उल्लास-चपल, उन्माद-तरल, प्रति पल पागल मेरा परिचय

When Bachchan was threatened to be shot!

Madhushala Podcast, Episode 23

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In the previous episode, we spoke about the social boycott of Bachchan family for attending a wedding, alongside a poem from Madhushala on the topic. Today, a story of Madhushala’s extreme criticism and Bachchan’s poetic reaction to that, and a story of Bachchan-Pant friendship and of their hairstyle. 


पिछले अंक में हमने बात की थी कि क्यों एक शादी में सम्मिलित होने पर बच्चन परिवार का उनके रिश्तेदारों द्वारा बहिष्कार कर दिया गया था और इसी विषय  पर सुनाई थी मधुशाला की एक कविता। आज बताते हैं एक किस्सा मधुशाला की तीक्ष्ण आलोचना का और एक कहानी श्री हरिवंश राय बच्चन और श्री सुमित्रानंदन पंत जी की ज़ुल्फ़ों की और उनकी मित्रता की।

 

याद कीजिए हमारा पहला एपिसोड जब हमने मधुशाला के पहले पब्लिक पाठ के बारे में बताया था - दिसम्बर 1933 में जिस दिन बच्चन साहब ने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के शिवाजी हाल में 'मधुशाला' सुनाई थी, उसके दूसरे ही दिन प्रो. मनोरंजन प्रसाद ने उसके कई पदों की पैरडी लिख डाली थी, और दूसरे दिन कविराज के साथ कविता-पाठ में सुनाई भी थी।  (क्या भूलूँ क्या याद करूँ 9929)

 

इस तरह की दोस्ताना पैरडी नई बात नहीं थी। उन्हीं दिनों की बात है - 'सरस्वती' नाम की एक पत्रिका में मधुशाला की दस रुबाइयाँ प्रकाशित हुई थी और उन्हें देखकर कई हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं में टिप्पणियाँ अथवा पैरडी लिखी जाने लगी थीं, कवि-सम्मेलनों में सुनाई जाने लगी थी। ये सिलसिला मधुशाला के पुस्तक रूप में प्रकाशन के बाद तो और भी बढ़ गया था। हिन्दी साहित्य में एक बड़ा नाम हैं - रामवृक्ष शर्मा बेनीपुरी, उनके सम्पादन में पटना से एक साप्ताहिक पत्रिका निकलती थी - 'योगी' नाम से। इस में करीब प्रति सप्ताह 'मधुशाला' के विरुद्ध कुछ-न-कुछ लिखा जाता था। मधुशाला की आलोचना तब कोई नई बात तो थी नहीं, इसे शराब और मदिरा की प्रशंसा की कविता कह कर काफी कुछ कहा जाता था, जैसे कि इसका कवि तो एक पियक्कड़ है, शराब पीकर कविता लिखता है, आदि-आदि।

 

इन आलोचनाओं का सीधे उत्तर तो बच्चन साहब ने कभी नहीं दिया, पर एक कवि हृदय तो भावुक होता है, वो चुप भी कैसे सहता रहे? तो बच्चन जी की कविताओं ने ही ऐसी आलोचनाओं का उत्तर देने का बीड़ा उठाया – जैसे योगी पत्रिका में लगातार होती आलोचनाओं का एक उत्तर दिया गया था मधुबाला में ‘बाला’ शीर्षक की कविता में। इस कविता एक पद की पहली पंक्ति से ही पटना के योगी की ओर संकेत मिलता है, ये कविता इस तरह है -


रे वक्र भ्रुओं वाले योगी!

दिखला मत मुझको वह मरुथल,

जिसमें जाएगी खो जाएगी

मेरी द्रुत गति,मेरी ध्वनि कल.

है ठीक अगर तेरा कहना,

मैं और चलूँगी इठलाकर;

संदेहों में क्यूँ व्यर्थ पडूँ?

मेरा तो है विश्वास अटल -

मैं जिस जड़ मरु में पहुंचूंगी

कर दूँगी उसको जीवन मय.

उल्लास-चपल, उन्माद-तरल,

प्रति पल पागल – मेरा परिचय!


(उन्माद = पागलपन, सनक, Frenzy / उल्लास = खुशी, उमंग, Frolic)

(ये कविता है बच्चन जी के काव्य संग्रह "मधुबाला" से)



बच्चन जी के लड़कपन का एक किस्सा है – उनके मोहल्ले में एक कायस्थ दम्पत्ति था, पति की मृत्यु हो गई – विधवा बच्चों को लेकर कहाँ जाए? वहाँ बाहर से आए एक सरदार जी थे जिन्होंने नौकरी और रहने में कुछ मदद कर दी किन्तु कुछ समय बाद ही सरदार जी भी चल बसे। लेकिन उनके रिश्ते को समाज ने स्वीकार न करते हुए उनका बहिष्कार कर दिया – उस परिवार से रोटी-बेटी का व्यवहार बिल्कुल बंद। कुछ समय बाद उसी परिवार की एक सयानी लड़की का विवाह एक कायस्थ परिवार में तय हुआ – लेकिन लड़के वालों ने शर्त रख दी कि कुछ एक अच्छे कायस्थ घरों के लोग यदि उनके यहाँ खाने पर आ जाएँ तभी शादी स्वीकार होगी! अब ये जो बहिष्कृत परिवार था, काफी भले लोग थे – बड़े विनम्र और सब की सेवा करने को तत्पर। लोगों के काम में मदद करने आते लेकिन खाने के समय गायब हो जाते, क्यूँकि वो जानते थे कि लोग उन्हें अपने साथ बिठलाकर नहीं खिलना चाहेंगे। बहरहाल, बच्चन जी अपने उदार विचारों के चलते इस परिवार से सहानुभूति रखते थे, तो वो अपने कुछ चचेरे भाई और दोस्तों के साथ उस परिवार में खाने के लिए तैयार हो गए। उन लोगों ने बड़ी आवभगत से खाना खिलाया – और इतना प्रसन्न हुए कि उनकी आँखों में आभार और उपकार के आँसू झलक उठे! 


दुतकारा मस्जिद ने मुझको कहकर है पीनेवाला,

ठुकराया ठाकुरद्वारे ने देख हथेली पर प्याला,

कहाँ ठिकाना मिलता जग में भला अभागे काफिर को?

शरणस्थल बनकर न मुझे यदि अपना लेती मधुशाला (४६)

(more details in episode 11)

मधुशाला की आलोचना यहाँ तक पहुँच गई कि एक बार रामवृक्ष शर्मा बेनीपुरी जी ने धमकी दी थी कि बच्चन बाबू यदि पटना आए तो उन्हें गोली मार दी जाएगी। इस पर कविराज बोले कि अगर मधुशाला के कवि को गोली मार दी गई तो मधुशाला ऐसे ही अमर हो जाएगी। खैर इसके बाद बच्चन जी पटना भी गए, और वहाँ उन्होंने कवि सम्मेलन भी किये। उन्हें गोली तो नहीं मारी गई लेकिन हाँ, स्वयं बेनीपुरी जी ही उनके अच्छे मित्र अवश्य बन गए – यहाँ तक कि बेनीपुरी जब एक बार लंदन गए तो बच्चन परिवार के लिए वहाँ से कुछ अच्छे उपहार भी लेकर आए (क्या भूलूँ क्या याद करूँ)



कल? कल पर विश्वास किया कब करता है पीनेवाला,

हो सकते कल कर जड़ जिनसे फिर फिर आज उठा प्याला,

आज हाथ में था, वह खोया, कल का कौन भरोसा है,

कल की हो न मुझे मधुशाला काल कुटिल की मधुशाला (६१)



समय किसने देखा – जो आज है वो कल कहाँ होगा – किसने सोचा था कि 2020 में दुनिया इस तरह से बदल जाएगी – जैसे एक तेज़ स्पीड से आती गाड़ी अचानक से ब्रेक लगा के रुक जाए – इसीलिए कवि कहते हैं - Cheers to todayआज ही में जी लें, जी भर के जी लें - Life is a long weekend!

 

कबीर ने भी तो कहा है – "काल करे सो आज कर, आज करे सो अब । पल में प्रलय होएगी, बहुरि करेगा कब"

 

अब हमारी ज़ुल्फ़ों को – सर के बालों को ही ले लीजिए, कल रहें न रहें! और ज़ुल्फ़ों से याद आता है – कवियों में ज़ुल्फ़ें हों तो सुमित्रानंदन पंत जैसी हों वरना ना ही हों! बच्चन जी अपनी यादों के पिटारे से बताते हैं –

“सुमित्रानंदन पंत जी को आते-जाते मैंने अक्सर देखा था। वे उन दिनों हिन्दू बोर्डिंग हाउस में रहते थे, पर अपने किसी पहाड़ी सम्बन्धी से मिलने के लिए उधर आया करते थे जो गली के ही एक मकान में, मामा के पड़ोस में रहते थे। पहाड़ी परिवार की स्त्रियाँ मेरी मामी-नानी के पास आती थीं, और पंत जी की सर्वप्रथम चर्चा मैंने अपने ननिहाल में ही सुनी। उन्हें मैंने पहली बार देखा तो उनके अभूतपूर्व सौन्दर्य से अभिभूत हो गया, ‘घने-लहरे रेशम’ के केशों पर मुग्ध। जब मुझसे कुछ तुकबन्दी सधने लगी और मैं अपने कवि होने की संभावना से पुलकाकुल होने लगा तो मैंने भी अपने काकुलों को बढ़ने के लिए छोड़ दिया। अनुकरण उस अवस्था की सहज प्रवृत्ति होती है (यानी लड़कपन में नकल करना आम बात है)। इसे मैं अपना सौभाग्य समझता हूँ कि मेरा अनुकरण उनके बालों तक ही सीमित रहा, यदि मैं उनकी शैली का अनुकरण करता तो डूब गया होता!” (क्या भूलूँ क्या याद करूँ)


यहाँ ये भी बता दें की पंत जी बच्चन जी के बड़े ही अच्छे मित्र और मार्ग दर्शक बन गए थे – यहाँ तक कि अमिताभ बच्चन का नामकरण भी पंत जी ने ही किया था, वरना अमिताभ का नाम आज इंकलाब या आज़ाद होता। उम्र के बाद के पड़ावों में इनकी मित्रता को किसी की नजर लगी और फिर बस दूरियाँ बढ़ती ही गई। लेकिन वो कहानी आगे कभी सुनाते हैं, आज यहीं विराम।

 

अगले अंक में बात करेंगे मधुशाला में प्रेयसी की, कुछ स्त्री-पुरुष के संबंधों पर, और एक किस्सा कैंब्रिज से जहाँ, बच्चन को जवान लड़का समझ कर रोक लिया जाता था!



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