पिछले अंक में हमने बात की थी हिन्दी के एक विशेष शब्द “किंकर्तव्यविमूढ़” की और साथ में Jane Austen की, इस बार बात करते हैं Art of Seduction और अग्निपथ की -
सुन, कलकल़ , छलछल़ मधुघट से गिरती प्यालों में हाला,
सुन, रूनझुन रूनझुन चल वितरण करती मधु साकीबाला,
बस आ पहुंचे, दुर नहीं कुछ, चार कदम अब चलना है,
चहक रहे, सुन, पीनेवाले, महक रही, ले, मधुशाला ।।१०।
मधुशाला के इस पड़ाव में शब्दों और वर्णों के जोड़-तोड़ से बड़ा संगीतमय सा माहौल बन जाता है। ये पंक्तियाँ ही संगीतमय हैं – और अगर आप इसे लय-ताल में पढ़ें या सुने जैसे मन्ना डे जी ने गाया है तो बस क्या कहने। शब्दों से ही खनखनाहट पैदा होती है – साकी की रूनझुन पायलिया – पानी की कलकल ध्वनि – मधुघट की छलछल का संगीत...
भावार्थ की बात करें तो आप जैसे-जैसे अपनी मंज़िल के करीब पहुंचते हैं – जैसे यहाँ कहा है मधुशाला के करीब पहुँचने लगे तो, एक संगीत सा सुनाई देने लगता है – मन में एक अलग सा उल्लास और उत्साह आ जाता है – खुशबू सी आने लगती है – उसी का प्रतीक है इन पंक्तियों में – एक उमंग की लहर मन में उठ के बता देती है के बस आ पहुंचे अब दूर नहीं – चार कदम ही चलना है।
यहाँ कविता का आभूषण “अलंकार” प्रयोग हुआ है – जरा सोच कर बताइए कि हिन्दी भाषा का कौन सा या कौन-कौन सा अलंकार यहाँ प्रयोग हुआ है :-)
अब अगली चतुष्पदी सुनते हैं -
हाथों में आने से पहले नाज़ दिखाएगा प्याला,
अधरों पर आने से पहले अदा दिखाएगी हाला,
बहुतेरे इनकार करेगा साकी आने से पहले,
पथिक, न घबरा जाना, पहले मान करेगी मधुशाला ।।१३।
यहाँ बात है कुछ तरसाने वाली, कुछ अदा दिखाने वाली, इसका भी अपना ही आनंद है – जगजीत सिंह की आवाज़ में एक ग़ज़ल भी है –
“जवाँ होने लगे तो हमसे कर लिया पर्दा, हया यकलख्त आई और शबाब आहिस्ता आहिस्ता” – अमीर मीनाई की ग़ज़ल है ये।
एक होता है Art of Seduction / रॉबर्ट ग्रीन की एक किताब है Laws of Power उसमें भी कई जगह इसी तरह की बात है कि राजनीति में जब आप शक्ति प्राप्त करना चाहते हैं तो कभी भी एक बार में अपने सारे पत्ते नहीं खोल देने चाहिये। ये कीजिए, आहिस्ता आहिस्ता...
मधुशाला यहाँ कह रही है कि मंज़िल मिलने से पहले लगता है जैसे और मुश्किल होती जा रही है – जैसे क्रिकेट में स्कोर का पीछा करना। पहले होता था कि हमारी क्रिकेट टीम में finisher की बड़ी कमी थी, एक-दो विकेट गिरे नहीं कि बाकी टीम ताश के पत्तों के महल की तरह ढह जाएगी! ये तो भला हो दादा और धोनी का कि अब हम आखिरी विकेट तक उम्मीद जमाए रहते हैं!
यहाँ भी कवि ये ही कहते हैं के घबराना नहीं है – Be a Finisher – जब मन में ठान लिया है तो चलते जाओ, मंज़िल आखिर मिलेगी ही।
वृक्ष हों भले खड़े,
हों घने हों बड़े,
एक पत्र छाँह भी,
माँग मत, माँग मत, माँग मत,
अग्निपथ, अग्निपथ, अग्निपथ।
तू न थकेगा कभी,
तू न रुकेगा कभी,
तू न मुड़ेगा कभी,
कर शपथ, कर शपथ, कर शपथ,
अग्निपथ, अग्निपथ, अग्निपथ।
अगर बच्चन साहब के जीवन की बात करें तो ज़िंदगी में कितने मौके आए थे जब इस तरह का संघर्ष हुआ, जैसे मधुशाला को प्रकाशित करना ही बड़ी मुश्किल बन गया था – कई बार छोड़ देने का दिल किया। फिर जब कैंब्रिज गए थे पढ़ाई करने, PhD तो करनी ही नहीं थी – वहाँ से इंग्लिश पढ़ाने और शोध करने का हुनर सीखना था, बस – आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी, सरकार ने भी हाथ खींच लिए – British Council भी वादा करके मुकर गई, मगर फिर भी जैसे तैसे हिन्दी / इंग्लिश का Tuition पढ़ा के वहाँ अपना काम पूरा किया! कई मौकों पर नौबत ये थी के छोड़ के चले जाएँ – उनके पास कुल मिला के इतने ही पैसे बचे थे के वापसी के हवाई-जहाज का टिकट खरीद सकें। इस बीच उनका परिवार जो इलाहाबाद में था – तेजी बच्चन, अमिताभ, अजिताभ – उनके पास कोई आर्थिक सहारा नहीं था। कुछ लोग इस बीच तेजी जी को परेशान भी कर रहे थे, कुछ उनके अकेली महिला होने की वजह से, कुछ उधारी को लेकर (शायद कुछ हिंसक वारदात की भी नौबत आ गई थी). मगर बच्चन जी ने किसी तरह टिक कर PhD खत्म की, वो भी रिकार्ड टाइम में और वो Cambridge से पीएचडी करने वाले दूसरे भारतीय हैं – वैसे तो तीसरे होते लेकिन एक पाकिस्तान चले गए थे।
आज यहीं विराम लेते हैं, अगले अंक में बात करेंगे Midnight in Paris फिल्म की, और इसके तार मधुशाला से किस तरह जुड़ते हैं 😊
इन दिनों हम हर रविवार को मधुशाला की एक Live गोष्ठी भी करते हैं, आप जुड़ सकते हैं Mentza App के माध्यम से। आइएगा महफ़िल में कभी।