किंकर्तव्यविमूढ़

What does it mean, and why Art of Seduction

Madhushala Podcast, Episode 5

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In the previous episode, we spoke about what Alice in Wonderland has in common with Madhushala and what is the Philosophy of Compensations. In this episode, we speak about an interesting Hindi word – किंकर्तव्यविमूढ़, and some more of Madhushala...


पिछले अंक में हमने बात की थी कि Alice in Wonderland फ़िल्म और मधुशाला में क्या समानता है, और Philosophy of Compensations क्या होती है। इस अंक में मधुशाला की कुछ और बातें –


हिन्दी का एक बढ़ा अच्छा और दिलचस्प शब्द है – ‘किंकर्तव्यविमूढ़’, इसके बारे में कुछ बात करते हैं।


किंकर्तव्यविमूढ़ का अर्थ होता है – दुविधा की स्थिति, जब समझ न आए के ये करें या वो करें, करें या न करें – तो किस्सा ये है कि स्कूल कॉलेज तक तो बहुत हिन्दी पढ़ते थे लेकिन कॉलेज में विषय था अंग्रेजी साहित्य – और वहाँ जैसे ही Jane Austen ज़िंदगी में आई – हिन्दी के प्रेमचंद, निराला, अमृता प्रीतम इत्यादि दूसरे द्वार से बाहर निकल गए। अब कई साल बाद जब एक हिन्दी की किताब पढ़ना शुरू किया तो ‘किंकर्तव्यविमूढ़’ शब्द से सामना हो गया – ना बोला जाए, ना समझा जाए! मस्तिष्क में चेतावनी गूंजी – भैय्या, हिन्दी से इतना दूर निकल आए हो के अब समझ भी नहीं आ रही! तब सोच के अब फिर से हिन्दी साहित्य से दोस्ती बढ़ाई जाए – बस इसके बाद हिन्दी इंग्लिश, Jane Austen, प्रेमचंद, निराला, आदि सब में सुलह हो गई – and as they say – they lived happily ever after. तो हिन्दी में पुनः रुचि जगाने में इस शब्द का बड़ा हाथ है। मधुशाला की पॉडकास्ट में हम इस शब्द की कहानी क्यूँ सुन रहे हैं? चलिए बताते हैं -


चलने ही चलने में कितना जीवन, हाय, बिता डाला!

'दूर अभी है', पर, कहता है हर पथ बतलाने वाला,

हिम्मत है न बढूँ आगे को साहस है न फिरुँ पीछे,

किंकर्तव्यविमूढ़ मुझे कर दूर खड़ी है मधुशाला ।।७।


एक समय था जब बच्चन जी स्वतंत्रता आंदोलन में भाग ले रहे थे और उन दिनों राष्ट्रवादी भावनाएँ देश में उमड़ रही थी – फिर ऐसा हुआ कि जैसे-जैसे नेता लोग गिरफ़्तार होते गए आन्दोलन ठण्डा पड़ने लगा, फिर समझौते शुरू हुए, और असफल होने पर दमन शुरू हुआ। समझौते के साथ ही जनता का सम्पर्क आन्दोलन से कम होने लगा, लगभग छूट सा गया। अक्सर ऐसा होता है कि जब समूह बिखरता है तो व्यक्ति अपने को अकेला पाता है – अब न सभा है, न जुलूस है, अपनी-अपनी फ़िक्र करो। बच्चन जी ने भी कुछ ऐसा ही अकेलापन अनुभव किया- “क्या करूँ क्या न करूँ?” ये जो उहापोह का अनुभव था, शायद ये ही यहाँ झलक रहा है - किंकर्तव्यविमूढ़ मुझे कर दूर खड़ी है मधुशाला।


हम सब के सामने भी तो ऐसे कितने ही crossroad या दौराहे, चौराहे आते रहते हैं जब हम उलझन में पड़ जाते हैं - क्या करें, क्या न करें, ये करें या वो करें – इस तरफ़ जाएँ या उस तरफ़ – आजकल तो खैर Google Maps आपको बता देगा के किधर जाना है, आगे आपकी किस्मत! एक होता है Writer’s Block – वो भी एक तरह से किंकर्तव्यविमूढ़ होना ही है! और अगर बच्चन साहब की पहली आत्मकथा की बात करें तो उसका नाम भी ऐसा ही है – “क्या भूलूँ क्या याद करूँ” – वो भी एक तरह से किंकर्तव्यविमूढ़ होना ही है। वैसे इस समस्या का समाधान भी मधुशाला ने पहले दिया है – राह पकड़ तू एक चला चल, पा जाएगा मधुशाला :-)


अब रुख करते हैं अगली कविता का -


मदिरा पीने की अभिलाषा ही बन जाए जब हाला,

अधरों की आतुरता में ही जब आभासित हो प्याला,

बने ध्यान ही करते-करते जब साकी साकार, सखे,

रहे न हाला, प्याला, साकी, तुझे मिलेगी मधुशाला ।।९।


इन पंक्तियों को कई तरह से समझा जा सकता है, एक तो ये कि - कुछ पाने की इच्छा, अभिलाषा इतनी तीव्र हो, मन में इतनी आग हो - के वो खुद ही अपना ईंधन बन जाए. दूसरी बात ये है कि - एक एहसास है ये डूब के महसूस करो – कवि कहते हैं, प्रेम करना है तो डूब के करो – अधरों पर हो प्याले का एहसास, आँखें बंद करें तो साकार रूप में साकी दिखाई दे – साकी यहाँ आपकी प्रेमी प्रेमिका भी हो सकती है और आपका आराध्य भी, या आपकी मंजिल या लक्ष्य! एक भावार्थ ये भी है – अगर आप मन मस्तिष्क से संतुष्ट हों तो फिर आपके पास न होते हुए भी सब कुछ है।


इसी बात से एक और बात याद आई – एक मित्र ने कुछ दिन पहले एक सवाल पूछा – ये पॉडकास्ट के आखिर में कहते हो के चाय कॉफी पीते रहें, कभी ये क्यूँ नहीं कहते कि मदिरा पीते रहें, आखिर मधुशाला की पॉडकास्ट है! मैंने कहा की मधुशाला पॉडकास्ट में हम कविता की मदिरा और हाला तो पिला ही रहे हैं, तो क्यूँ न अगली मधुशाला चाय की प्याली पर सजाई जाए! :-)


इस बार यहीं विराम – अगले अंक में बात होगी मधुशाला में – The Art of Seduction की और आग्निपथ (Agnipath) की। मिलते हैं जल्दी ही।


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