’पुरानी हिंदी’ शब्द का प्रयोग सबसे पहले पंडित चंद्रधर शर्मा गुलेरी ने 1921 में नागरी प्रचारिनी पत्रिका में किया था।
पुरानी हिंदी को प्रारंभिक हिंदी (Early Hindi) भी कहा जाता है।
अपभ्रंश के दो रूप – प्रारंभिक/पुरानी अपभ्रंश और पिछली अपभ्रंश (बाद की अपभ्रंश) हैं। पुरानी हिंदी पिछली अपभ्रंश से निकली है और पुरानी अपभ्रंश से अलग है।
आमतौर पर पुरानी हिंदी का समय 1000 ईसवी से 1500 ईसवी तक माना जाता है।
चंद्रधर शर्मा गुलेरी 544-643 ईसवी से 944-1043 ईसवी का समय पुरानी हिंदी का मानते हैं। पर वह मानते हैं कि अपभ्रंश कहाँ समाप्त होती है और पुरानी हिंदी कहाँ शुरू होती है, इसका निर्णयकरना कठिन है। गुलेरी जी के अनुसार ’मुंज’ पुरानी हिंदी के पहले कवि हैं।
पुरानी हिंदी के उदाहरण हमें “प्राकृत पैंगलम” और “राउलवेल” नामक दो पुस्तकों में मिलते हैं।
प्राकृत पैंगलम छंद शास्त्र का एक ग्रंथ है जिसमें कई कवियों का काव्य संकलित (complie) किया गया है। इसके संकलनकर्ता (compiler) का नाम पता नहीं चल पाया है। इस पुस्तक में कवि बब्बर, जज्जल, विद्याधर आदि की रचनाएँ संकलित हैं।
“राउलवेल” के रचनाकार “रोडा” हैं। यह 11वीं सदी में शिला (पत्थर) पर लिखा गया है। राउल वेल का अर्थ है “राजकुल विलास” जिसमें राजभवन (महल) की सुंदरियों के बारे में बताया गया है।
पुरानी हिंदी की विशेषताएँ
· स, श और ष के स्थान पर हर जगह स का प्रयोग किया जाता था।
· ण व्यंजन का अधिक इस्तेमाल किया गया।
· अपभ्रंश में ड़ और ढ़ व्यंजन नहीं थे पर पुरानी हिंदी में इनका विकास हुआ।
· अपभ्रंश का नपुंसक लिंग समाप्त हो गया और पुरानी हिंदी में दो ही लिंग रह गए।
· अपभ्रंश काफी हद तक योगात्मक भाषा (agglutinative language)। पुरानी हिंदी नियोगात्मक भाषा (non-agglutinative language) बन रही थी।
· पुरानी हिंदी में शब्द क्रम (word order) – कर्ता-कर्म- क्रिया (Subject-object-verb) निश्चित होने लगा था।
· न्ह, म्ह, ल्ह पहले संयुक्त व्यंजन (conjuncts) थे वे अब पुरानी हिंदी में न, म , ल के महाप्राण रूप हो गए।