(१)
वचनामृत, प्रियवर जामवंत के |
हनुमंत हृदय को, अति मन भाये ||
जामवंत सा, अतुल्य मित्र हो|
प्रच्छन्न प्रतिभा का, बोध कराये||
(२)
हर्षित ह्रदय, हिमाद्रि सा उज्जवल|
दिव्य ओज था, मुख मंडल पर||
नतमस्तक हो, रघुनन्दन को |
उठे पवनपुत्र, पूर्ण शक्ति भर ||
(३)
स्वजनों को, सम्बोधित कर |
राह देखने को, यह कहकर ||
माँ सीता की खोज में वीर |
श्रीराम सुमिर कर, चले गंभीर||
(४)
सिंधु तट पर, सुन्दर इक गिरि था |
हनुमंत ने ज्यूँ ही, चरण धरा था ||
हुआ पूर्ण पर्वत, पातळ विसर्जित |
शोभित था वह, सदियों से खड़ा था ||
(५)
समुद्रदेव बोले:
श्री रघुनन्दन के, करने कार्य उद्गम |
निकल रहे, तेरे ऊपर से वानरोत्तम ||
असीम पातळ के द्वार, हे मैनाक महीधर |
उठो तुम, सागर जल से ऊपर ||
(६)
करजोड़, मानवरूप धारणकर, कहें पर्वतश्रेष्ठ मैनाक |
हे बलशाली, मेरे श्रृंग पर कर विश्राम ||
स्वादिष्ट फल, मूलकंद का कर सेवन |
तत्पश्चात्, अग्रिम यात्रा पर करो प्रस्थान ||
(७)
धन्यवाद, हे गिरिवर मैनाक |
बोले, अत्यंत विनम्र हनुमान ||
बिना पूर्ण किये, श्रीराम कारज |
किस बिधि करूँ, मैं विश्राम ||
(८)
करके, अपने इष्ट का ध्यान |
पवनवेग से, चले हनुमान ||
समुख, नागमाता सुरसा को पाया |
किन्तु, मुख पर मंद मुस्कान ||
(९)
देवों ने भेजा था, सुरसा को |
शक्ति सामर्थ्य कसौटी, पर कसने को ||
परीक्षा थी, महावीरबली की |
उत्तम बुद्धि, बल, स्फूर्ति की II
(१०)
देख हनुमान, कहा सुरसा ने |
वानर भोजन, भेजा देवों ने ||
बोले कपीश्वर:
श्रीराम का, कार्य है करना |
लौट आने पर, भक्षण करना ||
(११)
ज्ञात था, हनुमंत वीर को |
शक्ति बल, न दिखलाना था ||
बुद्धि विवेक का, कर उपयोग |
सुरसा को, बस उलझना था ||
(१२)
योजन चार, सोलह, मुख फैलाया |
पवनसुत को, दोगुना पाया ||
चेष्ठा सौ योजन सुरसा ने, की तदन्तर |
हृस्व रूप कर प्रविष्ट हुए, मुख अंदर ||
(१३)
बाहर आ कर, शीश नवाया |
सुरसा का भी, मुख मुस्काया ||
कार्य सिद्ध हुआ, कहा सुरसा ने |
जिस हेतु देवों ने, मुझे भिजवाया ||
(१४)
बल बुद्धि विद्या के भण्डार, विशेष को ||
दिया आशीष सुरसा ने, पवनपुत्र को |
श्री रामचंद्र के तुम, सदा रहो प्यारे |
सफल हो, हों पूर्ण कार्य तुम्हारे ||
(१५)
प्रतिबिम्ब पकड़, खाले पंछी को |
दैत्या अनोखी, सिंधु में थी वो ||
हनुमंत की, देखी प्रतिछाया |
फैला दी उसने, अपनी माया ||
(१६)
धीर बुद्धि, वीर श्री हनुमान |
तत्क्षण लिया, प्रपंच पहचान ||
क्षण भर युद्ध, हुआ राक्षसी से |
तत्काल किया, काम तमाम ||
(१७)
किया सागर को, पल में पार |
मनोज्ञ अरण्य तट पर, अपार ||
पंछी लता पुष्प वन, आकर्षण |
मुग्ध हो गए हनुमंत, कुछ क्षण ||
(१८)
कुछ दूर परबत, इक था खड़ा |
कपीश्वर का जब पग, उसपे पड़ा ||
कर जोड़, दी राह जाने की |
प्रताप, रघुवर का था बड़ा ||
(१९)
प्रथमत: , विवेक से काम लिया |
दूर शहर का, अवलोकन किया ||
चहु ओर समुद्र, के मध्य बना था |
स्वर्ण रत्नो का, प्राचीर तना था ||
(२०)
रम्य आकर्षक, गृह की कतारें |
वाटिका उपवनो, में थीं बहारें ||
सुन्दर सुसज्जा, थी चहुँ ओर |
रथ, गज, अश्व, नृत्य करते थे मोर ||
(२१)
ललकार मल्ल युद्ध में, तमचर करें |
सिंह, गज गर्जन से, चरिन्दे डरें ||
तैनात, दुष्ट दैत्य सेना सजग थी |
होगी कौशल्यानन्दन के, करों से मुक्ति ||
(२२)
प्रविष्ट करना था लंका में |
सोच-विचार कर, आंजनेय ने ||
धारण किया, लघु डंस का रूप |
किया ध्यान, श्रीराम का मन में ||
(२३)
लंका की और कदम बढ़ाये |
राक्षसी लंकिनी, द्वार मुख पाए ||
गरज उठी वह, रोके राह |
कहाँ चला तू, बिन परवाह ||
(२४)
किया महावीर ने, मुष्ठि प्रहार |
गिरी राक्षसी, कर चीत्कार ||
कर जोड़ समक्ष, कहा पुण्य हैं मेरे |
दुर्लभ दरस मिले, हे रामदूत तेरे ॥
(२५)
कहा लंकिनी ने, हे हनुमान:
जब वरदान मिला, ब्रह्मा से रावण को |
विनाश की संग पहचान मिली, राक्षस कुल को ||
जब इक वानर से, राक्षस थर्राये |
समझ लेना, मुक्ति के दिन आये ||
(२६)
हे पूजनीय,
कहाँ हर्ष, स्वर्ग सुख रंग में |
जो इस क्षण, सत्य के संग में ||
हृदय से करके, रघुनाथ का ध्यान |
करो प्रवेश, पूर्ण करो सब काम ||
(२७)
कृपा दृष्टि श्रीराम की |
जिसपर हो जाये, इक बार ||
कण को परबत, अग्नि को शीतल |
शरणागत तरे, भवसागर पार ||
(२८)
कई महलों के, चक्कर काटे |
अंदर बाहर, सब दर छांटे ||
देखे, अनेक योद्धाओं के दस्ते |
उपरान्त पहुंचे, रावण के रस्ते ||
(२९)
देखा, विचित्र महल रावण का |
भव्य, किन्तु जटिल पेचीदा ||
अनेक भवन, शयन अनेका |
किन्तु न सुराग, माँ सीता का ||
(३०)
इक प्रासाद विशेष, दिखा सहसा |
सुन्दर मनहर, मंदिर जैसा ||
धनुष, श्रीराम का था चिन्हित |
तुलसी देख, हुआ मन हर्षित ||
(३१)
मन व्याकुल, ऊहापोह में फंसा |
निशाचर नगरी में, सत्पुरुष कौन बसा ||
विचरण विचार चित्त, करने लगे |
विभीषणजी, इतने में जगे ||
(३२)
सुमिरन किया, श्रीराम का नाम |
सज्जन जान, मुस्काये हनुमान ||
परिचय करूँ, विचार यह आया |
कार्य शुभ, यदि साधु छत्र छाया ||
(३३)
धारण किया, ब्राह्मण का रूप |
पुकारा उन्हें, स्थिति अनुरूप ||
सुन स्वर सुन्दर, विभीषण आये |
कर जोड़, कुशल पूछ हर्षाये ||
(३४)
पूछा:
हे श्रीमन, किस बिध पधारे |
उमड़े स्नेह क्यूँ, दर्शन से तुम्हारे ||
हो क्या दीनबंधु, श्रीराम तुम |
एकटक दुइ नयन, तुम्हें निहारें ||
(३५)
पवनपुत्र से, परिचय पाया |
हो पुलकित, गुण रघुवर गाया ||
हरि कृपा बिन, न मिले है संत |
कृपा जानि, रघुबर की अनंत |
(३६)
मैं बसूँ, लंका में ऐसे |
दन्त बीच हो, जिव्हा जैसे ||
जियूं जीवन, इसी विचार से |
रघुबर दें मुक्ति, अत्याचार से ||
(३७)
भक्तवत्सल, हैं प्रभु रघुवीरा |
हरते, भक्तों की सब पीड़ा ||
करें हनुमंत वर्णन, कथा श्रीराम की |
आकुल हो पूछा, कहाँ है माँ जानकी ||
(३८)
विधि विभीषण से, समस्त जानकर ।
पुनः मसक का, रूप धारण कर ॥
अनुमति लेकर, चले कपीश्वर ।
अशोक वाटिका के, अद्भुत पथ पर ॥
(३९)
वृक्ष तले, माँ जानकी बैठी |
करतीं, रघुवर का जाप ||
अक्षि अश्रु से, भरे हुए |
मन में था संताप ||
(४०)
विचलित, हो रहे थे हनुमान |
मन ही मन माँ को, किया प्रणाम ||
देख माँ की, व्यथित दशा |
ह्रदय गया, दुःख से भर सा ||
(४१)
किंकर्तव्यविमूढ़, हो रहे कपिवर |
ओट ली, देख इक विशाल तरुवर ||
वस्त्र सुशोभित, स्वर्ण माणिक गहने |
धारण कर, आया रावण कुछ कहने ||
(४२)
अधम दुर्जन, श्रीरामप्रिया को समझावे |
यदि तू, लंकापति को अपनावे ||
मंदोदरी समेत, रानियां दासी तेरी |
धन-दौलत लोभ, दंड का भय दिखलावे ||
(४३)
नलिनी खिलती नहीं, देख ज्योति जुगनू की |
कहा जानकी ने दशमुख से, ले ओट तिनके की ||
हो ले परिचित परिस्थिति से, मिलेगा तुझे परिणाम |
जब अविरल वर्षा बाणो की, करेंगे प्राणप्रिय श्रीराम ||
(४४)
धमकाए रावण, माँ सीता को |
पतितपावन, की संगिनी को ||
धार तेज़, कृपाण दिखाई |
नहीं मानी तो, जान गवाई ||
(४५)
कहें जानकी:
नलिन भुजा, भर्ता की कण्ठन पे |
अधिकार अधिपति का, मेरी ग्रीवा पे ||
अन्यथा, कर पृथक तलवार से रावण |
सुन ले अटल, है मेरा यह प्रण ||
(४६)
सम्बोधित कर, चन्द्रहास को |
कहा, हर ले मेरे जीवन को ||
विरह अग्नि से तड़प रही हूँ |
कर मुक्त, वेदना से मुझको ||
(४७)
क्रोध बांध, रावण का फूटा |
मारने जानकी को, वह टूटा ||
मंदोदरी ने, निति समझाई |
रावण ने, सब दासी बुलाई ||
(४८)
गरजा, सीता को समझा दो |
भय से, इसका परिचय करा दो ||
समय, एक मास का देकर |
चला, धमकी मृत्यु की देकर ||
(४९)
प्रीति, चरण श्री राम से |
राक्षसी त्रिजटा, की थी अतुल्य ||
सोचा, मुक्ति पानी है तो |
सेवा जानकी की, बहुमूल्य ||
(५०)
विचित्र देखा स्वप्न, कहे त्रिजटा |
भुज बीस कटी, शीश मुंडित, न कोई जटा ||
गर्दभ पीठ पर, दशानन निर्वस्त्र |
धधकती लंका, राक्षसगण मृत्युग्रस्त ||
(५१)
रावण, यमपुरी दिशा को जावे |
विभीषण, सिंघासन लंका का पावे ||
नगर गली में, जय श्रीराम |
जानकी वल्लभ, सीता राम ||
(५२)
निश्चित हूँ मैं, स्वप्न सत्य है |
रावण की गति, तय अवश्य है ||
राक्षसियाँ सब, थर थर कांपे |
जा झुकीं, जानकी के चरणों में ||
(५३)
सुनके, त्रिजटा स्वप्न का चित्रण |
इधर उधर हो लीं, उसी क्षण ||
व्यथित है, श्रीरामप्रिया का मन |
सोचें माह अंत, करेगा वध दशानन ||
(५४)
कर जोड़, त्रिजटा से बोलीं |
माँ, विपत्ति मुझ पर बहु हो ली ||
असहनीय, विरह की सीमा अब है |
उपाय प्राण मुक्ति का, कुछ कह ||
(५५)
वेदना, रावण की कटु वाणी दे |
कर काठ एकत्र, इक चिता सजा दे ||
माँ बिठा मुझे, तू अग्नि लगा दे |
प्रीत मेरी को, सत्य करा दे ||
(५६)
पीड़ा भरे वचन, सुन त्रिजटा ने |
कर जोड़, कहा जनकसुता से ||
प्रभु बल प्रताप, यश बतलाया |
रात्रि चिता न जलेगी, समझाया ||
(५७)
मन ही मन, वैदेही सोचे |
विधाता क्यूँ, मुझसे हैं रूठे ||
न मिले है अग्नि, न मिटे है पीड़ा |
तारे, नभ, भूमि, करें कौनसी क्रीड़ा ||
(५८)
शशि भी, आज अग्निमय है |
ज्वाला किन्तु, न बरसे है ||
हे अशोक, तूही बिनती सुन ले ,
कर सत्यापित, नाम स्वयं का,
शोक संताप, मेरा कुछ हर ले |
पल्लव नवीन तेरे, पावक जैसे,
दे अग्नि, विरह पीड़ा, कम हो कैसे ||
(५९)
सुन माँ सीता को, देख व्यथित |
हुआ ह्रदय, कपीश्वर का विचलित ||
वह क्षण, होता था ऐसा प्रतीत |
युग जैसे, कई गए हों बीत ||
(६०)
हृदय में कर विचार, ले गहरी इक श्वास |
मुद्रिका श्रीराम की, डाली माँ के पास ||
मुद्रिका श्रीराम की, पहचानी |
हो हर्षित निहारें, प्रियवर की निशानी ||
(६१)
विषाद-हर्ष से, हृदय आकुल था |
देख मुद्रिका , चित्त चिंतित था ||
अजेय हैं श्रीरघुनाथ तो, मन कहे बारम्बार |
दिव्य मुद्रिका माया से, किस विधि ले आकार ||
(६२)
तभी कर्णपट, हुआ तरंगित |
चहु दिशा, ज्यूँ हुई सुगन्धित ||
सुनें मधुर ध्वनि, माँ जानकी
कहे कथा कोई, श्रीराम की ||
(६३)
आदि अंत तक, कथा सुनाकर |
कष्ट हरण, ह्रदय उल्लसित कर ||
प्रत्यक्ष प्रकट हुए, परमवीर तब |
माँ सीता का, आग्रह हुआ जब ||
(६४)
सम्मक्ष जब ,हनुमत को देखा |
मस्तक उभरीं, विस्मय की रेखा ||
वानर रूप देख, मंजुल मुख फेरा |
सोचें, प्रभु क्या विधान है तेरा ||
(६५)
बोले हनुमान, हे माँ जानकी |
श्रीरामदूत हूँ, सौगंध करुणानिधान की ||
मुद्रिका रूप, सहदिनी श्रीराम की |
लाया हूँ मैं, अंकित प्रभु नाम की ||
(६६)
कौतहूल वश, पूछा पुत्रपवन से |
नर वानर का, संग यह कैसे ||
कपीश्वर ने, सब कथा सुनाई |
कृपासिंधु के, परम अनुयायी ||
(६७)
सुन मधुवचन, हुआ पूर्ण विश्वास |
पुलकित तन, अश्रु नयन, मन जागी कुछ आस ||
कहा माँ सीता ने, करके प्रियवर ध्यान |
विरह सागर में तुम यूँ, जैसे जलयान ||
(६८)
मारुति नंदन से, कहें जानकी |
कुशल क्षेम पूछें, लखन श्रीराम की ||
कोमल हृदय हैं, प्राणनाथ |
क्यूँ हुए निष्ठुर, मेरे साथ ||
(६९)
सेवक के, सदा सुखदाई |
क्या याद करें, मुझे रघुराई ||
कब, सांवल तन देख के उनका |
शीतल नेत्र, मन होगा हल्का ||
(७०)
हनुमानजी बोले:
छोटा न कीजै, मन मैया |
दूना प्रेम, ह्रदय प्रभु रहिया ||
कृपा के धाम हैं कुशल, भ्रात सहित |
व्यथा आपकी से, किन्तु हैं व्यथित ||
(७१)
भर आये, दोनों लोचन |
हनुमान हर्षित हुए, जिस क्षण ||
कहा, हे जननी धीरज धरो |
प्रभु का मन में, ध्यान करो||
(७२)
कथन श्रीरामचन्द्र का सुनो, हे माता |
विरह में प्रभु को, कछु नहीं भाता ||
चंद्र सूर्य सा उष्ण, कालनिशा सी रातें |
पल्लव नवीन सब, अग्नि बरसाते ||
(७३)
शीतल सुगंध, मंद पवन यूँ |
विषैले सर्प की, हो श्वास ज्यूँ ||
वर्षा घन करें, तपित तेल सी |
तीरों से चुभते, पंकज वन भी ||
(७४)
का से कहूं, मैं मन की व्यथा |
घटे किस बिधि, दुःख यह अथाह ||
हे सीते, अनुराग तेरा मेरा |
जाने न कोई, केवल मन मोरा ||
(७५)
धैर्य धरो, हे माँ जानकी |
करो स्मरण छवि, करुणानिधान की ||
सुनो मेरे वचन, तजो भीरुता |
ह्रदय बसे, रघुवर की प्रभुता ||
(७६)
हे जननी, समझो तुम अब |
भुनेंगे निशाचर, इस तरह सब ||
पतंगों समान, हैं यह राक्षस |
अग्नि बाण हैं, प्रभु के तरकश ||
(७७)
यदि ज्ञात होता, रघुवर को |
क्षण भर विलम्ब न करते, प्रभु तो ||
राक्षसी सेना का, साम्राज्य मिटेगा |
जब सूर्य प्रतापी, रामबाण चलेगा ||
(७८)
प्रभु की शपथ से बंधा हूं, अन्यथा |
ले जाऊं तुरंत, हे मां जनकसुता ||
कुछ दिन धीरज धरो, हे माते |
वानर सेना संग, प्रभु शीघ्र ही आते ||
(७९)
शंकाकृत जानकी बोलीं :
हे पुत्र, वानर सब तो तुम्हरे जैसे |
निशिचर बलशाली, मारेंगे कैसे ||
पवनसुत ने दिया विश्वास :
ले लौटेंगे प्रभु आपको, कर निशिचर विनाश |
गायेंगे गुण नारद आदि सब, होगा यश भूमि आकाश ||
(८०)
संशय संदेह, वानर सेना पे बहुतेरे |
सुन कपीश्वर, रुप विराट में अवतरे ||
लिया आकार, सुमेरु पर्वत सा पल में |
त्रसित हो उठें, रिपु भी रण में ||
(८१)
दे जानकी को, पूर्ण विश्वास |
पुनः लघु रूप, लिए प्रभु दास ||
कहा:
नहीं बहुबल बुद्धि वानर में |
सर्वशक्ति है, प्रभु प्रताप में ||
आशीष प्रभु का, जब हो जाता |
लघु सर्प भी, गरुड़ को खाता ||
(८२)
वाणी भक्ति तेज प्रताप, बल से युक्त |
सुन कपि वचन, मन कुछ हुआ मुक्त ||
प्रभु प्रिय जान, आशीष दिए अपार |
बल औ शील के, हो जाओ पूर्ण आधार ||
(८३)
कृपा करें सर्वदा, प्रभु तुमपर |
हो जाओ तुम, अजर अमर ||
हे पुत्र, रहो सदा सदगुणों के कोष |
सुन पवनपुत्र को, हुआ बहुत संतोष ||
(८४)
बारम्बार, नवाकर शीश |
कर जोड़, बोले कपीश ||
अचूक आशीष, है माँ तेरा |
हुआ सफल, मनोरथ मेरा ||
(८५)
सुन्दर फल, तरु पर देखे जो |
बहुत भूख, लगी कपिवर को ||
माता से, अनुमती ले डाली |
बोलीं, दैत्य करते रखवाली ||
(८६)
प्रसन्न चित्त, माँ यदि आज्ञा दें तो |
उनका कुछ भी, भय नहीं मुझको ||
बल बुद्धि विद्या में, निपुण जान |
दी फल खाने की, अनुमति प्रदान ||
(८७)
शीश नवा, कर नमन, प्रवेश उपवन में किया |
फल खा, वृक्ष उखाड़, सब तहस नहस किया ||
रखवाले कुछ योद्धा तो, गए स्वर्ग सिधार |
त्राहि त्राहि करने लगे, मचाएं चीख पुकार ||
(८८)
हे लंकापति, इक वानर महाकाय |
अशोक वाटिका में, उत्पात मचाये ||
सुन्दर वाटिका, दी है उजाड़ |
योद्धा कई, गए परलोक सिधार ||
(८९)
भेजा, अक्षयकुमार को रावण ने |
असंख्य योद्धा ले, चला वो वन में ||
रावणपुत्र का, किया वध जब |
गरजे भीषण मेघ से, पवनपुत्र तब ||
(९०)
रोषित रावण, मृत्यु का सुन समाचार |
पुत्र ज्येष्ठ मेघनाद को, कहा पुकार ||
बांध कर ले आना, बिना हरे प्राण |
सम्बन्ध वानर का, जानें किस स्थान ||
(९१)
अतुलनीय योद्धा मेघनाद, इंद्र लिया था जीत |
भ्रात वध से हो क्रोधित, चला करने भयभीत ||
देख मेघनाद गरजे हनुमान, वृक्ष लिया उखाड़ |
रथहीन किया क्षण भर में, योद्धा दिए संहार ||
(९२)
कर गर्जन, द्वन्द दोनों लड़ें |
प्रतीत ज्यूँ , कुंजर मदकल भिड़ें ||
निरंतर प्रहार, महावीर मुष्टिक जड़ें |
कर क्षणिक मूर्छित, जा वृक्ष पे चढ़े ||
(९३)
बहु विधि, मायावी जाल बिछाया |
महावीर को, इंद्रजीत जीत न पाया ||
मेघनाद ने तब, ब्रह्मास्त्र चलाया |
महिमा घटे न सोच, स्थिर की काया ||
(९४)
लगा ब्रह्मबाण, पवनसुत को जब |
गिरे धरा पर, मूर्छित हो तब ||
नागपाश का, उपयोग किया |
महावीर को, बंधन में लिया ||
(९५)
कहें शिव, सुनो हे भवानी
जाको नाम जप, जन भवसागर तरे |
प्रभु दूत को, कौन बंधन में धरे ||
कार्य पूर्ण करने हेतु, प्रभु का |
किया स्वीकार, बंधन भी रिपु का ||
(९६)
बांध सभा में ले चला, कर गर्जन घनघोर |
देख वानर पाश में, निशाचर मचाएं शोर ||
सभा देखी रावण की, चकाचौंध चहुँ ओर |
प्रचुर ऐश्वर्य धन सम्पदा, मन हो जाये विभोर ||
(९७)
दिक्पाल देव, कर जोड़ खड़े थे |
भौंचक्के से, रावण को तकते थे ||
ज्यूँ गरुड़ खड़ा, सर्प समूह में |
निर्भय पवनसुत, सभा में खड़े थे ||
(९८)
देख वानर को, रावण डोला |
ठठा मार, कटु वचन वह बोला ||
ध्यान, अक्षयकुमार ज्यूँ आया |
रावण का, ह्रदय कुम्हलाया ||
(९९)
कौन है वानर, सहसा लंकापति बोला |
क्यूँ कर उजाड़, वन नष्ट कर डाला ||
रे कपटी, किस बल तुझे है अभिमान |
सुना नहीं कभी क्या, मेरा यशगान ||
(१००)
किस अपराध, हुए दण्डित राक्षस सारे |
किसके अधिकार से, वन रक्षक मारे ||
वृक्ष उखाड़, क्यूँ उपवन उजाड़े |
रे मूर्ख, क्या तुझे प्राण नहीं प्यारे ||
(१०१)
परमवीर बोले :
ब्रह्माण्ड समूह की, रचना सम्पूर्ण |
माया जिस बल से, करे परिपूर्ण ||
जिस शक्ति, ब्रह्मा विष्णु महेश |
सृजन पालन संहार, करें विशेष ||
(१०२)
सहस्रमुख शेषजी, जिस ताकत |
शीश धरें, ब्रह्मांड वनसहित पर्वत ||
जिस बल हुआ, शिव धनुष खंडित |
टूटा दम्भ, हुए कई सम्राट त्रसित ||
(१०३)
देव रक्षा हेतु, भिन्न अवतार हैं लेते |
तुझ से मूढ़ को, दान ज्ञान का देते ||
अतुलित बलशाली थे, किन्तु किया संहार |
त्रिशिरा, खर, दूषण, बालि, तरे भवसागर पार ||
(१०४)
अति अल्प बल से, जिनके |
चराचर जगत को, तुमने जीता ||
छ्ल हर लाये, भार्या प्रिय जिनकी |
दूत हूँ मैं, प्रभु रघुवर का ||
(१०५)
जानता हूँ मैं, प्रभत्व तुम्हारा |
सहस्त्रबाहु, बालि संग, युद्ध दृश्य सारा ||
वचन पवनपुत्र, रावण ने सुनके |
टाल दिए, मुस्काके खिसियाके ||
(१०६)
वानर स्वभाव कारण, तरु तोड़े |
मिटाने भूख, खाये फल थोड़े ||
जब निशाचर, लगे मारने मुझे |
रक्षा हेतु, मारा मैंने भी उन्हें ||
(१०७)
तदोपरांत, पुत्र तुम्हारा आया वहाँ |
बांध हस्त, खींच लाया मुझे यहाँ ||
लज्जा नहीं, तनिक भी इस बंधन की |
मनोरथ मुझे है, प्रभु के कारज की ||
(१०८)
कर जोड़ विनती करूँ, सुनो हे लंकापति |
मिथ्या दम्भ त्याग, लो प्रभु की शरणागति ||
पवित्र कुल है तुम्हारा, भ्रम स्वयं के तजो |
करो थोड़ा विचार, भयहारी प्रभु को भजो ||
(१०९)
कदापि वैर न करो, तुम हरि से |
भयभीत रहे, काल भी जिनसे ||
समाये देव, असुर, जड़, चेतन |
विरुद्ध दृष्टि क्यूँ, है तेरी रावण ||
(११०)
कहूं तुम्हे, माँ जानकी लौटा दो |
जाकर, रघुवर की शरण तुम लो ||
आश्रित संरक्षक, दया सागर जो |
भुला अपराध, क्षमा करें वो ||
(१११)
ह्रदय धरो, चरण कमल रघुवर के |
अचल राज, तुम करो लंका पे ||
कीर्ति कलानिधि सी, ऋषि पुलत्स्य की |
वंशज हो, न करो कुल कलंकित ||
(११२)
प्रचुर कंचन आभूषण सहित हो |
नहीं शोभा, यदि वस्त्र न तन हो ||
तज मोह मद, कर लो कुछ चिंतन |
बिन नाम श्रीराम, वाणी भी अकिंचन ||
(११३)
विमुख श्रीराम के, जो नर होता |
संपत्ति प्रभुता, सर्व सुख खोता ||
मूल जलस्रोत नदी का, यदि न होवे |
समाप्त हो वर्षा जब, निर्जल हो जावे ||
(११४)
शपथ ले पवनसुत, रावण को बतलाएं |
रक्षा रामविमुख की, कोई न कर पाये ||
ब्रह्मा, विष्णु, महेश की, चाहे करे आराधना |
श्रीराम विद्रोही का, न संभव है बच पाना ||
(११५)
मोह यदि, मूल हो जाये |
पीड़ा बहुत, जीवन भर पाए ||
तमरूप दर्प का, कर परित्याग |
भज, कृपासिंधु रघुवर का राग ||
(११६)
भक्ति ज्ञान वैराग्य नीति, समझाई |
किन्तु दशमुख को, कतई न भाई ||
ज्ञानी गुरु वानर, क्यों भेज दिया |
अभिमानी रावण ने, कटाक्ष किया ||
(११७)
लंकापति गरजा:
रे दुष्ट, मृत्यु तेरी निकट आवे |
अधमी, पाठ मुझे तू पढ़ावे ||
पवनसुत मुसकाये :
मतिभ्रम है तेरा, हे लंकेश |
होगा विपरीत, न रहेगा तू शेष ||
(११८)
कुपित हुआ, वचन यह सुनके |
दहाड़ा, प्राण हरो मूढ़ वानर के ||
मारने भागे कपि को, राक्षस सभी |
विभीषण मंत्रीगण संग, पहुंचे तभी ||
(११९)
शीश नवा, की विनती रावण से |
दूत हत्या, है विरुद्ध नीति के ||
हे लंकेश, दें अवश्य दूत को दंड उचित |
सहमत हुए सभाजन, थे जो उपस्थित ||
(१२०)
अंग भांग कर, लौटा दो |
ऐसा दंड दो, वानर को ||
कहकर, किया अट्टाहास |
सुन निकल जाये, पल में श्वास ||
(१२१)
करे अपार प्रेम, पूँछ से वानर |
बांधो पट, दो अग्नि तेल भिगाकर ||
दुमकटा, स्वामी समीप जब जायेगा |
मूढ़, मालिक को संग ले आएगा ||
(१२२)
करे बहुत बड़ाई, यह जिनकी |
देखूं कितना बल, बाहु में उनकी ||
मूढ़ राक्षस, सब करें तैयारी |
जानें पवनसुत, महिमा माँ सरस्वती की न्यारी ||
(१२३)
कपड़ा घी घट गया, मची नगर में खलबली |
चकित लंकावासी, ज्यूँ पूँछ बढ़ाएं बजरंगबली ||
पीटें ताली, बजावें ढोल, ठोकर मार करते ठठा |
पावक लगते ही पूँछ में, पवनपुत्र गरज उठा ||
(१२४)
ज्वाला ज्यूँ जली, लिया लघु रूप |
सोने की अटरिया पे, तुरंत गए कूद ||
स्त्रियां भयभीत भइँ, देख वानर निकट |
सोने की लंका पे, संकट आया था विकट ||
(१२५)
हरी आदेश चलीं, उनचास[1] पवन |
अट्टहास गरजत, छू लिया गगन ||
देह विशाल, किन्तु स्फूर्तिवान |
कूदें इक-दुजे भवन, श्रीहनुमान ||
(१२६)
भभके नगर, जनजन बेहाल |
लपटें भयंकर, प्रज्वलित ज्वाल ||
देव है कोई, नहीं यह वानर |
रक्षा कौन करे, इस अवसर ||
(१२७)
तिरस्कार साधु का, है परिणाम |
नगर जल रहा, असहाय सामान ||
विभीषणजी का घर, छोड़कर |
अग्नि जल रही, हर मोड़ पर ||
(१२८)
शिवजी कहते हैं-हे पार्वती:
हुआ अग्नि का, जिन से निर्माण |
उन कृपानिधान के, दूत हनुमान ||
अग्नि क्यूँ कर, पवनसुत को छू दे |
फूंक स्वर्ण नगरी, वह सागर में कूदे ||
(१२९)
अग्नि बुझा पूँछ से, किया कुछ पल विश्राम |
कर धारण लघुरूप, पुनः चले हनुमान ||
समक्ष माँ जानकी के, खड़े जोड़ कर हाथ |
कोई पहचान दीजिये, जैसे दी रघुनाथ ||
(१३०)
चूड़ामणि उतार कर |
सहिदानी दी हनुमान ||
हर्षपूर्वक रख ली |
ध्याये मन श्रीराम ||
(१३१)
प्रणाम निवेदन कर, कहना मेरी बात |
दया दीन-दुखी पर करें, हैं विख्यात ||
स्वामी मेरे, हर कामनाओं से हैं परे |
हे नाथ, यह भीषण संकट दूर करें ||
(१३२)
इंद्रपुत्र जयंत की, कथा सुनाना |
बाण का प्रताप, याद कराना ||
माह अंत तक, यदि नाथ न आये |
कही देत हूँ, मोहे सजीव न पाएं ||
(१३३)
तुम भी, जाने को कहते हो |
किस बिधि, सम्भालूं प्राणो को ||
धीरज मिला, तुम्हें देख के ऐसे |
आगामी दिन-रात, काटूं मैं कैसे ||
(१३४)
दिलासा दिया, माँ जानकी को |
आयेंगे रघुनन्दन, पूर्ण विश्वास रखो ||
आज्ञा मांगी, तत्पश्चात जाने की |
संदेसा, श्रीराम को पहुँचाने की ||
(१३५)
चलत समय, गरजे बहु भारी |
अकाल प्रसव, भये सब नारी ||
लांघा विशाल समुंद्र, उतरे पार |
करें वानर सब, हर्षध्वनि अपार ||
(१३६)
देख पवनपुत्र, हुए आनंदित सब ऐसे |
छटपटाती मीन को, मिले जल जैसे ||
मुख प्रसन्न, तेज विराजमान है |
हुए कार्य पूर्ण, ह्रदय श्रीराम हैं ||
(१३७)
वृतांत पूछते चले सब, महावीर के साथ |
पग बढ़ते तेजी से, प्रसन्नचित्त दमकें माथ ||
मधुबन के भीतर, सम्मति से अंगद की |
हर्षित फल खाये, तोड़े कई तरु भी ||
(१३८)
युवराज अंगद वन उजाड़ें, ऐसा सुने |
प्रभु कार्य पूर्ण, हर्षित सुग्रीव मन में गुने ||
सुधि न पायी होती, यदि जानकी की |
क्या साहस था, मधुबन के फल खाने की ||
(१३९)
सुग्रीव चरण, सब सीस नवाय |
सबसे प्रेम सहित, मिल हर्षाये ||
कुशल मंगल, पूछें सुग्रीवराज |
रघुनंदन कृपा से, पूर्ण हुआ काज ||
(१४०)
पवनपुत्र ने, कार्य पूर्ण किया |
सबको, अति आनंद दिया ||
बजरंगबली से, सुग्रीव मिले |
सब श्रीरघुनाथ के, पास चले ||
(१४१)
आते देख, वानर समूह |
हर्षित हुए, अत्यंत प्रभु ||
स्फटिक शिला, दोनों बैठे थे |
शीश प्रेम सहित, झुकते थे ||
(१४२)
गले मिलें, दयानिधि प्रेम से |
कुशल हरि, पूछें हर एक से ||
दर्शन, चरण कमल पाने से |
कुशल हम, समीप आने से ||
(१४३)
जांबवंत बोले, हे रघुनाथ |
कृपा जिसपे हो, तुम्हारी नाथ ||
मुनि, मानव, देव, सब रहें प्रफुल्लित |
कल्याण, कुशल, सर्वदा होत है हित ||
(१४४)
विनय, विजय, गुण सागर बन जाये |
लोक तीनों में, प्रखर यश पाए ||
हे कृपासिंधु, जन्म हमारा परिपूर्ण हुआ |
कृपा प्रभु तुम्हरी से, कार्य सम्पूर्ण हुआ ||
(१४५)
अतुलनीय कार्य, किया पवनपुत्र ने |
वर्णन किया न जाये, सहस्र मुख से ||
वृस्तृत वृतांत, सुनकर जांबवंत से |
लगाया पवनसुत को, पुनः ह्रदय से ||
(१४६)
श्रीराम पूछते :
किस प्रकार, है वहां सीते |
कैसे करे सुरक्षा, कैसे दिन बीते ||
पवनपुत्र बतलावें :
ह्रदय कपाट बंद, कर रघुवर का ध्यान |
संरक्षण दे हर पल, हे प्रभु आपका नाम ||
दृष्टि स्व-चरणों से, बांधे हैं थाम |
किस पथ, प्राण करें प्रस्थान ||
(१४७)
चूरामणि दी, माता ने |
प्रस्थान किया, जब लंका से ||
हृदय लगाया, श्रीराम ने |
ले हनुमान से, हाथों में ||
(१४८)
नीर नयन में भरकर, कहा है माँ सीता ने |
मन वचन कर्म, आपकी चरण अनुरागिनी ने ||
अनुज समेत पकड़ प्रभु चरण, कहना यह |
किस अपराध, है तज दिया मुझे स्वामी ने ||
(१४९)
कहा, दबी जा रही हूँ एक दोष से |
जीवन न त्यागा, वियोग हुआ जब से ||
किन्तु हे नाथ, नेत्र अपराधी हैं मेरे |
प्राण तजूं कैसे, अवरोधी मुझे हैं घेरे ||
(१५०)
विरह अग्नि है, शरीर जैसे कपास |
क्षण में तन जले, ज्यूँ पवन है श्वास ||
स्वहित, सुखकर, प्रभु स्वरुप दर्शनार्थी |
दृग छलकाते हैं नीर, देह न भस्म हो पाती ||
(१५१)
हे दीनदयाल, आपदा है विशाल अति |
किस विधि मैं कहूं, कैसी है विपत्ति ||
हर पल, युग समान बीते है |
ध्यान प्रभु का, मन में रीते है ||
(१५२)
हे प्रभु, करें समस्या तुरंत निदान
सहित सेना, जल्द करें प्रस्थान ||
करें भुजबल से, नाश दुष्टों का |
हरें दुःख दर्द, माँ सीता का ||
(१५३)
श्रीरामजी:
बोले नलिन नयन, आंसू छलकाके |
सुनके कष्ट अति, जनकसुता के ||
मन कर्म वचन से ,जो मुझ पे आश्रित |
उसका कौन कर सके है अनहित ||
(१५४)
हनुमानजी कहें:
तभी विपत्ति है, हे नाथ |
भजन स्मरण, यदि न होवे साथ ||
समक्ष आपके, राक्षसों की क्या है बिसात |
कर पराजित , माँ जानकी ले आएं साथ ||
(१५५)
पुलकित था तन, प्रेमाश्रु भरे नयन, कहें वचन श्रीराम |
हे पुत्र, देहधारी देव, मुनि, विप्र, नहीं कोई तेरे समान ||
अनंत उपकार तेरा, न उतार पाउँगा ऋण मैं कभी |
स्नेह गर्व से देवरक्षक, पवनसुत को तकते थे सभी ||
(१५६)
पवनसुत हर्षित हुए, सुनके प्रभु वचन |
नमन करें हो प्रेम विकल, गिर प्रभु चरण ||
करकमल से उठायें, बारम्बार श्रीराम |
सुहाए न उठना, प्रेम मग्न हैं हनुमान ||
(१५७)
करके स्थिति का स्मरण, हुए शिवजी प्रेममग्न |
किया मन को सचेत, कहें अति सुन्दर वचन ||
प्रभु उठायें पवनपुत्र को, अपने हृदय लगाएं |
कर पकड़ करें ओर अपनी, और निकट बैठायें ||
(१५८)
सुरक्षित दशानन द्वारा, थी लंका |
किस तरह तुमने, दहन की लंका ||
प्रभु को, प्रसन्न चित्त जान |
सविनय बोले, श्री हनुमान ||
(१५९)
वानर पुरुषार्थ, है बस इतना |
डाल डाल पर, कूदने जितना ||
समुद्र लाँघ, जलाई स्वर्ण लंका |
कुछ राक्षस मारे, उजाड़ी वाटिका ||
(१६०)
है प्रभु, प्रताप सारा यह तुम्हारा |
नहीं मेरा कौशल, आशीष तिहारा ||
प्रभु प्रसन्न हों यदि, कठिन नहीं कुछ प्रयास |
अग्नि लगे सागर में, यद्यपि छोटी होत कपास ||
(१६१)
निश्चल भक्ति कृपा सुख, दीजिये मुझे हे नाथ |
सरल वाणी सुनके, बोले एवमस्तु श्री रघुनाथ ||
हे उमा, स्वभाव श्रीराम का जो लेता है जान |
संवाद सेवक-स्वामी समझ, भजले चरणों में स्थान ||
(१६२)
हे सुग्रीव, अब विलम्ब का नहीं कोई है कारण |
आज्ञा दें कपिराज, प्रस्थान करे सेना इस क्षण ||
सुन वचन श्रीराम के, जयघोष करें वानरगण |
हर्षित, पुष्प वर्षा कर, चले लोक अपने को देवगण ||
(१६३)
समस्त सेनापतियों का, आवाह्न करें कपिराज सुग्रीव |
पहुंचे अतुलित बलशाली, वानर भालू सहित अति शीघ्र ||
प्रभु चरणों में शीश नवाकर, करते भीषण गर्जन |
कृपादृष्टि डाली सेना पे, भर आये सुन्दर लोचन ||
(१६४)
श्रीराम कृपा से, पर्वत समान हुए वानर |
प्रतीत हुआ किसी ने, दिए उड़ने को ज्यूँ पर ||
हर्षित ह्रदय श्रीरघुबीर, प्रस्थान कर रहे |
पल उसी, सुन्दर अनेक शकुन हो रहे ||
(१६५)
सर्व मंगल, है कीर्ति प्रतिष्ठित |
क्षण प्रस्थान, शकुन शुभ निश्चित ||
सदूर, जान लिया जनकसुता ने |
जब बाएं अंग लगे फड़कने ||
(१६६)
शुभ शकुन होते इधर, जनकसुता के |
अपशकुन हो रहे उधर, लंकापति के ||
असंख्य भालू वानर, गर्जन कर रहे |
पृथ्वी पर, कुछ मार्ग नभ का चुन रहे ||
(१६७)
नख शस्त्र जिनके, बिखरे हैं सर्वत्र |
रीछ वानर हर ओर, वृक्ष हो या पर्वत ||
करें गरजन भयंकर, सिंह के जैसे |
विचलें गज, चिंघाड़ें हर दिशा से ||
(१६८)
पृथ्वी डगमग लगी डोलने, होने लगे पर्वत कम्पित |
सागर मुख लगे खोलने, गन्धर्व देव मुनि सब हर्षित||
कर प्रबल प्रतापी श्रीराम का जयघोष, गाते गुणगान |
अनगिनत योद्धा भरते हुंकार, करें युद्धभूमि को प्रस्थान ||
(१६९)
सहृदय शेषनाग को, सेना बोझ करे अधीर |
पकड़-जकड कच्छप पीठ दन्त से, हैं गंभीर ||
कच्छप पीठ पे लिखें शेषनागजी, प्रतीत होता ऐसे |
पवित्र प्रस्थान कथा प्रभुराम की, शोभा दे रही जैसे ||
(१७०)
कृपासिंधु श्रीराम, पहुंचे सागर किनारे |
कपिराज सेनापति संग, रीछ वानर सारे ||
दूर दृष्टि श्रीराम की, देखें सिंधु का छोर |
रीछ वानर फल खाएं, संग मचाएं शोर ||
(१७१)
लंका जलाई, पवनपुत्र ने जब से |
भयभीत रहें, राक्षसगण तब से ||
जिनका दूत है, बलशाली ऐसे |
कुल रक्षा करे, उनसे कोई कैसे ||
(१७२)
घर घर में वार्ता, निशाचर करें |
कर स्मरण बजरंबली को, डरें ||
सुनी संदेशवाहकों से, चर्चा जब |
मंदोदरी हुई, अति व्याकुल तब ||
(१७३)
कर जोड़, चरण पकड़ प्रियवर के |
विनती करें मंदोदरी, दशमुख से ||
नीतियुक्त वाणी से, करें अनुरोध |
हे नाथ, श्री हरि का तज दें विरोध ||
(१७४)
हे स्वामी, कथन हितकर जान लो |
जिस दूत स्मरण, प्रसव अकाल हो ||
पूर्व इससे कि, लंका विनाश हो |
मंत्री बुला, वापसी स्त्री की करो |
(१७५)
नष्ट करने, शरद रात्रि जैसे |
कुल को, आई है सीता ऐसे ||
लौटा दो, अन्यथा ब्रह्म शम्भू भी |
कर न पाएंगे, रक्षा हम सबकी ||
(१७६)
हैं विशिख प्रभु के, सर्प समूह समान |
निशाचर समस्त को, मंडूक सा जान ||
ग्रस नहीं लेते, जब तक असुरों को |
हठ छोड़, कीजिये उपाय कुछ तो ||
(१७७)
सुन सुवचन, दम्भी रावण बहुत हँसा |
स्त्रियां स्वाभाव से डरपोक, व्यंग्य कसा ||
कहा, भय करती हो जब मंगल सब है |
मंदोदरी, ह्रदय तुम्हारा बहुत दुर्बल है ||
(१७८)
करेंगे जीवन निर्वाह, निशाचर |
आइ सेना यदि, वानर को खाकर ॥
लोकपाल, कांपते हैं जिससे ।
पत्नी, तुम शंकित हो कैसे ॥
(१७९)
हंसकर स्नेह सहित, ह्रदय से लगाया |
तद्पश्चात, सभा की ओर डग बढ़ाया ||
चिंतित मंदोदरी, कुछ न दिखे अनुकूल |
प्रतीत ज्यूँ, विधाता हो गए प्रतिकूल ||
(१८०)
सूचना मिली सभा में, पहुंची सेना समुद्र के पार |
क्या करें शत्रु का, रावण को निहारें सलाहकार ||
हँसे कुटिल बोले, मनुष्य वानर की क्या है बिसात |
पराजित किये देव राक्षस, सर्वविदित है यह बात ||
(१८१)
चापलूसी, प्रिय शब्द बोलें, सोचके स्व के हित की |
स्तुति कर रहे मंत्री मुख पर, सुबह शाम दशमुख की ||
भय-लाभ की हो आशा, मंत्री, चिकित्सक, गुरु की |
निश्चित ही है नींव डोलना, राज्य, शरीर, धरम की ||
(१८२)
क्षण उसी, विभीषणजी आये |
भ्राता के चरण, शीश नवाये ||
सुशील शांत, सुन्दर छवि साजे |
लेकर आज्ञा, आसन पे विराजे ||
(१८३)
हे तात, राय जो पूछी है शत्रु की |
बुद्धि अनुसार, कहता हूँ हित की ||
यश, कल्याण, सुख, शुभगति चाहे जो |
मुख न देखे चौथ चंद्र सा, परस्त्री का वो |
(१८४)
चौदह[2] भुवनों का नाथ, है एक ही स्वामी |
करे जीवों से वैर, कहलाये कैसे वह ज्ञानी ||
सदगुण सागर निपुण, मनुष्य यदि हो |
भला कोई न समझे, यदि तनिक लोभ हो ||
(१८५)
छोड़ काम क्रोध मोह लोभ, नर्क द्वार सब |
भजो श्रीराम को, संत पुरुष जिन्हे भजें सब ||
मनुष्य ही नहीं अपितु, समस्त लोक स्वामी वो |
निरमय, व्यापक, ब्रह्म, अजय, अनंत, अनादि, वो ||
(१८६)
हे भ्राता!
दें सेवक को आनंद, नाश करें दुष्टों का |
उद्देश्य , वेद - धर्म रक्षा करने का ||
पृथ्वी, मनुष्य, गो, देव हित अनुसार |
है लिया कृपासिंधु ने, मनुज अवतार ||
(१८७)
शीश नवा, वैर तज, लें शरण रघुनाथ की ।
दुःख भंजन, स्नेह करण, महिमा अपार श्रीराम की ॥
लौटा दो जनकसुता को सम्मान से, हे तात ।
अकारण जो प्रेम करें, वही जगत के नाथ ॥
(१८८)
शरणागत को, प्रभु कभी न त्यागें |
चाहे उसपे, जगत द्रोह पाप भी लागे ||
त्रितापों[3] को, पूर्ण नष्ट करें जो |
मानव रूप में, प्रकट हुए वो ||
(१८९)
हे दशशीश, बारम्बार चरण पडूँ मैं |
प्रेम सहित विनती, कर जोड़ करूँ मैं ||
त्याग करो आप, मद, मोह औ मान |
भज लो रघुपति, श्रीराम का नाम ||
(१९०)
हे तात!
सन्देश, महर्षि पुलस्त्यजी[4] का |
भेजा था जो, शिष्य के हाथ ||
अवसर दिया, जो आपने |
रख दी प्रत्यक्ष, सारी बात ||
(१९१)
इक मंत्री, सभा में था बुद्धिमान |
नाम था जिनका, माल्यवान ||
वचन विभीषण, लगे सुखकारी |
कहा, नीति विभीषण की हितकारी ||
(१९२)
दशानन गरजा!
मूढ़ बुद्धि दो, सभा में |
शत्रु महिमा, करें बखान ||
दूर करो, दृष्टि से मेरी |
है कोई, जो करे यह काम ||
(१९३)
लौटे माल्यवान, हताश हो घर को |
कर जोड़ विभीषण, कहें रावण को ||
सुबुद्धि कुबुद्धि ह्रदय में सबके, कहते वेद पुराण |
सुबुद्धि जहाँ सम्पदा, दुर्बुद्धि का दुःख ही परिणाम ||
(१९४)
विपरीत बुद्धि, आ बसी ह्रदय आपके |
लेते हो निर्णय, शत्रु को मित्र मानके ||
बहुत प्रीति है आपकी, सीता पर |
राक्षसकुल के लिए, है यह अहितकर ||
(१९५)
विनती करूँ मैं चरण पकड़, करो सुविचार |
मुझ बालक का, आग्रह कर लो स्वीकार ||
कर दीजिये वापस, सीताजी श्रीराम को |
वचन मेरे मान लो, न हो अहित आपको ||
(१९६)
पंडित, पुराण, वेद सम्मत |
निति का, कहा कथन ||
क्रुद्ध हुआ, अत्यंत रावण |
सुन, विभीषण के वचन ||
(१९७)
कहा:
मेरे जिलाये ही, रे तू जिया है |
रे दुष्ट, मृत्यु को तूने बुलावा दिया है ||
है कौन जगत में, भुजबल से मैंने ना जीता हो|
रे मूढ़, पक्ष तुझे तब भी शत्रु का ही भाता है ||
(१९८)
रहता नगर में मेरे, करे प्रेम तपस्वियों से |
कर व्याख्यान नीति का, रह तू मिल उनसे ||
क्रोधित दशानन ने, मारी लात विभीषण को |
किन्तु सहकर भी, पकड़े रावण के चरणों को ||
(१९९)
विभीषण कहें, आप हैं पितातुल्य |
श्रीराम भजें, अतुलनीय है मूल्य ||
हे उमा, कहें शिवजी :
भला करे, बुरा होने पर भी |
महिमा बड़ी है, यही संत की ||
(२००)
अपने मंत्रियों को साथ ले |
आकाशमार्ग से, कह इतना चले ||
सर्वसमर्थ हैं प्रभु श्रीराम, सभा आपकी है काल के नाम |
दोष न देना हे लंकापति, जा रहा हूँ शरण मैं श्री रघुपति ||
(२०१)
ज्यूँ ही चले विभीषणजी |
मृत्यु निश्चित हुई हर निशाचर की ||
हे भवानी, शिवजी कहें :
नष्ट हो जाये सब कल्याण |
जहाँ होवे साधु अपमान ||
(२०२)
त्यागा रावण ने, जिस क्षण अनुज |
वैभवहीन हुआ, उसी क्षण दशमुख ||
हर्षित हो, मन मनोरथ विभीषण |
चले प्रफुल्लित ह्रदय, प्रभु की शरण ||
(२०३)
विचारें मन में, जब प्रभु समीप पहुंचूंगा |
कोमल सुन्दर चरण, मैं दरस करूँगा ||
ऋषि पत्नी अहिल्या[5], तर गयीं स्पर्श पाकर |
दंडकवन[6] को पवित्र किया, श्रीराम ने जाकर ||
(२०४)
ह्रदय धरें जानकी, जिन चरणन को |
शिवह्रदय सरावोर, विराजे चरण जो ||
कपट मृग को, दौड़े पकरन को |
अहोभाग्य, आज उनके दर्शन हों ||
(२०५)
पादुका, जिन चरणन की |
ह्रदय लगाई, अनुज भरतजी ||
दरश करूँगा, इन नेत्रों से |
श्रीराम के, कमलपदों के ||
(२०६)
प्रेमसहित, कर मन में विचार |
विभीषण पहुंचे, समुद्र के पार ||
देख वानर सब, विभीषण को |
समझे शायद, शत्रु दूत हो ||
(२०७)
रावण अनुज को, ठहराकर |
देने गए समाचार, कुछ वानर ||
जाकर निकट श्रीराम के, कहें कपिराज |
भाई रावण का, मिलने आया है, हे नाथ ||
(२०८)
हे मित्र, पूछा सम्बोधन कर वानरराज को |
है तुम्हारा क्या विचार, आया है यहाँ क्यों ||
कहें कपिराज:
हे महाराज, राक्षसी छल नहीं समझ में आता |
किस कारण आया मायावी, ज्ञात न होने पाता ||
(२०९)
लेने भेद, धूर्त यह शायद आया हो |
बांध रखते हैं, न जाने क्या माया हो ||
श्रीराम बोले :
हे मित्र, विचार नीतिगत है तुम्हारा |
शरणागत का भय हरना, किन्तु धर्म हमारा ||
(२१०)
अहित अनुमान कर मनुष्य, त्यागे यदि शरणागत को |
अधमी है वह, हानि स्वयं की यदि देखो उनको ||
हर्षित हो रहे पवनसुत, सुन प्रभु के मधुर वचन |
कृपा शरणागत पर करें प्रभु, जानें मन ही मन ||
(२११)
दोष यदि, करोड़ ब्राह्मण हत्या का भी |
नहीं त्यागता, शरणागत को मैं तब भी ||
जीव ज्यूँ ही, मेरे सम्मुख होता है ।
जन्म जन्मांतर, पाप मुक्त होता है ॥
(२१२)
सहज स्वाभाव, पापी का होता |
भजन न मेरा, उसे कभी भाता ||
यदि रावण-अनुज, दुष्टप्रवृति होता |
सन्मुख मेरे, किस विधि आता ||
(२१३)
निर्मल हो मन, मनुष्य तभी मुझे पावे |
कपट छल मुझे, कतई न सुहावे ||
रावण का भेजा, है यदि यह गुप्तचर |
हे सुग्रीव, हानि नहीं कुछ, न हमें डर ||
(२१४)
हे मित्र! जगत में जितने राक्षस निशाचर |
लक्ष्मण के हाथों, पल भर में जाएँ मर ||
भयभीत, यदि आया है वह शरण |
सम्भालूंगा प्राण समान, है मेरा वचन ||
(२१५)
बोले विहँसत श्रीराम, धाम कृपा के |
कोई परिस्थिति, चले आओ उसे ले ||
जयकार कर श्रीराम का, अंगद, हनुमान उठे |
सहित कपिराज के, चले लिवाने उसे ||
(२१६)
आदर सहित, विभीषणजी को आगे कर |
समीप श्रीरघुनाथजी के, चले सब वानर ||
आनंद मिले नयनों को, दर्शन के जिनसे |
दूर भ्राता बैठे देख, नमन किया मनसे ||
(२१७)
एकटक देखें प्रभु को, पलक न झपकाएं |
कमल से लाल नयन, हैं विशाल भुजाएँ ||
कर दे भयहीन, जो शरणागत को |
है सुगठित सुन्दर, साँवल शरीर वो ||
(२१८)
सिंह के समान, चौड़े कंधे हैं |
विशाल वक्षस्थल, शोभा देता है ||
मनमोहित कामदेव हों, ऐसा मुख है |
अवर्णीनीय, स्वरुप प्रभु का है ||
(२१९)
पुलकित शरीर, विभीषणजी का |
प्रेमाश्रु भर आये, नेत्रों में ||
कोमल वचन, कहें हौले से |
धीरज धरके, अपने मन में ||
(२२०)
विभीषणजी बोले:
हे नाथ, हूँ मैं भाई दशानन का |
हे देवरक्षक, जन्म से राक्षस कुल का ||
सहज स्नेह, उल्लू को जैसे निशा पर |
तामसी तन मेरा, प्रिय स्वभाव पाप पर ||
(२२१)
दुखियों का, मिटाते हो आप कष्ट |
भव के भय को, करते हो आप नष्ट ||
सुनकर सुयश, आया आपकी शरण |
रक्षा कीजिये मेरी भी, हे रघुनंदन ||
(२२२)
दंडवत करते देख, प्रभु ने |
उठाया हर्षित हो, तुरंत उन्हें ||
दीन वचन, बहुत मन भाये |
उठा भुजा से, ह्रदय लगाए ||
(२२३)
गले लगा पास बैठाया, लक्ष्मणजी सहित |
कहें सुवचन प्रभु, भक्तों को करें भयरहित ||
हे लंकेश! अनुचित जगह निवास तुम्हारा |
कुटुंब संग कुशल कहो, कैसा जीवन तुम्हारा ||
(२२४)
दुष्ट समूह में , दिन रात हो रहते |
हे मित्र, किस विधि धर्म निभाते ||
आचार, व्यव्हार, रीति, जानता हूँ तुम्हारी |
नीतिपूर्ण तुम, अनीति तुम्हें नहीं है प्यारी ||
(२२५)
विभीषणजी बोले, हे तात:
न हो दुष्टों का संग, नरक में चाहे रहूं |
कुशल है अनुभूति, शरण मैं आपकी हूँ ||
दरस दिए चरणों के, हे पूज्य श्रीराम |
धन्यभागी मैं, की कृपा जो सेवक जान ||
(२२६)
कुशल नहीं जीव की, शांति मिले न मन को |
विषय कामना तज, भजे न जब तक प्रभु को ||
लोभ मोह माध मान आदि, ह्रदय बसें हैं तब तक |
तरकस, तीर, कमान धारी, बसें न मन में जब तक ||
(२२७)
उलूक को सुखकारी, ममता भरी यह रात |
तबतक जीव मन बसे, प्रभु का हो न प्रताप ||
हे कृपालु !
चरणविंद दर्श कर, कुशल भयरहित हूँ मैं |
कृपा आपकी, मुक्त त्रिविध ताप[7] से अब मैं ||
(२२८)
मैं अति नीच स्वभाव निशाचर |
किया न कभी, उचित आचार ||
कदापि रूप स्मृति, मुनि भी न आवे |
हर्षित प्रभु स्वयं, उसे कंठ लगावे ||
(२२९)
असीम सौभाग्य है, प्रभु मेरा |
सुख पुंज, कृपालु, हे रघुवीरा ||
ब्रह्म शिवजी सेवित, चरण युगल |
दर्श हुए नयनो को, शुभ मंगल ||
(२३०)
श्रीरामजी कहें :
काकभुशुण्डि, शिवजी, पार्वतीजी जिसे जाने |
हे सखा, स्वभाव कहूं तुझसे, सो तू भी जाने ||
भयभीत मनुष्य, जगत द्रोही, त्यागे मद मोह यदि |
छल कपट तज दे, करूँ साधु समान उसे शीघ्र ही ||
(२३१)
मात -पिता, भाई, पुत्र, स्त्री, तन, धन, घर, सखा, परिवार |
सब धागे बटोर, बांध डोर मन की, चरणों में जो मेरे डार ||
समदर्शी, बिन लालसा, हर्षित, भय-शोक रहित सज्जन |
तुमसे संत प्रिय, ह्रदय वास करें, जैसे लोभी मन बसे धन ||
(२३२)
जो उपासक सगुण, हित दूजे का करे |
नीति, नियम सुदृढ़ विप्र चरण मन धरे ||
सो मनुज प्रतीत हों मुझे, जिस तरह से प्राण मेरे |
नहीं धरुं मनुष्य देह मैं, किसी और के निहोरे ||
(२३३)
हे लंकेश! भीतर तुम्हरे उचित सर्वगुण |
इसी कारण, मुझे अत्यंत प्रिय तुम ||
वचन सुन श्रीराम के, सब वानर |
जयघोष करें, जय करुणा सागर ||
(२३४)
वाणी प्रभु की, प्रतीत हो ज्यूँ अमृत |
कर्ण प्रिय, किन्तु मन कभी न हो तृप्त ||
पुनः पुनः पकड़ें, चरणकमल प्रभु के|
ह्रदय धरे न धीर, अपार प्रेम झलके ||
(२३५)
हे देव, चराचर जगत स्वामी |
हे शरणागत रक्षक, हे अंतर्यामी ||
शेष वासना थी, जो मेरे ह्रदय में |
बह गयी प्रभु, चरण रुपी सरिता में ||
(२३६)
हे शिवप्रिय, कृपालु श्रीराम |
दीजिये, पवित्र भक्ति दान ||
कह, एवमस्तु विभीषण को |
माँगे प्रभु, सागर के जल को ||
(२३७)
हे सखा ! कहें श्रीराम विभीषण से |
यद्यपि, नहीं है कामना तुम्हरे मन में ||
निष्फल नहीं, जगत में कभी मेरे दर्शन |
किया राजतिलक, करे नभ वृष्टि सुमन ||
(२३८)
क्रोध रूपी अग्नि, रावण की अखंड |
विभीषण श्वास से, थी हो रही प्रचंड ||
बचाया श्रीराम ने, दाह से मित्र को |
दिया पूर्ण राज्य पल में, विभीषण को ||
(२३९)
दशशीश की बलि दे |
सम्पदा मिली जो शिव से ||
सकुचते मिली वही संपत्ति |
विभीषण को श्रीरघुवर से ||
(२४०)
कृपालु प्रभु छोड़, किसको भजे |
सींग पूँछ बिन, पशु समान लगे ||
सेवक जान, विभीषण अपनाया |
प्रभुस्वभाव, वानरकुल मन भाया ||
(२४१)
सर्वज्ञानी, सर्वरूप, उर में बसें |
करें सर्वदा कृपा, सब भक्तों पे ||
राक्षसकुल विनाशी, रूप मानव का धरे |
बोलें वचन श्रीराम, जो नीति रक्षा करे ||
(२४२)
पूछें श्रीराम, लंकापति विभीषण और कपिराज से |
अथाह समुद्र को करे पार सेना, बताएं किस प्रकार से ||
अनेक जाती मछलियां, न केवल मगर, सर्पों से भरा है |
अपितु, है दुर्गम पार करना, बहु विशाल और गहरा है ||
(२४३)
विभीषणजी बोले, हे रघुनाथ:
सोख ले जल, आपका बाण एक |
किन्तु, है नीति नहीं यह नेक ||
उचित यही होगा, मेरे अनुमान से |
प्रार्थना कीजिये, सागर की सम्मान से ||
(२४४)
हे प्रभु! पूर्वज हैं समुद्र आपके |
देंगे बता युक्ति, वह विचार के ||
रीछ वानर सेना, बिना किये ही प्रयास |
पहुँचेगी सागर पार, ऐसा मेरा विश्वास ||
(२४५)
श्री रामजी बोले :
हे मित्र ! उपाय बताया तुमने सही |
देव सहायक हों, किया जाये यही ||
राय नहीं मनभाई यह, लक्ष्मणजी को |
वचन श्रीराम सुन, दुःख पहुंचा उनको ||
(२४६)
लक्ष्मणजी बोले :
क्या भरोसा है दैव का, हे नाथ |
सूखा डालिये समुद्र को, हाथों हाथ ||
कायर मन का, आधार है दैव |
आलसी जो, वही पुकारें दैव दैव ||
(२४७)
सुन अनुज की बात |
बोले हंसके, श्रीरघुनाथ ||
धीरज धरो, करेंगे ऐसे ही |
समझा, पहुंचे समुद्र समीप ||
(२४८)
शीश नवा, किया प्रथम प्रणाम |
कुश बिछा तट पे, गए बैठ श्रीराम ||
ज्यूँ विभषणजी आये, समीप प्रभु के |
त्यों ही पहुंचे, अनेक दूत रावण के ||
(२४९)
कपट से धर रूप, वानर के |
घट रहीं जो, लीलाएं वो देखें ||
सराहें शरणागत-स्नेह, प्रभु का |
ह्रदय मान करें, सर्व गुणों का ||
(२५०)
करें प्रभु का गुणगान, कपट वेश को भूल के |
वानरों ने तब जाना, निशाचर दूत हैं शत्रु के ||
वानर सबको बांध, ले गए निकट कपिराज के |
निर्देश दिया सुग्रीव ने, भेजो अंग-भंग कर के ||
(२५१)
सुन वचन, लगाएं सब वानर होड़ |
दूत बांध, घुमाएँ सेना के चहुँ ओर ||
मारें वानर मिल, दूत ने पुकार की |
कटे न कर्ण नाक, सौगंध दी श्रीराम की ||
(२५२)
कर दया, राक्षसों के ऊपर |
लक्ष्मणजी ने, छुड़ाया हंसकर ||
कहा, पत्र रावण के हाथ में देना |
कुलघातक को, मेरा सन्देश पढ़ना ||
(२५३)
मूढ़ को मुख से, कहना कथन |
सीताजी देकर, मिले श्रीराम से तत्काल ||
अन्यथा, समझ जाये दशानन |
अति समीप है, उसका काल ||
(२५४)
मस्तक नवा, लक्ष्मणजी चरणन |
चले दूत, कहें श्रीराम गुण वर्णन ||
यश कहते, लंका वापस आये |
रावण के समक्ष, शीश नवाय ||
(२५५)
हंस रहा दशानन, ठठा मार |
पूछे शुक से, कुशल समाचार ||
कहे, कैसा है विभीषण भाई |
मृत्यु जिसकी, निकट है आई ||
(२५६)
राज रहते मूर्ख ने, लंका को त्यागा |
जौ-घुन समान पिसेगा, है अति अभागा ||
बतलाओ, रीछ वानर सेना का हाल |
चली आयी सेना, हो प्रेरित कठिन काल ||
(२५७)
बेचारा समुद्र, है जो कोमल चित्त |
बन गया जीवन रक्षक, उनके हित ||
मध्य में यदि, होता न यह सागर |
खा जाते राक्षस, उन सबको वधकर ||
(२५८)
तपस्वियों के बारे में, कुछ बात कर |
ह्रदय में बसता है जिनके, मेरा डर ||
भेंट हुई या लौट गए, सुयश वह मेरा सुन |
तेज बल शत्रु का बता, है चकित क्यूँ तेरा मन ||
(२५९)
दूत कहे :
हे अधिपति कृपा रहे, बतलाये यह दास |
तज क्रोध, मेरी बात का मानें विश्वास ||
शरणागत, हुआ अनुज आपका जैसे ही |
किया श्रीराम ने राजतिलक, वैसे ही ||
(२६०)
जान दूत हमें, रावण के |
दिया कष्ट, वानरों ने बांध के ||
लगे काटने, नाक औ कान |
छुड़ाया देकर, वचन श्रीराम ||
(२६१)
सौ करोड़ मुख हों, तब भी |
न हो वर्णन, शत्रु सेना का कभी ||
भयानक रीछ वानर, सेना में अनेक |
मुख तन विशाल, बलशाली है प्रत्येक ||
(२६२)
लंका जला, वध किया अक्षय कुमार जिस वानर ने |
उस वानर का बल तो अति लघु है, अन्य वानरों से ||
असंख्य विशालकाय, भयंकर योद्धा हैं सेना में |
अनगिनत हाथियों सा, प्रतीत होता है बल सब में ||
(२६३)
[8]द्विविद, मयंद, नील, नल, अंगद, गद,
विकटास्य, दधिमुख, केसरी, निशठ, शठ,
जाम्बवंत जैसे बुद्धिमान बलवंत हैं |
सुग्रीव समान बल में, वानर असंख्य हैं ||
(२६४)
श्रीराम कृपा से, अतुलनीय बल है |
तीनों लोक, तृण समान समझें हैं ||
हे दशग्रीव, मैंने कानों से सुना है |
अठारह पद्म, वानर सेनापति हैं ||
(२६५)
कोई ऐसा वानर, नहीं सेना में |
न जीत सके जो, आपको रण में ||
अति क्रुद्ध हो सब, हाथ मींजते |
किन्तु श्रीराम, आज्ञा नहीं देते ||
(२६६)
मीन सर्प सहित, समुद्र को सोखें |
अन्यथा सागर को, पर्वत से पाटें ||
बोलें धूल मिला, रावण को मसलें |
गर्जत निडर ज्यूँ, लंका को निगलें ||
(२६७)
वानर भालू आदि, सहज शूरवीर |
कृपा मानें श्रीराम की, सब रणधीर ||
करोड़ों काल पर, जो करें विजय |
संग्राम के लिये तत्पर, हैं सब अभय |
(२६८)
कथा तेज, बल, बुद्धि सामर्थ्य की |
वर्णॅन कर नहीं सकते, असंख्य शेष भी ||
सैंकड़ो समुद्र सोख लें, एक बाण से श्रीराम |
किन्तु पूछें आपके अनुज से, नीति रक्षा का काम ||
(२६९)
सुने वचन दूत के, बहुत हंसा रावण |
कहे! मान रहा अभिमत, जो दे विभीषण ||
मार्ग मांगें समुद्र से, मन कृपा कारण |
ऐसी बुद्धि है, तभी सहायक वानरगण ||
(२७०)
स्वाभाव से ही, है डरपोक विभीषण |
उसके वचनों को मान रहा, है प्रमाण ||
अरे मुर्ख, जो बालहठ करे है समुद्र से |
ज्ञात मुझे बुद्धि बल उसका, हो गया झट से ||
(२७१)
डरपोक मंत्री जिसके, विभीषण जैसे |
जगत में विजय, विभूति, मिले उसे कैसे ||
सुन रावण की बात, क्रोध बढ़ा दूत का |
अवसर समझ सही, निकाली पत्रिका ||
(२७२)
कहा!
श्रीराम अनुज लक्ष्मण ने, पत्रिका दी है |
पढ़वाकर इसे, छाती ढंडी कीजै ||
हंसकर, बाएं हाथ से लिया रावण ने |
बुलवाकर इक मंत्री, मुर्ख ने दी बांचने ||
(२७३)
लिखा था, पत्रिका में लक्ष्मण ने |
बातों से मन रिझा, चला तू कुल नष्ट करने ||
विरोध श्रीराम का, यदि तू करेगा |
ब्रह्म, विष्णु, महेश, शरण में भी न बचेगा ||
(२७४)
छोड़ अभिमान, जैसे करे विभीषण |
बन जा भ्रमर तू, प्रभु के कमल चरण ||
श्रीराम की, बाण रुपी अग्नि से अन्यथा |
होगी पतंगे जैसी, तेरे परिवार की व्यथा ||
(२७५)
मन में भय, ऊपर से मंद मुस्कान |
कहे सबसे रावण, न छोड़े अभिमान ||
पृथ्वी पर पड़ा व्यक्ति, छुए जैसे आकाश |
छोटा तपस्वी वैसे, कर रहा वाग्विलास ||
(२७६)
कहे शुक (दूत) !
लिखा सत्य मान, अभिमानी स्वभाव तज दीजिये |
क्रोध को छोड़ कर, कुछ वचन मेरे सुन लीजिये ||
त्याग दीजिये वैर अपना, हे नाथ! साथ श्रीराम के |
अत्यंत कोमल स्वाभाव, यद्यपि स्वामी हैं त्रिलोक के |
(२७७)
मिलते ही प्रभु, कृपा आप पर करेंगे |
एक भी अपराध, ह्रदय अपने न धरेंगे ||
हे नाथ! इतना कहा मेरा कीजिये |
जानकीजी, श्रीरघुनाथ को दे दीजिये ||
(२७८)
जानकीजी लौटा दो, कहा शुक ने |
क्रोधित हो मारी लात, रावण दुष्ट ने ||
विभीषण की भांति, शीश नवाकर |
चला दूत भी, जहाँ थे कृपासागर ||
(२७९)
शिवजी कहते हैं-हे भवानी!
प्रणाम कर श्रीराम को, शुक स्व-कथा सुनाई |
कृपासागर प्रभु ने, पुनः पूर्व गति दिलाई ||
श्राप ऋषि अगस्त्य से, जन्म राक्षस का मिला था |
शरण में श्रीराम के, पुनः मुनि रूप स्व-आश्रम मिला था ||
(२८०)
प्रभु करें विनती सिंधु से, तीन दिवस धैर्य धरे |
उपेक्षा किन्तु विनय की, अहंकारी समुद्र करे ||
अंततः, अत्यंत क्रोधित हो बोले श्रीराम |
भय बिन प्रीती नहीं, उदधि को बहु अभिमान ||
(२८१)
हे लक्ष्मण, ले आओ तुम धनुष बाण |
सुखा डालूं नीर इसका, चला अग्निबाण ||
विनय मुर्ख से, कंजूस से सुनीति कथन |
ज्ञान ममताबद्ध से, लोभी से वैराग्य विवरण ||
शांति वार्ता क्रोधी से, कामी से प्रभु चित्रण |
वैसे ही फलीभूत, जैसे बंजर भूमि में बीजन ||
(२८२)
जैसे ही, प्रभु ने प्रत्यंचा चढ़ाई |
लक्ष्मण के, ह्रदय अति भाई ||
अग्नि बाण, जब संधान किया |
सिंधु ह्रदय, उष्ण ज्वाल हुआ ||
(२८३)
जलें सर्प, मगर, मीन सब व्याकुल |
देख जलजीव, हुआ समुद्र आकुल ||
माणिक भर, ले स्वर्ण थाल सागर |
तज अभिमान आया, विप्र रूप धर ||
(२८४)
काकभुशुण्डिजी गरुड़जी से कहते हैं !
चाहे सींचो, अनगिनत उपाय कर |
फले है केला, केवल काटने पर ||
ना माने है अधम, अनुनय से कभी |
पड़े जब फटकार, झुके है तभी ||
(२८५)
भयभीत सिंधु मांगे क्षमा अवगुण की, प्रभु चरण पकड़ |
कहे स्वाभाव आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी का, जड़ ||
सृष्टि हेतु किया उत्पन्न, आपकी प्रेरणा से माया ने |
जैसी आज्ञा हो स्वामी की, सुख पावे वैसे रहने में ||
(२८६)
जाऊंगा सूख, प्रभु प्रताप से पल में |
उतरेगी पार वानर सेना, क्षण भर में ||
मर्यादा नहीं रहेगी प्रभु, किन्तु मेरी इससे |
प्रत्यक्ष हूँ, करूँ वही जो आप कहें मुझसे ||
(२८७)
सुन अतिविनीत, वचन सागर के |
कहा श्रीरामजी ने, मुस्का के ||
हे तात! आप ही बताओ उपचार |
वानर सेना, सरलता से उतरे पार ||
(२८८)
दो वानर भाई सेना में, नाम नील और नल |
आशिस पाया ऋषि से, लड़कपन में सकल ||
विशाल पर्वत भी, यदि स्पर्श हो जाये उनका |
तैरें समुद्र सतह पे, जैसे कोई पल्ल्व हो हल्का ||
(२८९)
प्रभता प्रभु की, ह्रदय में धारण करूँ |
अनुरूप मेरी शक्ति, सदा सहायक रहूँ ||
सेतु समुद्र पे बनाइये, हे प्रभु इस प्रकार |
तीनों लोको में हो, सदा आपकी जयकार ||
(२९०)
हे प्रभु! उत्तर तट पर मेरे, दुष्ट पापी हैं रहते |
इस बाण से वध कीजिये, कष्ट अति सब सहते ||
मन की पीड़ा सुनकर, श्रीराम ने समुद्र की |
तुरंत हरा संताप, एक बाण से मुक्ति की ||
लौट गए सागर घर को अपने |
सही लगा श्रीरघुनाथ को मत यह ||
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है सुन्दर मंगलकारी, कहें श्री तुलसीदास!
पाप कलियुग के हर लेगा, चरित्र वर्णन सम्पूर्ण |
विषाद दमन, संदेह नाश, करें श्रीरघुनाथ के गुण ||
अरे मूढ़ मन! तज भरोसा-आस संसार का |
इस सुन्दर चरित्र को, सदा ह्रदय से सुन और गा ||
गुणगान श्रीराम का, सादर जो सुनेगा , बिन जहाज भवसागर पार वो करेगा ||
इति श्रीमद्रामचरितमानसे सकलकलिकलुषविध्वंसने पंचमः सोपानः समाप्तः। (सुंदरकाण्ड समाप्त)
(गोस्वामी तुलसीदास)
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©
विनम्र : सुधीर बिरला
[1] पवन की सात शाखाएं - प्रवह, आवह, उद्वह, संवह, विवह, परवह और परावह
सातों के सात-सात गण - ब्रहम्लोक, इंद्रलोक, अंतरिक्ष, भूलोक की पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण दिशा में विचरण
[2] अतल, वितल, सुतल, तलातल, महातल, पाताल तथा रसातल, भूर्लोक, भूवर्लोक, स्वर्लोक, महर्लोक, जनलोक, तपोलोक, सत्यलोक (शरीर के भीतर चौदह भुवन या लोक निहित हैं)
[3] त्रिविध ताप- दैहिक, भौतिक तथा दैविक
[4] रावण महर्षि पुलस्त्यजी के पौत्र
[5] अहिल्या महर्षि गौतम की पत्नी थी। श्रीरामजी के चरण-स्पर्श से अहिल्या शापमुक्त हुईं। वह पत्थर से पुन: ऋषि-पत्नी हुईं।
[6] विराध दंडकवन का राक्षस था| प्रभु श्रीराम ने विराध का अंत कर ऋषि-मुनियों को उसके आतंक से मुक्त किया थ।
[7] त्रिविध ताप -दैविक, दैहिक और भौतिक
[8] द्विविद: राजा सुग्रीव के मन्त्री थे और मैन्द के भाई थे | इनमें दस हजार हाथियों का बल था |
नल- सुग्रीव की सेना के वानरवीर अभियंता । सेतुबंध की रचना की थी।
नील- सुग्रीव का सेनापति जिसके स्पर्श से पत्थर पानी पर तैरते थे, सेतुबंध की रचना में सहयोग दिया था। नील के साथ 1,00000 से ज्यादा वानर सेना थी। (विश्वकर्मा के पुत्र नल और नील)
अंगद- बाली तथा तारा के पुत्र वानर यूथपति एवं प्रधान योद्धा। ये रामदूत भी थे।
जामवंत- सुग्रीव के मित्र रीछ, रीछ सेना के सेनापति एवं प्रमुख सलाहकार। अग्नि पुत्र जाम्बवंत एक कुशल योद्धा के साथ ही मचान बांधने और सेना के लिए रहने की कुटिया बनने में भी कुशल थे। ये रामदूत भी हैं।
दधिमुख- सुग्रीव के मामा हैं ।
केसरी- केसरी, पनस, और गज 1,00000 से ज्यादा वानर सेना के साथ थे। ये सभी यूथपति थे। केसरी हनुमानजी के पिता हैं।