आज कुछ ख्याल आये, तो चंद अल्फ़ाज़ ज़हन से उतर कलम के ज़रिये कागज़ पे कुछ इस तरह बिखर गए:
झूठ के पांव नहीं होते, सुना था ;
सच का अक्स नहीं होता, पता था ;
शराफत टपकती है चेहरे से, बोलते थे लोग ;
पीछे पीठ के ज़हर, जाने क्यूँ घोलते थे लोग ;
हुआ सामने खड़ा जब ;
कुछ झुका सा था, आज वो ;
मुड़ा चलने को जब ;
जाने क्यूँ लड़खड़ा उठा, आज वो ;
पैग़ाम दोस्ती का, आज फिर आया ;
मजमून लिफाफे में, फिर वही पाया ;
जाने क्यूँ क्या हो गया था उसे उस लम्हा ;
मैं न समझा उसे, या वो न समझ पाया ;
पारदारी, परस्तिश सी पाकीज़ा थी तेरी ;
क्यूँ फिर उस दिन, झुकी थीं वो नजर तेरी ;
आज तोड़ दी ज़ंजीरें, भुला दिए वो लम्हे ;
किस्से थे इंतजार के, थी खुशबू वफा की तेरी ;
ज़िन्दा हूँ या ज़िन्दां में हूँ, ख्याल नहीं ;
नादारी भी मेरी नादिर है, कोई सवाल नहीं ;
तसव्वुर था मेरा, या तसव्वुफ़ में डूबा हूँ ;
जिस हाल हूँ, उस हाल का कोई मलाल नहीं ;
ऊपर शाख पे बैठ परिंदा, ताके नीचे ;
अलग शाख गुमगश्ता बैठा मैं, आँखे भींचे ;
अलग मंज़र हैं ऊपर, ज़ाहिर सी बात है ;
दरख्त वही है दोस्त, नीचे भी महफ़िल आबाद है ;
© sudhirbirla
ज़िन्दा= सजीव, प्राणी
ज़िन्दां= कारागार, बन्दीगृह
तसव्वुर= कल्पना, दिवास्वप्न, विचार
तसव्वुफ़= सूफ़ीपन, रहस्यवाद, गूढ़ ज्ञान
नादारी= गरीबी, निर्धनता, दीनता
नादिर=दुर्लभ, अमूल्य, अनूठा
पारदारी= पक्षपात, पक्ष, अनुग्रह
परस्तिश= पूजा, अराधना
पाकीज़ा= शुद्ध, स्वच्छ, निर्मल