कनुप्रिया

राधा कृष्ण का प्रणय और धर्मवीर भारती की अद्भुत लेखनी

कनुप्रिया - कविता और कहानी

एक सीधी सरल कविता

राधा और कृष्ण की कहानी में कई पहलू कई रंग देखने को मिलते हैं – जहां संशय नहीं है, तन्मयता है, जिज्ञासा है, लेकिन निराशा नहीं – बस प्रेम है और प्रेम के अनेकोनेक रंग – धर्मवीर भारती की कविता कनुप्रिया उसी प्रणय और विरह की कहानी कहती है। कनु हैं कान्हा – और कनु की प्रिया है – राधा।

धर्मवीर भारती ने मीठी, सरल हिन्दी में जिस तरह कहा है लगता है, सावन ऋतु है, और नाचते मयूर अपने मोर पंखी रंग बिखर रहे हैं, कान्हा की मुरली की धुन हवा में तरंगित हो रही है। जहां राधा कृष्ण के परिणय में सुबह की ओस का नरम गुलाबी एहसास है, वहीं जब कवि राधा की ओर से कान्हा से शिकायत करते हैं तो लगता है जैसे सर्दी की धूप छत चढ़ के चटक हो गई है। यहाँ दर्द भी है और दर्द की मिठास की – बदलती चंद्र-कलाओं जैसे भावनाओं का उतार-चढ़ाव भी है – यहाँ मिलन भी है, प्रणय भी है और विरह भी।

राधा कृष्ण की कहानी में मोर पंख जैसे कई रंग हैं, और धर्मवीर भारती उन रंगों से एक लुभावना चित्र खींच देते हैं। इस प्रेम में मिलावट की कोई गुंजाइश नहीं है, जितनी पवित्रता इस प्रेम में है, उतनी ही निर्मलता और सुंदरता कनुप्रिया की कविताओं में मिलती है। ये कविता है पाँच खंडों में –

पूर्वराग और मंजरी परिणय – जो प्रणय के अलग-अलग आयाम हैं – सृष्टि संकल्प में समस्त जग की बात है और कविता प्रकृति के प्रतीकों में जीवंत होती है। जहां राधा कृष्ण से प्रश्न करती चलती है – वहीं कई उत्तर भी देती जाती है। और एक भय जो है भी और नहीं भी। आखिरी दो खंड – इतिहास और समापन, जहां महाभारत काल इतिहास का निर्माण करते हुए कृष्ण और कृष्ण के शासक और कूटनीतिज्ञ रूप को कनुप्रिया की दृष्टि से देखना एक अलग ही अनुभव है।

धर्मवीर भारती के शब्दों में –

"राधा आज उसी अशोक वृक्ष के नीचे, उन्हीं मंजरियों से अपनी कंवारी मांग भरे खड़ी है इस प्रतीक्षा में कि जब महाभारत की अवसान वेला में अपनी अठारह अक्षोहिणी सेना के विनाश के बाद निरीह, एकाकी और आकुल कृष्ण किसी भूले हुए आँचल की छाया में विश्राम पाने लौटेंगे तो वह उन्हें अपने वक्ष में शिशु सा लपेट लेगी।"

धर्मवीर भारती का यह खंडकाव्य मानवीय अनुभूतियों की एक ऐसी कविताई अभिव्यक्ति है जहां शब्दों के झरनों से जैसे मधुरता की एक नैसर्गिक धारा प्रवाहित होती रहती है। तो चलिए कुछ समय बिताते हैं इस धारा के प्रहाव में और सुनते हैं कनुप्रिया का पहला हिस्सा – पूर्व राग.


पूर्वराग के पाँच गीत

पहला गीत - राधा की किशोरावस्था के भावुक मन का अंतर्द्वंद्व है कि कृष्ण अशोक वृक्ष के रूप में खड़े हैं राधा की प्रतीक्षा में लेकिन ये कहते नहीं – यहाँ अशोक का सुंदर सुदृढ़ तने वाला और मुलायम छाया वाला वृक्ष प्रतीक है कृष्ण का।

दूसरा गीत – कहाँ तो कृष्ण अशोक वृक्ष जैसे तटस्थ खड़े थे और यहाँ राधा कहती हैं कि कृष्ण, गहरे अंधेरे में भी मुझे तुम से लाज आती थी – जबकि तुम तो मुझ ही में छिपे बैठे थे, मेरी ही प्रतीक्षा में, हमारे मिलन की प्रतीक्षा में

तीसरा गीत – राधा कृष्ण का प्रणय हो, यमुना ही और कदंब का पेड़ न हो? यहाँ राधा शिकायत करती हैं कि कृष्ण जब तुम कदंब के पेड़ के नीचे ध्यानमग्न थे और मैंने तुम्हें वनदेवता समझ प्रणाम किया – तुम ऐसे ही अडिग खड़े रहे, वीतराग (बैरागी, सन्यासी) से, निर्लिप्त। तुम्हारी अस्वीकृति से कुपित होकर मैंने तुम्हें प्रणाम करना ही छोड़ दिया। मुझे क्या मालूम था कि तुम्हारी उस अस्वीकृति में ही एक अटूट बंधन था जो मेरे सम्पूर्ण अस्तित्व को प्रेम-पक्ष में बांध लेगा – इतने वीतराग दिखते हुए भी तुम तो ‘सम्पूर्ण के लोभी’ निकले। कृष्ण जो मांगते हैं, संपूर्णता में मांगते हैं!

चौथा गीत – यहाँ राधा कहती हैं कि कृष्ण तो सदा ही उसके चारों और उपस्थित हैं। यमुना कृष्ण के प्रतीक में हैं और जब राधा यमुना में उतरती हैं तो चारों और फैली यमुना के जल की साँवली गहराई मानों कृष्ण की अपार बाहों का आलिंगन है।

पाँचवाँ गीत – भावनाओं की रस्साकशी! राधा खुद ही से सवाल करती हैं की कृष्ण के पास से लौट क्यूँ आई, और कृष्ण को उलाहना देती हैं कि जब वो आना नहीं चाहती तो बाँसुरी के आलाप से खींच लेते हो, और जब कृष्ण के पास से लौटना नहीं चाहती तो सम्पूर्ण बना के लौटा देते हो।

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मंजरी परिणय – आम्र बौर का गीत

आम्र बौर होता है जब आम के वृक्ष पर फूल से कच्चा आम बन रहा होता है, उसकी खटास भरी महक मधु ऋतु का एहसास देती है। यहाँ दृश्य है आम्र बौर का - राधा अपने मन की परतें खोलती हुई कितने ही भावों की बातें करती हैं – भय संशय गोपन उदासी – और कवि कितनी मधुरता से ये चित्र रचते हैं – कि राधा के ये भाव उनकी चंचल सहेलियों की तरह उसे घेरे रहते हैं! या ये कहना कि “लज्जा मात्र शरीर की नहीं होती, मन की भी होती है!” कितनी कोमल भावना को कवि ने इतने सरल शब्दों से सजीव कर दिया है!

या ये भाव - एक निर्व्याख्या (जिसकी व्याख्या नहीं की जा सकती) उदासी जो चरम सुख के क्षणों में भी उसे अभिभूत कर देती है! कितना कठिन भाव, कितने सरल शब्दों में – जैसे पथरीले पहाड़ों में बहती नदी की कोमल सी धारा! और कितने सुंदर प्रतीक हैं – जैसे आम्र मंजरी का चूर चूर होके पगडण्डी पर बिखरना जैसे एक कुंवारी उजली माँग भरी जा रही हो और प्रेम के, प्रतीक्षा के ये रास्ते कभी इतने कठिन लगते हैं के पगडण्डी पर बिखरे आम्र मंजरी के कण भी काँटों और कंकरों की तरह पाँवों में चुभते हैं। और इस प्रतीक्षा के अन्त में क्या है – कृष्ण की चंदन बाहों में भरकर बेसुध हो जाना!

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मंजरी परिणय – आम्र बौर का अर्थ

पिछले अंक में जहां आम्र मंजरियों के सानिध्य में प्रणय था, यहाँ राधा आम्र बौर के संकेत समझ रही हैं – प्रकृति का हरेक प्रतीक मानो कृष्ण के राधा तक पहुँचने की पगडंडियाँ मात्र हैं। कृष्ण ने आम्र बौर से राधा की माँग भर दी थी और उस माँग को भी पगडण्डी कहा था। राधा कहती हैं के मैं आम्र मंजरियों की जो लिपि है, उसका अर्थ नहीं समझ पायी – जो इस प्रेम में दर्द है, उसके शब्दों का अर्थ भी नहीं समझ पायी। राधा इस परत को उठाते हुए कहती हैं कि कृष्ण का प्रेम और उस प्रेम की पद्धति सारे संसार से जुदा है – यहाँ कृष्ण जो सम्पूर्ण के लोभी हैं, वो सम्पूर्ण करके भी रिक्त कर देते हैं और राधा इस कविता के आखिर में कहती हैं – कि कृष्ण का प्यार ऐसा अजीब है जो पूरी तरह मुक्त करके भी बांध लेता है और पूरी तरह बांध कर भी मुक्त कर देता है।

मंजरी परिणय – तुम मेरे कौन हो

मैं इसे सबसे सुंदर कविताओं में सम्मिलित करना चाहूँगा। राधा स्वयं से और कृष्ण से सीधा प्रश्न करती हैं कि कृष्ण राधा का कौन है? राधा का मन, राधा की सखियाँ, राधा के गुरुजन पूछते हैं कि कान्हा आखिर तेरा है कौन, ये कनु तेरा है कौन री? कृष्ण कभी राधा के आराध्य, लक्ष्य या गंतव्य बन जाते हैं, और कभी सखा, बन्धु, रक्षक जो राधा के लिए कंटीले झाड़ों में चढ़ जाते हैं, और जो कृष्ण सारे वृंदावन को जलप्रलय से बचाने की सामर्थ्य रखता है, बारिश में भीगता शिशु बनकर राधा के आँचल में दुबक जाता है! राधा स्वयं के लिए भी सवाल करती हैं कि वो कृष्ण की क्या है – सखी, साधिका, सहचरी, बांधवी, माँ, वधू, या फिर वो शक्ति जिसके बूते कृष्ण ने इन्द्र को ललकार दिया था!

कवि भारती इस रहस्य को इतनी सुंदरता से लिखते हैं जहां राधा कहती हैं कि वो तो कृष्ण की अनंत यात्रा की सहयात्री हैं – जिस यात्रा का आरंभ न कृष्ण को स्मरण है न राधा को – और अन्त तो इस यात्रा का है ही नहीं!

सृष्टि संकल्प – सृजन संगिनी

पिछले अंक में हमने समाप्त किया था कनुप्रिया का दूसरा खंड - मंजरी परिणय और मंजरी परिणय की आखिरी कविता में, जिसका शीर्षक है – तुम मेरे कौन हो – राधा कृष्ण से और स्वयं से भी ये सवाल करती हैं की आखिर कृष्ण उसके हैं कौन, और वो कृष्ण की कौन है – क्या वो सखा है, बंधु हैं, आराध्य, सहचर या राधा है उनकी सखी, साधिका, माँ, वधू, सहचरी – आखिर हैं क्या? क्या इस रिश्ते की शब्दों में व्याख्या हो सकती है! एक ओर तो कृष्ण वो हैं जिन्होंने गोवर्धन पर्वत को उंगली पर उठा लिया था – और एक तरफ वही कृष्ण अबोध बालक जैसे राधा के आँचल में दुबक जाना चाहते हैं।

जैसे-जैसे ये कविता आगे बढ़ती है वहीं ये मानव के और विशेषकर नारी के अंतर्मन में झाँकने के लिए और गहराई में उतरती जाती है, वहीं प्रणय के अनुभव, संवेदनाएं, पीड़ा, मधुर प्रेम और एक अप्रतिम सौन्दर्य, जैसे हर खुलती परत के साथ और निखरते जा रहे हैं। ये राधा कृष्ण की वो यात्रा है, जिसका प्रारंभ किसी को याद नहीं, और अन्त तो इस यात्रा का है ही नहीं! तो चलिए हम भी राधा कृष्ण के साथ इस यात्रा पर चलते हैं – और सुनते हैं कनुप्रिया के तीसरे खंड सृष्टि संकल्प की पहली कविता – सृजन संगिनी


सृष्टि संकल्प – आदिम भय

पिछले अंक में हमने सुना था सृजन संगिनी – जहां राधा कृष्ण से पूछती हैं के क्या तुम्हारे अस्तित्व में ही सारी सृष्टि सारा सृजन नहीं छुपा है, जो तुम्हारी इच्छा तुम्हारे संकल्प पर आधारित नहीं है? और क्या तुम्हारी इच्छा, तुम्हारा संकल्प मैं नहीं हूँ – इस कविता में सृष्टि और प्रकृति के प्रतीकों का राधा कृष्ण के प्रणय में कितना सुंदर समागम है। इस प्रणय की अगली परत खोलकर देखें तो पता लगता है - राधा के मन की कोमलतम भावनाओं में एक अनजाना सा भय भी छिपा है – जो धर्मवीर भारती की कविताई अभिव्यक्ति में ऐसे बहता है जैसे पहाड़ों से मधुरता की एक नैसर्गिक धारा बह रही हो! तो चलिए, सुनते हैं सृष्टि संकल्प की दूसरी– आदिम भय।

आदिम भय कविता में राधा कृष्ण की रची सृष्टि या प्रकृति के हर प्रतीक में स्वयं को पाती हैं और कहती हैं कि यदि इन सब में मैं ही हूँ तो फिर मुझे भय किस बात का है? ये हिमशिखर, झरने, महासागर, चंद्रमा, ये समस्त ब्रह्मांड मेरे ही हैं, जब वह आकाशगंगा मेरी ही माँग है, तो भय किस बात का है? यदि इस तमाम सृष्टि में राधा और कृष्ण के अतिरिक्त कोई और है ही नहीं तो उन्हें किस बात का भय लगता है?


सृष्टि संकल्प – केलिसखी

कनुप्रिया में भारती राधा के मन की कोमल भावनाओं को शब्दों में ऐसे जीवंत कर देते हैं जैसे सुबह की पहली धूप पौधों पर पड़े और फूलों की पंखुड़ियाँ अपने आप मुस्कुरा के खिलने लगें। राधा एक सामान्य नारी भी हैं, एक प्रेमिका भी, और उस कृष्ण की शक्ति भी जिसने अपने एक इशारे पर समस्त महाभारत रच दी – जहां राधा के मन की उहापोह नारी के अनेक रूपों का मिश्रण है – वहीं उसका समर्पण हर संदेह से परे!

कृष्ण इतने शक्तिशाली होते हुए भी मानव के अवतार में एक मानव की ही तरह भावनाओं का अनुभव करते दिखते हैं। अपनी दुर्बलता की घड़ी में वो राधा के आँचल का सहारा लेते हैं। कृष्ण स्वयं भी सम्पूर्ण हैं हैं – चाहे जीतने ही निर्लिप्त दिखाई दें, या वीतराग दिखाई दें – अपनी संपूर्णता के लिए वो अपनी शक्ति, अपनी चेतन, अपनी ज्योति, अपने प्रकाश पुंज, अपनी संगिनी, अपनी सखी, अपनी केलिसखी – राधा पर ही निर्भर होते हैं। यहाँ नर और नारी का एक दूसरे का पूरक होना कितनी सहजता से दिखाया गया है।


इतिहास

राधा के अंतर्मन की परतें चंद्र कलाओं जैसे खुलती जाती हैं। कनु चला गया है, और कनुप्रिया राधा एक बार फिर अकेली रह गई – और उसका मन – कृष्ण पक्ष के क्षीण होते चाँद जैसा। यहाँ अपनी पीड़ा में राधा प्रश्न उठा रही है – अपने अस्तित्व पर ही! यहाँ एक तीव्र पीड़ा भी है, आक्रोश भी – और धर्मवीर भारती ने इसमें भी मधुरता और नैसर्गिक सौन्दर्य की धारा वैसे ही बहा दी है जैसे विकराल चट्टानों के बीच से बहता पानी।

महाभारत की घटनाओं की कहानी तो हम बहुत पढ़ते हैं, किंतु ये कहानी महाभारत से कहीं दूर के पहलुओं को छू जाती है – महाभारत के सूत्रधार कृष्ण और उनकी शक्ति राधा – और उनके प्रणय के अलग-अलग आयाम! यहाँ कवि के शब्द मानव के अंतर्मन में हो रहे तर्क वितर्क का एक मधुर कोलाहल उठा रहे हैं, वो कुछ अनुभव और अनुभूतियाँ जो तर्क की सीमाओं से भी आगे हैं!


समापन

विनोद तिवारी कनुप्रिया पर अपने लेख में कहते हैं -

"यह सँदेश है कनुप्रिया का मानवता को - देवत्व के साथ मानवता की अनिवार्यता। अब कनुप्रिया की भावनाओं की गाथा प्रणय के उस आयाम में पहुँच गई है जहाँ अतीत, भविष्य, विरह, मिलन सभी वर्तमान बन गए हैं - एक शाश्वत वर्तमान। भावनाओं के आवेग के परे उसकी आवाज़ में आत्म-विश्वास है, ठहराव है - जन्मान्तरों की अनन्त पगडण्डी के कठिनतम मोड़ पर खड़ी हो - ऐसा लगता है उसकी वाणी अन्तरिक्ष से ही आ रही है। वास्तव में राधा तो स्वयं शक्ति है। उसी की चेतना में कृष्ण का प्रादुर्भाव हुआ है। उसी की चेतना में कृष्ण की रास लीला हुई और चिर मिलन और चिर विरह की आध्यात्मिक गाथा बन गई - कनुप्रिया।" (Kaavyaalaya.org)

इस कविता को नारी के मन की व्याख्या भी कैसे कहें जब ये कविता स्वयं कहती है कि वो निरव्याख्या है! और जो निरव्याख्या है उसे क्या केवल पाँच खंडों में सीमित किया जा सकता है - मेरे विचार में कतई नहीं, जो असीमित है, उसकी सीमा कैसे निर्धारित की जाए? इस यात्रा का आरंभ किसी को मालूम नहीं है, और अन्त – अन्त तो इस यात्रा का है ही नहीं!


कविता में प्रयोग हुए कुछ कठिन शब्दों के अर्थ:

कनुप्रिया = कनु हैं कृष्ण और कनुप्रिया कृष्ण की प्प्रिया | वीतराग = बैरागी, सन्यासी | विप्रलब्धा = धोखा खाई हुई, cheated | आश्लेष = आलिंगन | म्लान = मुर्झाया | गुंजलक = साँप का घेरा | आवर्त = लपेट | अलकों = बाल | छौना = बच्चा | शेषशय्या = बिस्तर | विक्षुब्ध = परेशान | सिवार = पानी के भीतर घास, seaweed | जीर्णवसन = फटा कपड़ा


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