सगुण भक्तिधारा
सगुण का अर्थ है जिसमें गुण हो। यह ‘निर्गुण’ का विपरीत है। मध्य-युग में उत्तर भारत में भक्ति मार्ग में दो संप्रदाय हो गये थे : निर्गुण और सगुण। राम, कृष्ण आदि के अवतार ईश्वर के सगुण रूप के अंतर्गत आते हैं। निर्गुण रूप में अवतार की कल्पना नहीं की जाती। [सत्व,रज और तम,यह तीन आत्मा के तीन गुण हैं, संसार के प्रत्येक प्राणी में यह गुण कम-ज़्यादा मात्रा में होते हैं]
सगुण भक्तिधारा की यह विशेषता है कि उसमें भगवान के नाम, रूप, गुण, लीला (खेल;pastime) और धाम (देवता के रहने का स्थान) के बारे में बताया गया है। इस वर्णन के लिए भक्तों ने भगवान के अवतारों में राम और कृष्ण को अधिक महत्त्वपूर्ण माना है। भक्तिकाल की रचनाओं में इनकी ही महिमा (Glory) मुख्य रूप से की गई है। इन दोनों अवतारों के आधार पर ही सगुण भक्तिधारा का हिन्दी-साहित्य में दो उपधाराओं के रूप में विभाजन मिलता है-
1. रामभक्ति शाखा और
2. कृष्णभक्ति शाखा।
रामभक्ति शाखा
स्वामी रामानंद निर्गुण और सगुण दोनों काव्य धाराओं के कवियों के गुरु थे। उन्होंने भगवान विष्णु के अवतार राम के महत्व को अपने शिष्यों (pupils) को समझाया। राम की उपासना को निर्गुण संतों ने भी आदर दिया और सगुण भक्तों ने भी। अंतर यह था कि निर्गुण संप्रदाय में निर्गुण तथा निराकार (बिना आकार) राम की उपासना (पूजा; worship) का प्रचार हुआ और सगुण-रामभक्तों ने उनके अवतार और लीला के बारे में लोगों को बताया। उन्होंने राम को मर्यादा पुरुषोत्तम (हमेशा मर्यादा {dignity) के अनुसार काम करने वाला सबसे अच्छा पुरुष) के रूप में दिखाया। राम के साथ उनकी पत्नी सीता को भी सम्मान दिया गया है। रामभक्ति शाखा में मर्यादावाद का पालन किया गया। इसके सबसे बड़े कवि तुलसीदास थे। रामभक्ति काव्य को लिखने का उद्देश्य स्वंत-सुखाय (खुद के सुख के लिए) और लोक-कल्याण (लोगों का भला; public welfare) था। कृष्ण भक्त कवियों की माधुर्य भक्ति का प्रभाव रामभक्ति पर भी पड़ा। इस शाखा में एक रसिक संप्रदाय चल पड़ा। उसमें राम और सीता की श्रृंगार-लीलाओं का राधा-कृष्ण की श्रृंगार लीलाओं के जैसे ही विस्तृत चित्रण किया गया। फिर भी इस शाखा में भगवान के सौंदर्य की अपेक्षा उनके शील (modesty) और शक्ति का ही वर्णन अधिक किया गया है। अवध का क्षेत्र(जैसे अयोध्या) रामभक्ति का केन्द्र था। रामभक्ति काव्य में सेव्य-सेवक (खिदमत के लायक-खिदमत करने वाला) की भावना अधिक है। रामभक्ति काव्य मुख्य रूप से अवधी में लिखा गया है।
कृष्णभक्ति शाखा
जैसे रामभक्ति शाखा के कवियों को स्वामी रामानंद ने रामभक्ति की प्रेरणा (Inspire) दी। उसी तरह से महाप्रभु वल्लभाचार्य ने कवियों को कृष्णभक्ति की प्रेरणा दी। कृष्ण-भक्ति-शाखा में भगवान कृष्ण की प्रधानता है। कृष्ण प्रेमयोगी हैं और सोलह कलाओं (arts) को जानने वाले हैं। कृष्ण्भक्त कवियों का ध्यान कृष्ण के मधुर रूप और उनकी लीला पर ही केंद्रित रहा। भगवान की महिमा का गान के साथ-साथ उनके लोक-रक्षक (लोगों की रक्षा करने वाला) रूप का भी उल्लेख किया गया है, किन्तु मुख्य विषय राधा-कृष्ण का प्रेम है। कृष्ण-भक्ति का केन्द्र वृन्दावन था। श्री कृष्ण की लीला-भूमि होने के कारण उनके भक्तों ने भी ब्रज को अपना निवास स्थान बनाया। सूरदास इस काव्य-धारा के सबसे बड़े कवि हैं। कृष्णभक्ति शाखा के कुछ विशेष कवियों को “अष्टछाप” कहा गया। कृष्णभक्ति काव्य मुख्य रूप से ब्रजभाषा में लिखा गया है।
रामभक्ति शाखा के काव्य की मुख्य प्रवृत्तियाँ
रामकाव्य धारा का प्रवर्तन वैष्णव संप्रदाय के स्वामी रामानंद से स्वीकार किया जा सकता है । यद्यपि रामकाव्य का आधार संस्कृत साहित्य में उपलब्ध राम-काव्य और नाटक रहें हैं । इस काव्य धारा के अवलोकन से इसकी निम्न विशेषताएँ दिखाई पड़ती हैं :-
रामभक्ति शाखा के कुछ प्रमुख कवि:
स्वामी रामानंद
स्वामी रामानंद को मध्य-काल के भक्ति आंदोलन का महान संत माना जाता है। उन्होंने रामभक्ति की धारा को समाज के निचले तबके तक पहुंचाया। उन्होंने पूरे उत्तर भारत में रामभक्ति का प्रचार किया। उन्होंने तत्कालीन समाज में फैली हुई कुरीतियों जैसे छूयाछूत,ऊंच-नीच और जाति आदि का विरोध किया । उनके द्वारा लिखी गई पुस्तकों ये हैं:
(1) वैष्णवमताब्ज भास्कर (संस्कृत), (2) श्रीरामार्चनपद्धति: (संस्कृत), (3) रामरक्षास्तोत्र (हिन्दी), (4) सिद्धान्तपटल (हिन्दी), (5) ज्ञानलीला (हिन्दी), (6) ज्ञानतिलक (हिन्दी), (7)योगचिन्तामणि (हिन्दी)
गोस्वामी तुलसीदास:
गोस्वामी तुलसीदास [1497(1532?) - 1623] एक महान रामभक्त संत कवि थे । उनका जन्म राजापुर (वर्तमान बाँदा ज़िला, उत्तर प्रदेश) में हुआ था । वे वाराणसी में रहते थे। अपने जीवनकाल में तुलसीदास जी ने 13 ग्रन्थ लिखे और उन्हें संस्कृत विद्वान होने के साथ ही हिन्दी भाषा के प्रसिद्ध और सर्वश्रेष्ट कवियों में एक माना जाता है । तुलसीदास के गुरु का नाम नरहरिदास था। तुलसीदास ने पूरे भारत की यात्रा की और तिब्बत में स्थित मानसरोवर भी गए। श्रीराम को समर्पित ग्रन्थ “श्री रामचरितमानस” में वाल्मीकि रामायण की कहानी अवधी भाषा में लिखी गई थी। रामचरितमानस को पूरे भारत में बड़े भक्तिभाव (devotion) से पढ़ा जाता है। “विनयपत्रिका” तुलसीदास द्वारा लिखा गया एक अन्य महत्त्वपूर्ण काव्य है। रामचरितमानस – “रामचरित” (राम का चरित्र) तथा “मानस” (सरोवर) शब्दों के मेल से “रामचरितमानस” शब्द बना है। अतः रामचरितमानस का अर्थ है “राम के चरित्र का सरोवर”। आम लोगों में यह “तुलसीकृत रामायण” के नाम से जाना जाता है। हिन्दी साहित्य की यह एक अनमोल रचना है। यह एक महाकाव्य है। इसमें 7 कांड (अध्याय) हैं।
तुलसीदास द्वारा लिखी गई पुस्तकें -
1. दोहावली 2. कवितावली 3. गीतावली 4.कृष्ण गीतावली 5. विनय पत्रिका 6. राम लला नहछू 7.वैराग्य-संदीपनी 8.बरवै रामायण 9. पार्वती मंगल 10. जानकी मंगल 11.हनुमान बाहुक 12. रामाज्ञा प्रश्न 13. रामचरितमानस
रामचरितमानस से उदाहरण (बालकांड से):
भए प्रगट कृपाला दीनदयाला कौसल्या हितकारी।
हरषित महतारी मुनि मन हारी अद्भुत रूप बिचारी॥
लोचन अभिरामा तनु घनस्यामा निज आयुध भुजचारी।
भूषन बनमाला नयन बिसाला सोभासिंधु खरारी॥1॥
दीनों पर दया करने वाले, कौसल्याजी के हितकारी कृपालु प्रभु प्रकट हुए। मुनियों के मन को हरने वाले उनके अद्भुत रूप का विचार करके माता हर्ष से भर गई। नेत्रों को आनंद देने वाला मेघ के समान श्याम शरीर था, चारों भुजाओं में अपने (खास) आयुध (धारण किए हुए) थे, (दिव्य) आभूषण और वनमाला पहने थे, बड़े-बड़े नेत्र थे। इस प्रकार शोभा के समुद्र तथा खर राक्षस को मारने वाले भगवान प्रकट हुए॥1॥
कह दुइ कर जोरी अस्तुति तोरी केहि बिधि करौं अनंता।
माया गुन ग्यानातीत अमाना बेद पुरान भनंता॥
करुना सुख सागर सब गुन आगर जेहि गावहिं श्रुति संता।
सो मम हित लागी जन अनुरागी भयउ प्रगट श्रीकंता॥2॥
भावार्थ:-दोनों हाथ जोड़कर माता कहने लगी- हे अनंत! मैं किस प्रकार तुम्हारी स्तुति करूँ। वेद और पुराण तुम को माया, गुण और ज्ञान से परे और परिमाण रहित बतलाते हैं। श्रुतियाँ और संतजन दया और सुख का समुद्र, सब गुणों का धाम कहकर जिनका गान करते हैं, वही भक्तों पर प्रेम करने वाले लक्ष्मीपति भगवान मेरे कल्याण के लिए प्रकट हुए हैं॥2॥
अन्य रामभक्त कवि
विष्णुदास
विष्णुदास हिंदी में सबसे पहले रामकथा लिखने वाले माने जाते हैं। वे ग्वालियर के राजा डूंगरेन्द्र के दरबारी कवि थे। इन्होंने 1442 में आल्हा शैली में ’रामायण-कथा’ नाम की पुस्तक लिखी।
अग्रदास (अग्रअली)
अग्रदास रसिक संप्रदाय के प्रवर्तक माने जाते हैं। यह जयपुर के पास रैवासा में रहते थे। यह सीता जी की सबसे प्यारी सहेली चंद्रकला के अवतार माने जाते हैं। इन्होंने रसिकोपासना का प्रचार किया।इनके गुरु का नाम श्रीकृष्णदास पयहारी था। रामकथा से जुड़ी इनकी दो किताबें है: ’ध्यान मंजरी’ और ’कुंडलिया’ हैं।
ईश्वरदास
16वीं सदी में जिस समय दिल्ली में बादशाह सिकंदर लोदी का शासन था, उसी समय ईश्वरदास ने रामकथा से जुड़ी हुई तीन किताबें लिखीं: ’रामजन्म’, ’भरत-विलाप’ और ’अंगदपैज’। इनमें भरत-विलाप सबसे महत्वपूर्ण है। वे अवधी भाषा में लिखते थे।
केशवदास
केशवदास ओरछा के राजा के दरबारी कवि थे। वे महाकवि तुलसीदास के परवर्ती (latter) कवि थे। केशवदास भक्त कवि नहीं थे। रामकथा से जुड़ी हुई उनकी पुस्तक ’रामचंद्रिका’ प्रसिद्ध है। यह एकप्रबंधकाव्य है और इसकी भाषा अवधी है।
नाभादास
नाभादास महाकवि तुलसीदास के समकालीन (Contemporary) रामभक्त कवि थे। नाभादास रसिक संप्रदाय के सदस्य थे। भक्तमाल इनकी प्रमुख पुस्तक है। इस ग्रंथ में इन्होंने पहले और उस समयके लगभग 200 भक्तों का परिचय दिया है।
सेनापति
इनका जन्म 1589 ईस्वी के लगभग माना जाता है। सेनापति ने कवित्त रत्नाकर नामक किताब लिखी जिसके चौथे और पाँचवे अध्याय में रामकथा के विविध (various) मधुर प्रसंगों (contexts) कावर्णन हुआ है।
रसिकसंप्रदाय
जिस तरह कृष्णभक्ति में सखी संप्रदाय (sect/denomination) है उसी तरह रामभक्ति काव्य में रसिक संप्रदाय है। रसिक का अर्थ है - जिसके व्यक्ति के हृदय (दिल) में सौन्दर्य (beauty) से जुड़ी मधुर बातों आदि के लिए प्रेम हो। इस संप्रदाय के प्रर्वतक अग्रदास थे और इसे नाभादास ने आगे बढ़ाया। इस संप्रदाय को सिया संप्रदाय, जानकी संप्रदाय और रहस्य संप्रदाय भी कहा जाता है। रसिक संप्रदायका केन्द्र अयोध्या (उत्तर प्रदेश) था। इस संप्रदाय के विकास का कारण मुगल शासकों का विलास-वैभव था। यहाँ श्रीराम की कनक (सोना) महल में रहने वाले विलासी राजा के रूप में कल्पना की गई हैजो माधुर्य-लीला करते हैं। 17वीं सदी में बालकृष्ण (बालाअली) ने राम को कृष्ण से अधिक रसिक सिद्ध कर दिया। इसके बाद रामभक्ति में रसोपासना पर अधिक ध्यान दिया जाने लगा। इस संप्रदाय केअन्य प्रमुख कवि ’रामचरणदास’ (अयोध्या, उत्तरप्रदेश) और जीवाराम (छपरा, बिहार) हैं। इस प्रकार के रसिक काव्य में कोई भक्त अपने-आप को सीता का बड़ा भाई मानता है, कोई खुद को राम कीपत्नी, तो कोई अपने को सीता की सहेली मानकर राम की उपासना (worship) करता है।
रामभक्ति शाखा के काव्य की मुख्य प्रवृत्तियाँ (main trends)
कृष्णभक्ति काव्य धारा
कृष्णभक्ति काव्य के केंद्र में विष्णु के अवतार कृष्ण हैं। कृष्ण कथाओं को देखा जाए तो कृष्ण के तीन रूप निकल कर आते हैं:
1. योगी धर्मात्मा: भगवत गीता में
2. बाल गोपाल: श्रीमद्भागवत में
3. वीर राजनयिक: महाभारत में
परन्तु देवकी पुत्र कृष्ण का चरित्र (character) अधिक लोकप्रिय हुआ। बाद में धीरे-धीरे इस कथा में बाल गोपाल
कृष्ण की कथाएँ जुड़ती गई। आदिकाल के 12वी सदी में संस्कृत कवि जयदेव और 14वी सदी में मैथिली कवि विद्यापति ने अपने काव्य में कृष्ण कथा का वर्णन किया है। परन्तु कृष्णभक्ति कवियों का मुख्य क्षेत्र ब्रज मंडल (मथुरा, आगरा आदि का क्षेत्र) या प्राचीन शूरसेन जनपद रहा है।
अष्टछाप कवि
हिन्दी साहित्य में कृष्णभक्ति काव्य की प्रेरणा देने का श्रेय श्री वल्लभाचार्य (1478 ई.-1530 ई,) को जाता है, जो पुष्टिमार्ग के संस्थापक और प्रवर्तक थे । पुष्टिमार्ग में भगवान के अनुग्रह (कृपा) को पाने पर सर्वाधिक जोर दिया जाता है। इनके द्वारा पुष्टिमार्ग में दीक्षित (शिक्षित) होकर सूरदास आदि आठ कवियों की मंडली ने अत्यन्त महत्वपूर्ण साहित्य की रचना की थी । गोस्वामी बिट्ठलनाथ ने संवत 1602 के लगभग अपने पिता वल्लभ के 84 शिष्यों में से चार और अपने 252 शिष्यों में से चार को लेकर अष्टछाप नाम के प्रसिद्ध भक्त कवियों की मंडली (समूह) की स्थापना की । इन आठ भक्त कवियों में चार वल्लभाचार्य के शिष्य थे -
1. कुम्भनदास
2. सूरदास
3. परमानंददास और
4. कृष्णदास
अन्य चार गोस्वामी विट्ठलनाथ के शिष्य थे -
1. गोविन्दस्वामी
2. नंददास
3. छीतस्वामी और
4. चतुर्भुजदास
ये आठों भक्त कवि मथुरा के श्रीनाथजी के मन्दिर की नित्य लीला में भगवान श्रीकृष्ण के सखा/मित्र के रूप में हमेशा उनके साथ रहते थे, इस रूप में इन्हे "अष्टसखा" के नाम से जाना जाता है । अष्टछाप के भक्त कवियों में सबसे ज्येष्ठ (बड़े) कुम्भनदास थे और सबसे कनिष्ठ (छोटे) नंददास थे। काव्यसौष्ठव (poetic structure) की दृष्टि से सर्वप्रथम स्थान सूरदास का है तथा द्वितीय स्थान नंददास का है। सूरदास पुष्टिमार्ग के नायक (hero) कहे जाते है। ये वात्सल्य रस एवं श्रृंगार रस के अप्रतिम (unique) चितेरे (painter) माने जाते हैं। अष्टछाप के आठों भक्त-कवि समकालीन थे। इनका प्रभाव लगभग 75 बर्ष तक रहा । ये सभी श्रेष्ठ कलाकार, संगीतज्ञ एवं कीर्तनकार थे। गोस्वामी विट्ठल नाथ ने इन अष्ट भक्त कवियों पर अपने आशीर्वाद की छाप लगायी, अतः इनका नाम "अष्टछाप" पड़ा। ब्रजभाषा को समृद्ध काव्यभाषा का रूप देने का श्रेय (credit) इन्हीं आठ कवियों को है। इनके काव्य का मुख्य विषय श्रीकृष्ण की भावपूर्ण लीलाओं का चित्रण है। सूरदास ने यद्यपि भागवत् की संपूर्ण कथा का अनुसरण (follow) किया है, तथापि इन्होंने आनंदरूप ब्रजकृष्ण के चरित्रों का तन्मयता से चित्रण किया है। मानव जीवन में बाल और किशोर, दो ही अवस्थाएँ आनंद और उल्लास से पूर्ण होती हैं। इसलिए इन अष्टभक्तों ने कृष्णजीवन के आधार पर जीवन के इन्हीं दो पहलुओं पर अधिक लिखा है। सौंदर्य और प्रेम की रस भरी धारा समान रूप से इनके संपूर्ण काव्य में प्रवाहित है। परंतु सूर के काव्य में ह्दयग्राहिणी (दिल में घर बनाने की) शक्ति अधिक है, उसमें सार्वजनिक प्रेमानुभूतियों का सजीव और स्वाभाविक रसपूर्ण चित्रण है। अष्टछाप के सभी कवि भक्ति पद्धति की दृष्टि से पुष्टिमार्गीय तथा दार्शनिक विचारधारा की दृष्टि से शुद्धाद्वैतवादी थे।[शुद्धाद्वैतवाद के प्रतिष्ठापक वल्लभाचार्य थे। उनके अनुसार ब्रह्म सत्य है। माया ब्रह्म की इच्छा का परिणाम मात्र है। इच्छा आंतरिक तत्त्व है अत: उसे ब्रह्म से अलग नहीं कर सकते। साथ ही उसके अस्तित्व (existence) को नकार भी नहीं सकते। माया का अस्तित्व है- अत: अद्वैतवाद अमान्य है।]
अष्टछाप कवियों की मुख्य रचनाएं ये हैं:
1. सूरदास : सूरसागर, सूरसारावली, दृष्टिकूट के पद (साहित्यलहरी)
2. परमानंददास: परमानंदसागर
3. कुंभनदास : पदसंग्रह
4. कृष्णदास : पदसंग्रह
5. नंददास : रसमंजरी, अनेककार्थमंजरी, मानमंजरी (अथवा नाममाला), रूपमंजरी, विरहमंजरी, श्यामसगाई, दशम स्कंध भाषा, गोवर्धनलीला, सुदामाचरित, रूक्मिणीमंगल, रासपंचाध्यायी, सिद्धांतपंचाध्यायी, भंवरगीत, पदावली
6. चतुर्भुजदास: पदसंग्रह
7. गोविंदस्वामी: पदसंग्रह
8. छीतस्वामी : पदसंग्रह
सूरदास
हिन्दी साहित्य के श्रेष्ठ कृष्णभक्त कवि सूरदास का जन्म 1478 ईस्वी में मथुरा-आगरा मार्ग पर रुनकता नामक गांव में हुआ। कुछ विद्वानों का मत है कि सूर का जन्म दिल्ली के पास सीही नामक ग्राम में एक निर्धन परिवार में हुआ था। बाद में ये आगरा और मथुरा के बीच गऊघाट पर आकर रहने लगे थे। सूरदास के पिता रामदास गायक थे। सूरदास के जन्मांध (जन्म से अंधा) होने के विषय में मतभेद है। प्रारंभ में सूरदास आगरा के समीप गऊघाट पर रहते थे। वहीं उनकी भेंट श्री वल्लभाचार्य से हुई और वे उनके शिष्य बन गए। वल्लभाचार्य ने उनको पुष्टिमार्ग में दीक्षित कर के कृष्णलीला के पद गाने का आदेश दिया। सूरदास की मृत्यु गोवर्धन के निकट पारसौली ग्राम में 1580 ईस्वी में हुई। सूरदास को हिंदी साहित्य के आकाश का सूर्य कहा जाता है। महाकवि सूर अन्य भक्त कवियों की तरह एक उच्च कोटि के भक्त पहले माने जाते है,कवि बाद में। कविता करना इनका मुख्य लक्ष्य नही था। सूर का वात्सल्य एवं श्रृंगार वर्णन हिन्दीसाहित्य की अमर निधि है। इन्होने बड़ी तन्मयता से श्रीकृष्ण की बाल लीलाओ का चित्रण किया है। श्रृंगार चित्रण में संयोग और वियोग दोनों का ही मार्मिक एवं हृदयग्राही वर्णन किया है। सूर का काव्य गहराई का काव्य है,विस्तार का नही। सूरदास अपने समय के आध्यात्मवाद का प्रतिनिधित्व करते है,साथ ही वे एक ऐसे मार्ग पर सामान्य जनता को ले जाते है ,जो रास्ता पूर्ण प्रशस्त एवं अंध धार्मिकता से परे थे। सूरदास के भगवान् श्रीकृष्ण हर समय-समर स्थान पर लीला करने वाले है,जो अपने भक्तो की रक्षा के लिए सदैव तत्पर रहते है,साथ ही सूरदास की प्रतिभा पुष्टिमार्गी सिद्धांतो में दीक्षित होकर और निखर गई,जिसकी आभा सम्पूर्ण समाज एवं साहित्य जगत पर बिखेर गई। सूर के 'सूरसागर', 'सूर सारावली', 'साहित्य लहरी' ग्रन्थों में 'सूरसागर' के पद ही जनता में सर्वाधिक प्रचलित हैं। कहा जाता है, 'सूरसागर' सवा लाख पदों का था, परन्तु इस समय पाँच हज़ार पद ही उपलब्ध हैं।
सूरदास का एक पद
चरन कमल बंदौ हरि राई ।
जाकी कृपा पंगु गिरि लंघै आंधर कों सब कछु दरसाई॥
बहिरो सुनै मूक पुनि बोलै रंक चले सिर छत्र धराई ।
सूरदास स्वामी करुनामय बार-बार बंदौं तेहि पाई
शब्दार्थ
राई = राजा, पंगु = लंगड़ा। लघै लांघ जाता है = पार कर जाता है।
मूक = गूंगा। रंक = निर्धन, गरीब कंगाल। छत्र धरा राज-छत्र धारण करके।
तेहि = तिनके, पाई = चरण
भाव
जिस पर श्रीहरि की कृपा हो जाती है उसके लिये असंभव भी सभव हो जाता है।
लूला-लंगड़ा मनुष्य पर्वत को भी लांघ जाता है। अंधे को गुप्त और प्रकट सब कुछ
देखने की शक्ति प्राप्त हो जाती है। बहरा सुनने लगता है। गूंगा बोलने लगता है
कंगाल राज-छत्र धारण कर लेता है। ऐसे करूणामय प्रभु की पद-वन्दना कौन
अभागा न करेगा।
नंददास
सूरदास के पश्चात अष्टछाप के कवियों में नंददास सबसे महत्वपूर्ण हैं। इनका जन्म गोकुल मथुरा से पूर्व रामपुर ग्राम बतलाया गया है। इन्हें गोस्वामी तुलसीदास का भाई भी कहा गया है। ये आरंभ में संसार के प्रति अति अनुरक्त थे। विट्ठलनाथजी ने इन्हें अपना शिष्य बनाया, जिससे इनका मोह भंग हुआ। प्रचुर लेखन तथा विषय की विविधता की दृष्टि से नंददास महत्वपूर्ण हैं। इनकी 28 रचनाएँ बताते हैं, जिनमें 'रास पंचाध्यायी तथा 'भ्रमर गीत अधिक प्रसिध्द हैं। रास पंचाध्यायी में महारास का अद्भुत वर्णन है। भ्रमर गीत में तर्क एवं बुध्दि की प्रधानता है। नंददास भाषा के प्रयोग में अत्यंत पटु थे
परमानंददास
परमानंददास अष्टछाप के अत्यंत प्रतिभा संपन्न कवि थे। ये कानपुर के रहने वाले थे। इनके पिता बडे निर्धन थे। जनश्रुति है कि इनके जन्म के दिन किसी धनी सेठ ने इनके पिता को प्रचुर दान दिया जिससे उन्हें परम आनंद हुआ। इसी से उन्होंने अपने पुत्र का नाम परमानंद रख दिया। ये बालपन से ही भगवत् भक्त थे। श्री वल्लभाचार्य से स्वप्न में आदेश पाकर उनसे मिलने अरैल गए और उनके शिष्य बन गए। उन्होंने श्रीनाथजी की सेवा इन्हें सौंपी जिसे ये आजीवन करते रहे। ये कलाप्रेमी एवं स्वयं कुशल कलाकार थे। इनका पद-सौंदर्य तथा रचनाएँ दोनों ही सराहनीय हैं। इनकी समस्त रचना 'परमानंद सागर में संग्रहित है। कहते हैं एक बार जन्माष्टमी पर आनंदमग्न होकर इन्होंने इतना नृत्य किया कि बेहोश हो गए तथा वहीं शरीर छोड दिया
गोविंदस्वामी
गोविन्दस्वामी वल्लभ संप्रदाय (पुष्टिमार्ग) के आठ कवियों (अष्टछाप कवि) में एक थे। इनका जन्म राजस्थान के भरतपुर राज्य के अन्तर्गत आँतरी गाँव में 1505 ई० में हुआ था। 1575 ई० में इन्होंने गोस्वामी विट्ठलनाथ से विधिवत पुष्टमार्ग की दीक्षा ग्रहण की और अष्टछाप में सम्मिलित हो गए। इन्होंने भगवान श्री कृष्ण की विभिन्न लीलाओं का अपने पदों में वर्णन किया है।
अन्य कृष्णभक्त कवि
इस युग में कृष्ण भक्ति को समर्पित कुछ अन्य कवि भी हुए, जिसे किसी विचारधारा के अंतर्गत नहीं रखा जा सकता । जैसे मीरा, रहीम, और रसखान ।
मीरा बाई
मीरा बाई हिंदी की श्रेष्ठ भक्त कवयित्री है । इनका जन्म जोधपुर, राजस्थान के पास चोकड़ी गाँव में हुआ था। इनकी भक्ति को हम सगुण-निर्गुण में नहीं रख सकते । वे तो कृष्ण-प्रेम में इतनी तल्लीन हो जाती थी, कि उन्हें अपने तन की भी सुध नहीं रहती थी । जैसी साधना, तन्मयता, सरलता,विरह-वेदना, प्रेम की पीड़ा मीरा के पदों में मिलती है, वैसी हिंदी साहित्य में अन्यत्र कहीं नहीं । मीरा बाई के नाम से निम्नलिखित सात रचनाएँ मिलती हैं :
1. नरसी जी रो माहेरी 2. गीत-गोविंद की टीका 3. मीराबाई की मलार 4. राग-गोविंद 5. सोरठ के पद 6. मीरानी 7. मीरा के पद । इन रचनाओं में से मीरा की पदावली को ही विद्वान प्रामाणिक मानते हैं । उनके ये गीत ब्रज, राजस्थानी और गुजराती भाषाओं में मिलते हैं ।
रहीम
रहीम का पूरा नाम अब्दुर्रहीम खानखाना था । ये सम्राट अकबर के संरक्षक मुगल सरदार बैरमखाँ के पुत्र थे । अरबी और फारसी के अतिरिक्त रहीम संस्कृत के दिद्वान थे और हिंदी कविता में इनकी विशेष रुचि थी । सम्राट के नवरत्नों में इनकी गिनती होती थी । अकबर के समय में ये प्रधान सेनापति तथा मंत्री के पद पर आसीन थे । रहीम की उदारता और दानशीलता विख्यात है । ये अपने समय के कर्ण माने जाते हैं । गंग कवि को उसके दो पदों छंदों पर प्रसन्न होकर रहीम ने एक बार छत्तीस लाख रुपए दे दिए थे । मुस्लिम होने पर भी रहीम हिंदू संस्कृति के अनुरागी थे ।वे कृष्ण और राम भक्त थे । गोस्वामी तुलसीदास जी का भी इनसे अपार स्नेह था । इनकी प्रमुख रचनाएँ हैं : 1.रहीम दोहावली 2. बरवै नायिका भेद 3. शृंगार सोरठ. 4.मदनाष्टक 5. रासपंचाध्यायी । रहीम ने अधिकतर ब्रज तथा अवधी भाषा में लिखा है । भाषा पर रहीम का अधिकार तुलसी से किसी भांति कम नहीं । इन्होंने दोनों भाषाओं पर समान अधिकार से लिखा । इन्होंने अधिकतर मुक्तक काव्य रचा । इनकी रचनाओं में जीवन के अनुभूत सत्य मार्मिक रूप से चित्रित हुए हैं । रहीम का जीवन अनुभव गहरा और विशाल था । इसी से उनके पद्य कोरे पद्य मात्र नहीं बल्कि उनमें जीवन की सच्ची अनुभूति है । उनके मुक्तक ज्ञान,भक्ति,नीति तथा श्रृंगार से संबंधित हैं । रहीम के मुक्तक, विशेषकर दोहे परवर्ती कवियों को भी प्रभावित करने में समर्थ हुए ।
रसखान
रसखान का जीवनवृत्त किंवदंतियों के आधार से मिलता है । इनका असली नाम सैयद इब्राहीम था । अपने आराध्य देव कृष्ण की छवि निहारकर यह मुसलमान से रसखान हो गए । इनका संपूर्ण कृतित्व अभी तक प्राप्त नहीं हो सका है । कवि के मुक्तक सवैया,कवित्त और दोहे छंद में हैं ; जो चार संग्रहों में मिलते हैं :1. सुजान रसखान 2. प्रेमवाटिका 3. बाललीला और 4. अष्टायाम । रसखान भक्ति, प्रेम और श्रृंगार के रससिद्ध कवि हैं । प्रेम के सुंदर उद्गार उनकी रचनाओं में मिलते हैं । प्रेम और शृंगार से संबंधित इनके कवित्त और सवैयों को इतनी ख्याति मिली कि जनसाधारण इनके सवैयों को ही रसखान कहने लगे । सवैया सुनाओ के स्थान पर लोग रसखान सुनाओ कहने लगे । समस्त हिंदी साहित्य में इनके सवैयों की सरलता अद्वितीय है । प्रेमाभिव्यंजना के लिए अन्य कृष्णभक्त कवियों की तरह गीतिकाव्य को न अपना कर इन्होंने कवित्त, सवैया और दोहा छंद को ग्रहण किया । रसखान में रस के साथ कला भी है । इनकी भाषा सरल,चलती और शब्दाडम्बर से मुक्त है।
कृष्ण भक्ति काव्य में रस,आनंद, और प्रेम की अभिव्यक्ति का माध्यम श्रीकृष्ण या राधाकृष्ण की लीला बनी है । इस काव्य की प्रवृत्तियाँ इस प्रकार से हैं :-