© sudhirbirla
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सड़क के पहलू के कुछ पत्थर
सड़क किनारे एक औरत को पत्थर पे बैठ पथर तोड़ते देखा, संग में शायद उसका साथी भी वही काम करते वक़्त उसे तकता था, यह नजारा देख कुछ शब्द यूँ अनायास ही निकल गये …
बैठती थी तू जिस पर ,
उस पत्थर की कभी मूरत होगी ,
तुझसे हसीन ओ हमनशीं ,
किस नाज़नीं की सूरत होगी ,
सड़क के पहलू के कुछ पत्थर ,
आज फिर तोड़ बैठूँगा ,
मन्दिर की सीढ़ियों के पत्थर ,
कल तेरे बुत तराशूँगा ,
पत्थर तोड़ तोड़ अब तेरी ,
रूह भी पत्थर सी हो गई ,
मैं भी पत्थर सा हो रहा ,
आग पत्थरों की खो गई .
पत्थरों बीच गुज़र रही ,
यह पत्थरों सी ज़िंदगी ,
हमारी रोटियाँ भी अब ,
कुछ पत्थर सी हो गयीं ,
शाम से, सुबह का था इंतज़ार ,
ना जाने सुबह की, कब शाम हो गई
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