कहानी "हरिवंश राय" नाम की

Story behind the name "Harivansh Rai"

Madhushala Podcast, Episode 11

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In the previous episode, we discussed what is Marsiya, when it's read and why are we talking about it in Madhushala. There was also a story of Lucknow's adab, naaz and nakhara. Today we are talking about the origin of Bachchan's first name - Harivansh Rai, and also a story of him facing problems for being a Kayasth.


पिछले अंक में हमने बात की थी कि मर्सिया क्या होता है, कब पढ़ा जाता है और मधुशाला में हम उसकी बात क्यों कर रहे हैं, और एक कहानी सुनी थी लखनऊ के अदब, नाज और नखरों की – आज बात करते हैं कुछ बच्चन जी के बचपन की और उनका नाम “हरिवंश राय” कैसे आया।


एक किस्सा है कि बच्चन जी का सात पीढ़ी पुराना जो पुश्तैनी घर था, अमोढ़ा, प्रतापगढ़ और इलाहाबाद के आस पास कहीं। सरकार ने वहाँ से एक सड़क निकालने के लिए वो जमीन ले ली, लोगों के घरों का तो सरकार ने अधिग्रहण करके गिरा दिया, जहां इंसान रहते थे; किन्तु वहीं एक मंदिर था, उसे धर्म के नाम पर छोड़ दिया जिसमें केवल एक छोटी सी मूर्ति रहती थी। अब इसी तरह के कई शुरुआती अनुभवों का असर मधुशाला और बच्चन जी की कुछ और कविताओं में दिखाई देता है, जैसे यहाँ देखें -


आज करे परहेज़ जगत, पर, कल पीनी होगी हाला,

आज करे इन्कार जगत पर कल पीना होगा प्याला,

होने दो पैदा मद का महमूद जगत में कोई, फिर

जहाँ अभी हैं मंदिर मस्जिद वहाँ बनेगी मधुशाला (53)


अब यहाँ पैदा होने की बात है तो एक दिलचस्प बात बताते हैं बच्चन साहब के जन्म से जुड़ी हुई – कविराज का जन्म हुआ था 1907 में और नाम रखा गया हरिवंश राय। अब उसका भी एक विशेष कारण था। बच्चन जी अपने माता-पिता की छठी संतान थे। बड़ी बहन भगवानदेई उनसे सात वर्ष बड़ी थीं। जब भगवानदेई के बाद होने वाले दो बच्चे अल्पायु में ही चल बसे तब एक पंडित जी श्री रामचरण शुक्ल ने बच्चन जी के पिता प्रताप नारायण को सलाह दी कि जब माता गर्भवती हों तब वे हरिवंश पुराण सुनें। शुक्ल जी की बात पिताजी के लिए वेद-वाक्य होती थी। पिताजी को प्रातःकाल तो समय मिलता न था, वे बगैर खाये-पिये दफ्तर चले जाते, दिन-भर व्रत रखते, माता जी भी रखतीं। जब शाम को घर लौटते- तब कई घण्टे पति-पत्नी गाँठ जोड़कर परिवार के पुरोहित से हरिवंश पुराण की कथा सुनते, ‘पुत्रप्रद सन्तान गोपाल यन्त्र’ की पूजा करते।


एक श्लोक है – “देवकी सुत गोविन्द वासुदेव जगत्पते देहि मे तनयं कृष्ण त्वामहं शरणं गत:” – इस श्लोक का आधी रात तक 108 बार जाप करते। पुरोहित जी ने कथा सुनाने और पूजा कराने के लिए एक हज़ार एक रुपए की दक्षिणा माँगी थी (सोचिए 1907 में 1000 रुपए – आज की कीमत लाखों में होगी!), पिता जी के पास इतना थन एक साथ देने की समाई न थी। अनुष्ठान की समाप्ति पर उन्होंने एक पोथी पर धन-राशि लिखकर पुरोहित जी को समर्पित कर दी और प्रति मास दस रुपया उनको देते रहे। जब हरिवंश जी आठ-नौ वर्ष के हो गए तब जाकर पिताजी इस संकल्प-ऋण से उऋण हुए। अब श्लोक की शक्ति कहें या भाग्य (उनका भी और हमारा भी) कि हरिवंश राय जी का स्वस्थ जन्म हुआ – और बाकी इतिहास तो ज्ञात ही है, Rest is history!


तो हरिवंश पुराण के प्रताप से उनका नाम हरिवंश राय रखा गया और जन्म के कुछ समय बाद से ही घर पर उनको प्यार से बच्चन नाम से पुकारा जाने लगा! (संदर्भ: क्या भूलूं क्या याद करूँ)

किन्तु सनद रहे – ये बात थी 1907 की और औपचारिक तौर पर बच्चन उनका नाम हुआ करीब 40 साल बाद – इसके कहानी आगे कभी सुनाते हैं!


एक और बात बताते चलें कि एक बच्चन जी के मित्र थे श्रीमान खत्री जी जो कि कानपुर के रहने वाले थे, ठिगने शरीर के, खुले स्वभाव के, पर घोर परिश्रमी, किसी प्रकार के मनोविनोद (Recreation) में भाग लेते उन्हें कभी देखा नहीं गया था। ये साहब बच्चन जी के मधुकाव्य के बड़े प्रेमी थे और ‘बच्चन’ के बजाय उन्हें Bacchus (बेकस) कहा करते थे, जो कि यूनानी दंतकथा के अनुसार मदिरा का देवता है। (संदर्भ: नीड़ का निर्माण)


बताइए – सेरन्डिपिटी (serendipity) और किसको कहें! अब अगली कविता -

दुतकारा मस्जिद ने मुझको कहकर है पीनेवाला,

ठुकराया ठाकुरद्वारे ने देख हथेली पर प्याला,

कहाँ ठिकाना मिलता जग में भला अभागे काफिर को?

शरणस्थल बनकर न मुझे यदि अपना लेती मधुशाला (46)


किस्सा मंदिर में कायस्थ होने का –

जात पात लेकर बच्चन साहब को बचपन में एक कटु अनुभव हुआ था – उनके मोहल्ले के कृष्ण मंदिर में अन्नकूट के दिन भगवान को कच्ची रसोई का भोग लगता था और प्रसाद बँटता था – बालक हरिवंशराय भी पंगत में बैठ गए प्रसाद लेने। एक गोसाईं जी उनके पास आए, बोले, “कायस्थ हो?

बच्चन: “हाँ जी”

गोसाईं: “बेटा, यह अग्रवालों की पंगत है, तुम जा के अलग बैठो!”


बच्चन बाबू को ये बात बड़ी अपमानजनक लगी, जैसे श्रीरामचरितमानस के बालकाण्ड में कहा गया है – जब सती के पिता दक्ष ने यज्ञ किया था और उस में शिव और सती को नहीं बुलाया – किंतु सती तब भी गई और देखा के वहाँ उनके पति शिव का अपमान हुआ है -

जद्यपि जग दारुन दुख नाना। सब तें कठिन जाति अवमाना॥

समुझि सो सतिहि भयउ अति क्रोधा। बहु बिधि जननीं कीन्ह प्रबोधा॥4॥


(भावार्थ: यद्यपि दुनिया में एक से बढ़ कर एक अनेक प्रकार के दुख हैं, तथापि, जाति को लेकर किया अपमान सबसे कठिन अपमान है। यह समझकर सतीजी को बड़ा क्रोध हो आया। माता ने उन्हें बहुत प्रकार से समझाया-बुझाया!)


बच्चन जी को ये बात बड़ी बुरी लगी – सोचा कि भगवान के मन्दिर में तो दो ही तरह की जाति हो सकती हैं - या तो भगवान या तो भक्त।

घर आ के माँ को बताया तो वो डर गई – “मंदिर में भगवान का प्रसाद पाने गए थे या कि जात-पाँत मिटाने; तुमने प्रसाद का निरादर किया है, दरिद्र हो जाओगे। जाओ, जहाँ भक्तों की जूठी पत्तल फेंकी गई हो वहाँ से दो चावल के दाने उठाकर अपने सिर पर रखो।”

माँ को सन्तुष्ट करने के लिए, दरिद्री होने के भय से नहीं, बच्चन बाबू उनके आदेश का पालन तो कर दिया, पर जात पात से भरोसा भी उठ गया!

और इन्हीं बातों से प्रेरित होकर शायद बच्चन जी कहा है -

मुसलमान और हिन्दू हैं दो एक मगर उनका प्याला – या फिर – धर्मग्रंथ सब जला चुकी है जिसके अंतर की ज्वाला


इस अंक में यहीं विराम लेते हैं – अगले अंक में इसी सिलसिले को आगे बढ़ाएंगे और सुनाएंगे कुछ किस्से बच्चन जी के बचपन से, उनके मूल नक्षत्र में पैदाइश का असर, और एक चमारिन अम्मा जिन्होंने बालक बच्चन को दूध पिलाया था। आप अपने विचार बताइएगा। मिलते हैं फिर एक बार चाय पर। तो चलिए, मिलते हैं फिर एक बार चाय पर – तब तक आप स्वस्थ रहिए, प्रसन्न रहिए, चाय कॉफी पीते रहिए :-)

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