लाल सुरा की धार लपट सी

What's common in Midnight in Paris and Madhushala

Madhushala Podcast, Episode 7

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In the previous episode, we spoke about the art of seduction in the context of Madhushala and a bit about Agnipath. Today, we are talking about the film - Midnight in Paris. Seen it?

पिछले अंक में हमने बात की थी मधुशाला के संदर्भ में Art of Seduction की और फिर अग्निपथ की – इस बार शुरुआत करते हैं Midnight in Paris फ़िल्म से -


आपने देखी है Midnight in Paris फ़िल्म? अगर नहीं तो अवश्य देखिएअब मधुशाला और इस फ़िल्म का क्या रिश्ता है?

एक तो ये के फ़िल्म का नायक Gill Panders (lead character) जो आधी रात के वक्त टहलने निकलता है और अतीत की गलियों में खो जाता है। ये वो ही वक्त है जब बच्चन साहब के शुरुआती दिन है जब मधुशाला की नींव का पहला पत्थर पड़ा था। दूसरी बात ये कि ये फ़िल्म Nostalgia की बात करती है। आपको पता है Nostalgia शब्द आया है 17वीं शताब्दी (17th century) से जब Switzerland के सैनिक जो घर से दूर थे उन्हें एक तरह का मानसिक तनाव था – उस अवस्था (condition) को ही पहली बार Nostalgia कहा गया था। Nostalgia शब्द दो शब्दों से बना है Nostos और Algos या Algia – इसलिए कहते हैं Nostalgia भी दो तरह का होता है – Restorative और Reflective.

Reflective वो जहां आप आप पुरानी यादों को जीते हैं – वो जो फ़िल्म की रील की तरह आँखों के सामने आती जाती रहती हैं – वो बचपन का सावन, वो कागज़ की कश्ती, वो बारिश का पानी.

कड़ी धूप में अपने घर से निकलना - वो चिड़िया, वो बुलबुल, वो तितली पकड़ना

वो गुड़िया की शादी पे लड़ना-झगड़ना - वो झूलों से गिरना, वो गिर के संभलना

वो पीतल के छल्लों के प्यारे से तोहफ़े - वो टूटी हुईं चूड़ियों की निशानी


Restorative Nostalgia - जहां आप सिर्फ पुरानी बातें याद ही नहीं करते, बल्कि उन्हें कल्पना से जोड़ कर पुनर्जीवित भी करना चाहते हैं – जैसे कि आप चाहें कि बैंगलोर की सड़कों के बिना शोर के, कम ट्रैफिक वाले दिन लौट आयें। जैसे की आप कहें – मगर मुझको लौटा दो बचपन का सावन, वो कागज़ की कश्ती, वो बारिश का पानी

इसी संबंध में मधुशाला में एक रुबाई है -

लाल सुरा की धार लपट सी कह न इसे देना ज्वाला,

फेनिल मदिरा है, मत इसको कह देना उर का छाला,

दर्द नशा है इस मदिरा का विगत स्मृतियाँ साकी हैं,

पीड़ा में आनंद जिसे हो, आए मेरी मधुशाला ।।१४।


कवि कहते हैं, “यह लाल रंग की सुरा प्रतीक रूप में मेरी वासना है जो हर दर पर अतृप्त-कुपित एक ऐसी ज्वाला में परिवर्तित हो गई है जिसने मेरे हृदय को जल कर, पिघला कर उससे कविता की मदिरा खींच ली है। और साक़ियों की कतार में मैं एक-एक विगतस्मृति को पहचान रहा हूं, और एक-के-बाद एक आने वाली हर रुबाई में, जैसे एक-के-बाद एक आने वाले प्याले में, मैं अपने जीवन की अनुभूतियों, आकांक्षाओं, अनुभवों, कल्पनाओं को बिम्बित-प्रतिबिम्बित देख रहा हूँ।” (नीड़ का निर्माण फिर)


ये सिर्फ कवि के ही नहीं हमारे भी अनुभव होते हैं जहां पुरानी स्मृतियाँ कई बार आँखों के सामने किसी फ़िल्म की रील जैसे चलने लगती हैं और अक्सर इस फ़िल्म के मुख्य पात्र आप ही होते हैं, ठीक वैसे जैसे Midnight in Paris फ़िल्म में होता है – अवश्य देखिएगा।

अब अगली कविता -

जल-तरंग बजता, जब चुंबन करता प्याले को प्याला,

(यहाँ Cheers वाली बात है, प्याले से प्याले के टकराने से जो जल तरंग बजने से जैसी आवाज आती है)

वीणा झंकृत होती, चलती जब रूनझुन साकी बाला,

(जब रूनझुन साकी बाला चलती है तो वीणा के तारों जैसा मधुर संगीत फूट पड़ता है )

डाँट डपट मधुविक्रेता की ध्वनित पखावज करती है,

मधुरव से मधु की मादकता और बढ़ाती मधुशाला ।।११।


यहाँ मधुशाला के शब्दों में निर्झर निरंतर संगीत जैसे बह ही रहा है – यहाँ तक कि मधुविक्रेता की डाँट डपट में भी पखावज की मृदंग ताल सुनाई देती है – पखावज क्या होता है? ये ढोलक जैसा ही वाद्य-यंत्र है जो थोड़ा सा पतला और लंबा होता है।


भावार्थ कुछ ऐसा है जैसा उर्दू के एक प्रसिद्ध शेर में कहते हैं –

प्यार जब हद से बढ़ा, सारे तकल्लुफ मिट, आप से तुम हुए, फिर तू का उनवाँ हो गए

आप तो नज़दीक से नज़दीक-तर आते गए, पहले दिल फिर दिलरुबा फिर दिल के मेहमान हो गए


लेकिन आजकल के हालात में तो ये कहते हैं – “रफ़्ता रफ़्ता वो मेरी अर्थी का कांधा हो गए”


अब आगे बात करते हैं मधुशाला को सतरंगी सतरंगिनी भी क्यूँ कहा गया था और मधुशाला में रंगों की वर्षा के बारे में -


मेहंदी रंजित मृदुल हथेली पर माणिक मधु का प्याला,

अंगूरी अवगुंठन डाले स्वर्ण वर्ण साकीबाला,

पाग बैंजनी, जामा नीला डाट डटे पीनेवाले,

इन्द्रधनुष से होड़ लगाती आज रंगीली मधुशाला ।।१२।


पहले कुछ पंक्तियों में जहां संगीत था, यहाँ रंगों का अद्भुत संगम है – मृदुल मुलायम हथेली जिस पर मेहंदी के रंग खिले हैं – उन हाथों ने मणियों से सज्जित मधु का प्याला थामा है – पाग बैंजनी और नीला जामा – इंद्रधनुष के सारे रंग यहाँ उपस्थित हैं। रंगों की जहां तक बात है, मधुशाला का जब रूसी भाषा में अनुवाद हुआ – उसका कवर सतरंगी रंगों वाला था और रूसी भाषा में मधुशाला को सतरंगी का टाइटल दिया गया था – बच्चन साहब की कविताओं का एक संग्रह भी है “सतरंगिनी” जहां अलग अलग रंगों की कविताएँ हैं। फिलहाल यहाँ कल्पना है एक नई नवेली दुल्हन की सी जो अवगुंठन यानि घूँघट डाले चली आ रही है – जैसे किसी ने अपनी नई नवेली दुल्हन को पहली बार देखा है और दुनिया के सारे रंग उसके सामने उपस्थित हो जाएँ!

अब ये बात और है कि शादी के कुछ साल बाद दिन में भी तारे और इन्द्र-धनुषी रंग दिखने लगते हैं – खैर, वो बातें निकलेंगी तो दूर तलक जाएंगी! फिलहाल यहीं विराम :-)


अगले अंक में बात करेंगे मधुशाला में राग और आग की, बुखार के बारे में बच्चन जी के विचार की और पुरानी कविताओं में डूब के शिव के मंत्र के उच्चार की, मिलते हैं फिर एक बार चाय पर...

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इन दिनों हम हर रविवार को मधुशाला की एक Live गोष्ठी भी करते हैं, आप जुड़ सकते हैं Mentza App के माध्यम से। आइएगा महफ़िल में कभी।

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