नदी किनारे के पत्थर
Rocks by the river
नदी किनारे के पत्थर
नदी किनारे ठहरा हुआ एक पत्थर
स्थिर भी हूँ, गतिमय भी हूँ
मैं कल कल बहता जल भी हूँ
मैं वर्तमान, मैं भूतकाल
मैं नव भविष्य का कल भी हूँ
मैं मटमैला उजला भी हूँ
मैं निर्मल और सजल भी हूँ
मैं अविरत चलता काल चक्र
मैं ठहर गया इक पल भी हूँ
मैं सकता नदी की मोड़ दिशा
कर सकता मेघों से वर्षा
मैं गगनचुंबी गिरी का ललाट
आधार शिला का तल भी हूँ
मैं प्रबल धार में बहता हूँ
मैं जल प्रपात संग गिरता हूं
मैं पवन थपेड़े सहता हूं
किन्तु यदि मैं हठ कर बैठूँ
तो ऋषि मुनियों सा अटल भी हूँ
मैं इस धरती से जन्मा हूं
मैं कण कण जुड़ के बना हुआ
मैं नींव का पत्थर बनता हूं
उत्तुंग शिखर सा सफल भी हूँ
कितनी कविता कितने किस्से
मैं करके खुद में सकल भी हूँ
हों जटिल भले मेरे पर्वत
जब धूल बना तो सरल भी हूँ
है तन कठोर है मन कठोर
किन्तु मैं भाव विह्वल भी हूँ
मैं पत्थर रूप में जन्मा हूँ
हूँ पाषाण देह और तरल भी हूँ
(Written by: Arisudan Yadav)
कविता की कहानी
अगर आप कभी किसी पहाड़ी नदी के पास से गुजरते हैं तो आपने देखा होगा के नदी के किनारे जो पत्थर होते हैं, हर रंग रूप आकार के, वो समय के साथ नदियों के पानी से घिस कर बहुत गोल, चिकने (smooth) हो चुके होते हैं, उनके बीच में कई तरह की लकीरें बनी दिखती हैं। ये लकीरें मानो अपने भीतर कितनी की कहानियाँ, किस्से छिपाएँ बैठी हों।
ये पत्थर हर रूप रंग आकार के होते हैं। इनमें से कई पानी के साथ बहते चलते हैं, और कई ठहर कर टिक गए होते हैं। ये नदी के साथ बह भी सकते हैं, और थम गए तो नदी की दिशा भी मोड़ सकते हैं।
ये ही पत्थर नींव में लगे तो किसी को दिखाई नहीं देते, लेकिन ये ही पत्थर पर्वतों की चोटियों पर भी दिखाई देते हैं।
इन पत्थरों में कितनी कहानियाँ किस्से क़ैद हैं फिर भी ये किसी योगी से, कितने चुप शांत रहते हैं। ये पत्थर तन और मन से कितने ही कठोर हैं, चाहे पर्वतों को उठा रखें - लेकिन जब ये पत्थर समय के साथ घर्षण से धूल या रेत बन जाते हैं तो कितने सरल होके... हवा के साथ उड़ भी सकते हैं, पानी के साथ बह भी सकते हैं।
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