मुहर्रम का तम, होलिका की ज्वाला

Marsiya in Madhushala and a story of Lucknow

Madhushala Podcast, Episode 10

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In the previous episode, we talked about the reaction of Mohandas Karamchand Gandhi when he heard Madhushala for the first time and also what Madhushala says about the caste and religion. Today, an interesting story from Lucknow, but before that a bit about Marsiya.


पिछले अंक में हमने बात की थी कि जब लोगों ने गांधी जी से मधुशाला की शिकायत की तो उनकी क्या प्रतिक्रिया थी। और मधुशाला में धर्म, जाती और सामाजिक असमानताओं के बारे में कुछ कविताओं की – आज उसी क्रम को आगे बढ़ाते हैं और बात करते हैं मर्सिया की –


हरा भरा रहता मदिरालय, जग पर पड़ जाए पाला,

वहाँ मुहर्रम का तम छाए, यहाँ होलिका की ज्वाला,

स्वर्ग लोक से सीधी उतरी वसुधा पर, दुख क्या जाने,

पढ़े मर्सिया दुनिया सारी, ईद मनाती मधुशाला (25)


मधुशाला उस अवस्था की तरह है जो ज़मीनी उलझनों से ऊपर उठ चुकी है, जैसे स्वर्ग होता है – जहां सब कुछ ही सुखमय, या निर्वाण की अवस्था।

Positive attitude की बात भी है – आजकल तो और ज्यादा प्रासंगिक (relevant) है – जब COVID महामारी के कारण हर ओर सिर्फ उदासी, अवसाद और निराशा भारी खबरें आ रही हैं। Law of Attraction में positive energy / negative energy की बात होती है।


यहाँ एक शब्द है मर्सिया – मर्सिया एक तरह की शोक-कविता है - इंग्लिश में कहें तो ए᠎̮लजि (Elegy)- मर्सिया को मुहर्रम के अवसर पर पढ़ा जाता है - करबला की लड़ाई के शहीदों के सम्मान में और उन्हे याद करने के लिए। मर्सिया एक अरेबिक शब्द मर्थिया से आया है जिसका अर्थ होता है – a great tragedy या किसी की मृत्यु पर गहरा शोक। मर्थिया थोड़ा संस्कृत हिन्दी के मृत्यु से मिलता जुलता भी है। कहते हैं करबला की लड़ाई में हुसैन इब्न अली और उनके परिवार को मौत के घाट उतार दिया दिया गया था – और तभी से उनकी मृत्यु का शोक एक rallying war cry जैसा बन गया और उस घटना को अब मुहर्रम के रूप में याद किया जाता है। मुहर्रम Islamic calendar का पहला महीना होता है – और हुसैन इब्न अली की शहादत मुहर्रम के दसवें दिन हुई थी।


मर्सिया के बारे में कहा जाता है के इसका अर्थ न भी समझ आए तो इसकी लय सुन के माहौल में एक उदासी सी छा जाती है – बच्चन साहब ने भी एक कविता लिखी है जो मर्सिया की लय और धुन पर है – सूत की माला – जो उन्होंने गांधी की हत्या के तुरंत बाद लिखी थी। अब गांधी की बात चली है तो उनसे जुड़ा एक किस्सा आप पिछले एपिसोड में सुन सकते हैं, फिलहाल आगे बढ़ते हैं -


और रसों में स्वाद तभी तक, दूर जभी तक है हाला,

इतरा लें सब पात्र न जब तक, आगे आता है प्याला,

कर लें पूजा शेख, पुजारी तब तक मस्जिद मन्दिर में

घूँघट का पट खोल न जब तक झाँक रही है मधुशाला (52)


फिर से अलंकार से अलंकृत एक संगीतमय सी पंक्ति है यहाँ - घूँघट का पट खोल न जब तक झाँक रही है मधुशाला.

भावार्थ – कवि कहते हैं कि मंदिर मस्जिद में पूजा वूजा जो करनी हैं कर लें लेकिन मंज़िल तो एक मधुशाला ही है – बस उसके घूँघट के पट खुल जाएँ। इसी बात को दूसरे दृष्टिकोण से देखें तो कई दफा चीजें तब तक अच्छी लगती हैं जब तक वो मिल न जाएँ, एक बार मिल गई तो रस खत्म, वैल्यू खत्म

और रसों में स्वाद तभी तक, दूर जभी तक है हाला,


हिमांशु बाजपई अपनी किताब क़िस्सा क़िस्सा लखनऊवा में एक कहानी सुनाते हैं सलीम भाई सब्ज़ी वालों की। बिल्लौचपुरे में सलीम भाई की छोटी सी सब्ज़ी की दुकान है। सलीम भाई की शख़्सियत और उनकी गुफ़्तगू का जादू ये है कि पिछले कुछ सालों में जो लोग बिल्लौचपुरे और आसपास के इलाकों से हिजरत करके नए लखनऊ में बस चुके हैं वो भी हफ़्ते, पन्द्रह दिन या एक महीने में एक बार सलीम भाई की दुकान पर खिंचे चले आते हैं। इनमें हिन्दू-मुसलमान दोनों हैं। सब्ज़ी ख़रीदना तो बहाना है, मक़सद तो मिलना-जुलना और सलीम भाई की सोहबत से लुत्फ़ंदोज़ होना है। लखनऊ हमेशा से सुख़नसाज़ों यानी बात बनाने वालों का मक्का रहा है। प्रोफ़ेसर नदीम हसनैन ने अपनी किताब ‘द अदर लखनऊ’ में सलीम भाई जैसे एक सुख़नसाज़ खीरे वाले का क़िस्सा सुनाया है। कुछ साल पहले की बात है। एक आदमी ठेले पर खीरे बेच रहा था। तब खीरे का मौसम बस शुरू ही हुआ था और इस आदमी के पास छोटे-छोटे, पतले-पतले खीरे थे, बिलकुल वैसे जैसे लखनऊ वालों को पसन्द होते हैं। नदीम साहब ने जब ये खीरे देखे तो खीरे वाले से उनका दाम पूछा। जवाब में खीरे वाले ने उन्हें सामान्य दाम से तिगुने-चौगुने दाम बताए। इन्होंने उससे मोल-भाव करते हुए कहा—ठीक लगा लो। इस पर खीरे वाले ने लखनवी लोच के साथ कहा—हुज़ूर अभी अल्हड़ बतिया है न, तभी नखरे (क़ीमत) ज़्यादा हैं। इस जवाब पर नदीम साहब फ़िदा हो गए। आगे कुछ बोल ही नहीं पाए। इतने ख़ुश हुए कि जितने पैसे खीरे वाले ने माँगे थे उससे भी ज़्यादा देकर खीरे लिए।


फिलहाल यहीं विराम... अगले अंक में सुनाएंगे एक कहानी बच्चन जी के जन्म से जुड़ी और उनका नाम हरिवंशराय कैसे रखा गया – एक किस्सा उनके बचपन का जब कायस्थ होने की वजह से बचपन में उनका एक बार अपमान हुआ था और इसका असर उन पर क्या पड़ा! तो चलिए, मिलते हैं फिर एक बार चाय पर। तो चलिए, मिलते हैं फिर एक बार चाय पर – तब तक आप स्वस्थ रहिए, प्रसन्न रहिए, चाय कॉफी पीते रहिए :-)

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