मैं शिव की प्रतिमा बन बैठूँ

Time is endless and the earth is abundant

Madhushala Podcast, Episode 8

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In the previous episode, we discussed what's common between the movie "Midnight in Paris" and Madhushala. We also spoke about the types of Nostalgia. Let's take another journey down memory lane in this episode...


पिछले अंक में हमने बात की थी मधुशाला के संदर्भ में Midnight in Paris फ़िल्म की और अलग-अलग तरह का Nostalgia अपना खेल कैसे दिखाता है। इस बार देखते हैं, बच्चन जी बुखार के बारे में क्या कहते हैं और इसके धागे मधुशाला में कैसे जुड़ते हैं, और शिव की प्रतिमा का उल्लेख क्यों हुआ?

जगती की शीतल हाला सी पथिक, नहीं मेरी हाला,

जगती के ठंडे प्याले सा पथिक, नहीं मेरा प्याला,

ज्वाल सुरा जलते प्याले में दग्ध हृदय की कविता है,

जलने से भयभीत न जो हो, आए मेरी मधुशाला ।।१५।

(जगती = दुनिया; पथिक = यात्री)

यहाँ मधुशाला अपने प्रेमी को, जो यहाँ पथिक है – एक चुनौती सी देती है – challenge करती है अपने लक्ष्य या आराध्य के लिए – जैसे मुस्तफ़ा ज़ैदी का शेर है -

इन्हीं पत्थरों पे चल कर अगर आ सको तो आओ, मिरे घर के रास्ते में कोई कहकशाँ नहीं है


कहने का अर्थ – हमसे मिलने आना है तो पथरीले कठिन रास्ते पर चल के आना पड़ेगा, इस रास्ते में आराम और आसान कुछ भी नहीं!


(क्या भूलूँ 9991) बच्चन जी की आत्मकथा में इससे जुड़ी एक बात है – कविराज अपनी फिलासफी को समझाते हुए कहते हैं कि – “बीमार होना अपराध है। हमें जो शरीर दिया गया है उसे हम स्वस्थ न रख सकें तो हम अपराधी तो हैं ही, और अपराधी को दंड मिलना चाहिए! जब कभी छोटी-मोटी बीमारी होती, जुकाम, बुखार, खाँसी, सिर दर्द, तो मैं खाट पर न लेटता; और भी अपने से काम लेता। एकदम जलते तपते बुख़ार में रात की ट्यूशनों पर जाना। बुख़ार की गर्मी और तेजी में तो और जोश से पढ़ाता. मज़दूरी करके अपनी रोटी कमानेवाले को बीमार पड़ने का क्या अधिकार है, बीमारी अमीरों की वफादार है, गरीबों को उसे अपने पीछे न लगाना चाहिए – लिखने में तो ऊँचा बुखार मुझे सब तरह से सहायक, प्रेरक, और प्रोत्साहक लगता; एक तरह की आग, जिससे मेरी अनुभूतियों में ताप आता, जिसमें गल-पिघलकर मेरा हृदय ढलता; एक तरह की भट्ठी जो मेरे विचार, भाव, कल्पनाओं को उबाल देकर उच्छलित करती।“

अगर बुखार आपको लगने की कोशिश करे तो आप जा के बुखार को ही लग जाओ – वैसे हम सबके परिवार में एक न एक ऐसा वीर बहादुर होता ही है! और हमारे परिवारों के कुछ बुजुर्ग शूरवीर ऐसे भी मिलेंगे जो दिसंबर-जनवरी की सर्दी में भी ठंडे पानी से नहा रहे होते हैं!

लेकिन भैया आजकल कोरोना काल है, हल्का भी बुखार है तो कतई कोई लापरवाही नहीं करनी चाहिए – तुरंत टेस्ट कराएँ और इलाज शुरू करें!


अब अगली कविता पढ़ते हैं -

1977 की बात है बच्चन साहब का ulcer का operation हुआ था और घुटनों में भी तकलीफ थे – वो काफी वक्त तक बिस्तर तक ही सीमित थे और सारा परिवार देख-भाल में जुटा था। सुबह अमित (अमिताभ बच्चन) सबसे पहले मिलने जाते थे। बच्चन जी बताते हैं – “मैं उनसे (अमित से) कहता कि मेरे सिरहाने बैठ जाओ और मुझे धीरे-धीरे मेरी आत्मकथा या मधुशाला-मधुबाला से कुछ सुनाओ। और सुनते-सुनते मैं अतीत की कितनी स्मृतियों में खो जाता। मेरे ही शब्दों से मेरे लिए कितने ही नये अर्थ खुलते। कभी मैं किसी पंक्ति पर अमित को चुप करा देता और नये अर्थों में डूबता-उतराता रहता।”
(पुस्तक आभार: दशद्वार से सोपान तक)

उन्हीं में से कुछ पंक्तियाँ ये थी -

बने पुजारी प्रेमी साकी, गंगाजल पावन हाला,

रहे फेरता अविरत गति से मधु के प्यालों की माला'

'और लिये जा, और पीये जा', इसी मंत्र का जाप करे'

मैं शिव की प्रतिमा बन बैठूं, मंदिर हो यह मधुशाला ।।१९।


उस वक्त के बारे में बच्चन जी कहते हैं –

“आज भी मुझे याद है जब मैंने मधुशाला की ये पंक्तियाँ (शिव की प्रतिमा वाली) सुनी तो बड़ी देर तक यही सोचता रहा अगर मैं अपनी इस एक पंक्ति को ही जी लूँ तो मेरा जीवन सार्थक हो जाये। शिव की, या शिवत्व की प्रतिमा बनकर बैठना कितनी कठिन साधना, कितना तप माँगता है - क्या मैंने किया? क्या मैं कर सकूँगा?” (पुस्तक आभार: दशद्वार से सोपान तक)


आब देखें तो कई कविताएँ अपना रहस्य, विशिष्ट व्यक्तियों पर विशिष्ट क्षणों में उद्‌घाटित या व्यक्त करती है। सरल भाषा में कहें तो कविताओं के अर्थ कुछ लोगों के लिए एक खास समय पर ही सामने आते हैं – जैसे बचपन से जवानी और अधेड़ उम्र में एक ही कविता के माने अलग लगने लगते हैं।

कविताएं कभी तो जीवन को और जीने में सहायक होती हैं और कभी एक अलग ही तरह के आकर्षक जीवन की प्रेरणा बनती हैं! कविता को भोगना भी हर एक के बूते की बात नहीं। कविताएँ अपने भोगने के अधिकारी भी खुद ही खोज लेती हैं! और हर किसी के लिए कोई न कोई कविता, या कोई न कोई रचना बनी ही है – जैसे भवभूति ने उत्तर रामचरित में कहा है – “कालो ह्ययं निरवधिर्विपुला च पृथ्वी” – time is endless and the earth is abundant – अर्थात – संसार में सभी के लिए कुछ न कुछ बना है – “पथिक न घबरा जाना थक कर, तुझे मिलेगी मधुशाला”


फिलहाल यहीं विराम।

अगले अंक में बात करेंगे कि जब लोगों ने गांधी जी से मधुशाला की शिकायत की तो उनकी क्या प्रतिक्रिया थी। और थोड़ा आगे बढ़ेंगे तो मधुशाला में धर्म, जाती और सामाजिक असमानताओं के बारे में कुछ रुबाइयाँ पढ़ेंगे


तो चलिए, मिलते हैं फिर एक बार चाय पर – तब तक आप स्वस्थ रहिए, प्रसन्न रहिए, चाय कॉफी पीते रहिए :-)

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