प्रगतिवाद
इसका काल सन 1936 से 1942 तक माना जाता है। प्रगतिवाद राजनीति के साम्यवादी आंदोलन (communist movement) का साहित्यिक रूप है। प्रगतिवादी आंदोलन का संबंध मार्क्सवादी आंदोलन से है। प्रगतिवाद के मूल में द्वन्दात्मक भौतिकवाद (dialectical materialism) है। इसके अनुसार विश्व में हमेशा दो तत्व सक्रिय रहे हैं : एक विधेयात्मक (positive) और दूसरा निषेधात्मक (negative)। प्रत्येक देश में दो शक्तियों में द्वंद (conflict) चलता रहता है जिसका आधार पदार्थ (matter) है। इस प्रकार समाज में हमेशा दो वर्ग रहे हैं: एक शोषक (Oppressor) वर्ग और दूसरा शोषित (Oppressed) वर्ग। यह दर्शन पूरी तरह से भौतिकतावादी है। इसलिए उसे धर्म, ईश्वर, किसी आध्यात्मिक शक्ति, स्वर्ग-नरक आदि पर विश्वास नहीं है। यह पूंजीवाद, सामंतवाद आदि का विरोधी है। वह “कला कला के लिए” के स्थान पर “कला जीवन के लिए” के सिद्धांत पर विश्वास करता है। कला के प्रति उसका दृष्टिकोण यथार्थवादी (Realist) है। समाज के उत्थान में पूंजीवादी व्यवस्था को नष्ट कर शोषण विहीन स्माज की स्थापना साम्यवाद का उद्देश्य है।
1917 में रूस में सशस्त्र क्रांति और ज़ारशाही के समाप्त होने के बाद संसार भर में पूंजीवाद व्यवस्था के खिलाफ आंदोलन शुरू हो गए थे। उससे प्रभावित होकर सन 1935 में ई.एम. फार्स्टर की अध्यक्षता में प्रगतिशील लेखक संघ (Progressive Writers Association) नामक संस्था की स्थापना हुई। बाद में सन 1936 में प्रेमचंद की अध्यक्षता में भारतीय प्रगतिशील लेखक संघ का पहला अधिवेशन लखनऊ में हुआ। जैसे द्विवेदी युग की इतिवृत्तात्मकता,उपदेशात्मकता और स्थूलता के प्रति विद्रोह में छायावाद शुरू हुआ,उसी प्रकार छायावाद की सूक्ष्मता,कल्पनात्मकता, व्यक्तिवादिता और समाज-विमुखता के विरोध में प्रगतिवाद का जन्म हुआ।सामाजिक यथार्थ की अभिव्यक्ति को उद्देश्य मानकर लिखा जाने वाला समस्त साहित्य प्रगतिवादी या प्रगतिशील साहित्य माना जाता है। प्रगति' का अर्थ होता है- 'आगे बढ़ना' और 'वाद' का अर्थ है “किसी पक्ष के तत्वज्ञों द्वारा निश्चित सिद्धांत”। इस तरह से प्रगतिवाद का अर्थ है 'आगे बढ़ने का सिद्धांत'।
समाज में व्याप्त सभी प्रकार की विषमताओं और विसंगतिओं का को सही रूप में दिखाना ही प्रगतिवादी साहित्य का लक्ष्य है। जबकि छायावादी आंदोलन केवल कविता तक सीमित था, किन्तु प्रगतिवाद केवल कविता तक सीमित नहीं रहा। इसने कहानी, उपन्यास, समीक्षा/आलोचना आदि सभी साहित्यिक विधाओं को प्रभावित किया।
कुछ प्रमुख प्रगतिवादी साहित्यकार हैं: केदारनाथ अग्रवाल, नागार्जुन, रामविलास शर्मा, रांगेय राघव, शिवमंगल सिंह सुमन,त्रिलोचन, मुक्तिबोध आदि।
प्रगतिवादी कविता का उदाहरण:
नागार्जुन की कविता अकाल और उसके बाद
कई दिनों तक चूल्हा रोया, चक्की रही उदास
कई दिनों तक कानी कुतिया सोई उनके पास
कई दिनों तक लगी भीत पर छिपकलियों की गश्त
कई दिनों तक चूहों की भी हालत रही शिकस्त ।
दाने आए घर के अंदर कई दिनों के बाद
धुआँ उठा आँगन से ऊपर कई दिनों के बाद
चमक उठी घर भर की आँखें कई दिनों के बाद
कौए ने खुजलाई पाँखें कई दिनों के बाद ।
प्रगतिवादी साहित्य की मुख्य प्रवृत्तियाँ
समाजपरक यथार्थवाद: प्रगतिवादी साहित्य में सामान्य जीवन और संसार में होने वाली चीज़ों का चित्रण किया है। समाज में होने वाली समस्याओ और असमानताओं को सच्चाई के साथ दिखाया है। समाज के गरीब और शोषित वर्ग को स्वर देने का काम यह साहित्य करता है। निराला की ’गर्म पकौड़ी’, ’डिप्टी साहब आ गए’ आदि ऐसी ही रचनाएँ हैं। रामधारी सिंह दिनकर की कविता “हुंकार “ की कुछ पंक्तियाँ -
श्वानों को मिलता दूध-वस्त्र, भूखे बालक अकुलाते हैं
माँ की हड्डी से चिपक ठिठुर जाड़ों की रात बिताते हैं।
युवती के लज्जा वसन बेच जब ब्याज चुकाए जाते हैं
मालिक जब तेल-फुलेलों पर पानी-सा द्रव्य बहाते हैं।
क्रांति की भावना: प्रगतिवादी साहित्य का मुख्य लक्ष्य वर्गहीन समाज की स्थापना करना है। यह साहित्य प्राचीन जर्जर रुढ़ियों का विरोधी है। यह पूंजीवाद, सामन्तवाद आदि का घोर विरोधी है और समाज में ऐसी परिस्थितियाँ पैदा करना चाहता है जिसमें जाति, धर्म, लिंग आदि का भेदभाव किए बिना सभी व्यक्ति अपनी क्षमता के अनुरूप अपना विकास कर सकें। और सभी व्यक्तियों को जीवन की आवश्यक सुविधाएँ उपलब्ध हों। बालकृष्ण शर्मा ’नवीन’ की कविता “विप्लव गान” की पंक्तियाँ
कवि, कुछ ऐसी तान सुनाओ,
जिससे उथल-पुथल मच जाए,
एक हिलोर इधर से आए,
एक हिलोर उधर से आए,
प्राणों के लाले पड़ जाएँ,
मानवतावाद: प्रगतिवादी साहित्य सभी मनुष्यों को एक समान मानता है और उन्हें बराबरी का दर्जा दिलवाना चाहता है। वह मानवता की शक्ति में विश्वास करते हुए धर्म, ईश्वर और परलोक का विरोध करता है। प्रगतिवाद के लिए ’धर्म अफीम का नशा है’।
कवि दिनकर की पंक्तियाँ
व्योम से पाताल तक सब कुछ उसे है श्रेय
पर, न यह परिचय मनुज का, यह न एक श्रेय।
श्रेय उसका, बुद्धि पर चैतन्य उर की जीत;
श्रेय मानव को असीमित मानवों से प्रीत।
मार्क्स, लेनिन और रूस के प्रति साहित्य का झुकाव: प्रगतिवादी साहित्य बहुत हद तक मार्क्सवादी- लेनिनवादी विचारधारा और साम्यवादी रूस से प्रभावित था। शिवमंगल सिंह सुमन (’प्रलय सृजन’) की कविता की पंक्तियाँ
लाल निशान, लाल सैनिक,
आँखो में लाल सुरूर है,
दस हफ्ते दस साल बन गए,
मॉस्को अब भी दूर है।
नया सौन्दर्य बोध: प्रगतिवादी साहित्य ने सौन्दर्य को एक नए दृष्टिकोण से देखा है। यह साहित्य जनजीवन में सौन्दर्य खोजता है। उनके अनुसार “सौन्दर्य जीवन है”।
सहज भाषा: प्रगतिवादी साहित्य की भाषा सहज और सरल है। इस साहित्य के शब्द और मुहावरे जनजीवन से आए हुए हैं। इसलिए इसमें लोकजीवन की सच्चाई दिखाई देती है। भाषा में व्यंग्य भी है।
प्रमुख प्रगतिवादी साहित्यकार और उनकी कृतियाँ:
सुमित्रानंदन पंत(1900-1970) प्रगतिवादी रचनाएं: 1.युगांत 2.युगवाणी 3.ग्राम्या ।
सूर्यकांत त्रिपाठी निराला (1897-1962) प्रगतिवादी रचनाएं : 1. कुकुरमुत्ता 2. अणिमा 3.नए पत्ते 4. बेला 5.अर्चना।
नरेन्द्र शर्मा(1913-1989): 1. प्रवासी के गीत 2.पलाश-वन 3. मिट्टी और फूल 4. अग्निशस्य।
रामेश्वर शुक्ल अंचल(1915 -1996): 1.किरण-वेला 2. लाल चुनर।
माखन लाल चतुर्वेदी(1888- 1970): 1.मानव
रामधारी सिंह दिनकर(1908- 1974) : 1. कुरुक्षेत्र 2. रश्मिरथी 3.परशुराम की प्रतीक्षा।
उदयशंकर भट्ट(1898- 1964): 1.अमृत और विष ।
बालकृष्ण शर्मा नवीन(1897- 1960):1.कंकुम 2. अपलक 3.रश्मि-रेखा 4. क्वासि।
जगन्नाथ प्रसाद मिलिंद(1907-1986):1. बलिपथ के गीत 2. भूमि की अनुभुति 3.पंखुरियां।
केदारनाथ अग्रवाल(1911-2000 ) :1. युग की गंगा 2. लोक तथा आलोक 3. फूल नहीं रंग बोलते हैं 4.नींद के बादल।
राम विलास शर्मा(1912- 2000) :1.रूप-तरंग
नागार्जुन(1910-1998) : 1.युगधारा 2.प्यासी पथराई 3.आंखे 4.सतरंगे पंखों वाली 5.तुमने कहा था 6. तालाब की मछलियां 7.हजार-हजार बांहों वाली 8.पुरानी जूतियों का कोरस 9. भस्मासुर(खंडकाव्य)।
रांगेय-राघव(1923-1962) : 1.अजेय खंडहर 2.मेधावी 3. पांचाली 4. राह के दीपक 5.पिघलते पत्थर।
शिव-मंगल सिंह सुमन( 1915- 2002 ) : 1. हिल्लोल 2.जीवन के गान 3.प्रलय सृजन।
त्रिलोचन(1917- 2007 ) :1.मिट्टी की बात 2. धरती
गजानन माधव ’मुक्तिबोध’ (1917-1964) : चाँद का मुँह टेढ़ा है'- कविता संग्रह(1964),'एक साहित्यिक की डायरी'- 1965 'वसुधा' में धारावाहिक रूप से छपी थी, 'कामायनी:पुनर्विचार' (आलोचना: 1952),'नयी कविता का आत्म-संघर्ष तथा अन्य निबन्ध' (1968),
'काठ का सपना' (कहानी संग्रह 1966)