मधुशाला क्या है?

What is Madhushala and what makes it mysterious?

Madhushala Podcast, Episode 2

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In the previous episode, we spoke about the first public recitation of Madhushala in 1933. Now, let's start to explore what is Madhushala and what makes it so mysterious, controversial and misunderstood.


इस एपिसोड की शुरुआत में आवाज है श्री हरिवंश राय बच्चन की, अपनी महान कृति मधुशाला की कुछ पंक्तियाँ सुनाते हुए। मधुशाला वो कालजयी काव्य है जिसने हरिवंश राय बच्चन को हिन्दी साहित्य में एक अनुपम स्थान दिला दिया है। मधुशाला में भाषाई सुंदरता तो है ही, साथ ही जीवन दर्शन भी कूट-कूट कर भरा है – जो आज भी उतना ही प्रासंगिक (relevant) है - और बच्चन साहब के लिए कहा जाता है कि उन्होंने छायावाद की छाया से निकल जीवन-वाद की एक नई शुरुआत की। जैसा हमने पिछले एपिसोड में कहा था कि मधुशाला एक तरह से नए युग की शुरुआत भी थी जहां कविताओं की पुरानी परम्पराओं से निकल, एक सुबह की पहली बयार जैसा एहसास होता है।

मधुशाला का शाब्दिक अर्थ देखें तो मदिरालय or The House of Wine, या जैसा आजकल कहते हैं - a Pub. बच्चन जी मधुशाला लिखने तक खुद तो नहीं पीते थे मगर फिर भी मधु, मदिरा, हाला, प्याला, साकी, और मदिरालय शब्दों को प्रतीक बनाकर जीवन की जटिलताओं का जो सुंदर चित्रण किया, उसकी कविताइ रौनक एक सदी बाद आज भी बरकरार है। एक रोचक बात ये है कि बच्चन जी ने जब मधुशाला लिखी थी तो वो खुद एक नवयुवक ही थे – और ये उनके बेहद कठिनाइयों वाले दिन थे, और उनके उस समय की संघर्ष मधुशाला में कई जगह बड़े साफ दिखाई देते हैं।

मधुशाला में 139 रुबाइयाँ हैं - रुबाई अर्थात 4 पंक्ति कि एक छोटी कविता, हिन्दी में कहें तो चतुष्पदी, आम बोलचाल की भाषा में - चौपाई - हरेक रुबाई या चौपाई अपनी चौथी पंक्ति में मधुशाला शब्द से समाप्त होती है जो एक मादक सा तनन्नुम बन जाती है। वैसे तो मूल स्वरूप में 145 चौपाइयाँ थी, किंतु बाद में 4 और जोड़ी गई। मधुशाला की आखिरी चौपाई में कवि महोदय इसे अपने पाठकों को ऐसे समर्पित कर रहे हैं जैसे एक पिता अपनी पुत्री का कन्यादान कर रहा हो -

बड़े-बड़े नाज़ों से मैंने पाली है साकीबाला,

कलित कल्पना का ही इसने सदा उठाया है प्याला,

मान-दुलारों से ही रखना इस मेरी सुकुमारी को,

विश्व, तुम्हारे हाथों में अब सौंप रहा हूँ मधुशाला ।।१३५।

(कलित = शोभित, मधुर, सुंदर)


मधुशाला पहली बार सन 1935 में प्रकाशित हुई थी। और इतनी लोकप्रिय हुई कि भारत भर के कवि जगत में बच्चन और मधुशाला की खूब बातें होने लगी, कितने नए संस्करण छपे, लाखों प्रतियां बिकी और आज तक लोग मधुशाला खरीद कर पढ़ रहे हैं। कई दशकों तक बच्चन जी को देश भर से कवि सम्मेलनों में मधुशाला के पाठ के निमंत्रण आते रहे, और इस पर कितनी ही नृत्य नाटिकाएँ भी बनी!

जहां मधुशाला की लोकप्रियता जंगल की आग की तरह फैली – वहीं इसकी आलोचना और बुराई करने वालों की भी कमी नहीं थी – कई लोग इसे आज तक शराब और सुरा का काव्य कहते हैं – किंतु मेरे विचार में मधुशाला हिन्दी साहित्य की सबसे कम समझी गई या Misunderstood रचनाओं में से एक है – और ये पॉडकास्ट भी एक प्रयास है कि मधुशाला के अनछुए पहलुओं पर हम बात कर सकें – इसके शब्दों के भावार्थ की गहराई में उतर सकें, इसके पीछे के जीवन अनुभवों तक पहुँच सकें। और अगर मधुशाला को डूब के पढ़ें या सुनें तो पता लगता है कि -


मधुशाला में जहाँ एक ओर अलंकार है

दूसरी ओर संगीत मय झनकार भी है

जहां साकी की नाज़ अदा इकरार है,

वहीं नखरे डांट डपट इंकार भी है

जहां जीवन अनुभव का रस बेशुमार है

दर्शन और कल्पनाओं की भरमार भी है

जहां एक ओर ताज़गी भरी बयार है

हाला प्याला से छाया खुमार भी है

इस में पथिक की राह से तकरार है

तो दूसरी तरफ मधुशाला का दुलार भी है

दर्द नशा इस मदिरालय में

इस पार भी है, उस पार भी है

एक और प्रश्न अक्सर पूछा जाता है कि क्या मधुशाला रुबाइयात उमर खय्याम की नकल नहीं थी?

इसकी छोटी सी कहानी ये है कि बच्चन साहब खुद ‘रुबाइयात उमर खय्याम’ से प्रेरित थे और उन्होने अपनी मधुशाला से पहले खय्याम की मधुशाला के नाम से उनकी रुबाइयों का अनुवाद भी किया था। वो ‘रुबाइयात’ को अपने प्राणों की पुकार कहते हैं और कहते हैं कि, “मैं जो कुछ भोग रहा था, जी रहा था, जो कई वर्षों से मेरे अंदर घुमड़ रहा था – रुबाइयत ने उसे व्यक्त करने के प्रतीक दिए” (क्या भूलूँ क्या याद करूँ) - लेकिन मधुशाला बच्चन साहब की अपनी रचना, अपने अनुभवों और कल्पनाओं का निचोड़ थी -

दर्द नशा है इस मदिरा का, विगत स्मृतियाँ साकी हैं – या फिर -

फेनिल मदिरा है, मत इसको कह देना उर का छाला

(फेनिल = झागयुक्त, frothy)

और अगर देखा जाए तो खुद के भोगे अनुभवों के बिना ‘मधुशाला’ का महल कहाँ खड़ा किया जा सकता था? बच्चन साहब खुद कहते हैं – “यदि मैं बन्दूक के रुपक का प्रयोग करूँ तो कहूँगा कि मेरी बन्दूक भरी हुई थी, बड़ी ही जीवन्त, सशक्त और लक्ष्यवेधी गोलियों से! लेकिन घोड़ा दबाना मैंने उमर खय्याम से सीखा और ये कोई छोटी कला नहीं – घोड़ा दबाए बिना भरी बंदूक भी किस काम की, लेकिन अगर बंदूक खाली है तो घोड़ा दबा के क्या हासिल!” (क्या भूलूँ क्या याद करूँ)

तो मधुशाला लिखने की प्रेरणा एक तो खय्याम की रुबाइयों से आई और दूसरा उनके परिवार के इतिहास और उनके बुजुर्गों की धरती का भी उसमें योगदान है – इसकी कहानी विस्तार से आगे कभी सुनाएंगे

हृदय और मस्तिष्क उन्हीं का - मुखरित हो मेरे छन्दों में –

यदि मुझको ज़िन्दा बन रहना - है हिन्दी के तुकबन्दों में –

मेरे रक्त, नसों के अन्दर उनका क्या कुछ संचित होगा!

मधुशाला के कुछ समय बाद ही 'मधुबाला' और 'मधुकलश' भी लिखी गयी थी, जो उनही अनुभवों की अगली कड़ी जैसे थी। मधु शब्द पर इतनी सुंदर कविताएँ लिखने के लिए ही डॉ बच्चन को "हालावाद का पुरोधा" भी कहा जाता है, as in Pioneer. बाद में मधुशाला एक संगीत एलबम के रूप में भी आई थी जिसमें चुनिंदा 20 चतुष्पदियों को मन्ना डे ने जयदेव के संगीत के साथ बड़ी मधुरता और भावपूर्ण लय में गाया है – वहीं से तो अपना भी मधुशाला प्रेम शुरू हुआ था – इस एलबम की पहली पंक्तियाँ खुद बच्चन साहब ने गाई थी जो आप इस एपिसोड के आरंभ में सुन सकते हैं।

मैं हूँ अरिसूदन और ये पॉडकास्ट है मधुशाला की जिसमे हम कविता तो पढ़ते ही हैं, साथ ही बात करते हैं कविता के पीछे की कहानियों की, प्रेरणा की, बच्चन जी के जीवन अनुभवों की, कुछ उस समय के भारत के इतिहास की, कुछ आज के समय में मधुशाला की प्रासंगिकता (relevance) की! तो चलेंगे आप मेरे साथ मदिरालय की यात्रा पर?

अरे हाँ, इस पॉडकास्ट के पहले एपिसोड में हमने बात की थी – जब बच्चन जी ने पहली बार मधुशाला को एक पब्लिक गोष्ठी में सुनाया तो कैसा माहौल बना था, उस एपिसोड को अवश्य सुनिएगा।


अगले अंक में बात करेंगे कि वो कौन से हालात थे, क्या कठिनाइयाँ थी और बच्चन जी के जीवन में क्या चल रहा था जब मधुशाला लिखी गई थी।

तो मिलते हैं एक चाय की प्याली पर – तब तक आप स्वस्थ रहिए, प्रसन्न रहिए, चाय कॉफी पीते रहिए :-)

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इन दिनों हम हर रविवार को मधुशाला की एक Live गोष्ठी भी करते हैं, आप जुड़ सकते हैं Mentza App के माध्यम से। आइएगा महफ़िल में कभी।

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