भटका हुआ मुसाफिर
भटका हुआ मुसाफिर
छोटा ही सही, गली के कोने में
तेरा घर तो है, मेरा बना ही नहीं
ठठा मारते, नुक्कड़ पे खड़े कुछ लोग ,
मेरी राह डगर का, उन्हें पता ही नहीं I
दिल भी फुसलाने में आ गया
बैठा घर में जो, वह तो पेड़ हो गया ,
मैं तो हूँ आवारा सा बादल ,
कहीं ठिकाना ठौर, जमा ही नहीं I
वक़्त से बेखबर , करता रहा सफर मैं ,
कोई हमसफ़र कभी, कभी तनहा मैं ,
हर मुल्क की सरहद, पार की बेशक ,
दिल के आशियाने में, घरोंदा पना ही नहीं I
मुज़रिम है वो, उसका मैं तलबगार ,
कश्मकश में हूँ, उसका मैं गुनहगार ,
अंधेरों में, चिराग तो जलाया उसने ,
रास्तों में फिर भी, रौशनी का पता ही नहीं I
बेसुध फिरता हूँ, उन्हीं सहमी सी गलियों में ,
जहाँ हर नज़र, अंदाज़ से नज़रअंदाज करती है मुझे ,
मैं मजनून मुन्हरिफ़ मुसाफिर मुन्तशिर ,
बेखुदी में जिसे, मंज़िलों का पता ही नहीं।
बेखुदी में जिसे, मंज़िलों का पता ही नहीं।
(c) sudhirbirla