’दक्खिनी’ शब्द का प्रयोग दक्षिण के निवासी (रहने वाला) और वहाँ बोली जाने वाली भाषा दोनों अर्थों में होता है।
दक्खिनी को हिंदी की एक शैली (style) माना जाता है।
इसे दक्कनी भी कहते हैं। इसके और नाम हैं; गोसाधि भाषा, तुलुक भाषा, पट्टानी भाषा आदि
दक्खिनी को उर्दू की बोली भी माना जाता है।
14वीं शताब्दी में सुल्तान मुहम्मद बिन तुगलक दिल्ली सल्तनत की राजधानी को दिल्ली से दक्षिण में दौलताबाद/ देवगिरि [अब महाराष्ट्र राज्य के अहमदनगर जिले(district) में] ले गया। राजधानीबनने के बाद कई उत्तर भारतीय लोग वहाँ जाकर बस (settle) गए। सबसे पहले सुल्तान की माता मख्दुमा-ए-जहाँ तथा पूरा राजपरिवार (Royal family) वहाँ पहुँचा, बाद में सैय्यद (Muslim honorable people), शेख (Muslim leaders), उलेमा (Muslim legal scholars) और दिल्ली के अन्य लोग वहाँ आ गए। इनके अलावा बड़ी संख्या में उत्तर भारत से फ़ौज (army), फ़कीर (muslim sufi ascetic) और दरवेश (mendicant ascetics) दक्षिण में आ गए। इन लोगों ने दक्षिण भारत में खड़ी बोली का प्रचार किया और बहुत सारा साहित्य एक नई तरह की शैली दक्खिनीहिंदी में लिखा जाने लगा जो खड़ी बोली, फारसी-अरबी और दक्षिण की भाषाओं जैसे मराठी, तेलुगुके मेल (fusion) से बनी थी। दौलताबाद से यह पूरे दक्षिण भारत में फैल गई।
1347 ईसवी में तुगलक सामाज्ञ (Tuglakh Empire) से अलग होकर बहमनी सल्तनत की स्थापना हुई जिसकी राजधानी अहसानाबाद [वर्तमान गुलबर्गा (कर्णाटक)] बनी। इस सल्तनत और बाद मेंदक्षिण की कुतुबशाही, आदिलशाही ने दक्खिनी के विकास में विशेष योगदान दिया।
शाही दफ़्तरों में इसे सरकारी कामकाज की भाषा (official language) का दर्जा (class) भी दिया गया।
जब उत्तर भारत में फारसी का प्रभुत्व (dominance) था तब दक्षिण भारत में दक्खिनी का अधिकार था।
दक्खिनी हिंदी की उपबोलियाँ (sub-dialects): मैसूरी, गुलबर्गी, बीदरी, बीजापुरी, हैदराबादी आदि हैं।
दक्खिनी हिंदी के प्रमुख साहित्यकार : गेसुदराज बन्दानवाज, मुल्ला वजही, शाह मीराजी, मुहम्मद शरीफ, मकदूमशाह हुसेनी, अब्दुल हमीद, शाह बुहरानुद्दीन
पुराना दक्खिनी साहित्य अधिकतर सूफी और इस्लामी संतों पर लिखा गया है।
दक्खिनी की विशेषताएँ
उत्तर की हिंदी के महाप्राण व्यंजन दक्खिनी में अल्पप्राण बन जाते हैं। रखते>रकते, हाथ > हात, जीभ > जीब, अधिक > अदिक
दक्खिनी में ह का लोप (omission) कई स्थान पर होता है। कहते > कते, ठहरते > ठैरते
दक्खिनी में प्रथम व्यंजन ह्र्स्व में बदलता है तो द्वितीय व्यंजन द्वित्व में बदल जाता है। सोना > सुन्ना, चूना > चुन्ना
दक्खिनी के काव्य का एक उदाहरण:
तलश्शेरी के कासिम खाँ का एक तिल्लाना गीत
“बजे नक्कारे दनि के सारे
धूंध चना धन घनघनाना
तबल पे थापा पड़े पिपड़धक
गिड़धन गिड़धन गिड़धनना”