जैन साहित्य:
जैन साहित्य:
हिंदु धर्म की प्रतिक्रिया (reaction) स्वरूप उत्पन्न हुए जैन धर्म को उनके अंतिम और चौबीसवें (24वें) तीर्थन्कर/तीर्थंकर महावीर स्वामी ने देश भर में फैलाया था।
[तीर्थ (pilgrim) का अर्थ है जिसके द्वारा संसार समुद्र तरा जाए / पार किया जाए और वह अहिंसा (non-violence) धर्म है, इस विषय में जिन्होंने प्रवर्तन किया / उपदेश दिया, उन्हें तीर्थंकर कहा गया है]
['जैन' उन्हें कहते हैं, जो 'जिन' के अनुयायी (followers) हों । 'जिन' शब्द बना है 'जि' धातु (root) से। 'जि' मतलब -जीतना। 'जिन' मतलब जीतने वाला। जिन्होंने अपने मन को जीत लिया, अपनी वाणी (voice) को जीत लिया और अपनी काया (body) को जीत लिया, वे हैं 'जिन'। जैन धर्म अर्थात 'जिन' भगवान् का धर्म]
जैन साहित्य अपभ्रंश काल का सबसे अधिक प्रामाणिक (reliable) साहित्य है।
सिद्धों की तरह आध्यात्मिक (spiritual) और लौकिक (natural) - अलौकिक (supernatural) वस्तुओं के बारे जैन सहित्य की कविता लिखी गई है।
इस साहित्य में अवतारों (incarnations) की कथा के साथ नीति-कथन (moral preaching) भी किया गया है।
भाषा: जैन संतो के साहित्य की भाषा नागर अपभ्रंश के करीब है।
भाषा शैली: आचार, रास, फागु, चरित
छंद: दोहा और चौपाई
रस: इस साहित्य में श्रृंगार और शांत रस की प्रधानता है। [ रस काव्य की आत्मा है। नाट्य शास्त्र के रचयिता भरत मुनि ने आठ रस बताएँ हैं: श्रृंगार (attractiveness), हास्य (laughter), रौद्र (fury), करुण (compassion), वीर (heroic), भयानक (horror), वीभत्स (disgust) और अद्भुत (wonder)। अभिनव गुप्त ने नौवाँ रस बताया है: शांत (peace)। इसके अलावा दो और रस माने गए हैं: वात्सल्य (parental love) और भक्ति (spiritual devotion)]
जैन मुनियों ने गद्य, पद्य (प्रबंध तथा मुक्तक), व्याकरण आदि सभी की रचना की थी।
उन्होंने रामायण और महाभारत की कथा को भी जैन धर्म के अनुसार बदल दिया था।
जैन संतो ने रास को एक प्रभावशाली रचना शैली का रूप दिया जिसे आगे चलकर रासो का नाम दिया गया। [रास / रासो वे रचनाएँ जिनमें गीत और नृत्य दोनों गाए/किए जा सकते हैं]
जैन काव्य मुख्य रूप से धार्मिक साहित्य है।
महत्वपूर्ण साहित्यकार और उनके महत्वपूर्ण ग्रंथ:
स्वयंभू (’पउम चरिउ’, ’रिट्ठेणेमि चरिउ’, ’पंचमी चरिउ’, ’स्वयंभूच्छंद’ और ’हरिवंश पुराण’), पुष्पदंत (’महापुराण’, ’हरिवंश पुराण’), हेमचंद्र (’सिद्ध हेमचंद्र शब्दानुशासन’), देवसेन (’श्रावकाचार’), शालीभ्रद सूरि (’भरतेश्वर बाहुबली रास’), आसगु (’चंदन बाला रास’), जिनधर्म सूरि (’स्थूलिभद्ररास’), विजयसेन सूरि (’रेवंतगिरिरास’), सुमति गणि (’नेमिनाथ रास’), मेरुतुंग (’प्रबंध चिंतामणि’), हरिभद्र सूरि (’नेमिनाथ चरिउ’), विनयचंद्र सूरि (’नेमिनाथ चौपई’) [नेमिनाथ 21वे जैन तीर्थन्कर थे।]
स्वयंभू को अपभ्रंश का वाल्मिकी कहा जाता है। पउम चरिउ में राम की कथा को लिया गया है। रिट्ठेणेमि चरिउ में कृष्ण की कथा को लिया गया है।
हेमचंद्र द्वारा रचित सिद्ध हेमचंद्र शब्दानुशासन में विविध विषयों जैसे धर्म, व्याकरण, योग, दर्शन (philosophy), पुराण (mythology) आदि पर चर्चा हुई है। यह एक प्रकार का विश्वकोश (encyclopedia) था।
जैन सहित्य के उदाहरण:
हेमचंद्र के कुछ दोहे
भल्ला हुआ जु मारिया बहिणि महारा कंतु
लज्जेजं तु वयंसिअहु जइ भग्गा घरु एंतु
[अर्थात हे बहन ! भला हुआ जो मेरा कंत (पति) मारा गया। यदि वह भागा हुआ घर आता तो मैं अपनी सहेलियों से लज्जित (ashamed) होती।]
पिय संगमि कउ निद्दणी, पियहो परक्खहो केंव
मई बिन्निवि बिन्नासिया, निंद्दन ऐंव न तेंव
[अर्थात प्रिय जब साथ थे तब और अब दूर हैं तब, दोनों में कोई खास फर्क नहीं है, क्योंकि नींद न तब आती थी और न अब आती है।]
स्वयंभू के पउम चरिउ से एक दोहा
णिय मन्दिर हो विणिग्गय जाणइ।
णं हिमवंत हो गंग महाणइ॥
णं छंद हो णिमाय गायत्री।
णं सद्द हो णीसरीय विहत्ती॥
[यहाँ सीता के वन/जंगल जाने की कहानी का वर्णन किया गया है। कवि कहते हैं: उनका घर से निकलना हिमालय से गंगा का निकलना है, छंदस (अर्थात वेद) से गायत्री (एक मंत्र / like a psalm) और शब्द से विभक्ति (inflection) का निकलना है]