हिंदवी /हिंदुई
13वीं सदी से हिंदवी दिल्ली और आसपास के क्षेत्रों के शिक्षित हिंदु-मुसलमान लोगों की बोलचाल और साहित्य की भाषा थी जिससे हिंदी, हिंदुस्तानी और उर्दू का विकास हुआ।
हिंदवी की लिपि नस्तलीक़ और देवनागरी दोनों थी।
हिंदवी शब्द का सबसे पहले इस्तेमाल अबु सईद ने फारसी इतिहास में 1049 में किया था।
हिंदवी/हिंदुई शब्द उत्तर भारत की विभिन भाषाओं और बोलियों जैसे ब्रजी, अवधी, बुन्देलखंडी, देहलवी, लाहौरी आदि के लिए अलग-अलग समय में हुआ है। परन्तु देलहवी बोली यानी खड़ी बोलीके रूप में ही सबसे अधिक इसे पहचाना गया।
अमीर खुसरो (1253 -1325 ईसवी) को हिंदवी का पहला कवि माना जाता है।
अमीर खुसरो लिखते हैं
तुर्क-ए-हिंदुस्तानीय मन हिंदवी गोयम चु आब
शक्रे-मिस्ररी ना दारम कज अरब गोयम सुख़न
इसका मतलब है- हिंदुस्तानी तुर्क हूँ, हिंदवी में जवाब देता हूँ। अरबी में बात करने के लिए मेरे पास मिसरी-शक्कर नहीं हैं।
मध्यकाल में हिंदवी दिल्ली और आसपास के क्षेत्र की भाषा थी जिसमें अरबी-फारसी का प्रभाब था। यह दिल्ली से आगरा तक के इलाके में बॊली जाने वाली खड़ी बोली का साहित्यिक रूप था।
भोलानाथ तिवारी कहते हैं कि हिंदवी वो भाषा थी जो शौरसेनी अपभ्रंश से विकसित हुई थी और मध्यदेश की भाषा थी।
1800 ईसवी में सैयद इंशा अल्लाह खान ने हिंदवी में ’रानी केतकी की कहानी’ लिखी थी जिसमें वे लिखते हैं…”कहानी ऐसी कहिए कि जिसमें हिंदवी छुट और किसी बोली का पुट न मिले”। इसकामतलब है कि कहानी में हिंदवी के अलावा किसी और भाषा-रूप के शब्द नहीं होने चाहिए।
कहानी का एक भाग देखिए:
किसी देश में किसी राजा के घर एक बेटा था। उसे उसके माँ-बाप और सब घर के लोग कुँवर उदैभा पुकारते थे। सचमुच उसके जीवन की जोत में सूरज की एक स्रोत आ मिली थी। उसका अच्छापन और भला लगना कुछ ऐसा न था जो किसी के लिखने और कहने में आ सके। पंद्रह बरस भरके उसने सोलहवें में पाँव रक्खा था। कुछ यों ही सी मसें भीनती चली थीं। पर किसी बात के सोच का घर-घाट न पाया था और चाह की नदी का पाट उसने देखा न था। एक दिन हरियाली देखने को अपने घोड़े पर चढ़के अठखेल और अल्हड़पन के साथ देखता भालता चला जाता था। इतने में जो एक हिरनी उसके सामने आई, तो उसका जी लोट पोट हुआ।