ढूंढ़ता हूँ खुद को किताबों के उन पन्नों में,
जो छोड़ देते हैं मोड़कर पढ़ते वक़्त,
यह सोचकर कि लौटेंगे पढ़ने इन्हे कभी,
या शायद ये कहानी का हिस्सा ही नहीं |
तलाशता रहा मैं बर्फ में पानी की बूंदो को,
मेरी रूह को बर्फ कर दिया था किसने,
शायद धूप मेरे पांव के तले पे थी,
या मेरा साया, मेरा था ही नहीं |
दूर से क़रीबों को देखा, तो करीब थे,
करीब से क़रीबों को देखा, तो फासले निकले,
मैं ग़म का एहसास करता रहा करीब से,
उनको एहसास होता, नसीब था ही नहीं|
मैंने दरिया में समुन्दर को पनाह दी है,
कुछ मीठे एहसास रह गए खारे पानी में,
लहू के कतरे में पसीना घुल गया था शायद,
मेरे खून में शफ़क़ की कमी थी तो नहीं |
जश्न था, ज़िक्र था और जुनू था तेरा
मेरे होने की खबर थी ही नहीं,
तू खुद में ही इक फरिश्ता है,
मेरी आह की कदर थी ही नहीं|
एक दिन अपनी इक किताब लिख गया,
बैठे बैठे ज़िदगी का हिसाब लिख गया,
मैं कागज़ से लुगदी, फिर खिलौना हो गया,
अपने ही जनाज़े का बिछौना हो गया |
कभी लगा कि बिगड़े नसीब बना रहा हूँ मैं,
चेहरे की झुर्रियों से फरेब मिटा रहा हूँ मैं,
बारिश का मौसम हूँ, पर बरसात नहीं,
मोड़ कर छूटा हुआ इक पन्ना हूँ, कुछ खास नहीं,
मोड़ कर छूटा हुआ इक पन्ना हूँ, कुछ खास नहीं |