भक्तिकाल (1375 – 1700 ईसवी) / पूर्व मध्यकाल
[1375 से 1900 के काल को मध्यकाल कहा जाता है। 1700 से 1900 के काल को उत्तरमध्यकाल या रीतिकाल कहा जाता है]
नामकरण (naming)
भक्तिकाल नाम आचार्य रामचंद्र शुक्ल द्वारा दिया गया है। इस काल का अधिकांश साहित्य भक्ति-रस से भरा हुआ है। भक्ति (devotion) का अर्थ है ’जुड़ना’। भक्ति संस्कृत की भज् धातु (भाग लेना) से उत्पन्न हुआ है, जिसका अर्थ है भजते रहना। ऐसी मान्यता है कि ईश्वर ने ही संपूर्ण ब्रह्माण्ड की रचना की है। संसार के सभी सजीव और निर्जीव रचनाएं उनके हाथों से ही निर्मित हैं। इसलिए अपने कर्म तथा आचरण द्वारा उस परम सत्ता को अपने हृदय में जगह देना ही भक्ति है। [भक्तिमार्ग में भगवान का भजन-पूजन करना होता है। मोक्ष (salvation) के तीन साधन हैं- १) ज्ञानमार्ग २) कर्ममार्ग और ३) भक्तिमार्ग। इन मार्गों में भगवदगीता भक्तिमार्ग को सर्वोत्तम कहती है। इसका सरल अर्थ यह है कि सच्चे हृदय से भगवान की भक्ति पुनर्जन्म से उसी प्रकार मोक्ष दिलाती है, जैसे दार्शनिक ज्ञान एवं निष्काम योग दिलाते हैं। गीता में श्रीकृष्ण का कथन है-"मुझ पर आश्रित होकर जो लोग सम्पूर्ण कर्मों को मुझे अर्पण करते हुए मुझ परमेश्वर को ही अनन्य भाव के साथ ध्यानयोग से निरन्तर चिन्तन करते हुए भजते हैं, मुझमें चित्त लगाने वाले ऐसे भक्तों का मैं शीघ्र ही मृत्यु रूप संसार सागर से उद्धार कर देता हूँ।"]
इतिहास: भक्तिकाल का साहित्य भक्ति आंदोलन के उदय के बाद लिखा गया है। भक्ति आंदोलन सबसे पहले दक्षिण भारत में शुरू हुआ। दक्षिण में आलवार बंधु नाम से प्रसिद्ध भक्त हुए हैं। इनमें से अनेक नीची जातियों से थे। वे पढ़े-लिखे भी नहीं थे लेकिन बहुत ही अनुभवी थे। आलवारों के बाद दक्षिण में आचार्यों की एक परंपरा चली जिसमें रामानुजाचार्य प्रमुख थे। रामानुजाचार्य की परंपरा में आगे चलकर रामानंद हुए। श्री रामनुजाचार्य भारतीय दर्शनशास्त्री थे और उन्हें सर्वाधिक महत्वपूर्ण वैष्णव संत माना जाता है। रामानंद ने उत्तर भारत में वही किया जो रामानुज ने दक्षिण भारत में किया। उन्होंने रुढिवादी कुविचार की बढ़ती औपचारिकता के विरुद्ध आवाज उठाई और प्रेम तथा समर्पण की नींव पर आधारित वैष्णव विचाराधारा के नए सम्प्रदाय की स्थापना की। भक्ति आंदोलन के नेता रामानंद ने राम को भगवान के रूप में लेकर इसे केन्द्रित किया। उनके बारे में बहुत कम जानकारी है, परन्तु ऐसा माना जाता है कि वे 15वीं शताब्दी के प्रथमार्ध में रहे। उन्होंने सिखाया कि भगवान राम सर्वोच्च भगवान हैं और केवल उनके प्रति प्रेम और समर्पण के माध्यम से तथा उनके पवित्र नाम को बार - बार उच्चारित करने से ही मुक्ति पाई जाती है। यह पहला भारतीय नवजागरण कश्मीर से कन्याकुमारी और गुजरात से असम तक फैला हुआ था। भक्ति आंदोलन के उदय के दो मुख्य कारण थे:
1) सामाजिक विषमता (अमीर-गरीबों में बहुत अंतर) और निम्न वर्गों / जातियों का शोषण (शासक वर्ग ने कुलीन जातियों के साथ मिलकर निम्न वर्ग का लगातार शोषण किया)
2) विदेशी आक्रमणकारियों का भारत में आगमण और शासन (उन्होंने हिंदू मंदिरों को तोड़ा, जनता पर अत्याचार किया और लोगों का जबर्दस्ती धर्म परिवर्तन किया)
बाद में महाप्रभु वल्लभाचार्य ने पुष्टि-मार्ग की स्थापना की और विष्णु के कृष्णावतार की उपासना करने का प्रचार किया। उनके द्वारा जिस लीला-गान का उपदेश हुआ उसने देशभर को प्रभावित किया। अष्टछाप के सुप्रसिध्द कवियों ने आपके उपदेशों को मधुर कविता में दिखाया। इसके बाद माध्व तथा निंबार्क संप्रदायों का भी जन-समाज पर प्रभाव पड़ा है। साधना-क्षेत्र में दो अन्य संप्रदाय भी उस समय मौजूद थे। नाथों के योग-मार्ग से प्रभावित संत संप्रदाय चला जिसमें प्रमुख व्यक्तित्व संत कबीरदास का है। मुसलमान कवियों का सूफीवाद हिंदुओं के विशिष्टाद्वैतवाद से बहुत भिन्न नहीं है। कुछ मुसलमान सूफी कवियों द्वारा सूफीवाद से रंगी हुई उत्तम रचनाएं लिखी गईं। तीन सौ वर्षों की यह लम्बी धारा मुख्यत: दो भागों में प्रवाहित हुई :-
1. निर्गुण भक्ति धारा
2. सगुण भक्ति धारा
समय के साथ ये दोनों धाराएँ आगे दो-दो उपधाराओं में बँट गई ।
निर्गुण भक्ति धारा निम्न दो शाखाओं में बँट गई :-
1. ज्ञानमार्गी शाखा
2. प्रेममार्गी शाखा
इसी प्रकार सगुण भक्ति धारा निम्न दो उप शाखाओं में बँट गई :-
1. कृष्ण भक्ति शाखा
2. रामभक्ति शाखा
ज्ञानमार्गी शाखा : इस शाखा के प्रवर्तक और मुख्य कवि कबीरदास हैं । इस शाखा ने समाज-सुधार पर विशेष बल दिया । इसलिए इस शाखा के साहित्य को संत-साहित्य भी कहते हैं ।
प्रेममार्गी शाखा : इस शाखा पर सूफीमत का विशेष प्रभाव है । इसलिए इस शाखा के साहित्य को सूफी साहित्य भी कहा जाता है । इस शाखा के प्रवर्तक और मुख्य कवि मलिक मुहम्मद जायसी हैं ।
कृष्णभक्ति शाखा : इस शाखा के कवियों ने भगवान कृष्ण की बाल लीलाओं का मनोरंजक चित्रण किया है । इस धारा के मुख्य कवि हैं : सूरदास ।
रामभाक्ति शाखा : इस शाखा के कवियों ने राम के शील, शक्ति और सौंदर्य युक्त रूप का चित्रण किया है । इस शाखा के प्रतिनिधि कवि गोस्वामी तुलसी दास हैं ।