[निर्गुण का अर्थ है- गुणों से अलग, यह शब्द वैदिक ग्रंथों मे परमात्मा, ईश्वर तथा भगवान के संदर्भ में आता है। वैदिक ग्रंथों में ईश्वर को सगुण और निर्गुण दोनों रुपों में माना गया है।]
>>>आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने निर्गुण संत काव्य धारा को निर्गुण ज्ञानाश्रयी शाखा नाम दिया ।
>>>आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी इसे निर्गुण भक्ति साहित्य कहते हैं ।
>>>>रामकुमार वर्मा केवल संत-काव्यनाम कहते हैं ।
इस शाखा की साहित्यिक रचनाओं को संत साहित्य कहते हैं। इसमें आने वाले कवि संत पहले हैं और कवि बाद में। ["संत" शब्द संस्कृत "सत्" से बना है जिसका मतलब है सज्जन और धार्मिक व्यक्ति। हिंदी में साधु पुरुषों के लिए यह शब्द व्यवहार में आया। कबीर, सूरदास, गोस्वामी तुलसीदास आदि पुराने कवियों ने इस शब्द का व्यवहार साधु और परोपकारी, पुरुष के अर्थ में किया है और उसके लक्षण भी दिए हैं। संत साहित्य का अर्थ हुआ, वह साहित्य जो निर्गुणिए भक्तों द्वारा रचा जाए।]
इस भक्ति धारा के मूल (root) में सिद्धों, सहयानियों और नाथपंथियों का दर्शन (philosophy) और कार्य है।
कबीरदास इस शाखा के प्रमुख कवि हैं। अन्य मुख्य संत-कवियों के नाम हैं - नानक, रैदास, दादूदयाल, सुंदरदास, मलूकदास, रज्जब, अक्षर अनन्य, जंभनाथ, सिंगाजी तथा हरिदास निरंजनी
मुख्य प्रवृत्तियाँ (main trends)
- निर्गुण ईश्वर : संत मानते हैं कि ईश्वर निर्गुण है। इसलिए ईश्वर के सगुण रूप को गलत कहा गया है। संतों का ईश्वर हर जगह और उसके दरवाज़े सबके लिए खुले हैं।
- बहुदेववाद (polytheism) या अवतारवाद (anthropomorphism) का विरोध : संतों ने बहुदेववाद तथा अवतारवाद की धारणा को गलत बताया है। इनकी वाणी में एकेश्वरवाद (monotheism) का संदेश है : अक्षय पुरुष इक पेड़ है निरंजन वाकी डार । त्रिदेवा शाखा भये, पात भया संसार। संत भी ईश्वर को राम, कृष्ण, गोविन्द, केशव आदि नामों से पुकारते हैं।
- सद्-गुरु का महत्व :- संत कवियों ने ब्रह्म की प्राप्ति के लिए सद्-गुरु ( सच्चा गुरू) को सबसे ऊपर रखा है। राम की कृपा तभी संभव है, जब गुरु की कृपा होती है । कबीर गुरु को गोविंद से भी महत्वपूर्ण मानते हुए कहते हैं :- गुरु गोविंद दोऊ खड़े, काके लागूँ पाँय । बलिहारी गुरु आपने जिन गोविंद दियो बताय ।।
- माया से सावधान (alert) रहने का उपदेश : सभी संतों की वाणी में माया से सावधान रहने का उपदेश मिलता है । इन्होंने माया का अस्तित्व स्वीकार किया है । इनकी दृष्टि में माया के दो रूप हैं : एक सत्य माया, जो ईश्वर प्राप्ति में सहायक है; दूसरी मिथ्या-माया जो ईश्वर से दूर ले जाती है। उनका कहना था - माया महाठगिनी हम जानी । कबीर माया के संबंध में कहते हैं : कबीर माया मोहिनी, मोहे जाँण-सुजांण । भागां ही छूटे नहीं, भरि-भरि मारै बाण ।।
- गृहस्थी (homely life) धर्म में बाधक नहीं : प्राय: सभी संत पारिवारिक जीवन बिताते थे । वे आत्मशुद्धि (self purification) और व्यक्तिगत साधना (individual practice) पर ज़ोर देते थे तथा शुद्ध मानव धर्म को मानते थे। इस प्रकार एक ओर सभी संत भक्ति आंदोलन को शुरू करने वाले थे, वहीं दूसरी ओर वे समाज-सुधारक (social reformer) भी थे ।
- नारी के प्रति दृष्टिकोण (view) : जबकि सभी संतों ने वैवाहिक जीवन (married life) जीया । लेकिन फिर भी इनकी बातों में नारी को माया का रूप माना गया है । कनक (सोना) और कामिनी (औरत) को वे बंधन (chains) जैसा मानते हैं । कबीर के वचनों में : नारी की झाई परत, अँधा होत भुजंग । कबिरा तिन की कहा गति नित नारी संग ।। किंतु पतिव्रता (faithful wife) नारी की बहुत प्रशंसा भी करते हैं ।
- रहस्यवाद (mysticism) : इन्होंने ईश्वर को पति रूप में और आत्मा को को पत्नी रूप में चित्रित कर अलौकिक (supernatural) प्रेम को दिखाया है, जिसे रहस्यवाद कहा जाता है । संतों ने प्रणय (प्रेम) के संयोग और वियोग दोनों ही अवस्थाओं (conditions) को लिया है । उनके विरह (separation) में मीरा के विरह जैसी विरह-वेदना (दर्द) है ।
- बाहरी आडम्बरों (दिखावा) का विरोध : सभी संत कवियों ने रुढ़ियों (traditions), मिथ्या आडम्बरों (false hypocrisy) और अंध-विश्वासों (superstition) का घोर विरोध किया है । मूर्ति-पूजा, तीर्थ-व्रत, रोजा-नमाज़, हवन-यज्ञ और पशु-बलि आदि बाहरी कर्मकांडों (rituals), आडम्बरों का उन्होंने डटकर विरोध किया है ।
- जाति के भेद-भाव से मुक्ति : सभी संत कवियों ने मनुष्य को समान माना है और कहा है कि कोई भी ईश्वर से जुड़ सकता है। जाति-पाँति पूछे नहीं कोई, हरि को भजे सो हरि का होई। इस प्रकार संत साहित्य लोक-कल्याणकारी ((public welfare) है ।
- प्रभाव : सिद्धौ और नाथ-पंथ के हठयोग, शंकर के अद्वैतवाद (monism) और सूफी-कवियों की प्रेम साधना का प्रभाव संतों की वाणी में दिखाई पड़ता है ।
- भजन और नाम स्मरण : संतों की वाणी में नाम स्मरण प्रभु (भगवान) से मिलने का सर्वोत्तम (सबसे अच्छा) मार्ग है ।
- भाषा-शैली : प्राय: सभी संत अशिक्षित (पढ़े-लिखे नहीं) थे । इसलिए बोलचाल की भाषा को ही लिखने का माध्यम बनाया । धर्म-प्रचार हेतु वे घूमते रहते थे । जिस कारण उनकी भाषा में विभिन्न जगहों के शब्दों का प्रयोग हुआ । इन्हीं कारणों से इनकी भाषा सधुक्कड़ी या बेमेल खिचड़ी हो गई, जिसमें अवधी, ब्रजभाषा, खड़ी बोली, पूर्वी-हिंदी, फारसी, अरबी, संस्कृत, राजस्थानी और पंजाबी भाषाओं का मेल है । साथ ही प्रतीकों और उलटबासियों की शैलियों का प्रयोग बहुतायत हुआ, जिससे भाषा कठिन हो गई है । संत काव्य मुक्तक रूप में ही अधिक प्राप्त (मिलता) होता है । संतों के शब्द गीतिकाव्य के सभी तत्वों- भावात्मकता, संगीतात्मकता, संक्षिप्तता, वैयक्तिकता आदि से युक्त हैं । इन्होंने साखी, दोहा और चौपाई शैली का प्रयोग किया है ।
- छंद : संतों ने अधिकतर सधुक्कड़ी छंद का प्रयोग किया है । इनमें साखी और सबद प्रमुख हैं । साखी दोहा छंद है जबकि सबद (शब्द) पद है । संतों के सबद राग (लय)-रागिनियों (संगीत में किसी राग की पत्नी) में गाए जा सकते हैं । कबीर ने इनके अलावा रमैनी का भी प्रयोग किया है, जिसमें सात चौपाइयों के बाद एक दोहा आता है । इसके अतिरिक्त चौपाई, कवित्त, सवैया, सार, वसंत आदि छंदों का भी प्रयोग दिखाई पड़ता है ।
- अलंकार : संतों की वाणी सरल है । उपमा, रूपक संतों के प्रिय अलंकार हैं । इसके अतिरिक्त विशेषोक्ति, विरोधाभास, अनुप्रास, यमक आदि का भी प्रयोग इनकी वाणी में मिल जाता है । उदाहरणार्थ : पानी केरा बुदबुदा अस मानुस की जात । देखत ही छिप जाएगा ज्यों तारा परभात (morning star) । (उपमा) नैनन की करि कोठरी पुतली पलंग विछाय । पलकों की चिक डारिकै पिय को लिया रिझाय ।। (रूपक)
- रस : संत काव्य में भक्तिपरक उक्तियों में मुख्य रूप से शांत रस का प्रयोग हुआ है । ईश्वर भक्ति एवं संसार-विमुखता का भाव है। रहस्यवाद के अंतर्गत श्रृंगार-रस का चित्रण है, जिसमें संयोग की अपेक्षा वियोग-पक्ष अधिक मजबूत है । विरही को कहीं भी सुख नहीं: कबीर बिछड्या राम सूँ । ना सुख धूप न छाँह । जहां कहीं ईश्वर की विशालता का वर्णन है, वहाँ अद्भूत रस है।
आदिकाल के सिद्ध-साहित्य, नाथ-साहित्य और संत साहित्य को एक ही विचारधारा की तीन स्थितियाँ कहा जा सकता है ।