(i)
रंगमंच पर नाट्य पात्र मैं,
विभिन्न रंगो में रंगा हुआ,
हर रंग की अभिव्यक्ति करता,
रूप रंग में सजा हुआ।
(ii)
कभी इस चरित्र का पेशकर्ता,
कभी उस स्वरूप में ढला हुआ,
हर पात्र में हूं आत्मरत मैं,
हिम हिमाद्रि सा मिला हुआ।
(iii)
कभी दृष्टा, कभी दृष्य में मैं,
यथार्थ हूँ, या परिकल्पना में,
छवि हूँ मैं स्वप्न की अपने,
या प्रतिबिंब स्वयं का छला हुआ।
(iv)
आवरण अनेक बद्ले,
पात्रता की रीत थी,
विभुता कि आसक्ति थी या,
विभु से मेरी प्रीत थी।
(v)
मैं ही थी राधा तुम्हारी,
भक्ति ही मेरी प्रीत थी,
तुम ही तो मेरे कृष्ण थे,
मैं ही तुम्हारी मीत थी।
(vi)
पिनाक, सारंग और गाण्डीव कभी मैं,
अक्षय तरकश के बाण सभी मैं,
प्रतिच्छाया कभी स्वयं की हूँ और,
कभी दुंदभि की ध्वनि मैं।
(vii)
आदिकाल से रंगमंच पे मंचन,
हो रहे किसके इशारे,
क्या हम पार्थ, वो सारथि है,
अदृश्य है, पर संग हमारे।
(viii)
होते रहेंगे मंचन अनंत तक,
संतति आती ही रहेंगी,
यह मंच रहेगा, सभागार रहेगा,
कलाकार की कला रहेगी,
(ix)
वसुधा सुमनों से कहेगी,
वायु में सुगंध रहेगी,
पर्वत का श्रिंगार रहेगा,
कल कल जल की धार रहेगी,
(x)
यह दृश्य रहेगा, दर्शन रहेगा।
संचालक का संचालन रहेगा,
यह सृष्टि रहेगी, संसार रहेगा,
जीवन रूपी रंगमंच ही,
मानवता का आधार रहेगा, मानवता का आधार रहेगा।
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