उर्दू भारत की आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं में से एक है।
इस समय उर्दू पाकिस्तान के अनेक क्षेत्रों में, उत्तरी भारत के कई भागों में, कश्मीर और आंध्र प्रदेश में बहुत से लोगों की मातृभाषा है।
इसका विकास मध्ययुग में उत्तरी भारत के उस क्षेत्र में हुआ जिसमें आज पश्चिमी उत्तर प्रदेश, दिल्ली और पूर्वी पंजाब शामिल हैं।
इसका आधार उस प्राकृत और अपभ्रंश पर था जिसे शौरसेनी कहते थे और जिससे खड़ीबोली, ब्रजभाषा, हरियाणी और पंजाबी आदि ने जन्म लिया था।
मुसलमानों के भारत में आने और पंजाब तथा दिल्ली में बस जाने के कारण इस प्रदेश की बोलचाल की भाषा में फारसी और अरबी शब्द भी सम्मिलित होने लगे और धीरे-धीरे उसने एक पृथक् रूप धारण कर लिया।
विदेशी मुसलमान शासकों का राज्य और शासन स्थापित हो जाने के कारण ऐसा होना स्वाभाविक भी था कि उनके धर्म, नीति, रहन-सहन, आचार-विचार का रंग उस भाषा में झलकने लगे।
उर्दू का मूल आधार तो खड़ीबोली ही है किंतु दूसरे क्षेत्रों की बोलियों का प्रभाव भी उसपर पड़ता रहा। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि आरंभ में इसको बोलनेवाली या तो बाजार की जनता थी अथवा वे सुफी-फ़कीर थे जो देश के विभिन्न भागों में घूम-घूमकर अपने विचारों का प्रचार करते थे।
इसी कारण इस भाषा के लिए कई नामों का प्रयोग हुआ है।
जब हिंदी और उर्दू में अंतर नहीं था तब अमीर खुसरो ने उसको 'हिंदी', 'हिंदवी' अथवा 'ज़बाने देहलवी' कहा था; दक्षिण में पहुँची तो 'दकिनी' या 'दक्खिनी' कहलाई, गुजरात में 'गुजरी' (गुजराती उर्दू) कही गई; दक्षिण के कुछ लेखकों ने उसे 'ज़बाने-अहले-हिंदुस्तान' (उत्तरी भारत के लोगों की भाषा) भी कहा। जब कविता और विशेष रूप से गजल के लिए इस भाषा का प्रयोग होने लगा तो इसे 'रेख्ता' (मिली-जुली बोली) कहा गया। बाद में इसी को 'ज़बाने उर्दू', 'उर्दू-ए-मुअल्ला' या केवल 'उर्दू' कहा जाने लगा। यूरोपीय लेखकों ने इसे साधारणत: 'हिंदुस्तानी' कहा है और कुछ अंग्रेज लेखकों ने इसको 'मूस' के नाम से भी संबोधित किया है।
उद्गम की दृष्टि से उर्दू वही है जो हिंदी है। देखने में केवल इतना ही अंतर मालूम देता है कि उर्दू में अरबी-फारसी शब्दों का प्रयोग कुछ अधिक होता है।
इसकी लिपि देवनागरी से अलग है और उसका नाम नस्तलीक़ है।
उर्दू तुर्की भाषा का शब्द है जिसका अर्थ है वह बाजार जो शाही सेना के साथ-साथ एक स्थान से दूसरे स्थान पर चलता रहता था। वहाँ जो मिली-जुली भाषा बोली जाती थी उसको उर्दूवालों की भाषा कहते थे, क्रमश: वही भाषा स्वयं उर्दू कही जाने लगी। इस अर्थ में इस शब्द का प्रयोग 17वीं शताब्दी के अंत से मिलता है।
उर्दू का प्रांरभिक रूप या तो सूफी फकीरों की बानी में मिलता है या जनता की बोलचाल में। भाषा की दृष्टि से उर्दू के विकास में पंजाबी का प्रभाव सबसे पहले दिखाई पड़ता है, क्योंकि जब 15वीं और 16वीं सदी में इसका प्रयोग दक्षिण के कवि और लेखक साहित्यिक रचनाओं के लिए करने लगे तो उसमें पंजाबीपन पर्याप्त मात्रा में पाया जाता था। 17वीं और 18वीं शताब्दी में ब्रजभाषा का गहरा प्रभाव उर्दू पर पड़ा और बड़े-बड़े विद्वान् कविता में 'ग्वालियरी भाषा' को अधिक शुद्ध मानने लगे, किंतु उसी युग में कुछ विद्वानों और कवियों ने उर्दू को एक नया रूप देने के लिए ब्रज के शब्दों का बहिष्कार किया और फारसी-अरबी के शब्दों को बढ़ाने लगे। दक्षिण में उर्दू का प्रयोग किया जाता था, उत्तरी भारत में उसे नीची श्रेणी की भाषा समझा गया क्योंकि वह दिल्ली की बोलचाल की उस भाषा से भिन्न थी जिसमें फारसी साहित्य और संस्कृति की झलक थी।
सच तो यह है कि उर्दू भाषा के बनने में जो संघर्ष जारी रहा उसमें ईरानी और हिंदुस्तानी तत्व एक दूसरे से टकराते रहे। अनुमान लगाया गया है कि जिस भाषा को उर्दू कहा जाता है उसमें 75 प्रतिशत शब्द वे ही हैं जिनका आधार हिंदी का कोई न कोई रूप है। शेष 15 प्रतिशत में फारसी, अरबी, तुर्की और अन्य भाषाओं के शब्द सम्मिलित हैं जो सांस्कृतिक कारणों से मुसलमान शासकों के जमाने में स्वाभाविक रूप से उर्दू में घुल-मिल गए थे।