आदिकाल का गद्य साहित्य:
राउलबेलि / राउलवेल: यह पत्थर पर लिखी हुई एक रचना है जिसे अब मुंबई के छत्रपति शिवाजी महाराज सस्तु संग्रहालय (museum) में रखा गया है। इस रचना को चम्पू भी कहते है। चम्पू में गद्य और पद्य का मिश्रण होता है। [चम्पू श्रव्य काव्य का एक भेद है, अर्थात गद्य-पद्य के मिश्रण काव्य को चम्पू कहते हैं। काव्य की इस विधा का उल्लेख साहित्यशास्त्र के प्राचीन आचार्यों- भामह, दण्डी, वामन आदि ने नहीं किया है। यों गद्य पद्यमय शैली का प्रयोग वैदिक साहित्य, बौद्ध जातक, जातकमाला आदि अति प्राचीन साहित्य में भी मिलता है। चम्पू नाम के प्राकृत काव्य की रचना दसवीं शती के पहले नहीं हुई। त्रिविक्रम भट्ट द्वारा रचित 'नलचम्पू`, जो दसवीं सदी के प्रारम्भ की रचना है, चम्पू का प्रसिद्ध उदाहरण है। इसके अतिरिक्त सोमदेव सूरि द्वारा रचित यश:तिलक, भोजराज कृत चम्पू रामायण, कवि कर्णपूरि कृत आनन्दवृन्दावन, गोपाल चम्पू (जीव गोस्वामी), नीलकण्ठ चम्पू (नीलकण्ठ दीक्षित) और चम्पू भारत (अनन्त कवि) दसवीं से सत्रहवीं शती तक के उदाहरण हैं। यह काव्य रूप अधिक लोकप्रिय न हो सका और न ही काव्यशास्त्र में उसकी विशेष मान्यता हुई।]
कवि रोउ को इस राउलबेली का रचनाकार माना जाता है। इसकी रचना लगभग दसवीं शताब्दी में हुई थी। इसकी काव्य भाषा अपभ्रंश है पर गद्य में लोकभाषाओं विशेष रूप से पुरानी राजस्थानी और पुरानी अवधी का प्रभाव है। राउलबेली का सामान्य अर्थ राज-विलास है। इस कृति में भारत के छ्ह विभिन्न प्रदेशों की स्त्रियों के श्रृंगार (cosmetic makeover) का वर्णन है।
उक्ति व्यक्ति प्रकरण: बारहवीं सदी में दामोदर पंडित ने “उक्ति व्यक्ति प्रकरण’ की रचना की। वे वाराणसी के महाराज गोविंदचंद्र के दरबार में पंडित थे। इसमें पुरानी अवधी तथा शौरसेनी (ब्रज) के अनेक शब्दों का उल्लेख प्राप्त है। इस कृति में बोलचाल की संस्कृत भाषा सिखाने का प्रयास किया गया है। इस ग्रंथ से हिन्दी की प्राचीन कोशली या अवधी लोकभाषा के स्वरूप का पता चलता है। इसमें पुरानी अवधी के व्याकरणिक रूपों के समानान्तर संस्कृत रूपों के साथ पुरानी कोशली एवं संस्कृत दोनों में उदाहरणात्मक वाक्य (example sentences) दिये गये हैं ।देखें-
इस पुस्तक से कुछ उदाहरण
पुरानी कोशली और संस्कृत के वाक्य
काह ए दुइ वस्तु ? >>>> के एते द्वे वस्तुनी ?
काह इंहां तूं करसि? >>>> किमत्र त्वं करोषि ?
पढिहउं >>>>> पठिष्यामि
अंधारी राति चोरु ढूक >>>> अन्धकारितायां रात्रौ चौरो ढौकते
वर्णरत्नाकर: इस ग्रंथ की रचना मिथिला (वर्तमान में बिहार में) के रहने वाले ज्योतिरीश्वर ठाकुर ने चौदहवीं सदी में की थी। इसमें लोकभाषा मिश्रित अपभ्रंश भाषा का उपयोग हुआ है। देखें एक अंश:
पुनु कयिसनि नायिका। कामदेवक नगर अइसन शरीर। निष्कलंक चाम्द अइसन मुह। कंदल खंजीरीर अइसन लोचन। यमुना क तरंग अइसन भुजइक।
अवहट्ट: अवहट्ट 'अपभ्रंष्ट' शब्द का विकृत (बिगड़ा हुआ) रूप है। इसे 'अपभ्रंश का अपभ्रंश' या 'परवर्ती अपभ्रंश' कह सकते हैं। अवहट्ट अपभ्रंश और आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं के बीच की संक्रमणकालीन/संक्रांतिकालीन भाषा है। इसका कालखंड 900 ई. से 1100 ई. तक निर्धारित किया जाता है। वैसे साहित्य में इसका प्रयोग 14वीं सदी तक होता रहा है। अब्दुर्रहमान, दामोदर पंडित, ज्योतिरीश्वर ठाकुर, विद्यापति आदि रचनाकारों ने अपनी भाषा को 'अवहट्ट' या 'अवहट्ठ' कहा है। विद्यापति प्राकृत की तुलना में अपनी भाषा को अधिक मधुर बताते हैं। इसे अवहट्ठा भी कहा जाता है।
प्रमुख रचनाकारः अद्दहमाण/अब्दुर रहमान ('संनेह रासय'/'संदेश रासक'), दामोदर पंडित ('उक्ति–व्यक्ति–प्रकरण'), ज्योतिरीश्वर ठाकुर ('वर्ण रत्नाकर'), विद्यापति ('कीर्तिलता') आदि।
पिंगल और डिंगल: डॉ. सुनीति कुमार चटर्जी के अनुसार अवहट्ट ही राजस्थान में पिंगल नाम से ख्यात (famous) थी। डॉ. तेसीतोरी ने राजस्थान के पूर्वी भाग की भाषा को पिंगल अपभ्रंश नाम दिया है। उनके अनुसार इस भाषा से संबंद्ध क्षेत्र में मेवाती, जयपुरी, आलवी आदि बोलियाँ हैं। पूर्वी राजस्थान में, ब्रज क्षेत्रीय भाषा शैली के उपकरणों को ग्रहण करती हुई, पिंगल नामक एक भाषा- शैली का जन्म हुआ, जिसमें चारण- परंपरा के श्रेष्ठ साहित्य की रचना हुई। राजस्थान के अनेक चारण कवियों ने इस नाम का उल्लेख किया है। पिंगल शब्द राजस्थान और ब्रज के सम्मिलित क्षेत्र में विकसित और चारणों में प्रचलित ब्रजी की एक शैली के लिए प्रयुक्त हुआ है। पिंगल का संबंध शौरसेनी अपभ्रंश और उसके मध्यवर्ती क्षेत्र से है। सूरजमल ने इसका क्षेत्र दिल्ली और ग्वालियर के बीच माना है। इस प्रकार पहले राजस्थान से इस शब्द का अनिवार्य लगाव नहीं रहा। यह शब्द ब्रजभाषा- वाचक हो गया। गुरुगोविंदसिंह के विचित्र नाटक में भाषा पिंगल दी कथन मिलता है। इससे इसका ब्रजभाषा से अभेद स्पष्ट हो जाता है।
पिंगल और डिंगल दोनों ही शैलियों के नाम हैं, भाषाओं के नहीं। डिंगल इससे कुछ भिन्न भाषा शैली थी। यह भी चारणों में ही विकसित हो रही थी। इसका आधार पश्चिमी राजस्थानी बोलियाँ प्रतीत होती है। पिंगल संभवतः डिंगल की अपेक्षा अधिक परिमार्जित थी और इस पर ब्रजभाषा का अधिक प्रभाव था। इस शैली को अवहट्ट और राजस्थानी के मिश्रण से उत्पन्न भी माना जा सकता है। पृथ्वीराज रासो जैसी रचनाओं ने इस शैली का गौरव बढ़ाया।
रासो की भाषा को इतिहासकारों ने ब्रज या पिंगल माना है। वास्तव में पिंगल ब्रजभाषा पर आधारित एक काव्य शैली थी : यह जनभाषा नहीं थी। इसमें राजस्थानी और पंजाबी का पुट है। ओजपूर्ण शैली की दृष्टि से प्राकृत या अपभ्रंश रुपों का भी मिश्रण इसमें किया गया है। इस शैली का निर्माण तो प्राकृत पैंगलम ( 12वीं- 13वीं शती ) के समय हो गया था, पर इसका प्रयोग चारण बहुत पीछे के समय तक करते रहे। इस शैली में विदेशी शब्द भी प्रयुक्त होते थे। इस परंपरा में कई रासो ग्रंथ आते हैं।
पिंगल शैली भक्ति- साहित्य में संक्रमित हो गई। इस स्थिति में ओजपूर्ण संदर्भों की विशेष संरचना के भाग होकर अथवा पूर्वकालीन भाषा स्थिति के अवशिष्ट के रुप में जो अपभ्रंश के द्वित्व या अन्य रुप मिलते थे, उनमें ह्रास होने लगा। यह संदर्भ परिवर्तन का ही परिणाम था।