ज्ञानमार्गी शाखा के प्रमुख कवि और उनकी रचनाएँ:
कबीर दास (1440-1518) :
कवि और समाज सुधारक (social reformer) संत कबीर दास का जन्म 1440 में काशी (वाराणसी) में हुआ था। कबीर शब्द अरबी भाषा के अल-कबीर से आया है जिसका अर्थ महान होता है। उनकी परवरिश (upbringing) एक मुसलमान जुलाहा (weaver) परिवार में हुई थी। कबीर के गुरु रामानंद थे। 78 वर्ष की उम्र में 1518 में मगहर, बस्ती जिला, उत्तर प्रदेश में इनकी मृत्यु हुई। भक्तिकाल आंदोलन को कबीर ने सबसे अधिक प्रभावित किया। इनके दोहों को सिख धर्म में भी अपनाया गया है। कबीर के मरने के बाद कबीरपंथ शुरू हुआ जिसे मानने वाले आज भी उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में रहते हैं। कबीर का दर्शन हिन्दु धर्म, बौद्ध तंत्रवाद, नाथपंथ और इस्लाम से प्रभावित है। कबीर पहले संत थे जिन्होंने हिन्दू और मुसलमानों दोनों के लिए दोहे लिखे थे। कबीर ने मुर्तिपुजा (idol worship), रीति-रिवाज़, कर्मकांड (rituals), रोज़ा-नमाज़, अवतारवाद आदि का विरोध किया था।
इनका मुख्य ग्रंथ बीजक है । इसके तीन भाग हैं : पहला भाग साखी है, जिसमें दोहे हैं । दूसरे भाग में सबद (शब्द) हैं जो गेयपद (जो गाए जा सकते हैं) । तीसरा भाग रमैनी का है जिसमें सात चौपाई के बाद एक दोहा आता है । इसके अलावा कबीर ग्रंथावली और श्री आदि ग्रंथ (गुरु ग्रंथ साहिब) में भी इनके पद मिलते हैं । इनकी भाषा को सधुक्कड़ी भाषा या संतभाषा कहा जाता है। यह पंजाबी, राजस्थानी, खड़ी बोली, अवधी, पूरबी, ब्रजभाषा आदि कई भाषाओं की खिचड़ी है। यह जनता को समझ में आने वाली भाषा थी।
इनके कुछ दोहे निम्नलिखित हैं:
चाह मिटी, चिंता मिटी मनवा बेपरवाह ।
जिसको कुछ नहीं चाहिए वह शहनशाह॥
माटी कहे कुम्हार से, तु क्या रौंदे मोय ।
एक दिन ऐसा आएगा, मैं रौंदूगी तोय ॥
माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर ।
कर का मन का डार दे, मन का मनका फेर ॥
तिनका कबहुँ ना निंदये, जो पाँव तले होय ।
कबहुँ उड़ आँखो पड़े, पीर घानेरी होय ॥
गुरु गोविंद दोनों खड़े, काके लागूं पाँय ।
बलिहारी गुरु आपनो, गोविंद दियो मिलाय ॥
सुख मे सुमिरन ना किया, दु:ख में करते याद ।
कह कबीर ता दास की, कौन सुने फरियाद ॥
साईं इतना दीजिये, जा मे कुटुम समाय ।
मैं भी भूखा न रहूँ, साधु ना भूखा जाय ॥
धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय ।
माली सींचे सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय ॥
कबीरा ते नर अँध है, गुरु को कहते और ।
हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रूठे नहीं ठौर ॥
माया मरी न मन मरा, मर-मर गए शरीर ।
आशा तृष्णा न मरी, कह गए दास कबीर ॥
रात गंवाई सोय के, दिवस गंवाया खाय ।
हीरा जन्म अमोल था, कोड़ी बदले जाय ॥
दुःख में सुमिरन सब करे सुख में करै न कोय।
जो सुख में सुमिरन करे दुःख काहे को होय ॥
सुख मे सुमिरन ना किया, दु:ख में किया याद ।
कह कबीर ता दास की, कौन सुने फरियाद ॥
लूट सके तो लूट ले, राम नाम की लूट ।
पाछे फिरे पछताओगे, प्राण जाहिं जब छूट ॥
जाति न पूछो साधु की, पूछि लीजिए ज्ञान ।
मोल करो तलवार का, पड़ा रहन दो म्यान ॥
संत रैदास
रैदास कबीर परंपरा के संत कवि हैं। संत रैदास या रविदास का जन्म वाराणसी में हुआ था। रैदास का जन्म चमड़े का काम करने वाले परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम संतोख दास और माता का नाम कलसा देवी बताया जाता है। रैदास ने साधु-सन्तों की संगति से पर्याप्त व्यावहारिक ज्ञान प्राप्त किया था। जूते बनाने का काम उनका पैतृक व्यवसाय (family business) था और उन्होंने इसे सहर्ष अपनाया। रैदास के समय में स्वामी रामानन्द वाराणसी के बहुत प्रसिद्ध प्रतिष्ठित सन्त थे। रैदास उनके शिष्य थे। शादीशुदा रहते हुए भी रैदास उच्च-कोटि के विरक्त संत थे। जूते सीते-सीते ही उन्होंने ज्ञान-भक्ति का ऊंचा पद प्राप्त किया था। उन्होंने समानता और सदाचार पर बहुत बल दिया। वे खंडन-मंडन में विश्वास नहीं करते थे। सत्य को शुद्ध रूप में प्रस्तुत करना ही उनका मुख्य लक्ष्य था। उनका विश्वास था कि राम, कृष्ण, रहीम, राघव आदि सब एक ही परमेश्वर के विविध नाम हैं। वे मानते थे कि आदमी अपनी जाति से नहीं किए गए काम से पहचाना जाता है। वेद, कुरान, पुराण आदि ग्रन्थों में एक ही परमेश्वर का गुणगान किया गया है। इनके पद और दोहे श्री गुरु ग्रंथ साहिब, आदि ग्रंथ आदि में मिलते हैं । इनकी भाषा में फारसी शब्दों की प्रधानता है।
रैदास का प्रभाव आज भी भारत में दूर-दूर तक फैला हुआ है। इस मत (sect) के अनुयायी रैदासी या रविदासी कहलाते हैं।
संत रैदास के दोहे का एक उदाहरण
अब कैसे छूटे राम, नाम रट लागी |
प्रभुजी तुम चन्दन हम पानी, जाकी अंग अंग बास समानि |
प्रभुजी तुम घन बन हम मोरा, जैसे चितवत चन्द चकोरा |
प्रभुजी तुम दीपक हम बाती, जाकी जोति बरै दिन राती |
प्रभुजी तुम मोती हम धागा, जैसे सोने मिलत सुहागा |
प्रभुजी तुम स्वामी हम दासा, ऐसी भक्ति करै रैदासा |
कृस्न, करीम, राम, हरि, राघव, जब लग एक न पेखा। वेद कतेब कुरान, पुरानन, सहज एक नहिं देखा।
गुरु नानक देव:
सिख/सिक्ख धर्म के प्रवर्तक गुरुनानक देव जी निर्गुण धारा के प्रमुख कवि हैं। जपुजी साहिब, सिद्धगोष्ठी, आसा दी वार, दत्तिसनी ओंकार, बारहमाहा, मझ दी वार, मलार दी वार इत्यादि इनकी प्रमुख रचनाएँ हैं। श्री गुरु-ग्रन्थ साहब' में उनकी रचनाएँ 'महला 1' के नाम से संकलित हैं। भाषा की दृष्टि से गुरु नानक की वाणी में फ़ारसी, मुल्तानी, पंजाबी, सिंधी , ब्रजभाषा, खड़ीबोली आदि के प्रयोग हुए हैं। संस्कृत, अरबी और फ़ारसी के अनेक शब्द ग्रहण किये गये।
दोहे:
जगत में झूठी देखी प्रीत।
अपने ही सुखसों सब लागे, क्या दारा क्या मीत॥
मेरो मेरो सभी कहत हैं, हित सों बाध्यौ चीत।
अंतकाल संगी नहिं कोऊ, यह अचरज की रीत॥
मन मूरख अजहूँ नहिं समुझत, सिख दै हारयो नीत।
नानक भव-जल-पार परै जो गावै प्रभु के गीत
[सिख/सिक्ख धर्म: सिक्ख धर्म की स्थापना 15वीं शताब्दी में भारत के उत्तर-पश्चिमी भाग के पंजाब में गुरु नानक देव द्वारा की गई। 'सिक्ख' शब्द शिष्य से उत्पन्न हुआ है, जिसका तात्पर्य है गुरु नानक के शिष्य, अर्थात् उनकी शिक्षाओं का अनुसरण करने वाले। सिख एक ही ईश्वर को मानते हैं, जिसे वे एक-ओंकार कहते हैं, पर उसके पास जाने के लिये दस गुरुओं की सहायता को महत्त्वपूर्ण समझते हैं । इनका धर्मग्रन्थ गुरु ग्रंथ साहिब है । अधिकांश सिख पंजाब (भारत) में रहते हैं । सिखों के दस गुरु हैं । प्रथम गुरु थे गुरु नानक और अन्तिम गुरु थे गुरु गोबिन्द सिंह । उनका मानना है कि ईश्वर अकाल और निरंकार है ।]
{“श्री गुरू ग्रंथ साहिब” अमृतसर के हरमंदिर साहिब गुरुद्वारा (स्वर्ण मंदिर) में रखा गया। यह गुरुद्वारा सिख धर्म का सबसे महत्वपूर्ण स्थान है।}
पंजाब के तलवंडी (अब पाकिस्तान में) नामक स्थान में 15 अप्रैल, 1469 को एक किसान के घर गुरु नानक का जन्म हुआ। यह स्थान लाहौर से 30 मील पश्चिम में स्थित है। अब यह 'नानकाना साहब' कहलाता है। तलवंडी का नाम आगे चलकर नानक के नाम पर ननकाना पड़ गया। नानक के पिता का नाम कालू एवं माता का नाम तृप्ता था। बचपन से इनमें प्रखर बुद्धि के लक्षण दिखाई देने लगे थे। पढ़ने लिखने में इनका मन नहीं लगा। 7-8 साल की उम्र में स्कूल छूट गया और सारा समय वे आध्यात्मिक चिंतन और सत्संग में व्यतीत करने लगे। 16 वर्ष की अवस्था में इनका विवाह हुआ। श्रीचंद और लक्ष्मीचंद नाम के दो पुत्र भी इन्हें हुए। 1507 में ये अपने परिवार का भार अपने श्वसुर पर छोड़कर यात्रा के लिए निकल पड़े। 1521 तक इन्होंने तीन यात्राचक्र पूरे किए, जिनमें भारत, अफगानिस्तान, फारस और अरब के मुख्य मुख्य स्थानों का भ्रमण किया।
1539 में इनकी मृत्यु हुई।गुरु नानक अपने व्यक्तित्व में दार्शनिक, योगी, गृहस्थ, धर्मसुधारक, समाजसुधारक, कवि, देशभक्त और विश्वबंधु - सभी के गुण समेटे हुए थे
गुरुनानक ने अपने एक सबद में कहा है कि पण्डित पोथी (शास्त्र) पढ़ते हैं, किन्तु विचार को नहीं बूझते। दूसरों को उपदेश देते हैं, इससे उनका माया का व्यापार चलता है। उनकी कथनी झूठी है, वे संसार में भटकते रहते हैं। इन्हें सबद के सार का कोई ज्ञान नहीं है। ये पण्डित तो वाद-विवाद में ही पड़े रहते हैं।
पण्डित वाचहि पोथिआ न बूझहि बीचार।।
आन को मती दे चलहि माइआ का बामारू।।
कहनी झूठी जगु भवै रहणी सबहु सबदु सु सारू।।6।।
(आदिग्रन्थ, पृ. 55)
ज्ञानमार्गी शाखा के प्रमुख कवि - 3
संत दादूदयाल:
दादूदयाल (1544-1603 ई.) ज्ञानामार्गी शाखा के प्रमुख सन्त कवि थे । हरडे वाणी और अंगवधु इनकी प्रमुख रचनाएँ हैं। इनकी भाषा राजस्थानी मिश्रित पश्चिमी हिंदी है। माना जाता है कि दादू दयाल का जन्म अहमदाबाद (गुजरात) में हुआ था। गृहस्थी त्यागकर इन्होंने 12 वर्षों तक कठिन तप (meditation) किया। गुरु-कृपा से सिद्धि प्राप्त हुई तथा सैकडों शिष्य हो गए। इनके 52 पट्टशिष्य थे, जिनमें गरीबदास, सुंदरदास, रज्जब और बखना मुख्य हैं। दादू के नाम से 'दादू पंथ' चल पड़ा। ये बहुत दयालु थे। इस कारण इनका नाम 'दादू दयाल' पड़ गया। दादू हिन्दी, गुजराती, राजस्थानी आदि कई भाषाओं के ज्ञाता थे। इन्होंने सबद और साखी लिखीं। इनकी रचना प्रेमभावपूर्ण है। हिन्दू-मुसलमानों की एकता पर इन्होंने बल दिया।
संत मलूकदास
संत मलूकदास का जन्म उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद जिले में 1574 में हुआ था और उनकी मृत्यु 1682 में हुई। इनके द्वारा लिखे गए ग्रंथ ये हैं: ज्ञानबोध, रतनखान, भक्तवच्छावली, भक्तिविवेक, बारहखड़ी, ज्ञानपरोखि, सुखसागर, ब्रजलीला आदि। इनकी भाषा अवधी और ब्रजभाषा है। मलूकदास ने अरबी, फारसी और संस्कृत के शब्दों का भी प्रयोग किया है। आलसी लोगों के मूलमंत्र जैसा एक दोहा उनका दोहा ये है:
अजगर करै ना चाकरी, पंछी करै ना काम।
दास मलूका कह गए, सबके दाता राम॥ (अजगर=python, चाकरी= job, पंछी=Bird, दाता= देने वाला)
सुन्दरदास
सुन्दरदास का जन्म 1596 ई. में दौसा (राजस्थान) में हुआ था और इनकी मृत्यु 1689 ई. में हुई । सुन्दरदास संत दादू दयाल के शिष्य थे। संत काव्य के कवियों में सुन्दरदास ही अकेले थे जिन्होंने संस्कृत व्याकरण, साहित्य और दर्शन का अध्ययन किया था। इसलिए उनकी भाषा अन्य संत कवियों की तुलना अधिक रस वाली और साहित्यिक है। उनकी भाषा में परिष्कृत ब्रजभाषा के साथ खड़ी बोली का उपयोग हुआ है। सुन्दरदास की प्रमुख रचनाएँ ये हैं: सुन्दरविलास, ज्ञानसमुद्र, सर्वांगयोग प्रदीपिका, वेदविचार, पंच प्रभाव आदि। उनकी रचनाओं में भक्ति, योग साधना और नीति को मुख्य स्थान प्राप्त हुआ है। वे श्रृंगार रस की रचनाओं के विरोधी थे।
रज्जब
रज्जब का जन्म 1567 ई. में हुआ था और इनकी मृत्यु 1689 में हुई। ये संत दादू दयाल के प्रमुख शिष्य थे। रज्जब की रचनाएँ रज्जब-बानी ग्रंथ में संकलित हैं। दादू दयाल की रचनाओं का संकलन इन्होंने अंग-वधु नाम के ग्रंथ मे किया था। इनकी रचनाओं की भाषा ब्रजभाषा मिली हुई राजस्थानी है।
अन्य कवि:
दया बाई, सहजो बाई, दरियादास, संत पलटूदास, संत चरणदास, धरमदास,जगजीवन,वाजिद, यारी, दूलन दास, संत लाल,भीखा, गुलाल, शेख फरीद