जो धरती नंगे पाँव चले

Barefoot - they walked a path less travelled

जो धरती नंगे पाँव चले

उन के नाम जो बाधाओं से डरे बिना चलते रहे

जो धरती नंगे पांव चले

वो बिना किसी विश्राम चले

वो बिना किए आराम चले

लगा चिन्ह विराम चले

जो धरती नंगे पांव चले

पग में अपने वायु भर के

कर में अपने अग्नि धर के

परवाह को ठोकर में रख के

उल्लासित धार समान चले

उन्मादित करके प्राण चले

जो धरती नंगे पांव चले

वो तपती भूमि नाप चले

पथ के काँटों को बाँच चले

नदिया पर्वत कर पार चले

वो रेगिस्तान पठार चले

वो बिना किसी भी हार चले

जो धरती नंगे पांव चले

वो हरेक क्षितिज को लांघ चले

वो जैसे सूरज चाँद चले

वो अथक निरंतर काल चले

वो कंकड़ पत्थर ताल चले

बस सीधी अपनी चाल चले

जो धरती नंगे पांव चले

जिस राह चला कोई और

वो अनजानी उस ठौर चले

जहां संगी साथी कोई नहीं

वो एकाकी बस ठान चले

सर उठा सहित सम्मान चले

वो शहर नहीं, हर गाँव चले

जो धरती नंगे पांव चले

जो धरती नंगे पांव चले


(Written by: Arisudan Yadav, 2021)

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कविता की पृष्ठभूमि

इस कविता की प्रेरणा कहाँ से आई? अभी हाल ही में पद्मश्री और पद्म-भूषण पुरस्कार की तस्वीरें देखी - पहली जो थी वो देखते ही दृष्टि ठहर गई और ये शब्द मन में कौंध उठे - "जो धरती नंगे पाँव चले" - ये तस्वीरें देखिए...

पहली और आखिरी तस्वीर है तुलसी गौड़ा की, दूसरी है नंदा प्रुस्टी की, और तीसरी हरेकला हजब्बा की। तीनों तस्वीरों में एक समानता है - नंगे पाँव

ये शायद पद्म पुरस्कारों के इतिहास में पहला ऐसा अवसर है। तीनों बहुत ही सामान्य, गरीब घरों से आए हुए लोग हैं, ज़मीन से जुड़े हुए - जिन्होंने किसी न किसी बात से प्रेरित हो के जीवन में लक्ष्य निर्धारित किये और बस निकल पड़े अपने अभियान पर - न ये सोचा कि साधन संसाधन कहाँ से आएंगे, श्रम, सहारा कहाँ मिलेगा - कुछ नहीं! ना गठरी, न लकड़ी, न पैरों में चप्पल जूते - बस मतवाले निकल पड़े! नंगे पाँव ही चल पड़े।

72 साल की तुलसी कर्नाटक के होनाली गाँव की निवासी हैं – कभी स्कूल नहीं जा पाई लेकिन छोटी उम्र से ही अपनी माँ के साथ जंगलों में काम करते हुए पेड़ पौधों और वनस्पति का इतना ज्ञान इकट्ठा कर लिया कि उन्हें 'इनसाइक्लोपीडिया ऑफ फॉरेस्ट' के नाम से जाना जाता है। सादगी की ऐसी जीती जागती मूरत कि वो पद्म सम्‍मान लेने के लिए भी अपने पारंपरिक आदिवासी लिबास में ही राष्‍ट्रपति भवन पहुंचीं – तस्वीर में देखा जा सकता है के कैसे देश के दो सबसे शक्तिशाली नेता नरेंद्र मोदी और अमित शाह हाथ जोड़ कर इस आदिवासी लिबास में लिपटी, नंगे पाँव चलती, आदिवासी महिला को नमस्कार कर रहे हैं। पेड़ पौधों से अपने लगाव के चलते वो अब तक 30,000 से ज्यादा पेड़ पौधे लगा चुकी हैं – कभी Greta Thunberg मिलें तो उनसे पूछते हैं उन्होंने कितने लगाए लेकिन शायद जवाब आएगा – How dare you?

खैर, अगली तस्वीर है टोपी वाले बाबा नंदा प्रुस्टी की – 102 साल के ये बाबा पिछले सात दशक में कितने हज़ारों बच्चों और बुजुर्गों को शिक्षा दे चुके हैं। नंदा सर ओडिशा के जाजपुर जिले के रहने वाले हैं। आर्थिक तंगी के कारण खुद 7 वीं कक्षा से आगे नहीं पढ़ पाए, लेकिन रोज सुबह अपने आसपास के बच्चों को पेड़ के नीचे पढ़ाते हैं, और शाम को बुजुर्गों को। ये एक गैर पारंपरिक स्कूल है जिसे ओडिशा में चटशाली परंपरा के नाम से जाना जाता है। फोटो में देखा जा सकता है कैसे नंदा सर महामहिम राष्ट्रपति को दोनों हाथ उठाकर आशीष दे रहे हैं और खुद नंगे पाँव खड़े हैं।

अगली तस्वीर है 66 साल के हरेकला हजब्बा की - ये भी कर्नाटक के रहने वाले हैं – संतरे बेचते थे, खुद अशिक्षित हैं, कभी स्कूल नहीं गए। 1978 में जब एक विदेशी ने उनसे अंग्रेजी में संतरे की कीमत पूछी और वो नहीं बता पाए – तब जो उन्हें बुरा लगा, वहीं से निश्चय कर लिया ग्रामीण शिक्षा के क्षेत्र में कुछ करने का – और अगले कई साल मेहनत करके अपने गाँव में एक स्कूल खड़ा कर दिया जिसमें 10 वीं तक की पढ़ाई होती है और करीब 175 बच्चे शिक्षा पाते हैं – मगर मेहनत करने वालों की यात्रा कहाँ रुकती है - हरेकला हजब्बा का अगला लक्ष्य है एक कॉलेज की स्थापना। फिलहाल राष्ट्रपति के सामने खड़े इस “अक्षर संत” की वेशभूषा देखिए – भारत के किसी भी देहात का गरीब ग्रामीण जैसा दिखता है, ये वैसे ही दिखते हैं – बेहद ही साधारण – और पैर? नंगे पाँव।

आशा है ये कविता आपको पसंद आई होगी है – आपके विचार अवश्य बताएँ – आप मुझसे जुड़ सकते हैं नोट्स में दिए लिंक्स पर। मिलते हैं अगले अंक में एक और कविता कहानी के साथ – तब तक – प्रसन्न रहें, स्वस्थ रहें, सुरक्षति रहें, चाय कॉफी पीते रहें...


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