो: यह एक विरह (separation) गीत काव्य है। इसकी रचना नरपति नाल्ह ने 1155 ईसवी में की थी। बीसलदेव रासो चार खंडॊ में विभाजित है। इसमें भोज परमार की पुत्री राजमति और अजमेर के चौहान राजा बीसलदेव तृतीय के विवाह (marriage), वियोग (separation) एवं पुनर्मिलन (reunion) की कहानी सरस शैली में बताई गई है।
भाषा: आदिकालीन आरंभिक हिंदी। अपभ्रंश का प्रभाव है।
परमाल रासो: यह आज के उत्तरप्रदेश और मध्यप्रदेश में प्रचलित काव्य ’आल्हखंड’ का मूल रूप है। यह रासो एक गेय काव्य (जिसे गाया जाता हो) था। इसलिए इसकी मूल रूप की रक्षा नहीं हो सकी। अब इस काव्य को आल्हा लोक गीतों (folk songs) के नाम से गाया जाता है। इस रासो की रचना जगनिक ने 1173 ईसवी में की थी। यह एक युद्ध-काव्य है (like a ballad)। इसमें महोबा के राजा परमाल एवं आल्हा और उदल नाम के दो वीर सरदारों (leaders) की वीरता का वर्णन किया गया है। इसमें छोटी-बड़ी 52 लड़ाइयों का वर्णन है। इसकी भाषा के बारे कुछ निश्चित नहीं कहा जा सकता। वाटरफील्ड (Waterfield) ने आल्हखंड का अंग्रेज़ी अनुवाद किया है।
पृथ्वीराज रासो: इसे हिंदी का प्रथम महाकाव्य माना जाता है। इसे चंदबरदाई ने 12वीं सदी में लिखा था। इसमें दिल्ली नरेश पृथ्वीराज चौहान के बारे में बताया गया है। इसमें श्रृंगार और वीर रस की प्रधानता है। इसकी भाषा पिंगल है जो ब्रजभाषा का वह रूप है जिसमें राजस्थानी बोलियों का मिश्रण है। इसमें 16,306 छंद हैं। चंदबरदाई दरबारी कवि थे।
रासो साहित्य के उदाहरण:
परमल रासो का एक छंद
बारह बरस लौं कूकर जीवै, अरु तेरह लौं जियै सियार।
बरस अठारह क्षत्रिय जीवै, आगे जीवन कौ धिक्कार।।
पृथ्वीराज रासो का एक छंद
पद्मसेन कूँवर सुघर ताघर नारि सुजान।
ता उर इक पुत्री प्रकट, मनहुँ कला ससभान॥
मनहुँ कला ससभान कला सोलह सो बन्निय।
बाल वैस, ससि ता समीप अम्रित रस पिन्निय॥
बिगसि कमल-स्रिग, भ्रमर, बेनु, खंजन, म्रिग लुट्टिय।
हीर, कीर, अरु बिंब मोति, नष सिष अहि घुट्टिय॥
छप्पति गयंद हरि हंस गति, बिह बनाय संचै सँचिय।
पदमिनिय रूप पद्मावतिय, मनहुँ काम-कामिनि रचिय॥